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विज्ञान
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संघी मिथक का विज्ञान पर प्रहार
प्रबीर पुरुकायास्थ
13 Jan 2015

102 विज्ञान कांग्रेस में जो वक्ता आमंत्रित थे, उन्होंने विज्ञान और कल्पना में कोई भेद नहीं किया । विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री ने कहा  कि ग्रीक और अरब से पहले भारत ने पाइथागोरस और बीजगणित का “फार्मूला” खोजा, यह कहकर उन्होंने सारा का सारा “क्रेडिट” बड़ी उदारता के साथ उन्हें दे दिया जो कल्पना को ही विज्ञान मान रहे हैं। आजकल इस पर बात नहीं होती कि बीते वक्त में क्या हुआ और उस पर क्या वैज्ञानिक खोज हुयी, लेकिन सारी दौड़ इस बात पर है किसने पहले क्या खोजा।

एक तर्क यह प्रस्तुत किया जा रहा है कि प्राचीन भारतीय अवतरण आधुनिक विज्ञान के बारे में कईं खुलासे करता है। यह बत्रा विज्ञान है जिसे गुजरात के स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है; बत्रा साहब आजकल एन.सी.इ.आर.टी और सी.बी.एस.इ के स्कूल पाठ्यक्रम को बदलने का सुझाव दे रहे हैं। बत्रा "महान," महाभारत को स्टेम सेल अनुसंधान में शामिल करते हैं, जिसकी पुष्टि मोदी ने भी की है। वे आरएसएस के विश्वास का प्रचार कर रहे हैं और उसके लिए विज्ञान जानना कोई आवश्यक नहीं है। इसके बजाय, अगर हम प्राचीन संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन करते हैं, हम इससे आधुनिक विज्ञान पा सकते हैं, उससे भी आधुनिक जो आज हमारे पास है।

                                                                                                                            

इसकी इस "आत्मा" को ध्यान में रखते हुए मौजूदा “प्राचीन विज्ञान संस्कृत की नज़र से” के सत्र का आयोजन किया गया। संस्कृत और विज्ञान का घालमेल काफी सरल है। जिसका मकसद है कि प्राचीन ग्रंथों में पौराणिक अग्रीमों को 'विज्ञान' के रूप में पेश करना और ‘पहले’ खोज करने के दावे को अति राष्ट्रवाद के रूप में पेश करना। दूसरा मकसद है कि इसके बहाने संस्कृत को जिसे की सभी भाषाओं की जननी कहा जाता है, को एक अनिवार्य भाषा के रूप में बढ़ाना – जोकि आर.एस.एस. के एजेंडे का हिस्सा है।

इसमें कोई शक नहीं है कि भारतीय अवतरण में काफी महत्वपूर्ण मजेदार नतीजें हैं। सुलाभ्सुत्र, खगोलीय ग्रंथों, और खासकर भारतीय गणित को लेकर काफी विस्तारपूर्वक अध्यनन है। ये अध्यन दिखाते हैं कि भारतीयों ने इस क्षेत्र में काफी उपलब्धि हासिल की है। वे यह भी दिखाते हैं कि प्राचीन भारत में किसी खोज पर किसी की बपौती नहीं थी बल्कि वे सभ्यता के एक केंद्र से दुसरे केंद्र में चले जाते थे, जिससे कि इससे सभी लाभ्वान्वित होते थे।

भारतीयों को शायद मेसोपोतामिंस से अंकन मूल्य प्राप्त हुआ और हमने उसके बदले में शून्य दिया। शून्य के सृजन का मतलबी यह नहीं था कि जिसकी कोई कीमत ही न हो, बल्कि उसे एक अंक की तरह माना गया। भारतीयों ने भी खगोल विज्ञान, यूनानियों से सीखा – खगोल विज्ञान में से एक अवतरण यावानाजताका (यावना यूनानी हैं या लोनियंस के नाम से जाना जाता था) है। यूनान का ज्ञान भारत में सिकंदर के भारत आक्रमण के साथ आया और इसी तरह भारत का ज्ञान यूनान में उनके साथ गया। आर्यभट,भास्कर, ब्रहंगुप्ता, हेमचन्द्र, माधव ने भारतीय खगोल शास्त्र और गणित में अभूतपूर्व तरक्की की।

