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भारत
राजनीति
राजनीतिक पार्टियों ने बस्तियों को वोट बैंक की तरह देखा हैः नर्सिम्हामूर्ति
इस चुनाव में हमारे घोषणा पत्र का अहम मुद्दा है 'ज़मीन और घर के लिए ही हम वोट देंगे' I
योगेश एस.
25 Apr 2018
BASTI

कर्नाटक का स्लम जन आंदोलन,(एसजेके- कर्नाटक में स्लम में रहने वालों का आंदोलन) इन बस्तियों में रहने वाले लोगों को उनका अधिकार दिलाने और सरकार तथा नौकरशाही के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लगभग एक दशक से संगठित कर रहा है। एसजेके के राज्य संयोजक नर्सिम्हमूर्ति ने न्यूज़़क्लिक से राज्य के स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों की मांग को लेकर राजनीतिक दलों के आने को लेकर बात की। उन्होंने कहा कि सभी राजनीतिक दल ऐतिहासिक रूप से वोट बैंक के रूप में स्लम बस्तियों ने रहने वाले लोगो की तरफ देख रहे हैं न कि एक समुदाय के तौर पर। उनके अनुसार, राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव की पृष्ठभूमि में स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों को शिक्षित करने की सख्त ज़रूरत है, उन्हें इस बात के लिए सचेत करने की ज़रूरत है कि वे इन दलों के राजनीतिक हथियार हैं।

 

एसजेके क्या है? क्या हमें इस संगठन के बारे में और बता सकते हैं?

 

कर्नाटक का स्लम जनआंदोलन एक राज्य स्तरीय मंच है जो स्लम मेें रहने वाले लोगों के हितों पर काम कर रहा है। एसजेके कर्नाटक के 18 ज़िलों में एक दशक से काम कर रहा है; और हम इन ज़िलों में स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। स्लम में रहने वाले लोगों को समाज पर बोझ के रूप में देखा जाता है, और हम इस धारणा को ख़त्म करने का प्रयास कर रहे हैं। जैसा कि हम लोग ही शहर का निर्माण कर रहे हैं। कोई सरकार ने हमें बुनियादी सुविधाएं और बुनियादी ढांचे मुहैय्या नहीं कराया। वाकई स्लम में रहने वाले लोग ही शहर का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अब सवाल यह है कि स्लम क्यों मौजूद हैं? स्लम इसलिए मौजूद हैं क्योंकि आवास की समस्या है। यदि उचित आवास लोगों के लिए उपलब्ध कराया गया होता तो कोई भी स्लम में रहने का विकल्प ही नहीं चुनता। इसलिए, एसजेके इन सवालों को उठाने का प्रयास किया है और पदानुक्रमिक, भेदभावपूर्ण और दमनकारी सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं और प्रणालियां जो मौजूद है उससे लड़ने का प्रयास करता है। हालांकि स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों द्वारा सामना किए जाने वाले मुख्य मुद्दों जैसे ग़रीबी, आवास और ज़मीन की पहचान की गई है। सामाजिक भेदभाव पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। जाति समाज में प्रचलित भेदभाव का एक रूप है और यह इन स्लम बस्तियों में परिलक्षित होता है।

 

अल्पसंख्यक, दलित और बेहद गरीब, एवं अस्पृश्य लोग स्लम बस्तियों में रहते हैं। एसजेके ने इसकी पहचान की है और इन समुदायों की समस्याओं के लिए काम कर रहा है। हमारे पास लगभग 40,000 सदस्य हैं और ये संगठन इन्हीं सदस्यों द्वारा ही संभाला जाता है। एसजेके ने स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों के लिए एक मंच तैयार किया है। दस से पंद्रह साल पहले कर्नाटक में स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों को केवल वोट बैंक के रूप में देखा गया; अब यह मामला नहीं है। इसका कारण यह है कि शहर हमारी मांगों के लिए अधिक अनुकूल हो रहे हैं, और अब हमे सुनाया जा रहा है। हमने सफलतापूर्वक दिखाया है कि हम एक राजनीतिक ताक़त हैं। कई उम्मीदवार जिन्हें हमने निगम चुनावों में समर्थन दिया है जीत गए हैं। साल 2013 के चुनावों में जीते विधायकों में से आठ को हमलोगों ने ही समर्थन दिया था। इसलिए हम एक राजनीतिक ताक़त के रूप में उभरे हैं।

