NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
लैटिन अमेरिका
राजनीति का वस्तुकरण : भारत और वेनेज़ुएला में असाधारण विषमता
"वस्तु" से "प्रजा" की भूमिका निभाने के लिए इस परिवर्तन को एक वैकल्पिक राजनीति तलाश करने की आवश्यकता होती है जो उनके सामने वैकल्पिक एजेंडा रखती है।
प्रभात पटनायक
03 Aug 2019
India and venezuela
Image courtesy: Twitter

पूंजी की अंतर्निहित प्रवृत्तियों में से एक जीवन के हर क्षेत्र का कमोडिटाइज़ (वस्तुकरण) करना है और नवउदारवादी पूंजीवाद के तहत जहां पूंजी की अंतर्निहित प्रवृत्ति को पूरी तरजीह दी जाती है ऐसे में हम पाते हैं कि कमोडिटाइज़ेशन का बोलबाला है। इसका एक उदाहरण है शिक्षा का कमोडिटाइज़ेशन जो देर से हुआ है और अब हम पाते हैं कि कमोडाइज़ेशन राजनीति की दुनिया में दख़ल दे रहा है जो पहले कभी भी नहीं हुआ है।

पिछले कुछ समय से राजनीति का कमोडिटाइज़ेशन हो रहा है लेकिन बड़े पैमाने पर विधायी सदस्यों की ख़रीद हर जगह हो रही है और जिसका ताज़ा उदाहरण कर्नाटक है जिसने इसे एक नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया है। कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लोग किसका चुनाव करते हैं, अथाह पैसों वाले राजनीतिक दल अंततः सरकार बनाते हैं और निश्चित रूप से जिसे लोग चुनते हैं वे ख़ुद अथाह पैसों वाले राजनीतिक दल से काफ़ी हद तक तय किए जाते हैं।

पारंपरिक मार्क्सवादी ज्ञान यह रहा है कि एक बुर्जुआ राष्ट्र में सरकार का संसदीय रूप हो सकता है क्योंकि राष्ट्र की संस्थाएं जैसे कि सेना और नौकरशाही अपरिवर्तित होती हैं भले ही श्रमिकों के लिए उत्तरदायी सरकार निर्वाचित होती हो। जब एक मज़दूर वर्ग की पार्टी कार्यालय संभालती है और जब तक कि वह अपने कार्यालय का उपयोग बुर्जुआ राष्ट्र को नष्ट करने के लिए नहीं करती है तब तक उसे परिगत सीमाओं के भीतर लाचारी से कार्य करना होगा जो कि पूंजीवादी व्यवस्था की निरंतरता पर अतिक्रमण नहीं करता है।

हालांकि राजनीति का कमोडिटाइज़ेशन यह सुनिश्चित करना चाहता है कि एक श्रमिक वर्ग की पार्टी संसदीय चुनावों के ज़रिये सत्ता में नहीं आ सकती है क्योंकि ऐसा करने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं होगा। इसकी वजह से कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र चुने हुए राजनीतिक दल के माध्यम से शासन करता है जिसमें संसदीय लोकतंत्र प्रभावी नहीं होता है।

दिल्ली स्थिति एनजीओ सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़ के अनुसार हाल ही में संपन्न संसदीय चुनावों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी(बीजेपी) ने लगभग 27,000 करोड़ रुपये या लगभग 50 करोड़ रुपये प्रति चुनाव क्षेत्र में खर्च किए। सभी पार्टियों द्वारा किए गए कुल खर्च का यह 45% था। सभी पार्टियों द्वारा कुल ख़र्च 60,000 करोड़ रुपये तक किया गया। इसका बड़ा हिस्सा कॉरपोरेट क्षेत्र से आया जिसमें बीजेपी को सबसे ज़्यादा मिला। दिल्ली स्थित एक अन्य एनजीओ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अनुसार 2017-18 में 20,000 रुपये से ऊपर का कुल चंदा जो कि लगभग 92% है, बीजेपी को मिला।

