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भारत
राजनीति
क्रांतिकारी और कांग्रेस
क्रांतिकारियों, कम्युनिस्टों और समाजवादियों ने कांग्रेस पार्टी को अलग दिशा के बजाय संपूर्ण बदलाव और प्रगतिशील दिशाओं के रास्ते पर आगे चलने के लिए हमेशा मजबूर किया है।
शुभम शर्मा, अजय सहारन
25 Oct 2021
congress
प्रतिकात्मक फ़ोटो: फ़ाइल फ़ोटो

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 2014 से एक टूटा-बिखरा कुनबा है। कांग्रेस में अभी-अभी आये कन्हैया कुमार ने कभी कहा था कि यह पार्टी एक "डूबता हुआ जहाज" है, जिसे हर क़ीमत पर 'बचाये जाने' की ज़रूरत है। कन्हैया का वह बयान उसी बात की पुष्टि थी। कन्हैया के कांग्रेस में शामिल हो जाने से पार्टी में कम्युनिस्टों की संभावना को लेकर भारत में बहस छिड़ गयी है। ज़ाहिर तौर पर इससे खीझे हुए पूर्व कैबिनेट मंत्री मनीष तिवारी ने मोहन कुमारमंगलम की उस बहुत ही कम चर्चित किताब, ‘कम्युनिस्ट इन द कांग्रेस’ की ओर इशारा किया, जो कांग्रेस में बहुत पहले कम्युनिस्टों के आने के बारे में बताती है। अन्य टिप्पणीकारों ने भी इस विराट पुरानी पार्टी के वामपंथ की तरफ़ होते झुकाव को लेकर लिखा और कहा कि यह पार्टी तो क्रांतिकारियों का स्वाभाविक ठौर रही है।

उन्होंने स्वतंत्रता से पहले कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) के कांग्रेस के भीतर एक मज़बूत वाम ध्रुव के रूप में चलते रहने और सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं के साथ कम्युनिस्टों के घनिष्ठ सहयोग की ओर भी इशारा किया है।

उनके दावे में दम तो है, लेकिन वे अक्सर रणनीतिक और नीतिगत होने के बीच की रेखाओं को धुंधला कर देते हैं। रणनीतिक रूप से क्रांतिकारियों और कम्युनिस्टों ने कहीं ज़्यादा उस आमूल परिवर्तन की दिशा को आत्मसात कर लिया था, जो कि उन्हें कांग्रेस से अलग करती थी। जहां कांग्रेस को 'पूर्ण स्वतंत्रता' या पूर्ण स्वराज को अपने प्रमुख राजनीतिक कार्यक्रम के रूप में अपनाने में लगभग पांच दशक का समय लग गया था, वहीं कम्युनिस्टों और क्रांतिकारियों ने इस अवधारणा को अपनी स्थापना के समय से ही अपना रखा था। नीतिगत रूप से देखा जाये, तो कम्युनिस्ट और क्रांतिकारी अक्सर एक संयुक्त उपनिवेश विरोधी कार्यक्रम पर कांग्रेस पार्टी के साथ खड़े थे। दत्त-ब्रैडली थीसिस (1936) के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ कांग्रेस के साथ एक 'साम्राज्यवाद विरोधी पीपुल्स फ्रंट' की दिशा अख़्तियार कर ली थी। यह पूरी का पूरी कांग्रेस का कोई अंध समर्थन नहीं था, बल्कि कांग्रेस के भीतर 'दक्षिणपंथी' और 'बामपंथी' गुटों के बीच साफ़ तौर पर एक ऐसा अंतर था, जो 1934 में सीएसपी,यानी कम्युनिस्ट सोशलिस्ट पार्टी के जन्म के समय ही सामने आ गया था। दस्तावेज़ वामपंथियों के साथ घनिष्ठ सहयोग और दक्षिणपंथियों के ख़िलाफ़ पूर्ण विरोध की बात बताते हैं। यूरोप में फ़ासीवाद का उदय, विश्व समाजवादी आंदोलन के लिए इससे पैदा होने वाले ख़तरे, और उपनिवेश विरोधी आंदोलन जैसे अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम की भी दत्त-ब्रैडली थीसिस का मसौदा तैयार करने के पीछे एक आवश्यक भूमिका थी।

