NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
राजनीति को पुनर्परिभाषित करता महार-पेशवा संघर्ष... क्या सच में जातिवाद के खिलाफ ही लड़े थे महार ?
दलितों को हिन्दुत्ववादी उपद्रवियों द्वारा फिर से तैयार पेशवाई के खिलाफ लड़ने की जरूरत है। जरूरी है कि वे सच्चाई से आंखें न मूंदें। खुली आंखों वस्तुस्थिति का आकलन करें। शुतुरमुर्ग जैसा रवैया न अपनाएं। मिथकीय अतीत में न झांकें।
आनंद तेलतुंबड़े
06 Jan 2018
dalit assertion

तय है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने सैन्य मंसूबे पूरा करने की ठानी तो बेहिसाब संख्या में दलितों को सेना में भर्ती कर लिया। शायद दलित सैनिकों की अटूट निष्ठा और स्वामिभक्ति देखकर। संभवत: इसलिए भी कि वे सस्ते में मिल जाते थे। उस दौर में सेना में बड़ी संख्या में बंगाल से नामशूद्रों, मद्रास से परायासों और महाराष्ट्र से महारों की भर्ती हुई। ऐसे में दलित दावा करें कि भारत में ब्रिटिश राज में सत्ता प्रतिष्ठान के लिए उन्होंने उल्लेखनीय योगदान किया था, तो कुछगलत नहीं है, लेकिन यह कहें कि जाति-उत्पीड़न के खिलाफलड़े थे, तो इसे ऐतिहासिक तय तो नहीं ही कहा जा सकता।

सौ साल पहले पुणो के निकट भीमा नदी के तट पर कोरेगांव में एंग्लो-मराठा अंतिम युद्ध हुआ था। इससे भारत में ब्रिटिश हुकूमत की मजबूत पकड़ का पता चला। ब्रिटिश हुकमरान ने युद्ध में मारे गए लोगों की स्मृति में युद्ध मैदान पर स्मारक-स्तंभ का निर्माण करा दिया था। इस स्तंभ पर 49 नाम उकेरे गए जिनमें से 27 महार जाति से थे।

महार सैनिकों की वीरता की इस गाथा का गोपाल बाबा वाल्नंगकर, शिवराम जनबा कांबले के साथही बीआर अंबेडकर के पिता रामजी अंबेडकर जैसे अग्रणी पंक्ति के महार नेताओं ने ब्रिटिश सेना में महारों की फिर से भर्ती शुरू करने की मांग करते हुए बखान किया।

गौरतलब है कि महारों की ब्रिटिश सेना में भर्ती 1893 में रोक दी गई थी। दरअसल, 1857 में विद्रोह की समीक्षा करने के बाद ब्रिटिश हुकमरान ने सेना में भर्ती के तौर-तरीकों को बदला। फैसला किया कि सेना में केवल ‘‘मार्शल कौम’ के लोगों की भर्ती की जाएगी। इस क्रम में महार जाति की सेना में भर्ती रोक दी गई थी। लेकिन बाबा साहब अम्बेडकर भीमा कोरेगांव युद्ध को पेशवा शासन में जाति-उत्पीड़न के खिलाफ महार सैनिकों की लड़ाई के तौर पर पेश कर रहे थे, तो एक कहानी गढ़ रहे थे। चूंकि ऐसी कहानियों से ही आंदोलन उभरते हैं, इसलिए उन्होंने शायद यह जरूरत भांप ली थी। एक सदी पश्चात यह मिथ करीब-करीब इतिहास का रूप ले चुका था, और आज चिंता होती है यह देखकर कि इसके सहारे दलित पहचान के संकट का हल करने पर आमादा हैं।

अनेक दलित संगठनों ने हाल में इस युद्ध की दो सौवीं सालगिरह मनाने के लिएसंयुक्त मोर्चा गठित किया ताकि नईपेशवाई यानी हिन्दुत्ववादी ताकतों की उभरती ब्राह्मणवादी हनक से लोहा लिया जा सके। मोर्चा ने लंबी यात्राएं निकालीं। ये मार्च 31 बीती दिसम्बर को पुणो के शनिवारवाड़ा पहुंच कर सम्मेलन (एल्गर परिषद) में तब्दील हो गए।

