NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अर्थव्यवस्था
आरसीईपी (RCEP) : ‘क़ीमतों में प्रतिस्पर्धा’ का तर्क ध्यान भटकाने वाला है 
भारतीय उत्पादकों को बाज़ार की दया के भरोसे छोड़ना, जहाँ सस्ते आयात के चलते वे दौड़ से बाहर हो जाने वाले हैं, स्पष्ट तौर से  भेदभावपूर्ण है, जो और अधिक बेरोज़गारी को जन्म देगा।
प्रभात पटनायक
16 Nov 2019
RCEP

सरकार के आरसीईपी (क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी) समझौते से पीछे हटने के लिए मजबूर होने के साथ ही, एक नई बहस पैदा हो गई है: अगर भारत अन्य देशों से ढेर सारी वस्तुओं के उत्पादन में प्रतिस्पर्धी नहीं है, जिसके चलते इस तरह के माल के उत्पादकों ने ही सबसे आगे बढ़कर इस समझौते पर आपत्तियाँ दर्ज की थीं, तो फिर इन चीज़ों का उत्पादन ही क्यों किया जाना चाहिए?

और इसी से संबंधित एक तर्क घोषित करता है कि: अप्रतिस्पर्धी उत्पादकों के हितों की रक्षा करने के चक्कर में देश उन उपभोक्ताओं को कहीं न कहीं दण्डित कर रहा है जो अन्यथा आयातित वस्तुओं का उपभोग कर रहे होते; क्या ऐसा करना ठीक है?

इस पहले प्रश्न का तत्काल और स्पष्ट उत्तर (दूसरे नंबर पर हम बाद में आएंगे) यह है कि मूल्य प्रतिस्पर्धा के रूप में जो दिखाई देता है वह आमतौर पर विदेशी बाज़ारों पर क़ब्ज़ा करने की एक आक्रामक व्यापारी रणनीति को प्रतिबिंबित करता है जिसे सरकारें सब्सिडी की संस्था के माध्यम से या अवमूल्यित विनिमय दरों के ज़रिये अपनाती हैं।

कृषि के बारे में यह एक सच्चाई है (विशेष रूप से यूरोप और अमेरिका में, जहां भारी मात्रा में सब्सिडी प्रदान की जाती है, हालांकि ये देश आरसीईपी का हिस्सा नहीं हैं)। और वस्तुओं के निर्माण के क्षेत्र में भी यह एक सच्चाई है, ख़ासकर पूर्वी एशिया के संदर्भ में (जो आरसीईपी का एक हिस्सा है)।

इसलिए, प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य की अवधारणा एक भ्रामक विचार है; क्योंकि किसी भी देश में  स्पष्ट तौर पर प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य अनिवार्य रूप से उस देश के भीतर के राजकोषीय और विनिमय दरों की नीतियों के ढेर के भीतर हमेशा से विराजमान होती हैं। भारतीय उत्पादकों को "बाज़ार" की दया पर छोड़ना, जहां वे विदेशी सरकारों द्वारा प्रदान की जाने वाली सब्सिडी के कारण सस्ते आयात के चलते प्रतिस्पर्थी नहीं रह जाते हैं, इस प्रकार ज़ाहिर तौर पर अपमानजनक है।

इसके अलावा, हालांकि इसमें एक सैद्धान्त्विक तत्व भी मौजूद है, जिस पर अक्सर चर्चा नहीं की जाती है, जबकि यह चर्चा होनी चाहिए। यह इस तथ्य से संबंधित है कि आमतौर पर मुक्त व्यापार का तर्क एक धोखाधड़ी पर आधारित है: जिसमें यह मानकर चला जाता है कि सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएं, मुक्त व्यापार के लिए ख़ुद को खोलने पर आपस में  पूर्ण रोज़गार संतुलन तक पहुंच गई हैं (जहां श्रम सहित उनके सभी संसाधन पूरी तरह से उपयोग में लाए जा रहे हैं)। दूसरे शब्दों में कहें तो मुक्त व्यापार का तर्क,  इस संभावना को पहले से यह मानकर चलता है कि मुक्त व्यापार से बेरोज़गारी नहीं बढ़ेगी। यह एक ऐसी धारणा है जो औपनिवेशिक ग़ैर-औद्योगिकीकरण के हमारे अनुभव को हमारे ही चेहरे के सामने उड़ती चलती है, जो हमारी आधुनिक सामूहिक ग़रीबी की पूर्वजनक रही है।

