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कानून
भारत
राजनीति
“भारत के सबसे लोकतांत्रिक नेता” के नेतृत्व में सबसे अलोकतांत्रिक कानून-निर्माण पर एक नज़र
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारत के सबसे अधिक लोकतांत्रिक नेता के तौर पर व्याख्यायित किया था।

विनीत भल्ला
13 Oct 2021
modi

विनीत भल्ला लिखते हैं कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारत के सबसे अधिक लोकतांत्रिक नेता के तौर पर व्याख्यायित किया था। हालाँकि, यदि सरकार के पिछले दो वर्षों के दौरान कानून निर्माण की शैली का ही जायजा ले लिया जाए तो इसे शायद ही लोकतांत्रिक स्वरुप की श्रेणी में रखा जा सकता है। 

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक हालिया साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को “भारत का अब तक का सबसे लोकतांत्रिक नेता” बताया है। उनकी तरफ से यह दावा किया गया है कि मोदी “शासन और नीति संबंधी महत्वपूर्ण फैसलों को लेते समय कभी भी अपनी इच्छा को नहीं थोपते हैं।” उन्होंने आडंबरपूर्ण शैली में इस बात का भी बखान किया है कि उन्होंने “आज तक इतना अच्छा श्रोता नहीं देखा, जितना ... मोदी हैं”।

जबकि इस बारे में जो विवादस्पद राय हैं, जिनके बारे में जितना कहा जाए उतना कम होगा, किंतु इस बारे में जो निर्विवाद सत्य है, वह यह है कि जिस प्रकार से केंद्र सरकार द्वारा संसद में कानूनों को पारित कराया गया है, जिसकी अगुआई मोदी करते हैं (और जिसका “अंतिम फैसला उनके हाथ में रहता है”, जैसा कि शाह के मुताबिक उसी साक्षात्कार में स्वीकारा गया है), वह कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं रहा है।

यहाँ पर हम ऐसे ही कुछ कानूनों पर नजर डालते हैं जिन्हें मोदी के नेतृत्त्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के 2019 के लोक सभा चुनावों में पहले से भी बड़े बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करने के बाद से पिछले दो वर्षों के दौरान पारित किया गया है।

2019 में जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को निरस्त करना 

अगस्त 2019 में, संसद के दोनों सदनों ने दो दिनों के भीतर ही भारत के राष्ट्रपति को संवैधानिक (जम्मू-कश्मीर पर लागू) आदेश, 2019, के मुताबिक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को अप्रभावी घोषित करने का प्रस्ताव पारित करने के साथ-साथ तत्कालीन राज्य को दो केंद्र शासित क्षेत्रों में विभाजित करने के लिए जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 के तहत घोषित करने के लिए अधिकार-संपन्न बना दिया था।

इन दोनों कानूनों को पूर्ववर्ती राज्य के सांसदों, राजनीतिज्ञों, नागरिक समाज समूहों या नागरिकों के साथ बिना किसी पूर्व परामर्श के और न ही देश के बाकी हिस्सों के विपक्षी दल के सदस्यों के साथ बिना किसी भी पूर्व सलाह-मशविरे या बातचीत के ही सदन में पेश और पारित करा लिया गया था। 

इन घटनाक्रमों से ठीक पहले सरकार ने हजारों की संख्या में अर्धसैनिक बलों को जम्मू-कश्मीर के लिए रवाना कर दिया था और छात्रों और पर्यटकों को फ़ौरन राज्य छोड़कर जाने के लिए निर्देशित कर दिया था। जब इस बाबत पत्रकारों और कश्मीरी राजनेताओं ने तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक से इस बारे में जानना चाहा कि ये कदम किस मकसद से उठाये जा रहे हैं और क्या केंद्र की मंशा संविधान के अनुच्छेद 35ए और 370 को निरस्त कर देने की है या राज्य को तीन हिस्सों में बांटने पर कोई विचार हो रहा है, तो मलिक ने इन सब बातों को अफवाह बताकर ख़ारिज कर दिया था।