दो क़ानूनी ख़ामियों ने इस तरह के भारी चुनावी ख़र्चों को संभव बना दिया है। एक तो बांड प्रणाली है जो राजनीतिक दलों को अब स्वतंत्र कर दिया जहां चंदा देने वाले का नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता है। ये आश्चर्य करने वाली बात नहीं है कि इस स्कीम को बीजेपी द्वारा शुरू की गई थी। और दूसरा लेखांकन की प्रणाली है जहां पार्टी द्वारा किए गए ख़र्च उम्मीदवार के ख़र्च से अलग है और उम्मीदवार के चुनावी ख़र्च में नहीं जोड़े जाते हैं। इसलिए, पैसे का इस्तेमाल करने वाली कोई राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिए किसी भी राशि का पूरी तरह से ख़र्च कर सकता है जिसका मूल रूप से मतलब यह है कि यह कॉर्पोरेट है जो अपने प्रत्याशियों के माध्यम से चुनाव लड़ते हैं।

ग़ौरतलब है कि शिक्षा के कमोडिटाइज़ेशन की तरह राजनीति का कमोडिटाइज़ेशन विकसित पूंजीवादी देशों की तुलना में भारत में बहुत ज़्यादा हो गया है और वह भी बहुत कम समय में। नवउदारवादी पूंजीवाद का प्रभाव इसके लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार है। लेकिन इस सामान्य माहौल के भीतर बीजेपी ने पहले की तुलना में कॉर्पोरेट और सत्ता के गठजोड़ को काफी हद तक आगे बढ़ाया है। यदि रफ़ाल सौदा इस गठजोड़ का एक पहलू था, तो केवल बीजेपी को मिलने वाला 92% कॉर्पोरेट चंदा इसका दूसरा पहलू है।

भारत में जो हो रहा है उसके विपरीत वेनेज़ुएला की कहानी कुछ अलग है। वेनेज़ुएला के कुलीन वर्ग के साथ मिलकर अमेरिकी साम्राज्यवाद ह्यूगो शावेज़ के उत्तराधिकारी राष्ट्रपति निकोलस मादुरो की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए उन्मादी प्रयास कर रहा है। शावेज़ ने उस देश में "बोलिवेरियन क्रांति" की अगुवाई की थी।

अमेरिका को सभी विकसीत पूंजीवादी देशों, पूंजीवादी दुनिया के सभी "उदारवादी" अख़बारों और पूरे लेटिन अमेरिकन राइट का समर्थन प्राप्त है जो अन्य मामलों में से एक ब्राज़ील और इस महाद्वीप में अन्य देशों में सफल "संसदीय तख़्तापलट" की वजह से विकसित हुआ है। इसने अपने हर प्रकार के हथियारों का इस्तेमाल किया है।इसने आर्थिक हथियार से लेकर वेनेज़ुएला की बिजली व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने, यहां तक कि एक वास्तविक तख्तापलट तक की कोशिश की जिसमें वेनेज़ुएला के कुलीन वर्ग समर्थित स्वघोषित राष्ट्रपति जुआन गाएदो को सत्ता दिलाने का प्रयास किया गया। और फिर भी ये सभी प्रयास बुरी तरह विफल रहे हैं।

इस सरकार के अधीन लोगों की परेशानी के बारे में हमारे देश सहित देशभर में टेलिविजन पर आई ख़बरों के बावजूद न सिर्फ़ लोग मज़बूती से मादुरो सरकार के समर्थन में खड़े रहे हैं बल्कि वेनेज़ुएला के सशस्त्र बलों ने भी मादुरो सरकार का समर्थन किया है।

कई लैटिन अमेरिकी देशों में सशस्त्र बलों का अक्सर एक स्वरूप होता है जो पारंपरिक मार्क्सवादी सिद्धांत से अलग होता है। लोगों के बीच से भर्ती किए गए उन लोगों का अक्सर राजनीतिकरण किया जाता है। वास्तव में शावेज़ स्वयं सशस्त्र बलों से आए थे और उनसे बहुत समर्थन प्राप्त किया था। वेनेज़ुएला के सशस्त्र बलों ने मादुरो सरकार के लिए अपना समर्थन जारी रखा है।