यदि सारी दुनिया में (या एक मुक्त व्यापार समझौते के तहत बंधन में कुछ देशों का समूह), ऐसी कोई सत्ता हो जो कि समग्र मांग को ऊपर की ओर धक्का देती रहने वाली हो, जब तक कि सभी देशों के सम्पूर्ण संसाधनों का पूरी तरह से इस्तेमाल न हो जाए (या एक न्यूनतम स्तर तक श्रम की आरक्षित सेना निर्मित न हो जाए, क्योंकि पूंजीवाद में सबको रोज़गार की गारंटी हो जाए, जो कि कई अन्य ज्ञात कारणों से सबको मालूम है कि ऐसा होना असंभव है), तब फिर कोई बेरोज़गारी नहीं होगी (इस न्यूनतम के अलावा)।

लेकिन इस प्रकार की कोई सत्ता नहीं है जो यह सुनिश्चित कर सके कि मांग की कमी का अभाव बनाए रखा जा सके। इसलिए एक स्तर पर बेरोज़गारी (श्रम की आरक्षित सेना के अतिरिक्त और ऊपर) हमेशा मौजूद रहती है। मुक्त व्यापार समझौते का काम सिर्फ़ कुछ देशों से इस बेरोज़गारी के बोझ को कुछ दूसरे देशों के कंधों पर धकेलने का है।

यहां तक कि यदि हम एक बार को यह मान लेते हैं कि विभिन्न देशों में प्रतिस्पर्धात्मक क़ीमतें पूरी तरह से प्रचलित विनिमय दरों और मज़दूरी की दरों पर श्रम उत्पादकता के असुंतलन को प्रतिबिंबित करती हैं, अर्थात यहाँ पर कोई डंपिंग या सब्सिडी भी नहीं की जा रही है, तो यह फिर मुक्त व्यापार के ज़रिये कम उत्पादकता हासिल करने वाले देशों में यह सीधे तौर पर रोज़गार में लगने वाले श्रमिकों को पूरी तरह से काम से निकाल बाहर करने का काम करेगा।

अब यहाँ पर दो प्रश्न तत्काल पैदा होते हैं: पहला, यह कि फिर क्यों न कम उत्पादकता वाले देश अपनी विनिमय दर को तब तक कम कर लें, जब तक कि वे प्रतिस्पर्धा के लायक न बन जाएँ और इस प्रकार उन्हें बेरोज़गारी से भी छुटकारा मिल जायेगा? चूंकि विनिमय दर में मूल्यह्रास अपने आप से वास्तविक मज़दूरी की दरों में कमी ले आता है, इसलिए अक्सर यह सुझाव दिया जाता है कि एक कम उत्पादकता वाले देश को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके यहाँ वास्तविक मज़दूरी उचित रूप से कम बनी रहे, ताकि वह "प्रतिस्पर्धी" बना रहे और इस प्रकार, व्यापक स्तर पर बेरोज़गारी की पीठ पर सवार होने से बचा जा सके।

हालांकि, यह एक भ्रान्ति ही है: जिस देश में वास्तविक मज़दूरी की दरों में कमी की जाएगी उससे वह एक साथ लिए गए सभी देशों में कुल मांग में वृद्धि नहीं पैदा कर सकती है। इसलिए, एक देश जो बेरोज़गारी को कम करने के लिए विनिमय दर में मूल्यह्रास का उपक्रम करता है वह अपनी सीमा के भीतर तो बेरोज़गारी को कम करने में सफल हो सकता है, लेकिन असल में वह बेरोज़गारी का “निर्यात” कर रहा होता है, किसी और देश में। हालांकि, इस प्रकार के "निर्यात", अन्य देशों में निश्चित रूप से प्रतिशोध को आमंत्रित करने वाले होंगे, और इस प्रकार सभी देश विनिमय दर में कमी लाने की लड़ाई में जुट जायेंगे, परिणामस्वरूप, वास्तविक मज़दूरी को घटाने की आपस में होड़ लग जाएगी। इसलिए, यह किसी भी देश के भीतर मुक्त व्यापार से उत्पन्न होने वाली बेरोज़गारी की समस्या से निपटने का कारगर समाधान नहीं है।