एक और अहम घटना, जिस पर पुराने और नये कांग्रेस के पक्षपोषक ज़ोर नहीं देते हैं, और वह है-औपनिवेशिक काल के दौरान इस पार्टी के भीतर 'आंतरिक और बाहरी बड़े प्रवर्तकों' का सवाल। कांग्रेस की शुरुआत कुलीन उदारवादियों के एक नीरस मामले के रूप में हुई थी। इसका सबसे अच्छा और स्थायी योगदान ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की आर्थिक आलोचना था। साथ ही इसकी सबसे आमूल परिवर्तनवादी मांग सिविल सेवाओं का भारतीयकरण बनी रही, क्योंकि 'घरेलू शुल्क', जिसमें मुख्य रूप से उन ब्रिटिश सिविल सेवकों की ओर से लिये गये वेतन और मौद्रिक लाभ का देश में आना शामिल था, जो भारतीय अर्थव्यवस्था के सहारे अपना वजूद बनाये रखने वाला सबसे बड़ा परजीवी तबका था।

इसके बाद, मोहनदास करमचंद गांधी तिलक की मृत्यु और प्रथम विश्व युद्ध के आकस्मिक संयोग वाले मोड़ पर यहां आ पहुंचे। उन्होंने बतौर असहयोग आंदोलन जन आंदोलन की अगुवाई की, लेकिन न्होंने इस आंदोलन को बीच में ही छोड़ दिया। क्रांतिकारियों ने गांधी की आलोचना करने में कोई रहम नहीं दिखायी। भगत सिंह के समकालीन और बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के आजीवन सदस्य रहे सोहन सिंह जोश ने अपनी किताब, ‘माई मीटिंग्स विद भगत सिंह एंड अदर अर्ली रिवॉल्यूशनरीज़’ में लिखते हैं कि जब भगत सिंह और सुखदेव सॉन्डर्स की हत्या के बाद लाहौर में उनके घर आये थे,तो उन्होंने कांग्रेस के भीतर इसे लेकर चल रही प्रतिक्रियाओं के बारे में पूछा। जोश ने उन्हें बताया कि 'नौजवान तो ख़ुश हैं', लेकिन 'गांधीवादी ख़ुश नहीं हैं।' भगत सिंह ने तपाक से जवाब दिया  था, 'हम तो इसे पहले से जानते हैं...गांधी ने असहयोग आंदोलन को वापस लेकर देश की पीठ में छुरा घोंपा था। लोग अभी भी निराशा और टूटे हुए मनोबल के साये में हैं।'

बहरहाल, क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट कांग्रेस से दूर ही रहे। यही वह स्थिति थी, जिसने उनके बाहरी प्रभाव को अहम और संभव बना दिया। असहयोग आंदोलन के बाद 1920 के दशक के मध्य में ट्रेड यूनियनवाद और समाजवादी राजनीति का ज़बरदस्त उभार हुआ। भारत में पहली बार समाजवाद एक राजनीतिक कारक के रूप में विकसित होने लगा और इसके विचार नौजवानों के मन में घर करने लगे। कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ कानपुर षडयंत्र के मुकदमे (1924) ने क्रांतिकारी मज़दूर वर्ग की राजनीति को मिटा देने वाले साम्राज्यवाद की सतर्क नज़र को सामने रख दिया। कम्युनिस्टों का एक वैकल्पिक मोर्चा, वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी (WPP) का विकास मज़दूर आंदोलन के साथ-साथ आगे बढ़ा। 1928 के विशाल हड़ताल आंदोलन के चलते 31,647,000 कार्य दिवसों का नुक़सान हुआ, जो पिछले पांच वर्षों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा था। इस मज़दूर आंदोलन ने कांग्रेस पार्टी पर बाहर से भारी दबाव डाला।

