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भारत
प्राकृतिक आपदाओं के नुकसान को कम करने के लिए अनुकूलक रणनीतियों पर फिर विचार किया जाए
20वीं सदी में कुल 402 चरम घटनाएं हुई थीं, जबकि 2000 से 2021 के बीच भारत में प्राकृतिक आपदाओं की 354 घटनाएं हो चुकी हैं और 21वीं सदी को पूरा होने में अभी आठ दशक बाकी हैं। ऐसी परिस्थिति में, विकास की रणनीतियों पर पुनर्विचार करना मुनासिब होगा।

टिकेंदर सिंह पंवार
01 Dec 2021
disaster
प्रतीकात्मक तस्वीर। चित्र साभार: एएफपी

शनिवार, 27 नवंबर, 2021 को किसी एक न्यूज़ चैनल में खबरों की विषयवस्तु में एक झलक यह भी थी कि, “आंध्रप्रदेश में भारी बारिश के कारण 44 लोगों की मौत, 16 लापता।” लेकिन यह कोई अकेली घटना नहीं है। वास्तव में, यदि वर्ष 2021 की बात करें तो उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक जान-माल के नुकसान की खबरें अटी पड़ी हैं।

हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला, किन्नौर सहित पटना, दिल्ली, गुडगाँव में बाढ़, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में भू-स्खलन की घटनाएं, हाल ही में चेन्नई और बैंगलोर में बाढ़ इत्यादि ये सभी निरंतर चुनौतियों के स्मरणपत्र हैं जिनसे समूचा देशजूझ रहा है। केरल में तो अब साल में करीब-करीब नौ महीने बारिश हो रही है। बाढ़ तो अब इस राज्य में एक रोजमर्रा का विषय बन चुका है।

मौसम में चरम बदलाव की घटनाएं जो कुछ दशकों में एक-आध बार हो जाया करती थीं अब ये घटनाएं अक्सर हो रही हैं। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कहीं अधिक स्पष्ट तौर पर नजर आ रहा है। जहाँ तक प्राकृतिक आपदाओं के समक्ष भेद्यता का प्रश्न है तो अमेरिका और चीन के बाद भारत का स्थान तीसरे स्थान पर है।

भारतीय स्टेट बैंक के एक शोध समूह द्वारा किये गए एक अध्ययन के मुताबिक, 1900 के बाद से प्राकृतिक आपदा के कुल 756 उदाहरण थे, जिनमें भू-स्खलन, तूफान, भूकंप, बाढ़, सूखा इत्यादि शामिल हैं। 20वीं सदी में, 1900 से लेकर 2000 तक कुल 402 चरम घटनाएं हुई थीं, जबकि 21वीं सदी में 2000 से 2021 तक भारत में प्राकृतिक आपदा की 354 घटनाएं हो चुकी हैं। इस शताब्दी को पूरा होने में अभी भी आठ दशक बाकी हैं। ऐसे में कोई भी इस बात का अंदाजा लगा सकता है कि आने वाले वर्षों में किस प्रकार की भारी आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है।

2001 के बाद से, तकरीबन 100 करोड़ लोग इससे प्रभावित हुए हैं और करीब 13 लाख करोड़ रूपये की संपत्ति के नुकसान का अंदाजा है जो कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 6% है। सन 1900 से 2000 तक कुल 402 चरम घटनाओं में प्राकृतिक आपदाओं की वजह से 90,50,599 मौतों की सूचना दर्ज थी। वहीँ 2000 से 2021 तक 354 चरम मौसमी बदलाव की घटनाओं में 82,747 मौतें हो चुकी हैं। विभिन्न घटनाओं की पड़ताल करने पर पता चलता है कि बाढ़ और तूफ़ान के चलते बड़ा नुकसान हुआ है। देश में होने वाले कुल नुकसान में 60% से अधिक की वजह बाढ़ है। 