इसके अलावा, फ़ाइनेंस कैपिटल को जिस प्रकार का वर्चस्व प्राप्त है, जो आज के दौर की ख़ासियत है, वह किसी भी प्रकार के विनिमय दर में मूल्यह्रास को, या यहां तक कि फ़लां देश में विनिमय दर मूल्यह्रास किये जाने की संभावना बन रही है, की भनक लगते ही (मुक्त-व्यापार की वजह से बेरोज़गारी के बारे में चिंतित किसी भी सरकार से इस प्रकार के उपाय लेने की अपेक्षा की जा सकती है) उस देश से वित्तीय बहिर्गमन का कारण बन सकती है जिसके बड़े पैमाने पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेंगे। इसलिए, विनिमय दरों में मूल्यह्रास का फार्मूला शायद ही मुक्त-व्यापार से उत्पन्न बेरोज़गारी की स्थिति से बाहर निकलने का कारगर तरीक़ा साबित हो।

यहाँ दूसरा सवाल उठता है: कि मुक्त व्यापार के माध्यम से उच्च लागत का माल उत्पादन करने वाले उत्पादक अगर विस्थापित हो रहे हैं तो इसमें ग़लत क्या है? चूंकि उनकी क़ीमत ज़्यादा है, इसलिये वे उत्पादन करते रहने के लायक ही नहीं हैं। और इसका हल इस प्रकार से दिए जाए, तो इसका उत्तर बेहद आसान है: यदि कुछ उत्पादन गतिविधियाँ जो उच्च लागत के चलते विस्थापित हो रही हैं, उन्हें किसी दूसरी अन्य गतिविधियों में शामिल कर दिया जाए, तो ऐसे विस्थापन को लेकर अधिक परेशान होने की ज़रूरत नहीं है; लेकिन, चूंकि ऐसा कुछ होने नहीं जा रहा, इसलिए मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने का कोई अर्थ भी नहीं रह जाता, जिससे सिर्फ़ बेरोज़गारी ही बढ़ेगी। दूसरे शब्दों में कहें तो, किसी भी देश को निश्चित तौर पर ऐसे व्यापार प्रतिबंध लगाने चाहिए जिससे रोज़गार को बचाए रखा जा सके; और निर्माणकर्ताओं द्वारा इस प्रकार के प्रतिबंधों की मांग पूरी तरह से न्यायसंगत हैं।

पहली नज़र में ऐसा लग सकता है कि यह तर्क "दक्षता" के ख़िलाफ़ किया जा रहा है, और  उत्पादन सिर्फ़ उसी जगह पर होना चाहिए जहाँ यह सबसे अधिक "कुशलता" से किया जा सकता हो। लेकिन "दक्षता" का तर्क केवल निम्नलिखित अर्थों में एक वैध मान्य होना चाहिए: यदि, सभी उपलब्ध संसाधनों के पूर्ण उपयोग के साथ, कोई देश सिर्फ़ कुछ चुनिन्दा वस्तुओं के उत्पादन में अपनी विशेषज्ञता हासिल करने और भारी संख्या में उन वस्तुओं के उत्पादन में सफलता प्राप्त कर सकता है और अन्य वस्तुओं का उत्पादन करना बंद कर दे: और जिसे वह आयात के माध्यम से प्राप्त कर सकता है, तो उसे ऐसा करना चाहिए।

मुक्त व्यापार के लिए "दक्षता" का तर्क, एक तरह से पहले से मानकर चलता है कि सभी संसाधनों का पूरी तरह से उपयोग किया जा रहा है। लेकिन जब ऐसा नहीं होता है, तो "दक्षता" के आधार पर उत्पादन गतिविधियों की एक पूरी श्रृंखला को बंद करने का समर्थन करना एक प्रकार की मूर्खता से अधिक कुछ नहीं है।

लेकिन फिर यहाँ पर यह प्रश्न अवश्य उठेगा: कि उपभोक्ताओं को ऊँची लागत वाले स्थानीय उत्पादकों के समूह को ज़िंदा रखने के लिए सस्ते आयात पर प्रतिबन्ध लगाकर उनसे अधिक भुगतान करने के लिए क्यों कहा जाए? यह तर्क, जो पहली नज़र में कुछ गड़बड़ी लिए हुए दिखता है, यह उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच एक अवैध फ़र्क़ पैदा करने पर आधारित है।