 

 

एसजेके के कई अनुभव हैं। इससे पहले जो लोग हमें प्रतिनिधित्व करने का दावा करते थे उन्होंने कुछ भी नहीं किया। एसजेके ने स्लम में रहने वाले लोगों को अपनी समस्याओं को सामने लाने और चर्चा करने और अपनी तकलीफ़ को बयां करने का एक मंच दिया है।

 

पूरे बैंगलोर शहर में विभिन्न इलाकों में स्लम बस्ती मौजूद हैं। इन स्लम बस्तियों का इतिहास क्या है? इन इलाकों में वे कैसे आए?

सबसे पहले कि गुज़रे समय की दलित बस्तियां आज की स्लम बस्तियां हैं। स्पष्टीकरणों में से एक यह है। उदाहरण स्वरूप मगादी रोड का गोपालपुरा एक मदिगा कॉलोनी था। इस कॉलोनी के लोग शहर में अपनी सेवा देते थें और अब यह स्लम बस्तियों में बदल गया है। एक अन्य उदाहरण कामक्षिपल्या का हो सकता है। शहर में ऐसे कई कॉलोनी थें [टीबी 1] केंद्र [टीबी 2] और ये सभी अब खाली करा दिया गया है। उदाहरण स्वरूप कोरमंगल में एलआर नगर और राजेंद्रनगर सभी शहर के केंद्र में थे, और इन्हें शहरी विकास और बस स्टॉप के निर्माण के नाम पर वहां से खाली करा दिया गया था। विधानसभा के बगल में भी स्लम बस्तियां थीं,और जैसे ही विधान सभा का निर्माण हुआ इन्हें लगेरे इलाके में स्थानांतरित कर दिया गया। विशेष रूप से सामान्य तौर पर बेंगलुरू और कर्नाटक में सभी दलित कॉलोनी स्लम बस्तियों में बदल गया है।

दूसरा, हम देखते हैं कि स्लम बस्तयों को शहरों से खाली कराया जा रहा है और शहर के आसपास के क्षेत्रों में स्थानांतरित किया जा रहा है जहां टाउनशिप, उद्योग और विभिन्न विकास परियोजनाएं मशरूम की तरह पैदा हो रही थीं। इसका कारण यह है कि स्लम बस्तियां इन परियोजनाओं के लिए मानव संसाधन मुहैया कराती हैं। उन्हें हमेशा घरेलू श्रमिकों, निर्माण श्रमिकों, सस्ते मज़दूरों की आवश्यकता होती है, और इसलिए शहर की सभी स्लम बस्तियों को खाली करा दिया गया है और इन टाउनशिप में स्थानांतरित कर दिया गया। यह मामला बैंगलोर में लंबे समय से चल रहा है। इस प्रवृत्ति को अब राज्य के दूसरे हिस्सों में पनपते हुए देखा जा सकता है, खासतौर से बेलगाम और धारवाड़ जैसे क्षेत्रों में। बेंगलुरु में यह प्रवृत्ति 1990 के दशक से है। इसलिए स्लम बस्तियां ज्यादातर उन क्षेत्रों में स्थित हैं जहां सेवा क्षेत्र बढ़ रहे थे।

