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सत्ता के विकेन्द्रीकरण के लिए कितने गंभीर हैं हम?
राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस और राष्ट्रीय स्थानीय स्व-शासन दिवस का चुपचाप बीत जाना तब ध्यान खींचता है जब देश में आम चुनावों के तीन चरण पूरे हो चुके हैं और 300 सीटों पर चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं पर इस दौरान पंचायती राज व्यवस्था को लेकर किसी भी राजनैतिक दल ने कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी।
सत्यम श्रीवास्तव
25 Apr 2019
सत्ता के विकेन्द्रीकरण के लिए कितने गंभीर हैं हम?
Image Courtesy: Live Mint

कल 24 अप्रैल था। चुपचाप बीत गया। ऐसे समय में जब देश में केंद्र में एक लोकतांत्रिक सरकार के गठन के लिए देशव्यापी चुनाव प्रक्रिया जारी है। एक आदर्श लोकतंत्र में सत्ता का अधिकतम स्तर तक विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था और संस्थान अनिवार्य शर्त होना चाहिए। हिंदुस्तान में ऐसे संस्थानों का गठन 73वें व 74वें संविधान संशोधनों के बाद 1993 में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के रूप में हुआ। सत्ता व संसाधनों के विकेन्द्रीकरण की इस व्यवस्था और उसके लिए गठित हुए संस्थानों को सांवैधानिक विधि के बल के साथ टोलों, गाँवों, जनपदों और ज़िला स्तरों तक सुनिश्चित किया गया। इन्हें स्व–शासन की प्राथमिक इकाइयाँ माना गया।    

2010 में आज के दिन को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस और राष्ट्रीय स्थानीय स्व-शासन दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने की थी और इस मौक़े पर यह कहा था कि ‘अगर पंचायती राज व्यवस्था अपनी पूरी संभावना के साथ काम करे और स्थानीय लोग इसमें अपनी सक्रिय भागीदारी निभाएँ तो देश में माओवाद की चुनौती से निपटा जा सकता है’। इसके बाद 2015 में  इस दिन को उत्सव के रूप में मनाते हुए मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके महत्व पर अपने विचार रखे थे। 

आर्काइव की सीमित खोज से जो सूचनाएँ मिली हैं उनसे यह दिखाई पड़ता है कि बीते 10 सालों के दरमियान केवल दो बार देश के दो प्रधानमंत्रियों ने इस दिन को महत्वपूर्ण मानते हुए पंचायती राज मंत्रालय द्वारा आयोजित सालाना कार्यक्रमों में शिरकत की। 

ऐसे दिन का चुपचाप बीत जाना तब ध्यान खींचता है जब देश में आम चुनावों के तीन चरण पूरे हो चुके हैं और 300 सीटों पर चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं पर इस दौरान पंचायती राज व्यवस्था को लेकर किसी भी राजनैतिक दल ने कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी। प्रमुख राजनैतिक दलों भाजपा व कांग्रेस में से कांग्रेस ने फिर भी विकेन्द्रीकरण की इन सांवैधानिक इकाइयों को अधिकार सम्पन्न बनाने को लेकर घोषणा पत्र में कुछ जगह दी भी है पर भाजपा ने इसका ज़िक्र केवल हाई कनेक्टिविटी इन्टरनेट से जोड़ने के मामले में किया है, वो भी सिर्फ़ एक बार। 
चुनावी रैलियों व भाषणों से तो ख़ैर इसे लेकर एक शातिराना चुप्पी देखने को मिलती है लेकिन मीडिया के लिए भी यह विषय कभी महत्व का नहीं रहा। 

आज इस स्थानीय स्व –शासन पर बात करने की ज़रूरत इसलिए भी है क्योंकि यह व्यवस्था संविधान के 73वें व 74वें संशोधन का हासिल हैं। अनिवार्य तौर पर यह संविधान का अभिन्न हिस्सा हैं। आज देश में 29 लाख जन प्रतिनिधि हैं जो इस त्रि-स्तरीय पंचायती व्यवस्था के तहत चुने गए हैं। सत्ता के विकेन्द्रीकरण की दिशा में और संसाधनों के लोकतांत्रिक वितरण को लेकर यह स्वायत्त इकाइयाँ देश में वास्तव में गवर्नेंस को सभी की सहज पहुँच में ला सकने की क्षमताएँ रखती हैं। 

जहाँ इन संस्थाओं ने अपने सांवैधानिक अधिकारों को सजग ढंग से प्रयोग में लाया है वहाँ इन संस्थाओं के महत्व को स्थापित किया है और सत्ता के केन्द्रीकरण को गंभीर चुनौतियाँ दी हैं। 