ऐसा क्यों है कि वैदिक विज्ञान और संस्कृत को बढ़ावा देने वाले ऐसे अद्ध्यनों को खारिज करते हैं और इसे पौराणिक कथाओं और कल्पना में परिवर्तित कर देते हैं? इसका साधारण सा कारण है। यह चेतना, अनुभवजन्य साक्ष्य और अनुभव को खारिज करना और खोज का आधार केवल विश्वास पर आधारित रखना है। वे इसके वैज्ञानिक होने दावा करते हैं और साथ ही वास्तविक विज्ञान को खारिज करते हैं। इस अभ्यास में केवल सकारात्मक सबूत को माना जाता है और नकारात्मक सबूतों की अनदेखी की जाती है।

हर्षवर्धन का पाइथागोरस सूत्र और पाइथागोरस थियोरम के बारे में दावा विश्वास पर आधारित है। अगर इस दावे को देखा जाए तो इस विज्ञान और वास्तविक खोज वाले विज्ञान के बीच बड़ा अंतर मिलता है। पहले कुछ तथ्य, एक सम कोणबनाने की क्षमता बहुत महत्वपूर्ण है। यह संरचना बनाने में मदद करता है - दीवारों, का एक दूसरे के लिए सम कोणपर होने की जरूरत है, कृषि क्षेत्र आदि में खेत को काटने और आकलन करने के लिए जरूरी है। सभी प्राचीन सभ्यताओं को पता था कि सम कोण बनाने के लिए एक समकोण त्रिभुज की लक्षण का उपयोग करना चाहिए जो एक  सम कोण से सटे दो पक्षों पर चौकों कर्ण पर वर्ग के बराबर है। एक निर्माण विधि में भी यह प्रकट होता है- अगर हम 3, 4, और 5 फीट के त्रिकोण लेते हैं, 5 फीट की ओर वाला विपरीत कोण ही सही त्रिकोण होगा। इसे व्यापक रूप से जाना जाता है और इस्तेमाल किया जाता है। मिस्र, बेबीलोन, भारत और चीन के ग्रंथों में कुछ नंबरों की यह लक्षण सम कोण त्रिकोण के निर्माण के लिए उपयोग में लाया जाता है और इसलिए यह सम कोणबनाने की विधि के रूप में इसका इस्तेमाल करने की क्षमता प्रदान करता है।

सुलाभ्सुत्र  संख्या ऐसे (3,4,5; 5,12,13) इत्यादि के सेट के ज्ञान का सबूत देता है, जिससे  कि पाइथागोरस प्रमेय का एक अलग सूत्रीकरण ज्ञान दावा किया जाता है। क्या उनके पास उस समय के प्रमेय का सबूत है? इस दावे के सबूत की जरूरत है। इस बाबत एक मंत्री का दावा फिर चाहे वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी का मंत्री हो, इसके प्रति सबूत के लिए काफी कमज़ोर दावा है।

क्या पाइथागोरस प्रमेय ग्रीक मूल से है? यह केवल विज्ञान के इतिहास में महत्व रखता है। इतिहासकार मार्टिन बरनाल, अपनी पुस्तक काले एथेना में बताते हैं कि यूनानियों ने यह सब मिस्रवासियों से बड़े स्तर पर लिया है और मिस्रवासियों को कोण और त्रिकोण की लक्षण के बारे में पहले से जानकारी थी। एक जानी हुयी लक्षण और प्रमेय में अंतर इतना है कि जबकि प्रमेय के सबूत होते हैं और लक्षण को लगातार देख-भाल की वस्तु माना जाता है, फिर भी यह साबित नहीं करती है कि इसका कोई वास्तविक उदहारण होगा जो इस लक्षण के होने के सिद्धांत का उलंघन करती है। इसका मतलब है की अगर आप सफ़ेद हंस पर नज़र रखते हैं तो ये नहीं माना जाता सकता है कि वहां काले हंस नहीं हैं।