अमेरिकी प्रशासन ने तख़्तापलट का समर्थन करने के लिए सशस्त्र बलों के अधिकारियों को "ख़रीदने" की पूरी कोशिश की लेकिन वह बुरी तरह विफल रहा जो इस सच्चाई का एक स्पष्ट लक्षण है कि वेनेज़ुएला में राजनीति का कमोडाइज़ेशन नहीं हुआ है। इस प्रकार हमारे सामने स्पष्ट तौर पर विपरीत स्थिति है क्योंकि एक तरफ़ भारत में जहां राजनीति का तेज़ी से कमोडाइज़ेशन हो रहा है और वहीं दूसरी तरफ वेनेज़ुएला है, जहां राजनीति का कमोडाइज़ेशन अमेरिका के साम्राज्यवाद द्वारा किए जा रहे प्रयासों के बावजूद बहुत कम हुआ है।

वेनेज़ुएला की सेना एक क्रांतिकारी लाल सेना नहीं है; वेनेज़ुएला ने समाजवादी क्रांति नहीं की है, एक श्रमिक राष्ट्र की स्थापना करते हुए वेनेज़ुएला की पुरानी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की वीरता की कोई क्लासिक कहानी नहीं है। वास्तव में विश्व को उत्तेजना से भरने वाले क्लासिक क्रांतिकारी परिवर्तनों की तुलना में अभी भी वेनेज़ुएला का बहुत अल्प महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है। इस अल्प महत्वपूर्ण परिवर्तन के बीच जो सबसे अहम है वह ये कि सत्तासीन व्यक्ति निकोलस मादुरो के पास शावेज़ जैसा करिश्मा नहीं है।

फिर भी वेनेज़ुएला के सशस्त्र बल मादुरो की सरकार साथ खड़े हुए हैं जिन्होंने नवउदारवाद से दूर और एक जन-समर्थक दिशा में आर्थिक नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव लाया है। इससे केवल यही पता चलता है कि लोग राजनीति की कमोडिटाइज़ेशन की दुनिया में "वस्तु" बन सकते हैं पर जब कोई अवसर ऐसा करने के लिए पनपता है और जब नवउदारवाद से दूर होता है तो वे "प्रजा" की भूमिका में भी ख़ुद को पेश कर सकते हैं। और जब वे इस तरीक़े से ख़ुद को पेश करते हैं तो वे अन्य तत्वों पर भी दबाव डालते हैं, सशस्त्र बलों की तरह जो इन तत्वों को साम्राज्यवादी प्रलोभन को अप्रभावित बनाता है।

राजनीति के कमोडािटाइज़ेशन का मुक़ाबला करने के लिए चुनाव के लिए सरकारी फ़ंडिंग सहित चुनाव सुधारों की आवश्यकता होती है। लेकिन ये सुधार तब तक प्रक्रिया में नहीं आएंगे जब तक कि जनता का दबाव नहीं बनता; और किसी भी प्रक्रिया के लिए एक वैकल्पिक राजनीति की आवश्यकता होती है। "वस्तु" से एक "प्रजा" की भूमिका निभाने के लिए इस परिवर्तन को एक वैकल्पिक राजनीति तलाश करने की आवश्यकता होती है जो उनके सामने वैकल्पिक एजेंडा रखती है।

पूंजी की अंतर्निहित प्रवृत्तियों और श्रमिकों द्वारा सक्रिय हस्तक्षेप के बीच अंतर्द्वंद (डायलेक्ट) को द पोवर्टी ऑफ़ फ़िलॉसफ़ी में मार्क्स ने लिखा था। पूंजी की अंतर्निहित प्रवृत्ति श्रमिकों को तितर बितर करता है, उन्हें विभिन्नपृष्ठभूमि के लोगों को भर्ती किया जाता है और एक-दूसरे को अलग कर दिया जाता है। लेकिन उन्हें एक कारख़ाने की छत के नीचे रखा जाता है, और अपनी मामूली मज़दूरी बढ़ाने के लिए वे "समूह" बनाते हैं जो हालांकि शुरू में व्यक्तिगत स्वार्थों से प्रेरित होते हैं और फिर नए समुदाय में विकसित होते हैं।