तीसरा, वहां बेकार सरकारी ज़मीन काफी थी, और हमने इन स्थानों पर क़ब्जा कर लिया था। अब यह है कि नेता और कई बिल्डरों को दस्तावेज मिल रहे हैं और वे इन ज़मीनो को हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, बैंगलोर में 400 स्लम बस्तियां हैं। लेकिन, अगर आप हमसे पूछते हैं तो एक हज़ार से अधिक स्लम बस्तियां हैं। सरकार ने केवल घोषित स्लम बस्तियों को माना है, न कि अविकसित और किरायेवाली स्लम बस्तियों को, और न ही बिहार, पश्चिम बंगाल और अन्य स्थानों से आए मजदूरों को दिए गए आश्रय स्थलों को। इसलिए, स्लम बस्ती घोषित करने के लिए कम से कम भोतिक संरचनाएं और इसकी विशेषताएं हैं लेकिन ये बस्ती शहर के ऐसे हिस्से में मौजूद है जिसे पहचान करना मुश्किल है।

उत्तरी कर्नाटक के प्रवासी निर्माण श्रमिकों को आवंटित नेला बडिगे नामक स्लम बस्ती है। लोग बिल्डरों को प्रति माह 500 रुपए या उससे अधिक का भुगतान करते हैं, और निर्माण पूरा होने तक रहते हैं। वे लोग जो बंगाल, बिहार और उत्तर-पूर्व से आते हैं, उन्हें ये आश्रय उपलब्ध कराए जाते हैं, क्योंकि उन्हें हर दिन शहर में रहना पड़ता है। इन श्रमिकों को ज्यादातर निर्माण श्रमिकों द्वारा काम दिया जाता है, और इनसे दिन में 18 घंटे काम कराया जाता है। यही कारण है कि इन्हें परियोजना के आसपास के आश्रय में रखा जाता है। उनके पास जाना और उनसे बात करना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि उन्हें किसी के साथ बातचीत करने नहीं दिया जाता है। अगर किसी को इन लोगों से बात करनी है तो उसे ठेकेदार से होकर जाना होगा।

इन श्रमिकों को इस शहर में लाने का एक आर्थिक कारण है। शहर में स्लम बस्ती में रहने वाले लोग संगठित हैं, और दबाव समूहों के रूप में काम कर रहे हैं। इसलिए सरकारी निकाय और निर्माण कंपनियों ने बाहर से मज़दूर लाते हैं और उन्हें इन आश्रय स्थलों में रखते हैं।

कर्नाटक स्लम क्षेत्र (सुधार और समाशोधन) अधिनियम, 1973 से आपका अनुभव क्या रहा है?

ये अधिनियम 1975 से था और बोर्ड 1978 में गठित किया गया था। हालांकि, 2000 की बात है जब हमें इसके प्रावधानों के बारे में पता चला। मौजूदा अधिनियम को सामने लाने में एसजेके ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस अधिनियम में पांच से छह संशोधन हुए हैं, और अधिनियम के आधार पर एक बोर्ड भी गठित किया गया था। एसएम कृष्णा की सरकार में बेंगलुरू ने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय खेल और अन्य कार्यक्रमों की मेजबानी की। उस समय शहर में कई स्लम बस्तियां हटा दी गईं, और इस सरकार ने स्लम बस्तियों को जलाने का प्रयास किया था। हर हफ्ते बीस बस्तियों से कम नहीं जलाया गया। इस समय राज्य भर में विभिन्न वाम संगठन, दलित संगठन और गैर सरकारी संगठनों ने स्लम बस्तियों के लिए कर्नाटक संयुक्त कार्य समिति बनाने के लिए एक साथ आए। यह एक बड़ा मंच है और इस मंच के माध्यम से हमें इस अधिनियम के बारे में जानकारी हुई।

जब हमने इस अधिनियम को देखा तो हमने महसूस किया कि इस अधिनियम को कुछ हद तक इस्तेमाल किया जा सकता है, ताकि स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों के हितों की रक्षा हो सके। इस अधिनियम में निश्चित रूप से कमी है लेकिन हमारे अधिकारों के लिए लड़ने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसलिए हमने लोगों को इस अधिनियम के बारे में शिक्षित करने का फैसला किया। हम दो कैसेटों के साथ सामने आए: एक को स्लम क़ायदे (स्लम कानून) कहा जाता था और दूसरा स्लम ध्वनि (स्लम की आवाज़) था। पहला वाला उत्तरी कर्नाटक क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली में था, और हमने इस कैसेट का इस्तेमाल करके उन क्षेत्रों में इस अधिनियम को पेश किया। दूसरा वाला मंड्या के राजू [टीबी 3] द्वारा रिकॉर्ड किया गया था। इन कैसेटों की मदद से हमने नुक्कड़ नाटकों की स्क्रिप्ट लिखी और छह महीने के लंबे अभियान का भी आयोजन किया। हमने इस अधिनियम पर ध्यान केंद्रित किया और स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों,संगठनों और उनके नेताओं से चर्चा की जो स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों के हितों के लिए काम कर रहे हैं।

