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कोविड-19
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टीके की इजाज़त के मामले में विज्ञान पर भारी पड़ा फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद
'...तब वैज्ञानिक समुदाय में इतना शोर-शराबा क्यों हो रहा है? शोर-शराबा हो रहा है, इस देश में खड़ी की गयी वैज्ञानिक संस्थाओं को पहुंच रही चोट को लेकर। जब कोई नियमनकारी संस्था, अपने ही तय किए दिशानिर्देशों का उल्लंघन कर किसी टीके का अनुमोदन कर देती है और सिर्फ इसलिए कि संबंधित टीका देसी है, पूरी तरह से भिन्न मानदंड को अपनाती है, तो चिंता को होगी ही।'
प्रबीर पुरकायस्थ
11 Jan 2021
टीके की इजाज़त के मामले में विज्ञान पर भारी पड़ा फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद

कोविड-19 के टीकों के आपात उपयोग के मुद्दे को भारत सरकार ने और नियामक संस्थाओं ने जैसे निपटाया है, चिंताजनक है। इसकी शुरूआत ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका-सीरम इंस्टीट्यूट (ऑक्सफोर्ड-सीआइआइ) के टीके, कोवीशील्ड को आपात उपयोग की इजाजत दिए जाने और भाजपा की सोशल मीडिया की ट्रोल सेना के इस पर हंगामा करने से हुई कि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वाइरालॉजी--आइसीएमआर-भारत बायोटैक (एनआइवी-बीबी) के, देसी टीके, कोवैक्सीन को ऐसी ही इजाजत नहीं दी जा रही थी। उन्होंने इसे अंग्रेज़ी टीके बनाम हिंदुस्तानी टीके का मुद्दा बना दिया। यह टीका राष्ट्रवाद के बदतरीन प्रदर्शन का मामला है और इसमें साक्ष्य-आधारित, वैज्ञानिक समझ के सभी सिद्घांतों को धता बताकर, टीके के कथित राष्ट्रीय मूल के आधार पर फैसले की मांग की जा रही थी। और इस मांग की हरेक आलोचना को, अंग्रेज़परस्त कहकर बदनाम किया जा रहा था। कोई इस भाजपायी ट्रोल सेना से पूछे कि उसका यह ‘राष्ट्रवादी’ जोश तब कहां चला गया था, जब वह घरेलू हिंदुस्तान एअरोनॉटिक्स को छोडकर, सीधे फ्रांस से पूरी तरह से बने-बनाए रफाल विमान खरीदने की, इतने जोर-शोर से पैरवी कर रही थी।

सेंट्रल ड्रग स्टेंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (सीडीएससीओ) ने सत्ताधारी पार्टी के सोशल मीडिया के दबाव के सामने घुटने टेक दिए और कोवैक्सीन के लिए भी आपात उपयोग की इजाज़त दे दी। हालांकि, सीडीएससीओ ने कोवैक्सीन की इजाजत देने के साथ कुछ अतिरिक्त अगर-मगर लगाए हैं, फिर भी यह सच अपनी जगह है कि कोवैक्सीन ने लिए तीसरे चरण के ट्राइल से प्रभावकरता का कोई डॉटा अब तक नहीं दिया गया है और इसके आपात उपयोग की इजाजत देना, साफ तौर पर सीडीएससीओ के ही पहले के रुख का उल्लंघन है, जिसके अनुसार ऐसी किसी इजाजत के लिए, तीसरे चरण के ट्राइल का टीके की प्रभावकरता का डॉटा दिया जाना जरूरी था। वैज्ञानिक समुदाय द्वारा जिसमें अखिल भारतीय जन विज्ञान आंदोलन भी शामिल है, ठीक इसी चीज की आलोचना की जा रही है।

भारतीय वैज्ञानिक समुदाय के बीच दो बातों को लेकर शोर उठा है। इनमें पहली चीज है, पारदर्शिता का पूरी तरह से अभाव। सीडीएससीओ के निर्णयों का आधार क्या है, इस संबंध में कोई भी जानकारी सार्वजनिक नहीं की गयी है। यहां तक कि ऑक्सफोर्ड-एसआइआइ के टीके को इजाजत देने का आधार बनी जानकारियों को भी उजागर नहीं किया गया है। दूसरे, वह यह बता ही नहीं रहा है कि एनआइवी-बीबी के टीके को इजाजत किस आधार पर दी गयी है। इसके अलावा, ‘चिकित्सकीय परीक्षण के मोड में’ ही जन-टीकाकरण में उपयोग की जो अतिरिक्त शर्त लगायी गयी है, उसे भी सीडीएससीओ ने स्पष्टï नहीं किया है। इसी प्रकार उसने यह भी स्पष्टï नहीं किया है कि उसके इस कथन का क्या अर्थ है कि यह निर्णय चरण-1 तथा चरण-2 के ट्राइल के डाटा और ‘चरण-3 के ट्राइलों के सुरक्षा डाटा’ पर आधारित है। सुरक्षा तथा प्रतिरोधकता प्रभावीपन, चरण-1 तथा चरण-2 के ट्राइल में जांचे जाते हैं, जबकि चरण-3 के ट्राइल मुख्यत: प्रभावकरता की जांच के लिए होते हैं। सीडीएससीओ के बयान से साफ है कि चरण-3 के ट्राइल से प्रभावकरता का बहुत ही जरूरी डाटा अभी तक आया ही नहीं है।