पाइथागोरस प्रमेय की खूबसूरती है कि यह एक सबूत प्रदान करता है। यह लक्षण सभी समकोण त्रिकोण के लिए सच है और न सिर्फ विशेष 3,4,5 की लक्षण के लिए। यही वह सबूत है जो हर्ष वर्धन के पाइथागोरस फोर्मुले और पाइथागोरस प्रमेय में अंतर करता है। चीन के पास भी पाइथागोरस प्रमेय का सबूत है। इसका सबूत होना मिश्र और भारत के लिए भी संभव है। अगर विज्ञान के इतिहासकार ये मानते हैं कि मिश्र और भारत के पास इसकी पहले से जानकारी थी तो उन्हें इस बाबत सबूत पेश करना होगा।

हमें वैमानिक शाष्त्र के दावों पर नजर डालनी होगी जिसे लगातार प्रेस में प्रचारित किया जा रहा है। यह पूरी बातचीत एक संस्कृत कोष पर आधारित है जिसे सुब्बर्य शाष्त्री को ऋषि भारद्वाज ने मानसिक संकेतों के जरिये स्वप्न में बताया था। शाष्त्री 1866 से 1940 तक जीवित थे वहीँ भरद्वाज कम से कम 2000 साल पहले रहा करते थे। और अगर हम उनकी बात माने जो प्राचीन भारत में विमान की बात करते हैं तो भरद्वाज, शाष्त्री से कम से कम 9000 साल पहले जीवित थे।

इस कोष को भारतीय विज्ञानं संस्थान के इंजिनियरों ने पढ़ा, वे शाष्त्री के जन्मस्थान पर भी गए और इस कोष को पढने के अलावा उनके जानकार व्यक्तियों से बातचीत की। उन्होंने परिणाम निकाला की यह आधुनिक संस्कृत में लिखा गया कोष है न कि प्राचीन संस्कृत में। जिसका निष्कर्ष यह है कि यह बीसवी सदी में लिखा गया था। दूसरा निष्कर्ष यह था कि इन लेखों में जिन विमानों का उल्लेख है, वे वैज्ञानिक तौर पर इतने असक्षम थे की उड़ना तो दूर वे दौड़ भी नहीं सकते। इसीलिए यह सभी दावे कि प्राचीन समय के विमान तिरछा, उल्टा  उड़ते थे और साथ ही ग्रहों के बीच की भी दूरी तय किया करते थे, यह वास्तविकता नहीं बल्कि एक स्वप्न है।  

केवल यही लेख ही विज्ञान कांग्रेस में नहीं पेश किया गया। एक ऐसा भी लेख था जिसने वैदिक शल्यक्रिया की बात की। इस दावे की भी खोजबीन की गई। हालाकि सुश्रुत के लेखों से प्राचीन भारत में शल्यचिकित्सा एवं शरीर रचना विज्ञान की उपस्थिति पता चलती है और साथ ही अनुभवसिद्ध शिक्षा होने के प्रमाण भी मिलता है। पर विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुत किए गए लेख में यह कमी देखने को मिली है कि प्रस्तुतकर्ता ने यह वैज्ञानिक समझ किस मूल स्त्रोत से ली गई है और इसे आज प्रमाणिक माना जाए या नहीं, यह पता करने की परवाह नहीं की है। गणित में फील्ड मैडल पाने वाले पहले भारतीय मंजुल भार्गव ने भी साइंस कांग्रेस में प्राचीन विज्ञान की तारीफ की पर यह अन्य लोगो द्वारा की गई तारीफ से अलग थी। वे पौराणिक और काल्पनिक को वैज्ञानिक से अलग करने में कामयाब रहे।

आर.एस.एस की इस योजना का परिणाम यह होगा कि विज्ञान सैधांतिक और अनुभवसिद्ध होने के बजाये पौराणिक और काल्पनिक तथ्यों पर आधारित होगा। यह विज्ञान का पतन होगा। विज्ञान को प्रयोग करके ही सीखा जा सकता है। संस्कृत सीखने से विज्ञान की तरफ कभी नहीं बढ़ा जा सकता।

(अनुवाद- महेश,प्रांजल)

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

 

 

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