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पर्वतीय क्षेत्रों के किसान कर रहे पलायन, दोगुनी आय है दूर की कौड़ी
सवाल है कि उत्तराखंड में किसानों की आय दोगुनी कैसे होगी। जब पर्वतीय क्षेत्रों के किसान कृषि छोड़ रहे हैं। आंकड़ें भविष्य की डरावनी तस्वीर दर्शाते हैं।
वर्षा सिंह
17 Dec 2018
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: uttaranjan.com

केंद्र और राज्य, दोनों सरकारों का लक्ष्य या दावा वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करना है। काग़ज़ों में, और नेताओं की बातों में, किसानों को ध्यान में रखकर बहुत सारी योजनाएं चल रही हैं। लेकिन धरातल पर तस्वीर बिलकुल उलट बन रही है। सवाल है कि उत्तराखंड में किसानों की आय दोगुनी कैसे होगी। जब पर्वतीय क्षेत्रों के किसान कृषि छोड़ रहे हैं। आंकड़ें भविष्य की डरावनी तस्वीर दर्शाते हैं।

उत्तराखंड में पर्वतीय क्षेत्र के किसान खेती से दूर हो रहे हैं। इसकी कई वजहें हैं। पर्वतीय क्षेत्र के किसानों के पास ज़मीन बहुत कम है। इसलिए सरकार की योजनाओं का लाभ भी इन्हें नहीं मिल पाता। जबकि मैदानी क्षेत्र के किसानों को सरकार की योजनाओं का काफी फायदा मिलता है। यही वजह है कि राज्य गठन के बाद से अब तक बड़ी संख्या में किसानों ने पलायन किया है। इनमें सबसे अधिक अल्मोड़ा (36,401), इसके बाद पौड़ी (35,654), टिहरी (33,689), पिथौरागढ़ (22,936), देहरादून (20,625), चमोली (18,536), नैनीताल (15,075), उत्तरकाशी (11,710), चंपावत (11,281), रुद्रप्रयाग (10,970) और बागेश्वर (10,073) किसान हैं। यहां किसानों के पास अधिकतम कृषि भूमि दो हेक्टेअर क्षेत्र में है। उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र के किसानों की तुलना में ये बेहद कम है।

अखिल भारतीय किसान महासभा के मुताबिक वर्ष 2016-17 में पर्वतीय क्षेत्रों में मात्र 20 फीसदी कृषि भूमि थी, बाकी या तो बंजर छोड़ दी गई या फिर कमर्शियल उद्देश्यों के चलते बेच दी गई। महासभा का मानना था कि जंगली जानवरों द्वारा फसलों को नुकसान पहुंचाना एक बड़ी समस्या है। राज्य में मात्र 7,84,117 हेक्टअर क्षेत्र में कृषि उत्पादन होता है। जबकि राज्य की 90 फीसदी आबादी आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर करती है। इसमें भी सिर्फ 12 फीसद ज़मीन की सिंचाई की जाती है, बाकी के लिए आसमान के बादलों पर टकटकी लगी रहती है।

उत्तराखंड में चार किसानों ने बैंक का कर्ज़ न चुका पाने और कर्ज़ में डूबकर आत्महत्या भी की है। उनकी उम्र चालीस वर्ष से कम थी। नैनीताल के सामाजिक कार्यकर्ता रघुवर दत्त कहते हैं कि खेती की खातिर लिए गये कर्ज़ पर बैंक ब्याज़ दर अधिकतम रखते हैं। यानी राज्य सरकार द्वारा सस्ते कृषि ऋण का दावा हवा-हवाई है। किसानों को उनकी उपज का सही दाम नहीं मिल पाता। उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य की अहमियत नहीं पता। किसानों की समस्याओं के प्रति सरकारी अधिकारियों का रवैया बेहद रुखा है। ये सारी वजहें किसानों को खेती से दूर कर रही हैं।

पर्वतीय क्षेत्र के किसानों की एक पूरी पीढ़ी, जिसने खेती-बाड़ी को जीवन का आधार बनाया, कमर तोड़ मेहनत के बावजूद खेती उनके लिए घाटे का सौदा रही। राज्य गठन के बाद अठारह वर्षों में कृषि  भूमि का क्षेत्रफल करीब 15 फीसदी घटा है। राज्य गठन के वक्त उत्तराखंड में कृषि का क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेयर था, जो अब 6.98 लाख हेक्टेयर पर आ गया है। यानी पिछले 18 सालों में 72 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि बंजर में तब्दील हुई है।

हालांकि पूरे देश में खेती और किसान दोनों ही घटे हैं। लेखक सौमित्रो चटर्जी के चर्चित लेख “सिक्स पज़ल इन इंडियन एग्रीकल्चर” के मुताबिक वर्ष 1950 में कृषि क्षेत्र का जीडीपी में पचास फीसदी से अधिक का योगदान था और देश की अधिकांश आबादी खेती से जुड़ी थी। तब से वर्ष 2011 तक जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा दो-तिहाई से अधिक घटा है, जबकि किसानों की संख्या करीब-करीब पचास फीसदी तक कम हुई है।

