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भारत
राजनीति
स्वघोषित ईश्वर और बाबा-बाबू-बाज़ीगरी के किले
रजनीश साहिल
28 Nov 2014

हरियाणा की ताज़ा घटना से फिर से ‘ईश्वर-संत-भक्त’ चर्चा का विषय बन गया है। हालाँकि कबीर के तथाकथित अवतार रामपाल के मामले से कुछ ऐसे सवाल भी उभरे हैं जो इस विषय पर आमतौर पर होने वाली चर्चाओं से अलग हैं, मसलन अपनी ख़ुद की सेना, देश की कानून और न्याय व्यवस्था को चुनौती आदि। लेकिन मूल प्रश्न वही हैं, लोगों की धर्म-भीरुता, आस्था को भुनाकर अपना उल्लू सीधा करने से जुड़े हुए।

रामपाल को गिरफ्तार करने की क़वायद और आश्रम की तलाशी में जो सामने आया है उससे स्पष्ट है कि बाबागिरी चोखा धंधा है और कुछ भी करने का लायसेंस। पहले भी ऐसे मामलों में यही सामने आता रहा है। कहीं सिर्फ़ संपत्ति का अम्बार पता चला तो कहीं अनैतिक गतिविधियों का परनाला भी दिखाई दिया। महिलाओं के दैहिक शोषण की बात भी कोई पहली बार सामने नहीं आई, आश्रमों में तो इसकी परंपरा-सी रही है। इतिहास में इसके कई उदाहरण हैं – कहीं देवदासी जैसी परम्परा के रूप में तो कहीं राजाओं द्वारा ब्राह्मणों को स्त्रियाँ दान किये जाने की कहानियों में। इन कहानियों को कल्पित भी मान लिया जाये तब भी झाड़-फूंक करने वाले बाबाओं से लेकर नित्यानंद, आसाराम जैसे संतों तक के उदाहरण सामने हैं। ऐसा नहीं है यह हकीक़त किसी को पता न हो, लेकिन हमेशा अलौकिक के ख़्वाब देखते आँख के अंधों की कमी नहीं है सो इनमें से किसी का भी धंधा मंदा नहीं है।

                                                                                                                         

सौजन्य: ndtv.com

मनुष्य की चेतना पर ईश्वर, धर्म का डर बेतरह हावी है। इस देश की जनता को अपनी हर समस्या का समाधान संतों, बाबाओं के पास ढूँढने की इस कदर लत लगा दी गई है कि क्या अनपढ़ और क्या पढ़े-लिखे बाबू साहब, सब एक कतार में हैं। लोगों ने अपना दिमाग इस हद तक धर्म के संचालनकर्ताओं के हाथों में सौंप दिया है कि धर्म की आड़ लेकर कुछ भी कहा-किया-बताया जाएगा, वे अपने विवेक का इस्तेमाल किये बिना उसे मान लेंगे और बस हाथ जोड़े खड़े रहेंगे। इतिहास के ऐसे कई विद्यार्थी-शिक्षक मैंने देखे हैं जो पत्थर पर खुदी किसी भी टूटी-फूटी प्राचीन मूर्ति को भगवान मान सिर नवाते हैं। यही पढ़े-लिखे-समझदार कहे जाने वाले लोग इन तथाकथित संतों के लिए सबसे मुफ़ीद साबित होते हैं। कई ग्रामीण इलाकों में अनपढ़ और मेहनत-मजदूरी में जुटे लोगों से इन बाबाओं के बारे में एक वाक्य मैंने खूब सुना है – “इतने पढ़े-लिखे-समझदार लोग तक उनके पास जाते हैं”, या फिर “उनमें कुछ सच्चाई न होती तो इतने पढ़े-लिखे लोग क्यों जाते उनके पास!” यानी जिन्हें इस धुंध को छाँटना था उनमें से ही अधिकांश इसे बढ़ाने में मददगार हो रहे हैं।

रामपाल के भक्तों में भी ऐसे विद्वानों की कमी नहीं है वरना उस कबीर के अवतार की बात को कोई कैसे सच मान सकता है जिसका परिचय इसी तरह के आडम्बरों की आलोचना से शुरू होता है। गौरतलब है कि कबीरपंथी कबीर को भगवान् या परमात्मा नहीं बल्कि ‘गुरु’ कहते हैं। बाकी पंथों के लोग भी कबीर को संत के रूप में ही देखते आये हैं, पर बरास्ता रामपाल कबीर अब ‘परमात्मा’ हो गए हैं। यह इस सदी में मानसिक जड़ता का शायद अद्भुत उदाहरण है और इस बात का प्रमाण भी कि हम किसी को भी ईश्वर मानने या बनाने पर उतारू लोग हैं। बुद्ध, महावीर से लेकर साईं बाबा, ओशो तक जिसने भी सामान्य से कुछ अलग सोचा और किया वो भगवान बना दिया गया। अब तरह-तरह के भगवान ख़ुद सामने आकर अपने होने की घोषणा करने लगे हैं। उन्हें पता है कि भगवान के नाम पर यहाँ कुछ भी किया जा सकता है और वे कर रहे हैं।