कांग्रेस का 1928 में होने वाला कलकत्ता सत्र अहम था।इसमें पूर्ण स्वतंत्रता चाहने वालों और डोमीनियन का दर्जा चाहने वालों (गांधी के नेतृत्व में) के बीच ज़बरदस्त विभाजन दिखा था,लेकिन इस सत्र के शुरू होने से पहले मिलों में काम करने वालों ने अपने हाथों में 50,000 लाल झंडा लहराते हुए उस मंच तक मार्च किया था, जहां वह सत्र शुरू होने वाला था। उन्होंने दो घंटे तक इस जगह को घेरे रखा और इस बात की मांग का ऐलान किया कि कांग्रेस पार्टी पूर्ण स्वतंत्रता को अपने लक्ष्य के रूप में स्वीकार करे। (नेहरू ने 27 दिसंबर को उस सोशलिस्ट यूथ कांग्रेस की अध्यक्षता की थी, जिसमें साम्यवाद को 'एकमात्र रास्ता' घोषित किया गया था, नेहरू ने उन्हें संबोधित किया था।)

उत्तेजित और चिंतित ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने तक़रीबन सभी प्रमुख मज़दूर नेताओं को सलाखों के पीछे डाल दिया था। इसे मेरठ षडयंत्र केस के नाम से जाना गया, जो रिकॉर्ड चार साल तक चला। भारत में मज़दूर वर्ग के इस आंदोलन को पूरी तरह कुचल तो दिया गया, लेकिन इन सबका प्रभाव दूरगामी था। लाहौर में कांग्रेस के आगामी सत्र (1929) की पूर्व संध्या पर गांधी ने बुद्धिमानी दिखाते हुए अपने चुने गये अध्यक्ष पद को छोड़ दिया और इस पद के लिए नौजवान नेहरू को नामित कर किया। मद्रास कांग्रेस सत्र (1927) तक गांधी ने पूर्ण स्वतंत्रता को लेकर किसी भी तरह के प्रस्ताव का विरोध किया था और यहां तक कि इसे 'जल्दबाज़ी में की गयी परिकल्पना और बिना सोचे समझे पारित प्रस्ताव' भी कहा था।

जब लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ तो नेहरू ने गर्व से ख़ुद को 'समाजवादी और गणतांत्रिक' घोषित किया। समाजवाद का ज़िक़्र करते हुए उन्होंने इस बात पर ज़ोर देकर कहा कि ' अगर भारत अपनी गरीबी और असमानता से छुटाकारा पाना चाहता है, तो भारत को भी उसी रास्ते को अख़्तियार करना होगा।' उल्लेखनीय है कि उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने नेहरू रिपोर्ट को संकलित किया था और उसमें डोमीनियन दर्जे दिये जाने को अपना लक्ष्य घोषित किया था।

जिस एक और अहम घटनाक्रम पर इतिहासकारों और यहां तक कि वामपंथियों का भी बहुत कम ध्यान गया है, वह यह था कि 1930 का साल शुरू होने से पहले मध्यरात्रि में भारतीय स्वतंत्रता का झंडा फ़हराया गया था। इस पहले झंडे का रंग लाल, सफ़ेद और हरा था, जिनमें लाल रंग समाजवाद की मुहर का प्रतीक था। बाद में उस लाल रंग की जगह केसरिया रंग कर दिया गया। जहां राष्ट्र ने 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाया, वहीं बॉम्बे (अब मुंबई) में प्रदर्शनकारियों ने उस तिरंगे के साथ-साथ लाल झंडा फहराने की कोशिश की। वामपंथी कांग्रेसी इस पर ख़ुश हुए थे, जबकि दक्षिणपंथी भयभीत हो गये थे। नेहरू ने साफ़ कर दिया कि तिरंगे झंडे और कार्यकर्ताओं के लाल झंडे के बीच कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि वह लाल झंडे का सम्मान और आदर इसलिए करते हैं क्योंकि यह श्रमिकों के ख़ून और पीड़ा का प्रतिनिधित्व करता है।

