NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
राजद्रोह का क़ानून : असहमति को अपराध बनाने का ज़रिया
प्रदर्शनकारियों के अलावा, राजद्रोह के क़ानून से छात्रों, एक्टिविस्ट, बौद्धिकों और दूसरे नागरिकों को निशाना बनाया जाता है।
वर्दा दीक्षित
08 Feb 2020
Sedition

22 जनवरी को कानपुर की रैली में योगी आदित्यनाथ ने धमकी देते हुए कहा कि जो लोग "आजादी" के नारे लगाते हैं, उनके ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई की जाएगी। योगी के मुताबिक़, यह नारा लगाना देशद्रोह है। भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के मुताबिक़, देशद्रोह का मतलब क़ानून द्वारा भारत में स्थापित सरकार के ख़िलाफ़ नफ़रत या घृणा फैलाना है। यह धारा इन अभिव्यक्तियों पर सज़ा निर्धारित करती है। आज़ादी वाले नारे आज लोकप्रिय हो चुके हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ पूरे देश में जारी प्रदर्शनों में इन्हें लगाया जा रहा है।

भारत में असहमतियों को दबाने के लिए प्रशासन अक्सर राजद्रोह के क़ानून का इस्तेमाल करता है। पिछले महीने सीएए-एनपीआर-एनआरसी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वालों पर इस धारा के तहत कई मुक़दमे दर्ज किए गए। इस साल जनवरी की शुरुआत में झारखंड में सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने पर तीन हज़ार लोगों पर राजद्रोह का मुक़दमा दर्ज किया गया था। कर्नाटक में एक छात्र और मुंबई में एक महिला के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों के दौरान ‘फ़्री कश्मीर’ की तख़्ती टांगने पर राजद्रोह का मामला क़ायम किया गया। वहीं जेएनयू के छात्र शर्जील इमाम 6 राज्यों में राजद्रोह का सामना कर रहे हैं। उन्होंने सीएए और असम में हिंसा की निंदा की थी।

असहमति की प्रतिक्रिया में राजद्रोह

हाल के सालों में प्रदर्शनकारियों पर राजद्रोह का मुक़दमा लगाने का चलन बढ़ा है। 2017 और 2018 में झारखंड में राजद्रोह के 19 मामले दर्ज किए गए। इनमें पत्थलगढ़ी आंदोलन में शामिल दस हज़ार आदिवासियों के नाम भी थे। इस आंदोलन में आदिवासी अपनी ज़मीन पर निशानी की तख़्ती लगाकर, ज़मीन पर अपना अधिकार जताते थे। 2012 में तमिलनाडु के तिरुनेवेली ज़िले में 8000 लोगों पर राजद्रोह का मुक़दमा दायर किया गया। इन लोगों ने कुडनकुलम न्यूक्लियर पॉवर प्लांट के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया था।

प्रदर्शनकारियों के अलावा इस क़ानून से छात्रों, एक्टिविस्ट, आर्टिस्ट, बौद्धिक वर्ग के लोग और दूसरे नागरिकों को भी निशाना बनाया जाता है। ‘दमघोंटू असहमति: शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति का अपराधीकरण (2016)’ नाम की रिपोर्ट में बताया गया कि अंग्रेज़ों दौर के इस क़ानून का इस्तेमाल भारत में अक्सर असहमति दबाने के लिए किया जाता है। इसका उपयोग, ‘असहमति रखने वाले लोगों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और सरकारी की आलोचना करने वालों के ख़िलाफ़ किया जाता है।’

सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई अहम फ़ैसलों में साफ़ किया है कि राजद्रोह केवल तभी माना जाएगा जब हिंसा हुई हो या काम के पीछे क़ानून व्यवस्था ख़राब करने का उद्देश्य रहा हो। फिर भी सरकार के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण प्रदर्शनों पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया जा रहा है। अक्टूबर 2019 में 49 कलाकारों और बुद्धिजीवियों द्वारा देश में हो रही मॉब लिंचिंग पर प्रधानमंत्री को ख़त लिखने की वजह से उनपर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था।