एसबीआई की रिपोर्ट में दिलचस्प बात यह है कि, इसे रोकने और अनुकूलक रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय प्राकृतिक आपदाओं की चुनौतियों का सामना करने के लिए बीमा-आधारित मॉडल पर कहीं अधिक भरोसा किया जा रहा है। भारत में कुल नुकसान का करीब 8% हिस्सा ही बीमा के तहत कवर किया जाता है, जिससे बाकी के 92% लोग पीछे को उनके भाग्य पर छोड़ दिया जाता है। लेकिन देश में प्राकृतिक आपदाओं के आसन्न संकट के अनुकूलन के लिए, विशेषकर शहरी केन्द्रों के संदर्भ में, बीमा ही एकमात्र कारगर तरीका नहीं हो सकता है, । 

चूँकि यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि चरम मौसमी घटनाएं भारतीय उप-महाद्वीप को कहीं अधिक प्रभावित करने जा रही हैं, ऐसे में विकास की रणनीतियों पर फिर से विचार करना उचित होगा। प्राकृतिक आपदाएं आम लोगों को उनकी भौगौलिक सीमाओं से परे जाकर भी प्रभावित करती हैं। हालाँकि, शहरी भारत जहाँ असमानता घातक स्तर पर है, और लोग अपने जीवनयापन के लिए कहीं अधिक दयनीय स्थिति में हैं और उच्च घनत्व वाले इलाकों में रहने के लिए मजबूर हैं, इसके सबसे बड़े भुक्तभोगी हैं।

दुर्भाग्य की बात यह है कि आपदा जोखिम न्यूनीकरण के राष्ट्रीय मंच के जरिये सरकार द्वारा जिस प्रकार के शमन एवं अनुकूलक रणनीतियों को अपनाया जा रहा है उनमें दूरदृष्टि और प्रभावी कार्यान्वयन इन दोनों का ही अभाव है।

शहरी भारत जिसके पास आबादी के लगभग 35% हिस्से का दायित्व है, के पास कुल भूभाग का करीब 7% हिस्सा है। देश में करीब 5,000 सांविधिक और करीब इतनी ही संख्या में गैर-सांविधिक शहर हैं। सांविधिक शहरों में, शासन चलाने का कोई न कोई तरीका मौजूद रहता है, भले ही उसकी हालत कितनी भी दयनीय क्यों न हो। किंतु गैर-सांविधिक शहरों में सबकुछ अधर में लटका रहता है, और इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं रहती कि आपदा के समय बुनियादी आवश्यक चीजों को मुहैय्या कराने की जिम्मेदारी कौन लेगा। 

शहर के निर्माण की विकास रणनीतियां काफी हद तक परियोजना-उन्मुख हैं और हाल के दिनों में अधिकांश शहरों में शहरी बाढ़ की एक मुख्य वजह बुनियादी ढाँचे के विकास का मॉडल रहा है। इसमें भी विशेषकर केंद्र सरकार के स्मार्ट सिटी मिशन के अंतर्गत जो शहर योग्य पाए गए थे, उनका प्रदर्शन सबसे बदतर है।

ऐसा क्यों है? क्योंकि इन शहरों में, जाहिर तौर पर अधिकांश स्मार्ट शहरों में किये गए कार्य पुनर्विकास के लिए हैं। बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए स्मार्ट सिटी मिशन के तहत तीन घटक आते हैं, जिन्हें ‘क्षेत्र-आधारित विकास’ (एबीडी) कहा जाता है। पूरे शहर के विकास के काम को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की भूमिका को ध्यान में रखते हुए - ‘इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स’ की तर्ज पर कहीं अधिक किया जा रहा है।

जैसा कि उपर उल्लेख किया गया है एबीडी के तहत तीन घटक हैं: रेट्रोफिटिंग, पुनर्विकास और ग्रीनफ़ील्ड प्रोजेक्ट्स। शायद ही ऐसा कोई शहर हो जिसने इस तरह के विकास के मॉडल के लिए आवश्यक भूमि के बड़े आकार के चलते ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट का विकल्प चुना हो। इसी तरह, सिर्फ कुछ ने ही रेट्रोफिटिंग के काम को प्राथमिकता के तौर पर चुना है। इनमें से ज्यादातर शहरों ने शहर के पुनर्विकास के विकल्प को चुना है। इसी काम में अधिकांश बुनियादी ढांचा परियोजनाएं लगा दी जाती हैं और इन परियोजनाओं के माध्यम से पानी का प्रकृतिक बहाव का मार्ग अवरुद्ध हो रहा है।  