साल2002 में इस अधिनियम में एक संशोधन किया गया था। ये संशोधन लंबे समय तक एक अध्यादेश रहा और इस अवधि के दौरान, हमने इन लोगों से संबंधित क्लॉज प्रस्तुत किए जिन्हें इस संशोधन में जोड़ा जाना आवश्यक था। इसके बाद स्लम घोषित करने, भूमि अधिग्रहण, धारा 56 का उपयोग करके ज़मीन की अधिसूचना को चुनौती देने और स्लम बस्तियों से शराब की दुकानों को बेदखल करने के लिए धारा 58 का इस्तेमाल करने की मांग की गई। ये चीजें केवल इस अधिनियम के कारण ही संभव थीं। इससे पहले कि हम इस अधिनियम के बारे में जानते, हम महसूस करते थे कि हम सरकार के सामने भीख मांग रहे थे। अब जब हम इस अधिनियम के प्रावधानों को जानते हैं तो हम खुद को व्यक्त करने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने में सक्षम हैं।

 

 

 

कर्नाटक के लोग आगामी चुनावों को किस तरह देखते हैं? आपके मुताबिक़, राज्य में राजनीतिक दलों का नज़रिया क्या है?

आज कर्नाटक में चुनाव केवल राजनीतिक दलों और कुछ खास लोगों का एक मसला बन कर रह गया है। लोग और उनकी भागीदारी केवल वोटों तक सिमट कर रह जाती है। खासकर चुनाव के दौरान, आदर्श रूप से कोई उम्मीद करेगा कि एक खास राजनीतिक दल लोगों की आवाज़ का प्रतिनिधित्व करेंगे; लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। राज्य में ये राजनीतिक दल अपनी जीत की संभावनाओं और उन कारणों के बारे में बात करने में अधिक रुचि रखते हैं जो उनकी जीत को आसान बनाएंगे। वास्तव में, इन पार्टियों को लोगों द्वारा सामना की जाने वाली समस्याओं और राज्य में होने वाले मुद्दों के बारे में बात करनी चाहिए जो वे नहीं कर रहे हैं। इस तरह चुनाव के दौरान उम्मीदवार जो राज्य के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं उन्हें इन सभी मुद्दों के बारे में बात करना चाहिए था। राज्य में वैकल्पिक राजनीति की आवश्यकता है। इस वैकल्पिक राजनीति को लाने के प्रयास किए गए, लेकिन यह असंभव प्रतीत होता है; और इसके कारण राज्य में लोगों की समस्याओं को जगह नहीं मिल रही है।

 

राज्य में राजनीतिक दलों ने स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों तक कैसे संपर्क और उनके मसलों पर उनका क्या नज़रियां है विशेष रूप से पूर्व चुनाव प्रचार के दौरान? स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों और आपके संगठन का इन राजनीतिक दलों से क्या मांग हैं?