राजद्रोह के क़ानून का इतिहास

इसे राज्य के ख़िलाफ़ अपराध माना जाता है। राजद्रोह का मतलब ऐसी अभिव्यक्ति है जो नफरत या अवमानना फैलाने के लिए की गई हो या फिर इससे भारत में क़ानून के राज से स्थापित सरकार के ख़िलाफ़ ‘अंसतोष’ फैलता हो। कुछ तरह के भाषणों का इस क़ानून से अपराधीकरण किया जाता है, यह क़ानून संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सीधा उल्लंघन है।

1870 में भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह के क़ानून को जोड़ने के बाद से ही इसका इस्तेमाल सरकारों ने अभिव्यक्ति को दबाने के लिए किया है। इसे 1870 में बढ़ती राष्ट्रवादी भावना को कुचलने के लिए जोड़ा गया था। यह क़ानून आज़ाद भारत की संविधान की मूल आत्मा के ही ख़िलाफ़ है, इसके बावजूद इसका पिछले 70 सालों में भरपूर इस्तेमाल हुआ है।

इस धारा की इसकी अस्पष्टता के लिए आलोचना की जाती है। यह धारा सिर्फ़ सफल नफ़रती भाषणों को ही दोषी क़रार नहीं देती, बल्कि इसकी कोशिशों पर भी लागू होती है। वक़्त के साथ इसके प्रावधानों को कुंद कर दिया गया। संविधान लागू होने के बाद ही 1950 में पंजाब हाईकोर्ट ने इस धारा को असंवैधानिक क़रार दे दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एक दूसरे मामले की पृष्ठभूमि में हाईकोर्ट के फ़ैसले को पलट दिया।  भारत में राजद्रोह के इतिहास में 1962 का केदारनाथ केस बेहद अहम माना जाता है। इस फैसले में 124A को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सही बाध्यता मानी गई है, लेकिन इसमें क़ानून को लागू करने के लिए बेहद सख़्त गाइडलाइन भी दी गई। कोर्ट ने कहा कि किन्हीं शब्दों को तब ही राजद्रोह की श्रेणी में रखा जाएगा, जब उनसे हिंसा या क़ानून-व्यवस्था में अशांति फैलाने की आशंका हो।

आने वाले सालों में आए कई फ़ैसलों से इस धारा को और सिकोड़ दिया गया। 1995 में दो लोगों ने ''खालिस्तान ज़िंदाबाद'' और ''राज करेगा खालसा'' के नारे लगाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कहा कि हिंसा की मंशा के बिना लगाए गए नारे राजद्रोह नहीं हो सकते। ख़ासकर तब, जब इनसे किसी भी तरह की क़ानून-व्यवस्था न बिगड़ी हो।

नाज़िर ख़ान बनाम दिल्ली राज्य (2003) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ''सत्ता से संबंधित विचार और काम'' करना या रखना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। 2015 में अरुण जेटली पर राजद्रोह का केस चलने वाला था और वे बाल-बाल बचे थे। उन्होंने एक फेसबुक पोस्ट में सरकार द्वारा प्रस्तावित NJAC को ख़ारिज करने पर सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की थी। जवाब में एक ज्यूडीशियल मजिस्ट्रेट ने उनपर सेक्शन 124A का मुक़दमा करने का आदेश दिया था। इसके बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें बचाया था। कोर्ट ने उस वक्त कहा था कि कोई शब्द तब ही राजद्रोह हो सकता है, जब उसमें क़ानून-व्यवस्था बिगाड़ने की पूर्वनिहित मंशा हो। इस धारा पर इतनी प्रतिबंधित व्याख्या के बावजूद राजद्रोह का उन मामलों में तक इस्तेमाल किया गया, जिनमें दूर-दूर तक इसकी ज़रूरत नहीं थी।

प्रताड़ना का हथियार

NCRB के हालिया डाटा से पता चला है कि राजद्रोह के मामलों में, ख़ासतौर पर 2014 में मोदी सरकार आने के बाद बड़ी संख्या में उछाल आया है। 2016 से 2018 के बीच भारत में राजद्रोह के मामले दोगुने हो गए हैं। 2016 में इस धारा के तहत 35 केस दर्ज किए गए थे, जो 2018 में बढ़कर 70 हो गए।