हिन्दुत्ववादी ताकतों के खिलाफ मोर्चाबंदी गलत नहीं, लेकिन किसी मिथ का इस कार्य में इस्तेमाल किया जाए तो परिणाम प्रतिगामी हो सकते हैं। ऐसी कवायद नकारात्मक रुझानों को मजूबत करती है, न कि किसी पहचान की गरिमा को। जहां तक इतिहास की बात है, तो तय है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने सैन्य मंसूबे पूरा करने की ठानी तो बेहिसाब संख्या में दलितों को सेना में भर्ती कर लिया। शायद उनकी अटूट निष्ठा और स्वामिभक्ति को देखकर। संभवत: इसलिए भी कि वे सस्ते में मिल जाते थे। उस दौर में सेना में बड़ी संख्या में बंगाल से नामशूद्रों, मद्रास से परायासों और महाराष्ट्र से महारों की भर्ती हुई। ऐसे में दलित दावा करें कि भारत में ब्रिटिश राज में सत्ता प्रतिष्ठान के लिए उन्होंने उल्लेखनीय योगदान किया था, तो कुछ गलत नहीं है, लेकिन यह कहें कि जाति-उत्पीड़न के खिलाफ लड़े थे, तो इसे ऐतिहासिक तय तो नहीं ही कहा जा सकता। जाति या धर्म विरोधी नहीं थे वे युद्धईस्ट इंडिया कंपनी ने अनेक युद्ध लड़े और जीते। पहला था, पलासी में 1757 का युद्ध। अंतिम था एंग्लो-मराठा युद्ध। जाहिर है कि ये सभी युद्ध पेशवाओं के खिलाफ नहीं थे। इनमें से अधिकांश हिन्दुओं के खिलाफ भी नहीं थे। ये सीधे-सीधे शासन करने वाली दो ताकतों के बीच थे, जो उनके सैनिकों ने अपने सैनिक फर्ज के चलते लड़े थे।

इन युद्धों को जाति-विरोधी या धर्म-विरोधी करार दिया जाना गलत तय पेश करना है।

इतना ही नहीं बल्कि जातियों के इतिहास की समझ न होने जैसा भी यह होगा। जाति 19वीं सदी के काफी बाद तक, जब दलितों में शिक्षा का उल्लेखनीय प्रसार हो चुका था, लोगों के रोजमर्रा के जीवन में महत्त्वपूर्ण हिस्सा थी। दलित इसे किस्मत की बात मानते थे, और इसके नाम पर की गई किसी भी ज्यादती को भाग्य के रूप में देखते थे। जातीय आधार पर होने वाली ज्यादती को नियति समझते थे। इसलिए जाति के नाम पर उस दौर में विरोध नहीं हो सकता था, शारीरिक रूप से युद्ध करना तो बहुत दूर की बात थी।

1818 में वीरता के मिथक के बावजूद दलितों द्वारा उग्र विरोधका ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं मिलता जो ब्राह्मण राज के उत्पीड़न के खिलाफ हुआ हो। युद्ध करने के लिए सेनाएं गठित करने की जहां तक बात है, तो ऐसी सेनाएं पूरी तरह से सामुदायिक आधार पर गठित नहीं की जाती थीं। भले ही ब्रिटिश सेना में दलित सैनिक अनुपात में ज्यादा थे, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि ब्रिटिश सेना में मुस्लिम या मराठा नहीं थे। सेना में सभी जातियों के लोग शामिल थे। कोरेगांव युद्ध में पेशवाई सेना में तीन हिस्सा अरब सैनिक थे। बताया जाता है कि वे पूरी आक्रामकता से लड़े थे। इस युद्ध में काफी लोग हताहत हुएथे। उनकी आक्रामकता की क्या प्रेरणा रही होगी? क्या वे चाहते थे कि पेशवा का ब्राह्मणराज वाला शासन विजयी हो? तय यह है कि वे सैनिक के रूप में अपने स्वामियों के लिए लड़े। वैसे ही दलित सैनिक भी अपने स्वामियों के लिए लड़े। इससे ज्यादा कोई नतीजा निकाल जाना बेमानी है।

