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आरबीआई तो सरकार को बचा रहा है लेकिन क्या सरकार भी आरबीआई को बचा रही है?
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने 99,122 करोड़ रुपये भारत सरकार को अपने सरप्लस से देने का एलान किया है। ...जिस तरह से नोटबंदी के लिए आरबीआई को पूरी तरह से अनसुना कर फैसला लिया गया, उसी तरह का संबंध सरकार और आरबीआई के बीच तो नहीं बनता जा रहा? जहां पर आरबीआई की स्वायत्तता कोई मायने नहीं रखती। सब कुछ सरकार तय करती है।
अजय कुमार
02 Jun 2021
rbi

देश एक सिस्टम के तहत चलता है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) हमारे देश के सिस्टम का एक अहम अंग है। देश के आर्थिक कामकाज, बैंकिंग प्रणाली, और पैसे के पूरे तंत्र पर निगरानी रखता है। चूंकि यह सिस्टम का अंग है और सिस्टम बेहतरीन तरीके से काम करें इसलिए जरूरी है कि यह आजाद रहे। लेकिन इस आजादी का मतलब यह नहीं कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि इसके नीतियों को निर्धारित न कर सकें। 

 जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) की प्रोफेसर अर्थशास्त्री जयती घोष एक सेमिनार में अपनी राय रखते हुए कहती हैं कि आरबीआई जैसी संस्था को खुली छूट नहीं दी जा सकती है कि वहां बैठे टेक्नोक्रेट जो फैसला लें वही मान लिया जाए। बल्कि आरबीआई और सरकार के बीच तालमेल होना चाहिए। आरबीआई का काम केवल महंगाई को नियंत्रित करने तक सीमित नहीं होना चाहिए। बल्कि रोजगार सृजन, गरीबी उन्मूलन और वित्तीय समावेशन से जुड़े काम पर भी उसका ध्यान होना चाहिए। यह सरकार और आरबीआई के बीच बेहतर तालमेल के साथ ही संभव हो सकता है। प्रबंधन की भाषा में कहें तो आरबीआई स्वायत रहे, लेकिन पूरी तरह से खुली छूट वाली संस्था ना बने। लेकिन यह तो सैद्धांतिक व्याख्या है।

 हकीकत यह है कि हमारे देश में चुनी हुई सरकारें अगर बहुत मजबूत होती हैं तो उनके पास इतनी ताकत आ जाती है कि वह किसी भी तरह की संस्था को अपने इशारों पर नाचते रहती हैं। मौजूदा भाजपा सरकार तो इसका सबसे शानदार उदहारण है। 

 रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने 99,122 करोड़ रुपये भारत सरकार को अपने सरप्लस से देने का एलान किया है। 

लेकिन यहां सोचने वाली बात यह है कि अगर कमाई रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की है तो इसका इस्तेमाल भी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को ही करना चाहिए,तो इतनी बड़ी राशि भारत सरकार को क्यों दी जा रही है? जबकि इन पैसों का इस्तेमाल रिज़र्व बैंक अपने रोजाना के कामकाज को सही तरह से करने के लिए, विदेशी मुद्रा का नियमन करने के लिए, बैंकिंग संकट आने पर बैंकों का सहारा बनने के लिए, किसी बैंक का दिवालिया निकलने पर उस बैंक की सहायता करने के लिए करती है। कहने का मतलब यह है कि केन्द्रीय बैंक अपने नियमों-कानून की वजह से बैंकों का बैंक जरूर कहा जाता है लेकिन इसकी साख या बैंकों का बैंक होना इस बात पर टिका होता है कि अर्थव्यवस्था में संकट आने के समय या बैंकिंग संकट आने के समय इन्हीं पैसों का इस्तेमाल होता है। इस तरह यह पैसे भारतीय अर्थव्यवस्था में साख बनाये रखने के लिए जरूरी हैं। सरकार के हाथ में इन पैसों का चले जाने का मतलब यह है कि अर्थव्यवस्था की साख पर बट्टा लगा देना।

लेकिन यह सब सोचने और समझने के बाद भी कोई कह सकता है कि रिजर्व बैंक इंडिया भारतीय सिस्टम का हिस्सा है। उसके पास पैसा है। कोविड की महामारी का समय है। इसलिए इस पैसे का इस्तेमाल होना चाहिए। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया अपना पूरा नकद नहीं दे रही। बल्कि ध्यान से पढ़िए वह अपना सरप्लस रिजर्व दे रही है। यानी वह उस पैसे को सरकार को दे रही है जो उसके पास अपनी जरूरतों को पूरा करने के बाद बचा है। विमल जालान कमेटी की अनुशंसा भी हैं कि आरबीआई अपने बैलेंस शीट के कुल धन का 6.5 से लेकर 5.5 फ़ीसदी तक आपातकालीन फंड रखकर बाकी पैसे सरकार को देने पर विचार कर सकती है।