इसी तरह राजनीति के कमोडिटाइज़ेशन जो वर्तमान युग में पूंजी की एक अंतर्निहित प्रवृत्ति है उसे ख़त्म किया जा सकता है यदि कामकाजी लोगों को एक नए एजेंडे के लिए एक नए "संगठन" में एक साथ लाया जाए जो उन्हें पेश किए गए नवउदारवाद से अलग है। हालांकि शुरू में वे व्यक्तिगत स्वार्थ के ज़रिये इस तरह के एजेंडे की तरफ़ आ सकते हैं, उनके साथ आने की सच्चाई एक प्रवृत्ति का खुलासा करेगा जो राजनीति के कमोडिटाइज़ेशन का मुक़ाबला करेगा। यह केवल एक वैकल्पिक एजेंडा है जिसके इर्द-गिर्द कामगार लोग एक वैकल्पिक राजनीति को जन्म देते हुए एक साथ आ सकते हैं। राजनीति के कमोडिटाइज़ेशन की ओर बढ़ती प्रवृत्ति को ये वैकल्पिक राजनीति ही नष्ट कर सकती है।

Commoditisation of Politics
INDIAN POLITICS
Venezuela
Neoliberalism
Money spent in Elections 2019
Narendra modi
Nicolás Maduro
US Imperialism

Related Stories

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति

गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

PM की इतनी बेअदबी क्यों कर रहे हैं CM? आख़िर कौन है ज़िम्मेदार?

छात्र संसद: "नई शिक्षा नीति आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज़"

भाजपा के लिए सिर्फ़ वोट बैंक है मुसलमान?... संसद भेजने से करती है परहेज़

हिमाचल में हाती समूह को आदिवासी समूह घोषित करने की तैयारी, क्या हैं इसके नुक़सान? 


बाकी खबरें

  • एम. के. भद्रकुमार
    हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन में हो रहा क्रांतिकारी बदलाव
    30 May 2022
    जापान हाल में रूस के ख़िलाफ़ प्रतिबंध लगाने वाले अग्रणी देशों में शामिल था। इस तरह जापान अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रहा है।
  • उपेंद्र स्वामी
    दुनिया भर की: कोलंबिया में पहली बार वामपंथी राष्ट्रपति बनने की संभावना
    30 May 2022
    पूर्व में बाग़ी रहे नेता गुस्तावो पेट्रो पहले दौर में अच्छी बढ़त के साथ सबसे आगे रहे हैं। अब सबसे ज़्यादा वोट पाने वाले शीर्ष दो उम्मीदवारों में 19 जून को निर्णायक भिड़ंत होगी।
  • विजय विनीत
    ज्ञानवापी केसः वाराणसी ज़िला अदालत में शोर-शराबे के बीच हुई बहस, सुनवाई 4 जुलाई तक टली
    30 May 2022
    ज्ञानवापी मस्जिद के वरिष्ठ अधिवक्ता अभयनाथ यादव ने कोर्ट में यह भी दलील पेश की है कि हमारे फव्वारे को ये लोग शिवलिंग क्यों कह रहे हैं। अगर वह असली शिवलिंग है तो फिर बताएं कि 250 सालों से जिस जगह पूजा…
  • सोनिया यादव
    आर्यन खान मामले में मीडिया ट्रायल का ज़िम्मेदार कौन?
    30 May 2022
    बहुत सारे लोगों का मानना था कि राजनीति और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के चलते आर्यन को निशाना बनाया गया, ताकि असल मुद्दों से लोगों का ध्यान हटा रहे।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हिमाचल : मनरेगा के श्रमिकों को छह महीने से नहीं मिला वेतन
    30 May 2022
    हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा ज़िले में मनरेगा मज़दूरों को पिछले छह महीने से वेतन नहीं मिल पाया है। पूरे  ज़िले में यही स्थिति है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License