NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
नज़रिया
भारत
राजनीति
रोती बिलखती युवतियों के बीच अट्टहासी चुनावी भाषण
विडम्बना यह है कि इन युवतियों के आँसू मुख्यप्रष्ठ और प्राइम टाइम पर नहीं थे। इनमें एक आतंकी कारगुज़ारियों की अभियुक्ता के कथित आँसुओं की ख़बर ज़ोर-शोर से बिना कोई सवाल उठाये दिखाई जा रही थी।
बादल सरोज
20 Apr 2019
रोती बिलखती युवतियों के बीच अट्टहासी चुनावी भाषण

एक दूसरे के आँसू पोंछती युवतियों की कल की तस्वीर विचलित करने वाली थी। वे जेट एयरवेज़ के उन 20-22 हज़ार कर्मचारियों में थीं जो बिना किसी क़सूर के अचानक सड़क पर आ गए। उनके एहसासों को सिर्फ़ "प्लीज़ मेरे परिवार को बचा लीजिये" की आर्तनादी निजी गुहार तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता। रोज़गार छिनना सिर्फ़ निजी मसला नहीं है। यह एक गुणात्मक आघात है; यह मनुष्य से मनुष्य होने की अनुभूति को छीन लेना है। व्यक्ति को इंसान होने के स्टेटस से वंचित कर देना है। विडम्बना यह है कि इन युवतियों के आँसू मुख्यप्रष्ठ और प्राइम टाइम पर नहीं थे। इनमें एक आतंकी कारगुज़ारियों की अभियुक्ता के कथित आँसुओं की ख़बर ज़ोर-शोर से बिना कोई सवाल उठाये दिखाई जा रही थी।
जिस देश की आधी आबादी 25 साल से कम और जनसंख्या का 65 प्रतिशत 35 वर्ष से कम आयु का हो उस देश में सत्ता में फिर से आने की लालसा पाले बैठी पार्टी के लिए रोज़गार कोई मुद्दा ही न हो यह अचरज की बात है। ख़ासतौर से तब जब कि यह पार्टी पिछ्ला चुनाव 2 करोड़ युवाओं को प्रतिवर्ष रोज़गार देने के उस लुभावने वायदे के साथ जीती थी, जिसे इसके मनोनीत प्रधानमंत्री मोदी ने सितम्बर से 10 मई 2014 के बीच की अपनी 437 रैलियों में से हर एक रैली में दोहरा-दोहरा कर अपना गला बिठा लिया था। होना तो यह चाहिए था कि इस बार वे अपने वादे पर अमल का रिपोर्ट कार्ड लेकर आते। इसे तो छोड़िये, रोज़गार ही उनके भाषणों से गधे के सिर से सींग की तरह ग़ायब है। यह सिर्फ़ ना किए काम को छुपाने का मसला नहीं है, यह कहे से ठीक उल्टा किये की पर्दादारी है।

हाल में सामने आयी अज़ीम प्रेमजी रिसर्च फ़ाउंडेशन की रिपोर्ट कहती है कि अकेले नोटबंदी ने 50 लाख नौकरियाँ हमेशा के लिए ख़त्म कर दीं। ये उन 5 करोड़ रोज़गारों में शामिल हैं जिन्हें देहाती और शहरी, दिहाड़ी और असंगठित क्षेत्रों में नोटबंदी ने निगल लिया। रोज़गार ख़ात्मा यहीं नहीं रुका। अकेले पिछले वर्ष में 88 लाख महिलाओं सहित 1 करोड़ 1 लाख लोगों ने अपना रोज़गार गँवाया है।

सेंटर फ़ौर मॉनिटरिंग ऑफ़ इंडियन इकॉनोमी के मुताबिक़ इस साल बेरोज़गारी बढ़कर 45 वर्षों की सबसे ऊँची दर पर पहुँच कर 7.2 फीसदी पर पहुँच गयी है। वहीं अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद और भी डरावना दृश्य खींचती है। इसके मुताबिक़ देश भर के इंजीनियरिंग कालेजों से निकले 15 लाख इंजीनियरों में से 9 लाख यानी 60 प्रतिशत बेरोज़गार ही रहते हैं। इसी से मिलती जुलती हालत बाक़ी शिक्षित युवाओं की है। ख़ुद केंद्र सरकार के श्रम ब्यूरो के अनुसार 58% स्नातक और 62% स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त युवा बेरोज़गार हैं। यह बेरोज़गारी युवाओं को ही नहीं पूरे देश को कातर और दयनीय बना रही है। योगी के उत्तरप्रदेश में 368 चपरासियों की पोस्ट के लिये स्नातकों सहित 23 लाख के आवेदन, रेलवे की न भरी जाने वाली 1 लाख पोस्ट्स के लिए 2 करोड़ आवेदन इसी व्याकुलता के उदाहरण हैं।