हालांकि, भारत में कोविड-19 के केसों की गिनती अब घटती जा रही है, फिर भी यह किसी भी तरह से नहीं कहा जा सकता है कि संकट टल गया है। हर रोज आने वाले नये केसों की संख्या के पैमाने पर भारत अब भी, 10 सबसे ज्यादा कोविड-19 ग्रसित देशों में है। अब जबकि कोविड-19 के और ज्यादा संक्रामक स्ट्रेन यूनाइटेड किंगडम तथा दक्षिण अफ्रीका से आ रहे हैं, इन नये स्ट्रेनों के भारत में फैलने की सूरत में संक्रमणों की एक और लहर आने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। 

बेशक, हमें जन-टीकाकरण कार्यक्रम की जरूरत है, जिसकी शुरूआत स्वास्थ्यकर्मियों से हो और उसके बाद आवश्यक सेवाओं में लगे लोगों को और बुजुर्गों को कवर किया जाए। यह अपने आप में एक बहुत भारी काम है, जिसका अंदाजा अमरीका में तथा अन्य देशों में, टीकाकरण की धीमी रफ्तार तथा उसमें होती गड़बडिय़ों से लगाया जा सकता है। इसके अलावा हमारे देश में भी टीकाविरोधी भी हैं, जिनकी विज्ञान की समझदारी गो-विज्ञान के प्रचार-प्रसार के स्तर की ही है। इसलिए, हमारे देश को किसी एक टीके या किन्हीं टीकों को आगे बढ़ाने की ऐसी अविज्ञान-आधारित कोशिशों की हर्गिज-हर्गिज जरूरत नहीं है, जहां टीके को विज्ञान तथा साक्ष्यों के आधार पर नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर एक भीड़ के उन्माद के जरिए आगे बढ़ाया जा रहा हो।

यहां हम अपनी बात में कुछ पुंछल्ले जोड़ना जरूरी समझते हैं। क्या भारत बायोटैक का टीका सुरक्षित होगा और अच्छी रोग-प्रतिरोधकता पैदा करेगा। ज्यादा संभावना है कि ऐसा ही होगा। चरण-1 तथा चरण-2 के ट्राइल, प्रतिरोधकता प्रभाव तथा सुरक्षितता की ही जांच करते हैं, हालांंकि चरण-3 के मुकाबले ये परीक्षण लोगों की अपेक्षाकृत छोटी संख्या पर किए जाते हैं। बहरहाल, प्रतिरोधकता प्रभाव या प्रतिक्रिया अपने आप में काफी नहीं हैं और हमें इसका पता होना चाहिए कि इस तरह की प्रतिरोधकता प्रतिक्रिया, संक्रमण की संभावनाओं को घटाती है या नहीं? इसीलिए, चरण-3 में द्विभुज ट्राइल किया जाता है। इसके जरिए, जिन लोगों के वास्तविक टीका लगाया जाता है उनके  और जिनके मिथ्या टीका लगाया जाता है, उनके बीच संक्रमण के स्तर के महत्वपूर्ण अंतर को पकड़ा जाता है। ज्यादातर नियमनकर्ता एजेंसियों द्वारा लगायी गयी 50 फीसद प्रभावकरता स्तर की न्यूनतम शर्त का ठीक यही अर्थ है कि टीका लेने वाले लोगों में संक्रमण का स्तर, मिथ्या टीका पाने वालों से आधे से नीचे-नीचे ही होना चाहिए। हाल ही में पांच ऐसे टीकों के आंकड़े आए हैं जो 50 फीसद से काफी से ऊपर प्रभावकरता दिखाते हैं: बायोएनटैक-फाइजर, मॉडर्ना तथा गमालेया, 90 फीसद से ज्यादा, जबकि चीनी साइनोफार्म, 79 फीसद और ऑक्सफोर्ड-एस्ट्रा-जेनेका, 70 फीसद।