यह घोषित करता है कि सस्ते आयात के चलते जब उत्पादकों (श्रमिकों और किसानों) का एक समूह अपनी आय खो देता है, तो व्यक्तियों के रूप में उपभोक्ताओं का एक और समूह है, जो इन सस्ते आयातों के चलते बेहतर रूप से संतुष्ट होने वाला है। इसे अगर कुछ अलग तरीक़े से कहें, तो यह पहले से यह मान कर चल रहा है कि मुक्त व्यापार के कारण उत्पादकों की आय में कमी हो जाने के बावजूद, इन उपभोक्ताओं की आय पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है।

हालांकि ऐसा समझना ग़लत है। यदि उत्पादकों की आय में गिरावट आती है तो इससे सामान्य उपभोगकर्ताओं की आय में ही कमी नहीं आयेगी, बल्कि उन उपभोक्ताओं की भी आय में कमी आयेगी जो उन उत्पादकों से अलग हैं जिनकी आय में पहले पहल गिरावट आने वाली है। यह कुछ उत्पादकों के शुरुआती विस्थापन के व्यापक आर्थिक परिणामों के कारण होगा। इस बिंदु को हम औपनिवेशिक भारत के उदाहरण से समझ सकते हैं।

ब्रिटेन से मशीन-निर्मित सस्ते माल के आयात के चलते हस्त-शिल्प के विनाश के चलते  जिसने बेरोज़गारी और भारी पैमाने पर ग़रीबी को जन्म दिया जो शुरू-शुरू में किसानों के उपभोग के लिए सस्ता माल प्रदान करने के रूप में प्रतीत हुआ, जो सीधे तौर पर कारीगरों की तरह विस्थापन की मार नहीं झेल रहे थे। लेकिन, जल्द ही जैसे ही विस्थापित कारीगरों के रूप में ग्रामीण श्रम बाज़ार में इसकी बाढ़ आई, वास्तविक मज़दूरी के मूल्य में तेज़ी से गिरावट होने लगी और किराए में वृद्धि शुरू हो गई, जिसके कारण व्यापक रूप से किसानों की आय पर असर पड़ने लगा, जो शुरू-शुरू में सस्ते आयातित माल के कारण यह मान कर चल रहे थे कि आयात से उन्हें फ़ायदा पँहुचा है और उनकी हालत में सुधार हुआ है।

ग़ैर-औद्योगिकीकरण से आय पर प्रभाव इस प्रकार लहरों में फैलता चला गया, और अंततः समग्र रूप से कामगार लोगों को इसमें डुबो गया। औपनिवेशिक ग़ैर-औद्योगिकीकरण के लाभार्थियों के रूप में संभावित रूप से ज़मींदारों की एक छोटी सी संख्या थी, जिसे औपनिवेशिक शासन के समर्थन के लिए एक अवरोध के रूप में अंग्रेज़ों द्वारा पैदा किया गया था।

इसलिए, मुक्त व्यापार समझौते की वकालत करना, जिससे बेरोज़गारी उत्पन्न होती है, या जिससे किसानों की आय में गिरावट आती है, को किसी भी स्थिति में न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता है; और सरकार को आरसीईपी समझौते से बाहर आने की माँग करने वाले लोग सही थे।

देश के भीतर वर्तमान बौद्धिक डिस्कोर्स को पूंजीवाद ने इतना जकड़ लिया है कि सबके लिए रोज़गार के अवसर का विचार अब एक असंभव सपने जैसा महसूस होता है। यहाँ पर हम यह भूल जाते हैं कि तत्कालीन सोवियत संघ और पूर्वी यूरोपीय समाजवादी देशों में न केवल सबके पास रोज़गार था, बल्कि वास्तव में वे श्रम की कमी से जूझ रही अर्थव्यवस्थाएँ थीं।

वास्तव में, यदि व्यक्तियों का एक समूह तय कर ले कि वे केवल उन वस्तुओं का उपभोग और निवेश करेंगे जो वे आपस में पैदा करते हैं, तो किसी भी प्रकार से बेरोज़गारी उत्पन्न होने का कोई कारण नहीं बनता।