सभी राजनीतिक दलों का उद्देश्य स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों के वोटों पर क़ब्ज़ा करना है। कोई भी स्थानीय प्रभावी युवा नेता जो चुनाव लड़ रहा है प्रचार के लिए दस साल पहले स्लम बस्तियों के लोगों से संपर्क करेगा और आख़िर में उनके वोटों का फायदा उठाएगा। यह प्रवृत्ति हमारी चिंता का विषय था। हम इसे कैसे रोक सकते हैं, यह एक सवाल था। हमने इस प्रश्न को परिलक्षित किया और चुनाव के दौरान इन नेताओं को अपना घोषणापत्र प्रस्तुत करने का फैसला किया। हमने पिछले दो चुनावों में ऐसा ही किया था।

इन दो घोषणापत्रों में हमने जो सबसे महत्वपूर्ण बिंदु उठाए थे: पहला, हमें भूमि स्वामित्व अधिकारों की आवश्यकता है, और दूसरा, स्लम बस्तियों के लिए एक मंत्रालय स्थापित किया जाना चाहिए। इसके अलावा स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों के लिए आवास अधिकार अधिनियम को स्थान मिलना चाहिए। हमने कुछ12 बिंदु दिए थे: स्ट्रीट वेंडरों के लिए एक अधिनियम पारित किया जाना चाहिए, खानाबदोश समुदाय का पहचान किया जाना चाहिए, स्लम बस्तियों का विकास और ऋण में छूट जैसी हमारी कुछ मांगें थीं। सत्ता में आने के बाद इस सरकार ने हमारी सभी मांगों को पूरा नहीं किया है। हमने इस चुनाव के लिए घोषणापत्र में संशोधन किया है और 10 मांगें प्राप्त की हैं।

इस सरकार के अनुसार घोषित स्लम बस्तियों में 45 लाख लोग हैं। हमारे अनुसार शहरी आबादी में क़रीब एक करोड़ स्लम बस्ती में रहने वाले लोग हैं। इसलिए हम आवास विभाग से अलग होने और स्लम बस्तियों के विकास के लिए एक मंत्री की नियुक्ति की मांग करते हैं। स्लम बस्तियों के विकास के लिए पहले से ही एक बोर्ड है, लेकिन हम विकास के लिए इस बोर्ड का इस्तेमाल करके ज्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं। मौजूदा कांग्रेस सरकार ने कैबिनेट में बोर्ड के सदस्यों को शामिल किया और हमें बताया कि उन्होंने हमारी मांग पूरी कर ली है। लेकिन, यह वह नहीं है जो हम चाहते हैं। हम एक अलग विभाग चाहते हैं क्योंकि बोर्ड और विभाग के बीच अंतर है।

हमें भूमि के अधिकार की भी आवश्यकता है। अब स्लम बस्ती के रूप में घोषित होने के बाद हमारे पास स्लम बस्ती में रहने के लिए हमारे पास 15 साल का समय है। 15 वर्षों के बाद हमें बेदखल कर दिया जाता है। इसलिए हम ज़मीन के अधिकार की मांग करते हैं। वर्तमान सरकार ने राजस्व अधिनियम में 94 सीसी नामक संशोधन किया है, और इस संभावना के लिए एक जगह बनाई है। इस सरकार को 2 लाख से अधिक आवेदन प्राप्त हुए हैं, और अब तक इस सरकार ने1,08,000 आवेदनों का ही जवाब दिया है, और कई आवेदन लंबित हैं। इस बोर्ड का कहना है कि कर्नाटक में 2,760 स्लम बस्तियां हैं और नगर प्रशासन के निदेशक के अनुसार 3,600 स्लम बस्तियां हैं। लेकिन, 1,184 स्लम बस्तियां शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) की ज़मीन पर है। ये नगर पालिका की ज़मीन हैं। और ये ज़मीन 94 सीसी के तहत उपयुक्त नहीं हैं, इसलिए हमें इन स्लम बस्तियों को भी पात्रता के योग्य होने की आवश्यकता है। इसके साथ-साथ हम 2015-2016 में राज्य में आयोजित जाति सर्वेक्षण के आधार पर सामाजिक न्याय को फिर से परिभाषित करने की भी मांग कर रहे हैं।

