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राजनीति
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बड़े चक्र में गोल-गोल घूम रहा है क्वाड
अब तक क्वाड से बहुत कम हासिल हुआ है। 2,145 शब्दों का साझा वक्तव्य एक बार फिर सामान्य चीज़ों की ही बात करता नज़र आता है।
एम. के. भद्रकुमार
28 Sep 2021
biden

जिस दिन राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पहले क्वाड सम्मेलन का आयोजन किया, ठीक उसी दिन उन्होंने ह्यूवेई टेक्नोलॉजी के एक वरिष्ठ अधिकारी को बीजिंग लौटने का रास्ता साफ़ किया। जैसा न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा, "इस तरह बाइडेन ने दो महाशक्तियों के बीच एक बड़ी तनावपूर्ण चीज को हटा दिया।"

मेंज वांझाउथे को छोड़े जाने की ख़बर ने क्वाड सम्मेलन से ज़्यादा सुर्खियां पाईं। बीजिंग ने तुरंत इस पर प्रतिक्रिया देते हुए पूर्व कनाडाई कूटनीतिज्ञ माइकल कोवरिग और व्यापारी माइकल स्पावॉर को रिहा कर दिया। वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा, "वेंग को हिरासत में लिए जाने के बड़े भूराजनीतिक नतीज़े हुए और बीजिंग व वाशिंगटन और ओटावा के बीच संबंध और भी ज़्यादा कड़वे हो गए थे।"

शायद इस कदम को उठाए जाने से पैदा हुई अच्छी भावनाओं ने क्वाड के साझा वक्तव्य की ख़बर को दबा दिया, जिसमें वाशिंगटन ने माना था कि यह समूह "एक मुक्त और खुले हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए है, जो समावेशी और लचीला है।"

वाशिंगटन द्वारा "समावेशी" शब्द को कहने में की जाने वाली मनाही चीन के लिए थी, शायद अब आया बदलाव यथार्थवाद् का संकेत है। यह शायद आसियान (एसोसिएशन ऑफ़ साउथ ईस्ट एशियन नेशंस) के लिए नया संधि प्रस्ताव है और यूरोप-अमेरिका के मध्य गठबंधन से अमेरिका के हटने से उपजी यूरोपियाई नाराज़गी को कम करने की कोशिश है। 

जैसा वापो ने इसके बारे में लिखा, "ऑस्ट्रेलिया को न्यूक्लियर सबमरीन बेचने की अमेरिकी योजना पर हुए हंगामे की पृष्ठभूमि में यह सम्मेलन हुआ, यहां बाइडेन प्रशासन ने उस विचार को दबाने की कोशिश की, जिसमें कहा जा रहा था कि क्वाड समूह एक नए तरह का परा-प्रशांत सैन्य गठबंधन बन सकता है। इसके बजाए अमेरिका ने इसे "अनौपचारिक" और "असैन्य" बताया। बाइडेन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने उद्बोधन में भी चीन का सीधा नाम नहीं लिया, उन्होंने साफ़ कहा कि वे एक नया शीत युद्ध शुरू नहीं करना चाहते।

चीन को प्रतिसंतुलित करने की कोशिश में क्वाड देशों ने "हिंद-प्रशांत" अवधारणा में बौद्धिक और कूटनीतिक निवेश किया। लेकिन आपसी जुड़ाव की समस्या का अब भी समाधान नहीं हुआ है। ऐतिहासिक तौर पर एशियाई मति में बहुपक्षीयता एक जटिल विचार रहा है, क्योंकि पिछली शताब्दी में ही वहां कई देशों को औपनिवेशिक ताकतों से आज़ादी मिली और उनका राष्ट्र निर्माण कड़ी मेहनत से हासिल हुई राष्ट्रीय अखंडता पर हुआ है। 

सिर्फ चीन के साथ समन्वय में आने वाली कठिनाई इन देशों को अमेरिकी झंडे के पीछे इकट्ठा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यह हिंद-प्रशांत क्षेत्र की अवधारणा में एक बड़ी दरार रही है। देर से अमेरिका को यह भान हुआ है कि भारत को एक आज्ञाकारी साझेदार नहीं बनाया जा सकता। 

आज की स्थिति में भारत के चीन के साथ संबंध पर्याप्त मात्रा से काफ़ी कम हैं, लेकिन चीन के साथ नज़दीकियां बनाने की भारत की स्थायी दिलचस्पी भी खुद भारत के रवैये से झलक जाती है। सरल शब्दों में कहें तो भूराजनीतिक वज़हों से भारत स्वायत्त भूमिका निभाने को प्रेरित होता है।