इसके तत्काल बाद ही इस पूर्ववर्ती राज्य में पूरी तरह से पूर्ण संचार ब्लैकआउट और कर्फ्यू लगाने के साथ-साथ इस क्षेत्र से तकरीबन 4000 व्यक्तियों की निवारक गिरफ्तारी या हिरासत में लेने की कार्यवाई को सरअंजाम दिया गया था। यह सारा घटनाक्रम कुछ महीनों से लेकर एक साल से भी अधिक समय तक दोनों केंद्र शासित प्रदेशों में चलता रहा। कश्मीर घाटी के अधिकांश जिलों में हाई-स्पीड इंटरनेट की सेवाओं को पदान करने से इंकार किया जाता रहा, यहाँ तक कि 2020 में कोविड से प्रेरित राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान भी यह क्रम बदस्तूर जारी रहा।

पूर्ववर्ती राज्य की क़ानूनी स्थिति में बदलाव के गुण दोषों को यदि एक पल के लिए छोड़ देते हैं, उसके बावजूद भी जिस प्रकार से सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठे हुए व्यक्ति द्वारा इस विषय पर सलाह मशविरे के पूर्ण अभाव और घोर गलत-बयानी करने और नागरिक स्वतंत्रता का दमन कहीं न कहीं ऐसे व्यक्ति के अनुरूप है जो ‘भारत द्वारा अभी तक देखे गए सबसे लोकतांत्रिक नेता’ होने के बजाय ‘महत्वपूर्ण फैसलों को लेते समय अपनी इच्छा को थोपने’ वाला नजर आता है।

ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019

ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकार संरक्षण) अधिनियम को भी अगस्त 2019 में लोकसभा में और नवंबर 2019 में राज्यसभा द्वारा पारित कर दिया गया था। इससे पहले एनडीए सरकार ने इस विधेयक के दो पूर्व संस्करणों को 2016 और 2018 में पेश किया था, लेकिन हर बार इसे पारित करा पाने में वह विफल रही थी।

2016 के ट्रांसजेंडर पर्सन्स बिल के मसौदे को ट्रांसजेंडर समुदाय से प्राप्त सिफारिशों के आधार पर तैयार किया गया था, लेकिन फिर भी इसके कई सदस्यों द्वारा 2014 के प्राइवेट मेम्बर बिल की तुलना में इसे प्रतिगामी और निम्न दर्जे का बताकर निंदा की जा रही थी, जिसे तब राज्यसभा द्वारा पारित कर दिया गया था, लेकिन लोकसभा में सरकार के पास संख्यात्मक बहुमत न होने के कारण इस विधेयक को पराजित होना पड़ा था।

2016 के बिल को बाद में संसदीय स्थायी कमेटी के पास भेज दिया गया था, और 2018 में लोकसभा में विधेयक के एक संशोधित संस्करण को पेश किया गया। एक बार फिर से इसे स्थायी समिति की सिफारिशों और ट्रांसजेंडर समुदाय की मांगों का पालन नहीं करने के लिए भारी आलोचना और विरोध का सामना करना पड़ा था।

हालाँकि विधेयक के उसी संस्करण को 2019 में संसद में पेश और पारित करा लिया गया। जाहिर है, कि ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों के साथ-साथ वृहत्तर नागरिक समाज के द्वारा इसे व्यापक तौर पर ख़ारिज कर दिया गया है, जिसमें कई अन्य वजहों के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय के 2014 के ऐतिहासिक नाल्सा फैसले के समूचे जनादेश को विधायी मान्यता न दिए जाने, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस शब्द को जिस प्रकार से समझा जाता है की तुलना में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अलग तरीके से परिभाषित करने के लिए, व्युत्पन्न लिंगी व्यक्तियों के संबंध में ट्रांस व्यक्तियों पर यौन हमलों के अपराध के मामलों के लिए उदार सजा प्रदान करने के लिए और एक सरकारी समिति को किसी ट्रांस व्यक्ति के लिंग या यौनिकता को सत्यापित करने का अधिकार दिया जाना शामिल है।

यदि पीएम मोदी इतने ही अच्छे श्रोता हैं जितना कि शाह पुष्टि कर रहे हैं, तो क्यों वे ट्रांस समुदाय की बात को पिछले पांच साल से भी अधिक समय से एक ऐसे कानून को बनाने के लिए नहीं सुन पा रहे हैं जिससे उन्हें कोई समस्या न हो?

नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019

केंद्र सरकार ने सबसे पहले जनवरी 2019 में नागरिकता (संशोधन) विधेयक को आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। तब वह इसे लोकसभा में पारित करा पाने में सफल रही। हालाँकि, राज्य सभा में जाकर यह अटक गया था और यहाँ तक कि पूर्वोत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों में इस विधेयक के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन फूट पड़े थे। जिसके फलस्वरूप इसे कालातीत हो जाने दिया गया।

बाद में दिसंबर 2019 में, सरकार उसी विधेयक को लोकसभा में दो दिनों के भीतर पारित करा पाने में सफल रही और राज्य सभा में इसे पारित कराने में उसे मात्र एक दिन का ही समय लगा। तब से, आज तक 19 राज्य सरकारों द्वारा इस अधिनियम का विरोध व्यक्त किया जा चुका है।

इस बार देशभर में और भी बड़े और उससे भी अधिक निरंतर विरोध प्रदर्शन हुए, जो मार्च 2020 में राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लागू होने तक जारी रहे। इनमें से कुछ प्रदर्शनकारियों को पुलिसिया हिंसा का शिकार होना पड़ा, जिसमें कईयों के घायल होने और यहाँ तक कि 50 से अधिक प्रदर्शनकारियों की मौत तक हो गई। तत्पश्चात समाज के कुछ वर्गों में तथाकथित ‘देश-विरोधी’ प्रदर्शनकारियों के लिए घृणा के आधार पर चिंताजनक ध्रुवीकरण भी देखने को मिला, जिसे कई सत्ताधारी पार्टी के सदस्यों और मंत्रियों ने उकसाने का काम किया, जिसका अंत फरवरी 2020 के दिल्ली नरसंहार में जाकर हुआ।

तकरीबन चार महीने लंबे चले नागरिकता (संशोधन) अधिनियम विरोधी विरोध प्रदर्शनों के दौरान, पीएम मोदी ने एक बार भी किसी भी प्रदर्शनकारी के साथ बातचीत करने का कोई प्रयास नहीं किया।

क्या किसी लोकतांत्रिक नेता को ऐसे विवादास्पद कानून के दुष्परिणामों का पूर्वाभास नहीं होना चाहिए था? और अगर पहले न सही, तो इसके पारित हो जाने के बाद तो इसका विरोध करने वालों के साथ बातचीत में जाने का प्रयास नहीं करना चाहिए था? ऐसी भी क्या जल्दी थी जो इसे तीन दिनों के भीतर संसद के माध्यम से आगे बढ़ाने के लिए जोर दिया जा रहा था, जबकि सरकार द्वारा अभी तक अधिनियम को अमल में लाने के लिए नियमों तक को तय किया जाना शेष था, और अगले साल जनवरी से पहले ऐसा नहीं करने जा रहे थे?

विदेशी अंशदान (विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2020

इस वर्ष की शुरुआत में कोरोना की विनाशकारी दूसरी लहर के कहर के दौरान, जिसने हमारी शासन प्रणाली के खोखलेपन को बेपर्दा करके रख दिया और हमारे स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे को घुटनों पर ला दिया था, तो उस दौरान पीएम मोदी ने अपने अधिकारियों को नागरिक समाज और गैर सरकारी संगठनों से स्वास्थ्य क्षेत्र में मदद करने के तरीकों का पता लगाने के लिए कहा था।