इस चुनाव के लिए हमारे घोषणापत्र ने एक आवाज़ उठाई है: ज़मीन और आवास के लिए हमारा वोट। और हमने सभी राजनीतिक दलों को यह स्पष्ट कर दिया है। हमने अपनी मांगों के लिए प्रचार करना शुरू कर दिया है। बीजेपी के अलावा हमने कांग्रेस और जेडी(एस) से संपर्क किया है। ये दोनों पार्टियां इस घोषणापत्र के बारे में बात कर रही हैं। कांग्रेस इस घोषणापत्र के आधार पर चार डिवीजनों में लोगों से साक्ष्य और बयान भी एकत्र कर रही है। कांग्रेस के वीरप्पा मोइली, एच विश्वनाथ और जेडी (एस) के एचडी कुमारस्वामी इन मांगों के बारे में बात कर रहे हैं।

पिछले चुनावों में कांग्रेस ने 165 वादे किए थे और जिनमें से तीन स्लम बस्तियों पर पर केंद्रित था। उन्होंने दो वादे पूरे किए हैं। पहला, ऋण छूट: स्लम बस्तियों में रहने वाले लगभग अठ्ठावन हजार लोगों को वाल्मीकि आवास योजना के तहत घर दिए गए और 276 करोड़ रुपए के ऋण और ब्याज को माफ कर दिया गया। दूसरा, हमने खाद्य प्रणाली के सार्वभौमिकरण के लिए कहा था। हालांकि यह नहीं किया गया था। अन्नभाग्य योजना जैसी योजनाओं के तहत जिसे 2009 की बीजेपी सरकार ने पारित किया था। एक वादा जो अभी तक पूरा नहीं हुआ है वह भूमि स्वामित्व का है और इसके साथ ही उन्होंने वादा किया था कि वे बेहतर आवास के लिए काम करेंगे: उन्होंने एक वर्ष में तीन लाख घरों का निर्माण करने का वादा किया था, और उनके अनुसार, उन्होंने बारह लाख घर बनाए, लेकिन शहरी क्षेत्रों में उन्होंने केवल 38,000 घरों का निर्माण किया है। इसलिए इस घोषणापत्र में हम आवास और भूमि पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।

हमारे पास विशेष निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं के आधार पर भी मांग है। हम इन निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के समक्ष भी इन मांगों रख रहे हैं। अभी तक, हम किसी को वोट देना छोड़ देंगे। अब यूनियनों के कारण चीजें बदल गई हैं,जब वे प्रचार के लिए आते हैं तो इन उम्मीदवारों को लोगों की मांगों के बारे में बात करना महत्वपूर्ण लगता है। यह केवल तब हुआ है जब स्लम में रहने वाले लोगों में राजनीतिक चेतना उभर रही है।

कर्नाटक में किसी भी स्लम बस्ती को वोट बैंक के रूप में देखा जाता है न कि एक समुदाय के रूप में; क्योंकि स्लम बस्ती में विविध समुदायों के लोग रहते हैं,और इसलिए इसे किसी समुदाय के रूप में कभी नहीं देखा जाता है। राज्य की राजनीति पर स्लम बस्तियों के लोगों को शिक्षित करने के लिए एक अभियान चलाया गया था जिसने राजनीतिक लहर पैदा की। लोग अब दावा कर रहे हैं कि वे एक समुदाय हैं। हमें याद रखना चाहिए कि स्लम बस्तियों के लोगों को बताया गया था कि मतदान करना दान का काम है, लेकिन अब उन्होंने इसे एक राजनीतिक हथियार के रूप में भी पहचाना है।

स्लम बस्तियों के लोगों को वोट बैंक के रूप में देखा गया था या देखा जाता है। वे कमज़ोर स्थिति में भी हैं। राजनीतिक दलों द्वारा इस कमज़ोरी का इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है और शहर में सांप्रदायिक हिंसा में वृद्धि के संदर्भ में आप इस चुनाव में बीजेपी के प्रचार को कैसे देखते हैं?