क्या इसकी संभावना है कि भारत बायोटैक का टीका भी, ज्यादातर नियामक संस्थाओं द्वारा तय की गयी 50 फीसद से ज्यादा प्रभावकरता की शर्त पूरा करेगा? शायद, हां! यह वास्तव में निष्क्रियकृत वाइरस पर आधारित है यानी टीका बनाने की सबसे पुरानी तकनीक पर आधारित है। टीका पाने वाले शरीर में रोग प्रतिरोधक प्रतिक्रिया को बढ़ाने के लिए, निष्क्रियकृत वाइरस के साथ एडजूवेंटों का, रासायनिक एजेंटों का जोड़ा जाना भी, कोई नयी बात नहीं है। हां! भारत बायोटैक के टीके में जोड़ा गया एक एडजूवेंट नया है, जो एक अमरीकी कंपनी से आया है। जी हां एडजूवेंट अंगरेजी है, वाइरस अंतर्राष्ट्रीय है और सिर्फ उसका निष्क्रियकृत रूप भारतीय है! लेकिन, क्या यह वाइरस सुरक्षित है। पुन:, जवाब है हां, हालांकि कभी-कभी चरण-3 के अपेक्षाकृत बड़े ट्राइलों के दौरान सुरक्षा के ऐसे मुद्दे सामने आ जाते हैं, जो अपेक्षाकृत सीमित स्तर पर किए जाने वाले चरण-1 तथा चरण-2 के परीक्षणों में सामने नहीं आए होते हैं।

तब वैज्ञानिक समुदाय में इतना शोर-शराबा क्यों हो रहा है? शोर-शराबा हो रहा है, इस देश में खड़ी की गयी वैज्ञानिक संस्थाओं को पहुंच रही चोट को लेकर। जब कोई नियमनकारी संस्था, अपने ही तय किए दिशानिर्देशों का उल्लंघन कर किसी टीके का अनुमोदन कर देती है और सिर्फ इसलिए कि संबंधित टीका देसी है, पूरी तरह से भिन्न मानदंड को अपनाती है, तो चिंता को होगी ही। रिकार्ड की खातिर यह भी दर्ज करा दें कि डॉ रेड्डी लैब के गेमालेया के टीके और फाइजर के टीके, दोनों ने सीडीएससीओ से इजाजत के लिए अर्जी दे रखी थी और उन्हें अब तक इजाजत नहीं मिली है, जबकि  उनका दावा कहीं ज्यादा मजबूत था।

सीडीएससीओ द्वारा इन टीकों के लिए दी गयी इजाजत की एक और समस्या यह है कि उसमें विवरण के नाम पर न तो कोई डॉटा प्रकाशित किया गया है और न यह बताया गया है कि संबंधित टीका किस तरह से दिया जाने वाला है। मंत्रालय के ही ‘सूत्रों’ से यह पता चला है कि भारत में भी, टीके की दो खुराकों के बीच अंतराल के मामले में, यूके के नियमनकर्ता द्वारा अपनाए गए रुख का ही अनुसरण किया जाएगा। यूके के नियमनकर्ता ने कहा है कि टीके की दो खूराकें, पहली खूराक के 12 हफ्ते के अंदर-अंदर दे दी जाएं, हालांकि चरण-3 के प्रभावकरता ट्राइल, दोनों खूराकों के बीच इससे कहीं कम अंतराल के साथ किए गए थे। इस संदर्भ में तर्क यह दिया गया है कि टीके की पहली खूराक ही, गंभीर रूप से बीमार पडऩे के खिलाफ पर्याप्त रोगप्रतिरोधकता और सुरक्षा मुहैया कराती है। यूके के अधिकारीगण, इमर्जेंसी मोड में हैं क्योंकि वहां वाइरस के नये वेरिएंट के पाए जाने के बाद से, संक्रमितों की संख्या बहुत ही तेजी से बढ़ रही है और अस्पताल व्यवस्था के ही बैठ जाने का खतरा नजर आ रहा है। बेशक, अमरीकी नियमनकर्ता--एफडीए--भी दबाव में है क्योंकि अमरीका में विभिन्न राज्यों में सक्रमितों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और अमरीका हर रोज आ रहे नये केसों के मामले में अब भी दुनिया भर में सबसे आगे बना हुआ है। फिर भी एफडीए ने कहा है कि जहां तक टीके की पहली और दूसरी खूराक के बीच के अंतराल का सवाल है, वह चरण-3 के ट्राइल के नियम का ही अनुसरण करेगा।