हालाँकि, गैर-लाभकारी संगठनों के कोविड राहत कार्यों में भाग लेने की उनकी क्षमता को विदेशी योगदान (विनियमन) संशोधन अधिनियम के जरिये पहले से ही काफी हद तक प्रतिबंधित कर दिया गया था, जिसे पिछले साल सितंबर में देश भर में कोरोना की पहली लहर के चरम के दौरान ही संसद में चार दिनों के भीतर पारित कर दिया गया था। विकास प्रबंधन व्यवसायी, सुवोजित चट्टोपाध्याय के मुताबिक, अधिनियम “भारत के गैर-लाभकारी संस्थाओं को अपना व्यवसाय करने के लिए लागत में पहले की तुलना में वृद्धि करने के साथ साथ उन्हें उत्पीड़न के लिए और अधिक भेद्य बनाता है।”

हो सकता है कि यदि कोई लोकतंत्रिक नेता होता तो उसने जरूरत आन पड़ने पर उनसे मदद की अपील करने के बजाय अपनी सरकार द्वारा किसी ऐसे कानून को पारित करने से पहले नागरिक समाज और एनजीओ के प्रतिनिधियों के साथ उन मुद्दों पर विचार-विमर्श को वरीयता दी होती, जो उन्हें प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रहे थे?

तीन कृषि कानूनों के बारे में  

सितंबर 2020 में संसद द्वारा तीन अलग-अलग कानूनों – कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020, कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन समझौता, कृषि सेवा अधिनियम, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 को पारित किया गया। इन तीन अधिनियमों ने केंद्र सरकार द्वारा जून 2020 में प्रख्यापित किये गए तीन अध्यादेशों का स्थान ग्रहण कर लिया था।  

विपक्षी दलों के सदस्यों द्वारा इन विधेयकों को स्थायी समिति को संदर्भित किये जाने की मांग के बीच इनमें से दो को राज्यसभा में विवादास्पद ध्वनिमत के जरिये जबरन पारित करा लिया गया, जबकि विपक्ष द्वारा मतों के विभाजन की मांग की जा रही थी, जो कहीं ज्यादा उपयुक्त होता। इसने संसद के भीतर विपक्ष की आवाज को प्रभावी तौर पर खामोश कर दिया। 

तब से, पिछले 13 महीनों से हजारों की संख्या में किसान दिल्ली के आस-पास और देश के अन्य हिस्सों में इन कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। जुलाई तक के गैर-आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, इन 13 महीनों के दौरान लगभग 600 किसानों की विरोध प्रदर्शनों के दौरान मौत हो चुकी है। (आधिकारिक तौर पर कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है, क्योंकि केंद्र सरकार ने इसका हिसाब रखने की जहमत नहीं उठाई है)

इन विरोध प्रदर्शनों ने एक बार फिर से काफी बड़े पैमाने पर समाजिक ध्रुवीकरण को जन्म देने के साथ-साथ प्रदर्शनकारियों को हर तरह के अपमान का शिकार होना पड़ा है। कभी-कभार इसने हिंसक घटनाओं का रूप भी ले लिया है, जैसा कि अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में देखने को मिला है।

केंद्र सरकार ने काफी विलंब के बाद प्रदर्शनकारी किसानों के प्रतिनिधियों के साथ दिसंबर 2020 से लेकर जनवरी 2021 के बीच में बातचीत करने का प्रयास किया था, लेकिन इसके बाद से उनके साथ किसी प्रकार की आधिकारिक बातचीत नहीं हुई है। सर्वोच्च न्यायालय जिसने इन कानूनों पर जनवरी में अंतरिम रोक लगा दी थी, और किसानों की शिकायतों को देखने के लिए एक कमेटी का गठन किया था, ने सरकार को “पर्याप्त विचार-विमर्श के बिना ही ऐसे कानून को बना देने के लिए जमकर लताड़ लगाई है, जिसके चलते लाखों लोग सड़कों पर हैं। कई राज्य आपके [अर्थात, केंद्र सरकार] खिलाफ बगावत कर रहे हैं... यह सब कई महीनों से चल रहा है ... आप कहते हो कि आप वार्ता कर रहे हैं, बातचीत ... क्या वार्ता चल रही है? कौन सी बातचीत चल रही है? आखिर यह सब क्या चल रहा है?

सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत एक आवेदन पर सरकार के जवाब ने वास्तव में साबित कर दिया है कि इसके पास किसान समूहों के साथ तीन कानूनों पर किये गए विचार-विमर्श से संबंधित कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है।

पूर्व योजना आयोग के सदस्य अरुण मैरा के मुताबिक, इन कानूनों के गुण या दोषों को यदि एक बार के लिए दरकिनार भी कर दिया जाए तो भी कुलमिलाकर देखने में आ रहा है कि सरकार ने प्रदर्शनकारी किसानों की चिंताओं से अपनी आँखें पूरी तरह से फेर ली हैं, जो कि न सिर्फ किसी भी लोकतंत्र के लिए बेहद खराब स्थिति है, बल्कि यह नीतियों की गुणवत्ता को भी कमतर बना देता है और उनके क्रियान्वयन को भी काफी कठिन बना देता है। 

बीमा संशोधन अधिनियम, 2021

अभी हाल ही में संपन्न हुए संसद सत्र में पारित किया जाने वाला अंतिम विधेयक साधारण बीमा व्यवसाय (राष्ट्रीयकरण) संशोधन अधिनियम, 2021 था। राज्य सभा में इसे पारित किये जाते समय अभूतपूर्व दृश्य घटित हो रहा था, क्योंकि विपक्ष द्वारा विधेयक को सिलेक्ट कमेटी को भेजे जाने की मांग को अस्वीकार कर दिए जाने के बाद विपक्ष ने सदन का बहिष्कार कर दिया था और कुछ विपक्षी सांसदों और सुरक्षा कर्मियों, जिन्हें संसद में बुलाया गया था, और वे विधेयक के पारित होने के समय सदन में उपस्थित थे, के बीच में शारीरिक धक्का-मुक्की भी हुई थी। वयोवृद्ध सांसद शरद पवार ने बाद में इसे “लोकतंत्र पर हमला” बताया।

यह अधिनियम, सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनियों में अधिकाधिक निजी क्षेत्र की भागीदारी को सक्षम बनाता है, को एक विपक्षी सांसद द्वारा पूंजीपतियों के हितों को फलने-फूलने का अवसर प्रदान करने के लिए ‘जन-विरोधी’ कहा गया है। सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनी के कर्मचारियों ने 4 अगस्त को हड़ताल पर जाकर इस संशोधन पर अपना विरोध जताया था।

इस सबके बावजूद इस विधेयक पर दोनों सदनों में कुलमिलाकर मात्र 22 मिनट तक चर्चा हुई, और इसे ध्वनि मत से पारित कर दिया गया। वास्तव में देखें तो इस पूरे सत्र के दौरान, लोकसभा और राज्यसभा ने विभिन्न विधेयकों को पारित करने से पहले औसतन क्रमशः सिर्फ 34 मिनट और 46 मिनट के लिए ही चर्चा की, जिसमें से सिर्फ एक ही विधेयक ही ऐसा पाया गया जिसपर दोनों सदनों में एक घंटे से अधिक समय तक चर्चा की गई। सरकार ने पूरे सत्र के दौरान पेगासस प्रोजेक्ट के खुलासे पर विपक्ष द्वारा चर्चा किये जाने की मांग को भी नहीं माना।

कानूनों पर इन सभी असंतोषजनक स्थितियों, अव्यवस्था, और प्रतिरोध को हम पिछले दो वर्षों से देख रहे हैं, जिसे टाला जा सकता था यदि हमारे पास वास्तव में एक लोकतांत्रिक नेता होता जो साथ ही एक अच्छा श्रोता भी होता, और महत्वपूर्ण नीति एवं शासन संबंधी फैसलों को लेते वक्त अपनी मर्जी को नहीं थोपता। 

(विनीत भल्ला दिल्ली स्थित वकील होने के साथ-साथ द लीफलेट के साथ सहायक संपादक के तौर पर सम्बद्ध हैं। व्यक्त किये गए विचार निजी हैं।)

साभार: द लीफलेट

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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