स्लम मोर्चा बीजेपी की एक शाखा है जो स्लम बस्तियों में काम करती है। इस शाखा ने हाल ही में स्लम दूर्भाग्य नामक एक रिपोर्ट लाई है। इस अध्ययन ने उन चीज़ों को उजागर नहीं किया है जिसकी उम्मीद थी। उन्होंने स्लम बस्तियों में घरों की कमी के बारे कहा है और इस तरह उन्होंने घर देने का वादा किया है। इसके अलावा वे कुछ और नहीं कर सकते हैं। उन्होंने राज्य भर में स्लम वास्तव नामक एक कार्यक्रम भी आयोजित किया था। इस पार्टी के सभी प्रमुख नेताओं ने हिस्सा लिया था। इसके पीछे कारण यह था कि 80 निर्वाचन क्षेत्रों में स्लम बस्ती में मतदान करने वाले लोगों की बड़ी आबादी है, और इसलिए चुनाव के दौरान स्लम बस्ती के लोग बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। उन्होंने स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों के मुद्दों के बारे में कुछ भी नहीं कहा है। अगर वे स्लम बस्तियों के लोगों की तरह रहने की हिम्मत रखते थे, तो उन्हें स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों के रोज़मर्रा के संघर्षों के बारे में बात करने का मौका मिलेगा।

बीजेपी हमारे घोषणापत्र के बारे में बात कर सकती है लेकिन वह ऐसा नहीं करती है। प्रधानमंत्री मोदी ने प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) के तहत सार्वजनिक संसाधन के रूप में स्लम बस्तियों के लोगों के लिए भूमि अधिग्रहण की घोषणा की है। इसने शहर में कुल भूमि हिस्से का केवल 2% लिया है, जो स्लम बस्तियों के लोगों का था। अब पूछे जाने पर हमें कॉर्पोरेट को अपनी ज़मीन देना होगा। हमारे पास सवाल है कि साल 2009 में ज्यादातर स्लम बस्ती क़रीब 40 स्लम बस्ती उत्तर कर्नाटक में बाढ़ से नष्ट हो गई थी। इस आपदा के 2,000 पीड़ित परिवारों को कोई मुआवजा और घर नहीं मिला है।

उन्होंने स्लम बस्तियों के लिए कुछ भी नहीं किया है। हम उनके स्लम वास्तव के पीछे उनके इरादों पर शक है। हमें डर है कि इन लोगों ने इस कार्यक्रम को स्लम ज़मीन पर क़ब्ज़ा के इरादे से किया था। उनका स्लम मोर्चा और उसके वर्कर्स सांप्रदायिक भावनाओं को तैयार करने में शामिल हैं। वे कुछ स्लम बस्तियों में सफल भी रहे हैं खासकर बैंगलुरू की स्लम बस्तियों में। वे राज्य के अन्य क्षेत्रों की स्लम बस्तियों में सफल नहीं हो सके, लेकिन बेंगलुरु में वे ऐसा कर सकते हैं और वे इसे कर रहे हैं। जिन चीज़ों के बारे में वे बात कर रहे हैं वे सभी जातिगत तरीके को बनाए रखने को लेकर है। वे हमारे बारे में भिखारी के रूप में सोचते हैं और हमें उपहार देते हैं। उन्हें हमारे मुद्दों के बारे में बात करना शुरू करना चाहिए।

हमें उन सांप्रदायिक भावनाओं को निपटाने के लिए तैयार और जागरूक होना है जिन्हें वे फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। एसजेके स्लम बस्तियों में शिक्षित युवाओं को बसवन्ना, बुद्ध और अम्बेडकर की विचारधाराओं के बारे में शिक्षित कर रहा है; इस प्रकार जागरूक कर रहे है कि हमें सांप्रदायिक हिंसा का विरोध क्यों करना चाहिए। हमने कहा है कि 'आपके पिछले वोट के चलते एससी/एसटी अत्याचार अधिनियम में बदलाव आया है, और यदि आप इस बार मतदान करते हैं, तो आप आरक्षण भी खो देंगे।"

एक प्रगति यह है कि ये पार्टी बड़ी रैलियों के माध्यम से जनता से संपर्क नहीं कर रही है, बल्कि यह दरवाज़े-दरवाज़े जाकर प्रचार कर रही है। इसने अपनी रैलियों में स्लम बस्तियों में युवाओं की भागीदारी को कम कर दिया है।

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