जिस एक दूसरी अहम बाहरी प्रेरक ताक़त ने कांग्रेस को प्रगतिशील दिशाओं में मोड़ दिया, वह था भगत सिंह और उनके साथियों के नेतृत्व में क्रांतिकारी आंदोलन। नौजवान भारत सभा (NBS), जिसका भगत सिंह एक प्रमुख प्रकाश स्तंभ थे, उसने उस पंजाब में सविनय अवज्ञा आंदोलन की अगुवाई की थी, जो एक ऐसा प्रांत था, जहां कांग्रेस के प्रति कम से कम आकर्षण था। हालांकि, एनबीएस ने अपने भर्ती अभियान में कांग्रेस की सहायता की थी, लेकिन इस सभा के नौजवान नेताओं ने चेतावनी दी थी कि कांग्रेस के नेता इन 'नौजवानों के रास्ते से दूर रहें।' एनबीएस क्रांतिकारियों और कांग्रेस के बीच एक और केंद्रीय मतभेद भारतीय पूंजीपतियों को दी जाने वाली रियायतों को लेकर था।

जहां गांधी के सविनय अवज्ञा कार्यक्रम ने भारतीय व्यापारी वर्ग की भारतीय निर्यातकों की सहायता के लिए रुपये का अवमूल्यन और भारतीय शिपिंग के लिए तटीय यातायात आरक्षित करने जैसी मांगों को समायोजित किया था, वहीं एनबीएस ने नौजवानों से गांवों में जाने और वहां इस 'नयी क्रांति' की व्याख्या करने का आग्रह किया। ग्रामीण तब इस बात को समझ गए थे कि नयी क्रांति का मतलब महज़ शासकों का बदल जाना भर नहीं होगा, बल्कि 'लोगों की, और लोगों द्वारा' क्रांति होगी। 1929 में नौजवान सभा की ओर से जारी घोषणापत्र में बुर्जुआ यानी जिसके पास संपत्ति है,उनने जुड़ी मांगों की स्पष्ट अनदेखी करते हुए कहा गया कि 'स्वराज तो 98 प्रतिशत लोगों के लिए है।'

भगत सिंह के हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) ने ज़मींदारी उन्मूलन, किसानों के क़र्ज़ का पूरी तरह समापन, भूमि और उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, आवास, सामाजिक सुरक्षा और सार्वभौमिक शिक्षा को अपनाया था। भगत सिंह और उनके साथियों को फ़ांसी दिये जाने के बाद इन विचारों की पूरी ताक़त को महसूस किया गया। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को नहीं बचा पाने को लेकर कांग्रेस और ख़ास तौर पर गांधी को ज़िम्मेदार ठहराया गया। कराची में कांग्रेस अधिवेशन के लिए पहुंचे गांधी और वल्लभभाई पटेल को काले झंडे दिखाये जाने पर नौजवानों में जोश दिखायी दिया।

इतिहासकारों ने यह दलील देते हुए गंभीर ग़लती की है कि कराची कांग्रेस के प्रस्ताव में जो बड़े-बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, श्रमिक कल्याण, ट्रेड यूनियन अधिकार आदि जैसी प्रगतिशील मांगें शामिल थीं, वे गांधी की तरफ से कांग्रेस के भीतर वामपंथियों और मुख्य रूप से नेहरू को दी गयी रियायत थी। दरअस्ल, इस पर भगत सिंह का वह साया था, जो उस सत्र में बड़ा होकर दिखायी पड़ रहा था। उन्हें 23 मार्च 1931 को फ़ांसी दी गयी थी और कांग्रेस का वह सत्र 26 से 31 मार्च तक चला था। सच्चाई तो यही है कि कांग्रेस के पास इस बात के अलावा और किसी बात का कोई विकल्प ही नहीं था कि वह या तो भगत सिंह के कार्यक्रम को समायोजित करे या फिर भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी से बचाने में नाकाम रहने पर अपने अपमान को छिपाने के लिए मुंह चुराता फिरे।

संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि क्रांतिकारियों, कम्युनिस्टों और समाजवादियों ने कांग्रेस पार्टी को संपूर्ण बदलाव और प्रगतिशीलता के रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर दिया। कांग्रेस ने शायद ही कभी इस तरह के रास्ता को अपनाने के लिए ख़ुद पर दबाव डाला हो क्योंकि उसके भीतर इस तरह के मज़बूत प्रेरक तत्वों की कमी थी।

शुभम शर्मा और अजय सहारन क्रमशः कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री, और इंदिरा गांधी विकास अनुसंधान संस्थान के अर्थशास्त्र विभाग के रिसर्च स्कॉलर हैं। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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