उत्तराखंड के संदर्भ में देखें तो यहां किसानों की आय बेहद कम है। राज्य बनने के बाद से अब तक यहां चकबंदी नहीं की गई। जिससे किसानों की छोटी-छोटी जोत भी बिखरी हुई है। किसानों की समस्याओं को सुलझाने के लिए किसान आयोग नहीं बनाया गया। किसानों को उनकी उपज का उचित दाम नहीं मिलता। पर्वतीय क्षेत्रों में मंडियां नहीं हैं, जिससे किसानों को अपनी उपज बेचने में भी दिक्कत आती है।

पर्वतीय क्षेत्रों से किसान पलायन क्यों कर रहे हैं, इस पर कुछ लोगों से बातचीत के अंश:

पौड़ी निवासी शशिधर बंदूनी कहते हैं कि खेती छोड़ने के बहुत से कारण हैं। बहुत से लोग देखा-देखी अपनी परंपरागत खेती छोड़ रहे हैं। पहाड़ों में जंगली सूअर, बंदर, लंगूर ने भी फसल बर्बाद कर बहुत मुश्किल पैदा कर दी है। युवा बेहतर जीवन और रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। गांव में अब बुजुर्ग ही रह गये हैं, जो खेती करने में अक्षम हैं।

रिखणीखाल के देवेश कहते हैं कि आज आजीविका के बहुत से विकल्प मौजूद हैं, कृषि क्षेत्र लाभकारी नहीं रह गया है। जंगली जानवरों से फसलों के नुकसान का देवेश एक बहुत उम्दा उदाहरण देते हैं। वे बताते हैं कि रखणीखाल के तिमल सैंण गांव में पहले बंदरों ने बागवानी को बहुत नुकसान पहुंचाया। लेकिन उस गांव में एक बुजुर्ग हैं जो वर्ष 1973 से फलदार पेड़ लगा रहे हैं। गांव के बाहर उन्होंने करीब दो हजार फलदार पेड़ लगाये। इसलिए अब बंदर या दूसरे जानवर गांव में नहीं आते। क्योंकि उन्हें गांव के बाहर खाने को मिल जाता है और वहां बंदरों का आतंक नहीं है।

पर्वतीय क्षेत्र के निवासी जयवीर सिंह नेगी कहते हैं कि अब लोग मुश्किल हालात में रहना नहीं चाहते। जो लोग किसी तरह कृषि से जुड़े हैं, उन्हें जरूरी सहयोग नहीं मिल पा रहा है।

गीतेश सिंह नेगी कहते हैं कि अब हमारी पीढ़ी ने सुलभ अप्रोच को अपना लिया है। अच्छा-पढ़ लिखकर कहीं बाहर सेटल हो जाना, हमारी सोच में शामिल हो गया है। लेकिन अब भी कुछ लोग हैं जो बाहर की दुनिया छोड़ कर वापस गांव लौट रहे हैं।

पौड़ी की ज़िला पंचायत अध्यक्ष दीप्ति रावत कहती हैं कि तमाम समस्याओं के बीच पर्वतीय क्षेत्र में देखा-देखी पलायन की होड़ छिड़ गई है। गांव में खेती-पशुपालन और कुटीर उद्योग जैसे रोजगार के साधन ही उपलब्ध हैं। उससे बहुत ज्यादा आमदनी नहीं होती। दीप्ति कहती हैं कि पौड़ी के उन गांवों से लोगों ने अधिक पलायन किया है, जहां सड़कें पहुंची हैं, यानी सुविधाएं जहां मिली हैं, वहीं से ज्यादा पलायन हुआ है।

दीप्ति कहती हैं कि केदारनाथ घाटी जैसे दुर्गम पहाड़ी इलाके में लोग रह रहे हैं क्योंकि उन्हें यात्रा सीजन में अच्छा रोजगार मिल जाता है। इतनी आपदा झेलने के बाद भी वहां लोग अपने घर नहीं छोड़ रहे।

लेकिन जहां रोजगार नहीं मिल रहा, कृषि घाटे का सौदा है तो नौजवान अपने खेत बंजर छोड़, नौकरी की तलाश में शहर को निकल रहे हैं।

नोएडा में नौकरी छोड़ गांव वापस लौटे प्रगतिशील किसान सुधीर सुंद्रियाल कहते हैं कि पहाड़ों में प्राकृतिक संसाधन बहुत ज्यादा हैं, जो रोजगार के बड़े स्रोत बन सकते हैं। लेकिन हमें इसकी जानकारी नहीं है और नहीं कुछ नए प्रयोग करने की ललक है। जल, जंगल, जमीन, जड़ी-बूटी, पर्यटन, सौर और पवन ऊर्जा में पर्वतीय क्षेत्रों में रोजगार की असीम संभावनाएं हैं। खेती-बाड़ी और पशुपालन भी वैज्ञानिक तरीके से नहीं हो रहा है।