महिला रोज़गार में एनएसएसओ के आंकड़े और अधिक चिंताजनक हैं। उनके मुताबिक़ 5 साल में ग्रामीण महिला बेरोज़गारी 9.7 से बढ़कर 17.3 और शहरी महिला बेरोज़गारी 10.4 से बढ़कर 19.8 प्रतिशत हो गयी है।

jet1_0.jpg

रोज़गार सिर्फ़ व्यक्ति और उसके परिवार के जीवनयापन का साधन नहीं है। वह राष्ट्र निर्माण है। अर्थव्यवस्था की धमनियों का प्रवाह है। समाज की प्राणवायु है।  मनुष्यता का परिष्कार और नागरिक मूल्यों का श्रृंगार है।  मोदी इस पर इसलिए चुप हैं क्योंकि उनकी नीतियों ने सिर्फ़ रोज़गार संहार ही नहीं किया - बल्कि देश की 50 फ़ीसदी युवा आबादी को पकौड़ा रोज़गार, बूट पोलिश रोज़गार, भीख रोज़गार, गोबर रोज़गार के सुझाव दे दे कर जले पर नमक भी छिड़का है, अपमानित भी किया है।

जो मिल भी रहा है वह भी कम ज़लालत नहीं है। लाखों शिक्षक असली वेतन के दसवें हिस्से से भी कम पर नौकरियों में हैं। आंगनबाड़ी, आशा, मध्यान्ह भजन, पंचायत, स्वास्थ्य, रोज़गार सहायक आदि आदि अनेक नामों के करोड़ों कर्मी हैं जिन्हें मानदेय के नाम पर अपमानदेय मिल रहा है। ठेका और संविदा और अस्थायी नौकरियाँ बंधुआ मज़दूरी का नया नाम बन गयी हैं। मुश्किल यह है कि जिस रास्ते पर देश को धकेल दिया गया है उस पर भविष्य के आसार भी अच्छे नज़र नहीं आते। पूरी दिशा विनिर्माण (मैन्युफ़ैक्चरिंग) क्षेत्र के बजाय सेवा (सर्विस) क्षेत्र के विकास की अवधारणा पर टिकी है। वास्तविक निवेश (ग्रीन फ़ील्ड इन्वेस्टमेंट) की बजाय आभासीय निवेश; सटोरिया बाज़ार (शेयर मार्किट) के लेनदेन पर खड़ी है। नतीजे में जो विकास का रोज़गारहीन (जॉब-लैस) रास्ता था वह उससे आगे बढ़कर अब 'रोज़गार छीन' (जॉब-लॉस) रास्ता हो गया है।

बदमज़गी तब और बढ़ जाती है जब ठीक इसी समय में एक धन्नासेठ मुकेश अम्बानी अकेले 2017 की साल में 1 लाख 5 करोड़ रुपये कमा लेते हैं। यह राशि कम नहीं है। भारत के किसी सामान्य व्यक्ति को प्रचलित न्यूनतम मज़दूरी दर पर काम करते हुए इतना कमाने के लिए 1 लाख 87 हज़ार वर्ष लगेंगे। देश की मात्र 1 फ़ीसदी ऊपरी सतह वाली आबादी मुल्क की 58.4 प्रतिशत दौलत पर क़ब्ज़ा कर लेती है। कुछ भयानक गड़बड़ है।  इसे दुरुस्त करने के बजाय इस कैंसर जैसे मामले को उपलब्धि बताने का नज़रिया देश के प्रति अपराध है। ख़ासतौर से उस देश में जिस देश का संविधान दौलत और कमाई के केन्द्रीयकरण के निषेध की बात लिखता है। अधिकतम और न्यूनतम आमदनी में 1 और 10 के अनुपात का प्रावधान बताता है।