यह तर्क बिल्कुल वाजिब है। अगर कोविड महामारी का संकट न भी हो। फिर भी अगर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पास अपनी जरूरतों को पूरा करने के अलावा सरप्लस पैसा है तो सरकार के विवेक के तहत उस पैसे का इस्तेमाल हो तो इसमें कोई परेशानी नहीं। बल्कि यह सही मंशा से लिया गया उचित कदम होगा। 

लेकिन क्या रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने तकरीबन 99000 करोड़ रुपये भारत सरकार को देने का एलान कर उचित कदम लिया है? क्या इसमें किसी तरह का पेच नहीं हैं?

भारतीय अर्थव्यवस्था की बारीकियों पर निगाह रखने वाले जानकार विवेक कौल अपने ब्लॉग पर लिखते हैं कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का अकाउंटिंग ईयर जुलाई से लेकर जून तक होता था। लेकिन साल 2020 में नियम बदले। अब रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का अकाउंटिंग इयर भी अप्रैल से लेकर मार्च हो गया है। इस तरह से देखा जाए तो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने जुलाई 2020 से लेकर मार्च 2021 के बीच केवल 9 महीने में तकरीबन 99000 करोड रुपये का सरप्लस हासिल करते हुए दिखाया है। 

जबकि जुलाई 2019 से लेकर जून 2020 तक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का सरप्लस तकरीबन 57000 करोड रुपये था। इसलिए सवाल यह बनता है कि अर्थव्यवस्था के इस भीषण हालत में केवल 9 महीने के भीतर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का रिजर्व सरप्लस 99000 करोड रुपये कैसे हो गया? 

1 फरवरी को बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि इस साल रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया राष्ट्रीयकृत बैंक और जीवन बीमा निगम जैसे वित्तीय संस्थानों से सरप्लस और लाभांश के तौर पर तकरीबन 53000 करोड़ रुपए की मदद मिलेगी तो आखिरकार चंद महीने में ऐसा क्या हो गया कि केवल रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से 99000 करोड रुपए की राशि मिल गई?

विवेक कौल लिखते है कि आरबीआई के गर्वनर शक्तिकांत दास गुप्ता ने जुगाड़ लगाया है। फॉरेक्स रिजर्व के तौर पर रखे गए डॉलर को बेचा गया है। बजट पेश करने के बाद बड़ी मात्रा में बेचा गया है। ऐसा नहीं है कि फॉरेक्स रिजर्व की बिक्री रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया नहीं करती है। भारतीय रुपये के विदेशी विनिमय दर को नियंत्रित करने के लिए आरबीआई फॉरेक्स रिजर्व को बेचने का भी उपाय अपनाती है। लेकिन इस बार ऐसा कोई मकसद नहीं था। मकसद साफ था कि भारत सरकार के पास पैसे की कमी थी। इसे पूरा करने के लिए साल भर में हुए डॉलर बिक्री में से तकरीबन 77% बिक्री बजट पेश करने के बाद हुई है। यानी पिछले 3 महीनों में आरबीआई ने फॉरेक्स रिजर्व जमकर बेचा है। 

तो इसका मतलब कहीं यह तो नहीं कि वित्त मंत्रालय की तरफ से आरबीआई को फोन घुमा दिया गया और आरबीआई ने पैसा जुगाड़ने के लिए एड़ी चोटी लगा दिया? क्या आरबीआई सच में सिस्टम का वैसा स्वायत्त हिस्सा है, जैसा उसे होना चाहिए या पूरी तरह से सरकार के अधीन होकर काम कर रहा है? अगर डॉलर बेचकर मुनाफा कमाया जा रहा है तो इसका मतलब कहीं यह तो नहीं कि रुपये को गिरते रहने दिया जाए जब ज्यादा गिरे तो डॉलर बेचकर मुनाफा कमा लिया जाएगा? क्या इस तरह से भारत आत्मनिर्भर हो पाएगा? आरबीआई चाहे तो नोट छाप कर सरकार को पैसा दे सकता है लेकिन ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? क्या राजकोषीय घाटे से जुड़ी नीति इतनी बड़ी बाधा बनती है कि महामारी में भी इसे बदलने की कोशिश न की जाए? क्या जिस तरह से नोटबंदी के लिए आरबीआई को पूरी तरह से अनसुना कर फैसला लिया गया, उसी तरह का संबंध सरकार और आरबीआई के बीच तो नहीं बनता जा रहा? जहां पर आरबीआई की स्वायत्तता कोई मायने नहीं रखती। सब कुछ सरकार तय करती है।

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