हाईकोर्ट ने भी जताई चिंता

उत्तराखंड हाईकोर्ट ने अगस्त महीने में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पर्वतीय क्षेत्र के किसानों की हालत पर चिंता जतायी थी। कोर्ट ने कहा है कि किसानों का पलायन चिंताजनक है। इसलिए अब उत्तराखंड के किसानों के अधिकारों को मान्यता देते हुए पूरी प्रक्रिया को उलट देना चाहिए। कोर्ट में किसानों के ज़मीन के हस्तांतरण के अधिकार को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता रघुवर दत्त ने जनहित याचिका दायर की थी।

जिस पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया है कि गवरमेंट ग्रांट एक्ट-1985 के तहत छह महीने के भीतर पर्वतीय क्षेत्रों में कब्जेदार किसानों को पट्टे आवंटित किये जाएं। ताकि उन्हें उनकी ज़मीन पर अधिकार हासिल हो सकें।

सामाजिक कार्यकर्ता रघुवर दत्त ने अपनी याचिका में कहा है कि पर्वतीय क्षेत्रों में किसानों को भूमिधर का दर्जा नहीं हासिल है, न ही उन्हें ज़मीन हस्तांतरण का अधिकार है, जबकि उन्हें वर्ष 1956 से पहले से अपनी ज़मीनों पर कब्जा मिला हुआ है।

इसके जवाब में राज्य के कृषि मंत्री सुबोध उनियाल कहते हैं कि उत्तराखंड में वर्ष 1994 से जमीनों को रेग्यूलराइज़ेशन बंद है। हालांकि तब तक ज्यादातर किसानों को भूमिधर का दर्जा मिल चुका था। जो लोग बाकी रह गये हैं, हाईकोर्ट के आदेश के बाद सरकार उनकी ज़मीनों को रेग्यूलराइज़ करने पर विचार कर रही है। कृषि मंत्री कहते हैं कि सरकार से मिले पट्टे को बेचने का अधिकार किसी को नहीं होता है।

सरकार के दावे 

पर्वतीय क्षेत्र में चकबंदी का न होना एक बड़ी समस्या है। बिखरी जोत के चलते भी किसान परेशान होते हैं। कृषि मंत्री सुबोध उनियाल कहते हैं कि पहाड़ के लोगों को लगता है कि चकबंदी का मतलब घेरबाड़ है। यदि हम आज चकबंदी लागू कर दें तो ज्यादातर महिलाएं विरोध में सामने आ जाएंगी, क्योंकि उन्हें चकबंदी की समझ अभी नहीं है। यहां ज्यादातर महिलाएं ही कृषि से जुड़ी हैं।

सुबोध उनियाल का कहना है कि चकबंदी को लेकर कई बैठकें की जा चुकी हैं। फिलहाल हम आंशिक चकबंदी लागू करने की तैयारी कर रहे हैं। यदि गांव के बीस किसान भी तैयार हो जाएं, तो हम वहां चकबंदी करेंगे। इसके अलावा सामूहिक खेती को बढ़ावा देने की भी कोशिश की जा रही है। उनियाल बताते हैं कि वे एक गांव-एक खेत के कॉनसेप्ट पर कार्य कर रहे हैं। कलेक्टिव फार्मिंग को बढ़ावा देने के लिए दो लाख एकड़ कृषि भूमि में परंपरागत ऑर्गेनिक खेती की योजना है। जिसमें 3,900 क्लस्टर बनाये जाएंगे, एक क्लस्टर 20 हेक्टेअर का होगा।

कृषि मंत्री का कहना है कि वे इंटिग्रेटेड मॉर्डन एग्रीकल्चर विलेज की योजना लागू करने पर भी कार्य कर रहे हैं। जिसमें 15 लाख रुपये तक का ऋण कृषि से जुड़े क्षेत्रों के लिए होगा और 10 लाख रुपये तक का ऋण कृषि क्षेत्र के लिए। उनका मानना है कि पशुपालन, मधुमक्खी पालन, मछली पालन जैसे कृषि के सहायक क्षेत्रों के साथ मिलकर किसान खेती करेंगे तो उनकी आय बेहतर होगी। इसके लिए पूरे प्रदेश के 95 ब्लॉक में से हर ब्लॉक में एक गांव लेंगे। ताकि कलेक्टिव फॉर्मिंग के लिए लोग आगे आएं।

सरकारी नीतियों की विफलता

हिमालयी राज्य उत्तराखंड जो कई नदियों का उदगम है, यदि उसके खेत ही बंजर हो रहे हैं, तो जाहिर तौर पर अब तक सरकार की नीतियां ही इसके लिए जिम्मेदार रहीं। राज्य में निवेश लाने के लिए त्रिवेंद्र सरकार उद्योगपतियों को छूट देने को तैयार है, लेकिन अपने किसानों को, उनके खेतों में रोकने के लिए उनके कर्ज़ माफ़ी को तैयार नहीं। जब किसान अपने खेत बंजर छोड़कर राज्य के बाहर जा रहे हैं, तो दोगुनी आय किसकी होगी।

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Trivendra Singh Rawat

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