भारत को चीन से दुश्मनी लेकर या अप्रत्यक्ष कूटनीतिक हथियार बनकर कोई फायदा नहीं होगा, निश्चित है कि चीन के साथ दूसरों की दुश्मनी का भार उठाने की भारत के पास कोई वज़ह नहीं है। बुनियादी तौर पर आसियान की तरह भारत के अपने रणनीतिक हित हैं, वह एशियाई महाद्वीप की स्थिरता में भी हिस्सेदार है।

अब तक क्वाड से बहुत कम नतीज़े निकले हैं। साझा वक्तव्य भी एक बार फिर सामान्य भाषा में बात करना नज़र आता है। एकमात्र ठोस नतीज़ा क्वाड फैलोशिप का आना है, जो चारों देशों में विज्ञान, इंजीनियरिंग और गणित के 100 स्नातकों को दी जाएगी। यह कोई छोटी कोशिश नहीं है, लेकिन यह बहुत बड़ी उपलब्धि भी नहीं है।

जब असल मुद्दे की बात आती है, तो अपनी तमाम वाचालता के बावजूद "हिंद-प्रशांत" अवधारणा की तुलना में चीन का बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (BRI) अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज़्यादा अपील पाता हुआ नज़र आता है। इसने दुनिया की कल्पना को अपनी तरफ़ खींचा है, यह चीन में अर्धवार्षिक BRI सम्मेलनों में बड़ी संख्या की उपस्थिति से भी पता चलता है। BRI लचीला और खास मुद्दों पर केंद्रित है, जबकि "हिंद-प्रशांत" एक वैचारिक और दूसरी दुनिया की अवधारणा नज़र आती है। 

अफ़गानिस्तान में बुरी तरह हारने और आकस (AUKUS) की घोषणा करने के बाद अमेरिका को विदेश नीति के स्तर पर कुछ दिखावों की बेहद जरूरत नज़र आ रही है। लेकिन फ्रांस, जो नाटो में एक अहम मित्र देश व परमाणु शक्ति होने के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य भी है, उसके साथ अमेरिका द्वारा किया गया व्यवहार अभूतपूर्व है, यहां तक कि ट्रंप ने भी खुद को ऐसे अशिष्ट व्यवहार की अनुमति नहीं दी थी। 

आकस में परमाणु प्रसार का गंभीर ख़तरा है और यह NPT (परमाणु अप्रसार संधि) की भावना के भी खिलाफ़ जाता है। क्योंकि अमेरिकी पनडुब्बियां 90 फ़ीसदी से ज़्यादा समृद्ध HEU (उच्च समृद्ध यूरेनियम) का इस्तेमाल करती हैं, जो हथियारों के स्तर की परमाणु सामग्री है। यह दक्षिण प्रशांत परमाणु मुक्त क्षेत्र संधि का भी उल्लंधन करता है, साथ ही आसियान देशों द्वारा दक्षिण-पूर्व एशिया में परमाणु मुक्त क्षेत्र बनाने की कोशिशों को भी धता बताता है, कुलमिलाकर आकस ने क्षेत्रीय शांति और स्थिरता को ख़तरे में डाला है।

इस बीच फ्रांस के ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ संबंध गंभीर स्तर तक खराब हो गए हैं, जबकि फ्रांस एक गंभीर हिंद-प्रशांत शक्ति है, जिसके अपने अहम अखंड हित हैं, फ्रांस के इस क्षेत्र में 15 लाख नागरिक हैं और उसका वृहद विशेष आर्थिक क्षेत्र (90 लाख वर्ग किलोमीटर) करीब़ 90 फ़ीसदी हिस्सा इस क्षेत्र में पड़ता है। फ्रांस इस क्षेत्र की सुरक्षा के लिए 8000 सैनिकों की मौजूदगी भी हिंद-प्रशांत में रखता है।

इसमें कोई शक नहीं है कि फ्रांस अपनी हिंद-प्रशांत प्रतिबद्धताओं को कमज़ोर नहीं होने देगा और क्वाड व आकस के बाहर, मध्यम शक्तियों का एक नेटवर्क बनाने की कोशिश करेगा, जिसमें भारत भी शामिल रहेगा। फ्रांस और यूरोप का समावेशी दृष्टिकोण आसियान द्वारा अपनाए जाने वाले तरीकों से भी मेल खाता है। साफ़ है कि आकस पर लिया गया फ़ैसला, एक अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा जल्दबाजी में लिया गया फ़ैसला था। एक ऐसा राष्ट्रपति जो विदेश नीति के मोर्चे पर हाल में लगातार आलोचना का शिकार बन रहा है। बीजिंग आकस को शांति से ले रहा है।