बेरोज़गारी का एक प्रमुख कारण यह है कि समूह में कुछ लोग वह चीज़ ख़रीदना नहीं चाहते हैं, जो समूह में अन्य लोग पैदा करते हैं, बल्कि वे वह चीज़ ख़रीदना चाहते हैं जो समूह के बाहर उत्पादित हो रही है, भले ही बाहरी लोग वह न ख़रीदना न चाहें, जो समूह के भीतर पैदा की जा रही हो। इस प्रकार से उत्पन्न होने वाले बेरोज़गारी को, जिसे आरसीईपी (RCEP) जन्म दे सकता है, उसे अवश्य ही रोका जाना चाहिए।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

RCEP: The ‘Price Competitiveness’ Logic is Misleading

indian economy
RCEP
unemployment
Employment Generations
Price Competitiveness
Free Trade

Related Stories

डरावना आर्थिक संकट: न तो ख़रीदने की ताक़त, न कोई नौकरी, और उस पर बढ़ती कीमतें

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति

आर्थिक रिकवरी के वहम का शिकार है मोदी सरकार

उत्तर प्रदेश: "सरकार हमें नियुक्ति दे या मुक्ति दे"  इच्छामृत्यु की माँग करते हजारों बेरोजगार युवा

मोदी@8: भाजपा की 'कल्याण' और 'सेवा' की बात

UPSI भर्ती: 15-15 लाख में दरोगा बनने की स्कीम का ऐसे हो गया पर्दाफ़ाश

मोदी के आठ साल: सांप्रदायिक नफ़रत और हिंसा पर क्यों नहीं टूटती चुप्पी?

जन-संगठनों और नागरिक समाज का उभरता प्रतिरोध लोकतन्त्र के लिये शुभ है

ज्ञानव्यापी- क़ुतुब में उलझा भारत कब राह पर आएगा ?

वाम दलों का महंगाई और बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ कल से 31 मई तक देशव्यापी आंदोलन का आह्वान


बाकी खबरें

  • Ramjas
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    दिल्ली: रामजस कॉलेज में हुई हिंसा, SFI ने ABVP पर लगाया मारपीट का आरोप, पुलिसिया कार्रवाई पर भी उठ रहे सवाल
    01 Jun 2022
    वामपंथी छात्र संगठन स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ़ इण्डिया(SFI) ने दक्षिणपंथी छात्र संगठन पर हमले का आरोप लगाया है। इस मामले में पुलिस ने भी क़ानूनी कार्रवाई शुरू कर दी है। परन्तु छात्र संगठनों का आरोप है कि…
  • monsoon
    मोहम्मद इमरान खान
    बिहारः नदी के कटाव के डर से मानसून से पहले ही घर तोड़कर भागने लगे गांव के लोग
    01 Jun 2022
    पटना: मानसून अभी आया नहीं है लेकिन इस दौरान होने वाले नदी के कटाव की दहशत गांवों के लोगों में इस कदर है कि वे कड़ी मशक्कत से बनाए अपने घरों को तोड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। गरीबी स
  • Gyanvapi Masjid
    भाषा
    ज्ञानवापी मामले में अधिवक्ताओं हरिशंकर जैन एवं विष्णु जैन को पैरवी करने से हटाया गया
    01 Jun 2022
    उल्लेखनीय है कि अधिवक्ता हरिशंकर जैन और उनके पुत्र विष्णु जैन ज्ञानवापी श्रृंगार गौरी मामले की पैरवी कर रहे थे। इसके साथ ही पिता और पुत्र की जोड़ी हिंदुओं से जुड़े कई मुकदमों की पैरवी कर रही है।
  • sonia gandhi
    भाषा
    ईडी ने कांग्रेस नेता सोनिया गांधी, राहुल गांधी को धन शोधन के मामले में तलब किया
    01 Jun 2022
    ईडी ने कांग्रेस अध्यक्ष को आठ जून को पेश होने को कहा है। यह मामला पार्टी समर्थित ‘यंग इंडियन’ में कथित वित्तीय अनियमितता की जांच के सिलसिले में हाल में दर्ज किया गया था।
  • neoliberalism
    प्रभात पटनायक
    नवउदारवाद और मुद्रास्फीति-विरोधी नीति
    01 Jun 2022
    आम तौर पर नवउदारवादी व्यवस्था को प्रदत्त मानकर चला जाता है और इसी आधार पर खड़े होकर तर्क-वितर्क किए जाते हैं कि बेरोजगारी और मुद्रास्फीति में से किस पर अंकुश लगाने पर ध्यान केंद्रित किया जाना बेहतर…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License