इस साल 73वें व 74वें संविधान संशोधनों को 28 साल हो रहे हैं। इन संशोधनों के माध्यम से ‘अधिकतम लोकतंत्र व सत्ता के अधिकतम हस्तांतरण’ की बुनियाद रखी गयी थी. सत्ता और निर्णय लेने के अधिकारों का किसी केन्द्रीय सत्ता के स्थान पर उसका हस्तांतरण गाँव स्तर पर लोगों के सीधे नियंत्रण में देने की मंशा से हुए इन संशोधनों का समग्र मूल्यांकन किये जाने की आवश्यकता भी है।

ग़ौरतलब है कि इन महत्वपूर्ण संशोधनों के साथ ही उसी समय ‘आर्थिक सुधारों’ की दिशा में भी क्रांतिकारी बदलाव किये गए थे। इन संशोधनों के तहत भारत की बंद अर्थव्यवस्था को पूरी दुनिया के लिए खोला गया और बाहरी निवेश को बढ़ावा देने के लिए तमाम संशोधन किये गए जिसे ‘उदारवादी अर्थव्यवस्था’ कहा गया। 1991 के बाद से इस उदारता का दायरा बढ़ता ही जा रहा है और देश के उन क़ानूनों में मुसलसल बदलाव किये जा रहे हैं जो व्यक्ति, समुदाय और समाज के निर्णय को गरिमा और मान्यता देते आये हैं। 2014 के बाद से कोरपोरेट्स के मुनाफ़े बढ़ाने के लिए इन बदलावों में तेज़ी ही आयी है। 

अपनी-अपनी संकल्पनाओं में ये दोनों परिघटनाएँ एक-दूसरे से एकदम विरोधाभासी दिखाई देती हैं और 28 साल के अनुभव भी इस बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि ये आपस में व्युत्क्रनुपाती हैं - यानी अगर एक दिशा में वास्तविक प्रगति होती है तो दूसरी तरफ़ उतना ही अवमूल्यन होगा। हालांकि तत्कालीन सरकार ने इसे ‘समावेशी वृद्धि’ और ‘समावेशी शासन’ की सकारात्मक शब्दावली में परिभाषित किया और इन्हें क्रमश: संस्थागत व आर्थिक सुधार कहा। इन्हें एक दूसरे के लिए ज़रुरी माना। यानी आर्थिक सुधार के सकारात्मक असर दिखें इसके लिए यह सांस्थानिक सुधार अनिवार्य रूप से ज़रूरी हैं।

इन सुधारों के लागू होने के 12 साल बाद यानी 2004 में इनकी समीक्षा की गयी और ख़ुद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माना कि ‘आर्थिक सुधारों की तुलना में संस्थागत सुधार बहुत पीछे रह गए हैं’। इससे आय की असमानता और ज़्यादा बढ़ी है क्योंकि मानव विकास सूचकांकों में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। इन सुधारों के माध्यम से ‘समावेशी वृद्धि’ और ‘समावेशी शासन’ को एक दूसरे के लिए अनिवार्य माना गया था और समावेशी शासन पंचायती राज के क्रियान्वयन के बिना संभव नहीं है। इस समीक्षा के बाद 27 मई 2004 को स्वतंत्र पंचायती राज मंत्रालय की स्थापना इसी उद्देश के लिए बनाया गया।

2016 में जहाँ आर्थिक सुधारों के 25 सालों के प्रदर्शन पर गंभीर चिंतन हुआ और तमाम प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा तब तक किये गए सारे प्रयासों को नाकाफ़ी बताया गया तब इस मुद्दे पर कोई चर्चा भी नहीं हुई कि सत्ता के विकेंद्रीकरण व हस्तांतरण का क्या हुआ? 2016  आते-आते पंचायती राज मंत्रालय का कुल बजट भी घटाया गया और मौजूदा भाजपा सरकार ने आर्थिक विकास के लिए जिस ‘टीम इंडिया’ और ‘कॉपरेटिव फ़ेडरलिज़्म’ की बात की है उसमें पंचायत या स्थानीय प्राधिकरणों का ज़िक्र भी नहीं किया बल्कि बहस अब इस पर शुरू हुई कि पंचायती राज मंत्रालय की ज़रूरत ही क्या है? 