एक जनवरी, 1818 को कोरेगांव युद्ध से पूर्व पेशवा पूर्व में लड़े जा चुके दो एंग्लो-मराठा युद्धों के कारण खासे कमजोर हो चुके थे। तय तो यह है कि पेशवा बाजीराव द्वितीय पुणे छोड़कर भाग निकले थे, और पुणे पर बाहर से आक्रमण करने का प्रयास कर रहे थे। पेशवा की सेना में 20,000 सैनिक थे, और इनमें 8,000 लड़ाकू सैनिक। लड़ाकू सैनिक तीन दस्तों में बंटे थे, जिनमें दो-दो हजार की संख्या में सैनिक शामिल थे। छह सौ अरबी सैनिकों, गोसाइयों और अन्य सैनिकों ने पहले पहल हमला बोला। हमलावरों में अधिकांश अरबी थे, जिन्हें पेशवा सैनिकों में योद्धाओं के रूप में देखा जाता था। कंपनी के दस्तों में 834 सैनिक थे, जिनमें वे पांच सौ सैनिक भी शामिल थे, जो बांबे नेटिव इन्फेंट्री की पहली रेजिमेंट की दो बटालियनों से थे। इनमें से अधिकांश महार थे। हालांकि ऐसा कोई दस्तावेजी रिकॉर्ड नहीं मिलता कि इनकी सटीक संख्या कितनी थी। लेकिन इतना साफ है कि ये सभी महार नहीं थे।

युद्ध में मारे गए सैनिकों की संख्या से भी अंदाजा लगाएं तो पता चलता है कि मरने वाले सैनिकों में से अधिकांश महार (49 में से 27) नहीं थे। आखिर में पेशवा की सेना पीछे हट गई थी।

दरअसल, जनरल जोसेफ स्मिथ के नेतृत्व में बड़ी संख्या में ब्रिटिश सैनिकों के पहुंच जाने पर पेशवा की सेना ने पीछे हटने का फैसला किया। इन तयात्मक ब्योरों के मद्देनजर निष्कर्ष निकाला जाना भ्रामक हो सकता है कि यह युद्ध महारों ने पेशवाओं के ब्राह्मणराज के खिलाफ प्रतिरोध स्वरूप लड़ा था।

कहां बदले महारों के हालात

ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं मिलता कि पेशवाई शिकस्त के बाद महारों को कोई राहत मिली हो, बल्कि तय तो यह है कि उनका जातीय उत्पीड़न बिना रुके जारी रहा, बल्कि ब्रिटिश हुकमरानों ने सेना में उनकी भर्ती तक रोक दी थी। पूर्व में उनके द्वारा दिखाई बहादुरी को अनदेखा कर दिया था। भर्ती के लिए महारों की बार-बार की गुहारों तक को नहीं सुना। यह तो प्रथम विश्व युद्ध ने दस्तक दे दी थी जो ब्रिटिश हुकमरानों को महारों के लिए सेना में भर्ती खोलनी पड़ी।

बेशक, कहा जा सकता है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से दलितों को अनेक फायदे मिले। यहां तक कि दलित आंदोलन उसी दौर की पैदाइश है। लेकिन यहां इस तय को समझे जाने की जरूरत है कि बुनियादी रूप से यह घटनाक्रम भी औपनिवेशिक तकाजों को पूरा करने वाला ही था। दुखद है कि दलित इस सच्चाई से आंखें मूंदे हुए हैं, और इसे पहचान के चश्मे से देख रहे हैं।

यह कहना भी गलत है कि चूंकि पेशवाई सेना मराठी सैनिकों की बहुलता वाली थी, तो राष्ट्रवादी थी, और ब्रिटिश सेना को हराना साम्राज्यवादियों की शिकस्त जैसा कुछ था।

ऐतिहासिक तयों के आधार पर राष्ट्र के अस्तित्व को नकारने वाले चश्मों से देखा जाना भी निंदनीय है। सच तो यह है कि उस समय भारत राष्ट्र की कोई अवधारणा नहीं थी, और आज भी यह अवधारणा भ्रमित करने वाली ही है। कितना विरोधाभासी है यह कि ब्रिटिश शासन से भारत उपहार में मिला है, जिसके विशाल भूक्षेत्र वाले उपमहाद्वीपीय इलाके को राजनीतिक एकता के सूत्र में पिरोया गया। राष्ट्र के रूप इसकी व्याख्या निजी फायदों के आधार पर की जाती रही है। सच तो यह है कि ऐसे लोग पेशवाओं जितने ही भ्रमित हैं, और सबसे बड़े देशद्रोही भी।