पुन: इस मामले में भी, कोविड-19 से निपटने के मामले में भारत सरकार की अपारदर्शिता ही देखने को मिलती है। इसके संबंध में कोई पारदर्शिता है ही नहीं कि टीके की दो खूराकों के बीच कितना अंतराल रहेगा, टीके का वितरण किस तरह से किया जाएगा, ऐसे कौन से समूह हैं जिन्हें सबसे पहले टीका दिया जाएगा, प्राथमिकताएं किस तरह से तय की जा रही हैं, राज्य सरकारों की भूमिका क्या है, आदि, आदि। यहां भी हम सरकार की इस समझदारी का हम खुला प्रदर्शन देख सकते हैं कि यह महामारी तो सिर्फ एक प्रशासनिक चुनौती है, न कि एक सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती। एक बार फिर शीर्ष से निर्णय लेकर नीचे वालों को अवगत भर कराए जाने का वही रुख अपनाया जा रहा नजर आता है, जो सिर्फ चार घंटे के नोटिस पर एक बहुत ही सख्त लॉकडाउन थोपे जाने की महाविफलता इस देश पर थोप चुका है। सीडीएससीओ द्वारा अपारदर्शी तरीके से दी गयी टीकों की इजाजत भी, मोदी सरकार के सिर्फ शीर्ष द्वारा निर्णय लिए जाने पर आधारित, इस गोपनीयतावादी रुख का ही हिस्सा है। और सिर्फ रिकार्ड के लिए यह भी याद दिला दें कि देश में अब भी दो आपातकालीन कानून लागू हैं- एपीडेमिक प्रिवेंशन एक्ट और डिसास्टर मैनेजमेंट एक्ट।

जो लोग यह समझते थे कि कोविड-19 तो, फ्लू के अन्य संक्रमणों की ही तरह का एक और संक्रमण है और अगर इस संक्रमण को देश की आबादी के बीच पर्याप्त रूप से फैलने दिया जाए तो, देश में खुद ब खुद भीड़ प्रतिरोधकता आ जाएगी, ऐसे लोग बहुत बुरी तरह से गलत साबित हुए हैं। इसी तरह की भीड़ प्रतिरोधकता नीति का पोस्टर चाइल्ड बना रहा स्वीडन, अब पहचान रहा है कि इस तरह के रुख की उसे कितनी कीमत चुकानी पड़ी है। इसी तरह, डाटा उनके साथ भी नहीं है जो यह दलील देते थे कि हमें महामारी बनाम अर्थव्यवस्था में से किसी एक को चुनना पड़ेगा। चीन, कोरिया, वियतनाम जैसे देशों ने महामारी पर काबू भी पाया है और ज्यादा आर्थिक नुकसान भी नहीं उठाया है। दूसरी ओर, जो लोग यह समझते थे कि संक्रमितों तथा मौतों की बढ़ती संख्या की कीमत पर भी अर्थव्यवस्था को चालू रखा जाना ही बेहतर रहेगा, आखिरकार महामारी की बढ़ती मार के सामने अपनी अर्थव्यवस्था के बैठने के ही गवाह बने हैं क्योंकि बढ़ती संख्याओं के साथ, लोगों ने स्वेच्छा से लॉकडाउन लगाने का रास्ता अपनाया है।

इसलिए, टीके ही हमारे लिए सामान्य स्थिति में या कम से कम लगभग सामन्य स्थिति में लौटने का अकेला मौका हैं। इसीलिए, यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि टीके के मामले में और टीके वितरण तथा टीकाकरण के मामले में, हमारे निर्णय एकदम सही हों।

जाहिर है कि दिए जलाने से, थाली-प्लेट बजाने से और जा कोरोना जा के नारे लगाने से, हमारा कोई भला नहीं हुआ। इसके ऊपर से टीका अभियान में गड़बड़ी, हमारा देश नहीं झेल सकता है। लेकिन, जब देश के शासकों का सारा ध्यान देश को बड़ी तेजी से मध्ययुग में धकेलने पर है, लोगों की खान-पान की आदतों पर, महिलाओं के मर्जी से प्यार तथा शादी करने के अधिकार पर हमले करने पर और ‘गो-विज्ञान’ को बढ़ावा देने पर है, असली विज्ञान को तो वैसे ही दबाया जा रहा है। ऐसे में 'राष्ट्रवादी' टीके की भाजपायी सोशल मीडिया की मांगों के सामने सीडीएससीओ का घुटने टेकना, हमारे देश के लिए कोई शुभ लक्षण नहीं है। और इस बुनियादी तौर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती का मुकाबला करने के मामले में मोदी सरकार का अपारदर्शी, शीर्ष से संचालित, तानाशाहीपूर्ण रुख भी, देश के लिए कोई अच्छा लक्षण नहीं है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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