किसी सभ्य लोकतंत्र में इतना बड़ा सवाल सत्ता पार्टी और उसके मीडिया की चर्चाओं में ही न आये यह भारत में ही मुमकिन है। यहाँ चुनावों में हिन्दू-मुस्लिम है, साहू-मोदी है, पुलवामा-बालाकोट है, धर्म-मज़हब है; बस देश नहीं है। 

लोकतंत्र में लोक की भी बड़ी भूमिका है। यदि तंत्र पर क़ाबिज़ डेढ़ चतुर असली मुद्दों को विमर्श में नहीं लाते, बल्कि छुपाते हैं तो लोक की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह उन्हें एजेंडे पर लाए। 

बतोलेबाज़ी के सिद्धस्त भाषणवीर नेता से फ़िराक़ जलालपुरी साहब के इस शेर में कहें कि; 
       "तू इधर उधर की न बात कर, ये बता कि क़ाफ़िला क्यों लुटा
         मुझे रहज़नों से गिला नहीं, तिरी रहबरी का सवाल है! "

JET Airways
jet airways protest
India
NDA Govt
Narendra modi
Elections
2019 loksabha elsctions

Related Stories

PM की इतनी बेअदबी क्यों कर रहे हैं CM? आख़िर कौन है ज़िम्मेदार?

ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक

यूपी में संघ-भाजपा की बदलती रणनीति : लोकतांत्रिक ताकतों की बढ़ती चुनौती

बात बोलेगी: मुंह को लगा नफ़रत का ख़ून

ख़बरों के आगे-पीछे: क्या अब दोबारा आ गया है LIC बेचने का वक्त?

ख़बरों के आगे-पीछे: गुजरात में मोदी के चुनावी प्रचार से लेकर यूपी में मायावती-भाजपा की दोस्ती पर..

कार्टून क्लिक: चुनाव ख़तम-खेल शुरू...

ख़बरों के आगे-पीछे: राष्ट्रीय पार्टी के दर्ज़े के पास पहुँची आप पार्टी से लेकर मोदी की ‘भगवा टोपी’ तक

कश्मीर फाइल्स: आपके आंसू सेलेक्टिव हैं संघी महाराज, कभी बहते हैं, और अक्सर नहीं बहते

ख़बरों के आगे-पीछे: केजरीवाल मॉडल ऑफ़ गवर्नेंस से लेकर पंजाब के नए राजनीतिक युग तक


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    वर्ष 2030 तक हार्ट अटैक से सबसे ज़्यादा मौत भारत में होगी
    23 May 2022
    "युवाओं तथा मध्य आयु वर्ग के लोगों में हृदय संबंधी समस्याएं बढ़ रही हैं जो चिंताजनक है। हर चौथा व्यक्ति हृदय संबंधी रोग से पीड़ित होगा।"
  • आज का कार्टून
    “मित्रों! बच्चों से मेरा बचपन का नाता है, क्योंकि बचपन में मैं भी बच्चा था”
    23 May 2022
    अपने विदेशी यात्राओं या कहें कि विदेशी फ़ोटो-शूट दौरों के दौरान प्रधानमंत्री जी नेताओं के साथ, किसी ना किसी बच्चे को भी पकड़ लेते हैं।
  • students
    रवि शंकर दुबे
    बच्चों को कौन बता रहा है दलित और सवर्ण में अंतर?
    23 May 2022
    उत्तराखंड में एक बार फिर सवर्ण छात्रों द्वारा दलित महिला के हाथ से बने भोजन का बहिष्कार किया गया।
  • media
    कुश अंबेडकरवादी
    ज़ोरों से हांफ रहा है भारतीय मीडिया। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में पहुंचा 150वें नंबर पर
    23 May 2022
    भारतीय मीडिया का स्तर लगातार नीचे गिर रहा है, वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 150वें नंबर पर पहुंच गया है।
  • सत्येन्द्र सार्थक
    श्रम क़ानूनों और सरकारी योजनाओं से बेहद दूर हैं निर्माण मज़दूर
    23 May 2022
    निर्माण मज़दूर राजेश्वर अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं “दिल्ली के राजू पार्क कॉलोनी में मैंने 6-7 महीने तक काम किया था। मालिक ने पूरे पैसे नहीं दिए और धमकी देकर बोला ‘जो करना है कर ले पैसे नहीं दूँगा…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License