दलितों को हिन्दुत्ववादी उपद्रवियों द्वारा फिर से तैयार पेशवाई के खिलाफ लड़ने की जरूरत है। जरूरी है कि वे सच्चाई से आंखें न मूंदें। खुली आंखों वस्तुस्थिति का आकलन करें। शुतुरमुर्ग जैसा रवैया न अपनाएं। मिथकीय अतीत में न झांकें। महानता के कल्पनालोक में गुम होकर न रह जाएं।

राष्ट्रीय सहारा के परिशिष्ट “हस्तक्षेप” से साभार

Courtesy: हस्तक्षेप
Dalit assertion
Mahar peshwa war
bheema koregaon
Hindutva

Related Stories

डिजीपब पत्रकार और फ़ैक्ट चेकर ज़ुबैर के साथ आया, यूपी पुलिस की FIR की निंदा

ओटीटी से जगी थी आशा, लेकिन यह छोटे फिल्मकारों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा: गिरीश कसारावल्ली

ज्ञानवापी कांड एडीएम जबलपुर की याद क्यों दिलाता है

मनोज मुंतशिर ने फिर उगला मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़हर, ट्विटर पर पोस्ट किया 'भाषण'

क्या ज्ञानवापी के बाद ख़त्म हो जाएगा मंदिर-मस्जिद का विवाद?

बीमार लालू फिर निशाने पर क्यों, दो दलित प्रोफेसरों पर हिन्दुत्व का कोप

बिहार पीयूसीएल: ‘मस्जिद के ऊपर भगवा झंडा फहराने के लिए हिंदुत्व की ताकतें ज़िम्मेदार’

इतवार की कविता: वक़्त है फ़ैसलाकुन होने का 

दलितों में वे भी शामिल हैं जो जाति के बावजूद असमानता का विरोध करते हैं : मार्टिन मैकवान

कविता का प्रतिरोध: ...ग़ौर से देखिये हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र


बाकी खबरें

  • सोनिया यादव
    क्या पुलिस लापरवाही की भेंट चढ़ गई दलित हरियाणवी सिंगर?
    25 May 2022
    मृत सिंगर के परिवार ने आरोप लगाया है कि उन्होंने शुरुआत में जब पुलिस से मदद मांगी थी तो पुलिस ने उन्हें नज़रअंदाज़ किया, उनके साथ दुर्व्यवहार किया। परिवार का ये भी कहना है कि देश की राजधानी में उनकी…
  • sibal
    रवि शंकर दुबे
    ‘साइकिल’ पर सवार होकर राज्यसभा जाएंगे कपिल सिब्बल
    25 May 2022
    वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने कांग्रेस छोड़कर सपा का दामन थाम लिया है और अब सपा के समर्थन से राज्यसभा के लिए नामांकन भी दाखिल कर दिया है।
  • varanasi
    विजय विनीत
    बनारस : गंगा में डूबती ज़िंदगियों का गुनहगार कौन, सिस्टम की नाकामी या डबल इंजन की सरकार?
    25 May 2022
    पिछले दो महीनों में गंगा में डूबने वाले 55 से अधिक लोगों के शव निकाले गए। सिर्फ़ एनडीआरएफ़ की टीम ने 60 दिनों में 35 शवों को गंगा से निकाला है।
  • Coal
    असद रिज़वी
    कोल संकट: राज्यों के बिजली घरों पर ‘कोयला आयात’ का दबाव डालती केंद्र सरकार
    25 May 2022
    विद्युत अभियंताओं का कहना है कि इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 2003 की धारा 11 के अनुसार भारत सरकार राज्यों को निर्देश नहीं दे सकती है।
  • kapil sibal
    भाषा
    कपिल सिब्बल ने छोड़ी कांग्रेस, सपा के समर्थन से दाखिल किया राज्यसभा चुनाव के लिए नामांकन
    25 May 2022
    कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे कपिल सिब्बल ने बुधवार को समाजवादी पार्टी (सपा) के समर्थन से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर राज्यसभा चुनाव के लिए नामांकन दाखिल किया। सिब्बल ने यह भी बताया कि वह पिछले 16 मई…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License