उदहारण के लिए दो शहरों, पटना और बंगलौर का जायजा लेते हैं। पटना में स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत विभिन्न फ्लाईओवरों और अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के निर्माण का काम किया गया। हालाँकि, जिन नालों को नियमित तौर पर साफ़ रखने की जरूरत है, वे कचरे से लबालब हैं और पंप बिल्कुल भी काम नहीं कर रहे हैं। सारी गंदे जल निकासी की व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। गंदे पानी की निकासी प्रणाली में सुधार के बजाय, सारा पैसा फ्लाईओवर के निर्माण पर खर्च किया जा रहा है जिससे समस्या को और भी अनपेक्षित बना डाला है। और यह सब इस तथ्य के बावजूद हो रहा है कि शहर से होकर गुजरने वाली गंगा इस दौरान कम उतार पर बह रही थी। 

इसी तरह एक और शहर बंगलौर भी स्मार्ट सिटी की बोगी पर सवार होकर बड़े पैमाने पर निर्माण परियोजनाओं में जा चुका है और यहाँ पर झीलों के प्राकृतिक स्थानों को पूरी तरह से निचोड़ लिया गया है। इसकी वजह से हाल में हुई बारिश ने तबाही मचा दी और कुछ इलाकों में जहाँ पर ये निर्माण गतिविधियाँ चल रही थीं, पूरी तरह से जलमग्न हो चुके थे।

ऐसी स्थिति में जिन कामों को हाथ में लेना चाहिए, वह है: शहरों की आपदा को कम करने और अनुकूलन योजनाओं को लागू करने के लिए बुनियादी ‘मास्टर प्लान’ या जैसा कि इन्हें कुछ शहरों में – ‘डेवलपमेंट प्लान’ कहा जाता है के साथ एकीकृत करके तैयार करना होगा। मास्टर प्लान को आपदा न्यूनीकरण एवं अनुकूलक योजनाओं के साथ एक लय में बनाये रखना निहायत जरुरी है।

दूसरा, शहरों में सत्ता किसके हाथ में है को स्पष्ट तौर पर निर्दिष्ट किये जाने की आवश्यकता है। आपदा योजानाओं में इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय और राज्य स्तरों पर तो इस बारे में स्पष्टता है लेकिन शहर स्तर पर यह देखने को नहीं मिलती है। उदहारण के लिए, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना का नेतृत्व प्रधानमंत्री के द्वारा किया जाता है। राज्य स्तर पर एसडीएमए की अध्यक्षता मुख्यमंत्री करते हैं, लेकिन शहर के स्तर पर शहर के मेयर के बजाय डीडीएमए यानि, जिला आपदा प्रबंधन योजना के द्वारा कार्यवाई की मंजूरी दी जाती है और किसी नौकरशाह के हाथ में, अधिकांश मामलों में उपायुक्त के पास कार्यवाई करने का दायित्व रहता है। इसमें बदलाव करना होगा और शहरों के आपदा प्रबंधन योजनाओं की कमान को महापौर और शहर की परिषद के द्वारा संचालित किया जाना चाहिए।

शहरी विकास एवं शहरी प्रशासन इन दोनों को ही यह सुनिश्चित करने के लिए दो प्रमुख क्षेत्र होना चाहिए जिससे कि शहर और शहर के निवासियों को ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए सबसे बेहतर तरीके से अनुकूलित किया जा सके, क्योंकि भविष्य में ये आपदाएं उत्तरोतर बढ़ने ही जा रही हैं।

 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/revisit-adaptive-strategies-minimise-loss-natural-disasters

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