‘बेदख़ली से पूंजी के संचय पर’ आधारित इस पूंजीवादी युग में स्थानीय निकायों और आम नागरिकों की भागीदारी को हतोत्साहित किया जाना ज़रूरी है। आर्थिक सुधारों के लागू होने के बाद से भारत की राज व्यवस्था ज़्यादा निष्ठुर होती गयी है, विशेष रूप से प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय सामुदायिक/सामाजिक अधिकारों को लेकर और इसके ख़िलाफ़ आज पूरे देश में स्थानीय समुदाय इससे संघर्ष कर रहे हैं। ‘विधान सभा और लोकसभा से भी ऊँचा दर्जा ग्राम सभा’ को दिए जाने का स्थानीय स्तर पर स्वागत हुआ था और आज का मूल तनाव यही है। लोग अपने इन प्राधिकरणों को मान्यता दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। सरकारों का नज़रिया इन संस्थानों को अपराधी मानने का है।   
इसका सीधा सा आशय है कि संस्थागत सुधारों की जो कल्पना की गयी थी उस दिशा में कोई सकारात्मक इच्छा शक्ति के साथ काम नहीं किया गया। यह एक तथ्य भी है कि पंचायती राज को न तो केंद्र सरकार ने गंभीरता से लिया और ना ही राज्य सरकारों ने। हालांकि परवर्ती क़ानूनों जैसे महात्मा गांधी रोज़गार गारंटी क़ानून या वनाधिकार मान्यता क़ानून में इन संस्थाओं को पर्याप्त तवज्जो दी गयी और इन्हें निर्णायक शक्तियाँ प्रदान की गयीं पर बाक़ी सांस्थानिक संरचनाएँ इनके अनुकूल नहीं बनाई गयीं। इससे एक द्वंद्व हमेशा बना रहा और अंतत: स्व-शासन की इकाइयाँ बनाने की महत्वाकांक्षी परियोजना केंद्र व राज्य सरकारों के आर्थिक एजेंडे और नौकरशाहों के अहम की बलि चढ़ गयी।

आज 25 सालों के बाद परिस्थितियाँ विकराल रूप में है। आर्थिक सुधारों का सकारात्मक प्रभाव आम लोगों और विशेषकर ग्रामीण आबादी, दलित, आदिवासियों के बीच नहीं पहुँच पाया। सामाजिक पहचानों के आधार पर समुदायों/तबकों की उग्रता बढ़ी है, आय के आधार पर अमीरी-ग़रीबी के बीच खाई और चौड़ी हुई है, आर्थिक वृद्धि है पर लोगों से पुराने रोज़गार छीने जा रहे हैं, नए पैदा नहीं हो रहे हैं, जन कल्याण की योजनाएँ या तो केंद्रीयकृत हुई हैं या पूरी तरह भ्रष्टाचार की बलि चढ़ चुकी हैं। स्थानीय निकाय/प्राधिकरण जिस भी स्वरूप में हैं उनका दलगत राजनीतिकरण ही हुआ है और जो सोचा गया था कि दलितों, आदिवासियों और महिलाओं का सशक्तिकरण इन प्राधिकरणों के माध्यम से होगा, वो संभव नहीं हो पाया है। नयी और वृहत विकास परियोजनाएँ (मसलन औद्योगिक गलियारे, मैनुफ़ैक्चुरिंग ज़ोन, विशेष आर्थिक क्षेत्र आदि)  बनाई जा रही हैं जिनके लिए नए-नए प्राधिकरण (स्पेशल परपज़ व्हीकल्स) भी बनाए जा रहे हैं और इन इकाइयों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। लोगों के पास उनके स्थानीय संस्थान नहीं हैं जहाँ से उनके मुद्दों का उचित ढंग से समाधान हो सके और वो भी इस व्यवस्था में अपनी भागीदारी महसूस कर सकें। यह स्थिति विस्फ़ोटक है।

तक़ाज़ा तो ये बनता है कि 2019 के आम चुनावों में इन संस्थानों की मज़बूती के लिए ठोस क़दम उठाने के संकल्प लें और यह अवसर सभी दलों के पास समान रूप से था कि 24 अप्रैल को होने वाली चुनावी रैलियों, भाषणों, प्रेस वार्ताओं में इस दिन के बाबत कुछ बोलते, सोचते पर हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ये रैलियाँ, भाषण, प्रेस वार्ताएँ केंद्रीय सत्ता को पाने की कवायदें हैं और सत्ता शब्द आज भी केन्द्रीयता पर बल देता है। विकेन्द्रीकरण शब्द की ध्वनि कुछ और है, जो सत्ता तो हरगिज़ नहीं है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)


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