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में कुछ विरोधाभासी प्रवाह भी चल रहे हैं। दिलचस्प तौर पर चीन ने ऑस्ट्रेलियाई संसद के लिए हाल में, सितंबर की शुरुआत में CPTPP (कांप्रीहेंसिंव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस पैसेफिक पार्टनरशिप) में शामिल होने के लिए मत जुटाने की कोशिश की थी। इससे संकेत जाता है कि दोनों देशों के संबंधों में हालिया उतार-चढ़ाव के बावजूद, दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं में सहयोग के लिए बहुत संभावना है। 

चीन के विशेषज्ञों का मानना है कि CPTPP में चीन को शामिल करने पर ऑस्ट्रेलिया के समर्थन के बदले, बीजिंग अपने बाज़ार ऑस्ट्रेलियाई उत्पादों के लिए अगले चुनाव से पहले फिर खोल सकता है। इसमें हैरान होने वाली बात नहीं है कि चीन के विदेश मंत्रालय ने आकस पर गलत फ़ैसला लेने के लिए बाइडेन प्रशासन की आलोचना की थी।

ऑस्ट्रेलिया परमाणु पनडुब्बियां बनाने में नौसिखिया है। एक रूसी विशेषज्ञ ने वज्गलाइड अख़बार में लिखा, "क्या आस्ट्रेलिया के लिए अंतिम समय सीमा को पाना संभव है? इसके लिए, सबसे पहले पनडुब्बियों को बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में शिपयार्ड होने चाहिए, फिर कामग़ार और इंजीनियर होने चाहिए, फिर तीसरा, अमेरिका से पनडुब्बी बनाने में लगने वाली सामग्री की लगातार आपूर्ति होनी चाहिए। लेकिन अमेरिका के जहाज निर्माण क्षेत्र में चल रहे संकट के चलते यह काम मुश्किल नज़र आता है। क्या ऑस्ट्रेलिया ने इन सारी चीजों को ध्यान में रखा था? मित्र मदद नहीं कर पाएंगे, क्योंकि उनके पास खुद के लिए पर्याप्त मात्रा में सामग्री नहीं है।

खुद अमेरिकियों को एक "वर्जीनिया" बनाने में पांच साल लगते हैं। यह शुरुआती कील लगाने से लेकर अमेरिकी नौसेना को आपूर्ति तक में लगने वाला समय है। ऐसी स्थिति में ऑस्ट्रेलिया के लिए अपना परमाणु पनडुब्बी बेड़ा खड़ा करने में कुछ दशक लग जाएंगे।

इस बीच चीन-अमेरिका आर्थिक और व्यापार संबंधों में नई हलचल देखने को मिल रही है। यह हलचल इतनी है कि वाशिंगटन में नए चीनी राजदूत किन गांग ने सोची-समझी टिप्पणी में कहा, "अगर हम चीन-अमेरिका के संबंधों की एक बड़े जहाज से तुलना करें, तो आर्थिक और व्यापारिक संबंध इस भारी जहाज को स्थिरता देना वाली भारी सामग्री और जहाज को चलाने में मदद करने वाला संचालक प्रोपेलर हैं। जब जहाज़ भारी तूफ़ान और बड़ी लहरों के सामने आता है, तो हमें इन चीजों को और भी ज़्यादा मजबूत करने की जरूरत है।"

इतना कहना पर्याप्त होगा कि मेंग को छो़ड़ने और कोविड-19 के स्त्रोत वाले मुद्दे को बाइडेन द्वारा छोड़ने का फ़ैसला, अमेरिका का चीन के प्रति बड़ा संकेत है। बीजिंग के लिए अंतिम लिटमस टेस्ट, बाइडेन द्वारा ईस्ट तुर्केस्तान इस्लामिक मूवमेंट को वापस अमेरिकी गृह विभाग की सूची में आतंकी संगठन के तौर पर शामिल करना होगा। बाइडेन ने पहले ही चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बैठक का प्रस्ताव दिया है। 

क्वाड सम्मेलन से यह संदेश गया है कि बाइडेन में मौजूद अनुभवी राजनेता को यह संगठन चीन को एकतरफ ढकेलने के लिए पर्याप्त नज़र नहीं आता। उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ प्रतिनिधि स्तर की बातचीत की जिम्मेदारी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस पर डाल दी।  

कूटनीति में, जब कहने को बहुत कुछ नहीं होता, तो लंबे-लंबे वक्तव्य जरूरी हो जाते हैं। क्वाड वक्तव्य में 2,145 शब्द हैं, लेकिन ऐसा बहुत कम ही है, जिसे हम पहले से नहीं जानते।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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