आशाराम कृष्ण का वेश रखते थे, रामपाल अपने को कबीर का अवतार कहते हैं। एक और परमात्मा हैं – प्रजापिता ब्रह्मा, जो शिव के अवतार हैं और पर्चे के मुताबिक जिनके ‘प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय’ के तहत 138 देशों में 8700 सेंटर्स पर रोज़ाना 9 लाख लोगों को राजयोग सिखाया जाता है। इनके पर्चे की पहली पंक्ति है – “जागो-जागो, समय पहचानो, धरती पर भगवान आए हैं।” एक और पंक्ति है – “मैं तुम सब आत्माओं का निराकार परमपिता शिव परमात्मा प्रजापिता ब्रह्मा के तन में प्रविष्ट होकर ज्ञान-योग की शिक्षा दे रहा हूँ।” आगे लिखा है – “हे वत्सो! समय कम है, आलस्य, अलबेलापन ठीक नहीं, याद रखो अब नहीं तो कभी नहीं।” (देखें तस्वीर-1)। यानी शिव का यह स्वघोषित अवतार सेवाकर्म के नाम पर अपनी प्रॉपर मार्केटिंग कर रहा है। कबीर के अवतार भी सेवाकर्म ही करते थे। उनका मुख्यालय हरियाणा में था, इनका माउन्ट आबू (राजस्थान) में है। कुछ साल पहले दतिया के पास एक पण्डोखर सरकार हुआ करते थे, वे हनुमान के अवतार थे और 50 रूपये प्रति व्यक्ति की पर्ची में समस्या समाधान करते थे। फिर किसी आपराधिक मामले में फंसने की ख़बर आई जिसके बाद से ग़ायब हैं।

                                                                                                                     

इस तरह के किसी भी तथाकथित अवतार, संत, बाबा का एक तयशुदा जुमला होता है- ”हम तो सेवाकर्म कर रहे है।” कथा सुनाकर, रोगियों को दवा देकर तो कभी ‘बाबाजी बहुत परेशान हूँ’ जैसी समस्यायों का समाधान सुझाकर यही दिखाया भी जाता है। यह सब बाज़ीगरी है, असल मक़सद कुछ और है, जो कि धर्मसत्ता और राजसत्ता के गठजोड़ के शुरूआती समय से ही मौजूद रहा है। लोगों के विवेक, चैतन्य को इतना कुंद कर दिया जाना कि धर्म के नाम पर जो भी कहा जाये वे उसे आँख मूँद कर मानें और इन तथाकथित धार्मिकों को अपना पथप्रदर्शक समझें। ऐसा करके ये पथ-प्रदर्शक हमेशा से अपने अनुयायियों की इतनी भीड़ जुटाते रहे हैं कि राजसत्ता से लाभ या हानि कैसी भी स्थिति में उसका इस्तेमाल कर सकें और जब तक बिलकुल ही विपरीत परिस्थिति न हो जाये तब तक खूब मौज उड़ा सकें। जैसे कि आज भी अथाह संपत्ति, राजसी ठाट-बाट को भोगा जा रहा है और नैतिकता का चोला पहन तमाम तरह के अनैतिक काम किये जा रहे हैं।

पहले धर्मगुरु राजाओं के लाभ के लिए धर्म-भीरुओं को धर्म-अधर्म के नाम पर झोंक दिया करते थे आज भी यही होता है। चुनाव में जीतने के लिए बाबू साहब को वोट चाहिए तो बाबाजी/ महात्माजी से समर्थन मांगिये, मिल गया तो अनुयायियों के अच्छे-खासे वोट पक्के क्योंकि बाबाजी किसी ग़लत आदमी को समर्थन थोड़े ही देंगे! (ताज़ा उदाहरण मोदी सरकार को संत रामपाल का समर्थन।)

राजसत्ता को हमेशा ही धर्म और धार्मिक भावनाओं के इन खिलाड़ियों से लाभ मिलता रहा है इसलिए धार्मिक संस्थाओं और उनके कर्ताधर्ताओं पर कभी कोई सख्ती नहीं बरती गई, अलबत्ता संरक्षण ही मिलता रहा है, वरना कैसे संभव है कि जहाँ छोटे-मोटे अवैध निर्माण की ख़बर तो सरकार को लग जाती है पर एकड़ों में फैले अवैध आश्रमों की नहीं लगती। जाहिर है कि ऐसा राजनीति के बाबुओं की सहमति से होता है। फिर भी अगर कभी सरकार की ओर से किसी कार्रवाई की नौबत आई है तो भक्तों की यही फ़ौज ढाल बनकर खड़ी हो जाती है। आशाराम या रामपाल किसी की भी गिरफ़्तारी में आईं अड़चनें इसका सुबूत है।

अमूमन होता यह है कि ऐसी किसी भी घटना के बाद हम बाबाओं पर ज़्यादा बात करने लगते हैं, जबकि इसमें बाबू (पढ़े-लिखे अन्धविश्वासी और धार्मिक भावनाओं का राजनैतिक लाभ उठाने वाले) भी बराबर के सहभागी हैं। हालाँकि आशाराम और रामपाल जैसों की गिरफ़्तारी यह उम्मीद जगाती है कि धर्म की ओट में खड़े किये गए इन अवैध किलों के ढहने की शुरुआत हो चुकी है, लेकिन फिर भी यह एक जटिल काम है जो अनथक प्रयासों की मांग करता है और केवल कानून-व्यवस्था या न्यायपालिका की गतिविधियों से संपन्न होने वाला नहीं है। जितना बाबाओं पर कानूनी नियंत्रण ज़रूरी है उतना ही ज़रूरी बाबुओं का चेतना के स्तर पर इलाज करना भी है। तभी शायद इस बाबा-बाबू-बाज़ीगरी के किले ध्वस्त हो सकेंगे।

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते 

स्वघोषित ईश्वर
बाबा
रामपाल
आशाराम
धर्म
अंधविश्वास

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