राजद्रोह इसलिए प्रताड़ना का प्रभावी हथियार है, इसलिए नहीं कि इसमें आरोपी का दोषी साबित होना आसान है, दिक्कत यह है कि इस धारा के तहत पुलिस के पास बहुत सारी शक्तियां हैं। राजद्रोह को संज्ञेय अपराध माना जाता है। जिसका मतलब है कि पुलिस इसमें बिना वारंट के गिरफ़्तारी और मजिस्ट्रेट से अनुमति लिए बिना जांच शुरू कर सकती है। यह एक ''नॉन कंपाउंडेबल'' धारा है। मतलब इसमें शिकायतकर्ता और आरोपी किसी समझौते पर नहीं कर सकते। यह ग़ैर-ज़मानती भी है। कर्नाटक के बीदर में जारी एक केस में स्कूल को राजद्रोह का आरोपी बनाया गया है, इसमें पुलिस ने शिक्षकों और स्कूल के स्टॉफ के साथ-साथ बच्चों से भी पूछताछ की है।

आपराधिक मामले की प्रक्रिया ही अपने आप में प्रताड़ना है। इसका पता हमें कुडनकुलम न्यूक्लियर पॉवर प्लांट के ख़िलाफ़ 2012 में प्रदर्शनकारियों पर लगे राजद्रोह के मामले से चलता है। एफ़आईआर होने के आठ साल बाद भी यह मामले कोर्ट में लंबित पड़े हैं। इस बीच जिन लोगों पर यह केस किया गया था, उन्हें आपराधिक मामले होने के चलते दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा है। वे लोग नौकरियां करने गांव से बाहर नहीं जा सकते, क्योंकि उन्हें हर महीने होने वाली सुनवाई में हाज़िर होना पड़ता है।

छात्रों, पत्रकारों और सोशल एक्टिविस्टों को किस तरह राजद्रोह के क़ानून से परेशान किया जाता है, इस मुद्दे पर एनजीओ 'कॉमन कॉज़' ने 2016 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगाई। इसमें मांग की गई कि राजद्रोह का मामला दर्ज करने से पहले पुलिस डीजीपी या कमिश्नर से अनुमति ले, जो उन्हें इस बात का प्रमाणप्तर दें कि संबंधित एक्ट से हिंसा या क़ानून व्यवस्था प्रभावित हुई है। कोर्ट ने कहा कि पुलिस को जांच में केदारनाथ मामले में दी गई गाइडलाइन का पालन करना चाहिए। 

इसे एक कलंक ही माना जाए कि संविधान बनने के 70 साल बाद भी राजद्रोह जैसा क़ानून अस्तित्व में है। ब्रिटेन में क़ानून आयोग ने 1977 में राजद्रोह को ख़त्म करने की सलाह दी थी। 2009 में इसे ख़त्म भी कर दिया गया। क़ानून को वापस लेने की मुख्य वजह इसका कुछ कॉमनवेल्थ देशों में ग़लत उपयोग बताया गया था। ऐसी आशा लगाई गई कि ब्रिटेन द्वारा इस क़ानून को ख़त्म करने के बाद दूसरे लोग उसका अनुसरण करेंगे। दूसरे देश इसे औपनिवेशिक क़ानून का प्रभाव मानकर, इससे छुटकारा पाएंगे। लेकिन भारत में अभी यह होना बाक़ी है। लेकिन जब तक राजद्रोह का यह क़ानून बरक़रार रहता है, तब तक किसी नागरिक के पूरे अधिकारों को मान्यता नहीं मिल सकती।

साभार :आईसीएफ 

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Sedition: Criminalising Dissent

Sedition
Sedition Cases in India
UAPA
BJP

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

गुजरात: भाजपा के हुए हार्दिक पटेल… पाटीदार किसके होंगे?


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ः 60 दिनों से हड़ताल कर रहे 15 हज़ार मनरेगा कर्मी इस्तीफ़ा देने को तैयार
    03 Jun 2022
    मनरेगा महासंघ के बैनर तले क़रीब 15 हज़ार मनरेगा कर्मी पिछले 60 दिनों से हड़ताल कर रहे हैं फिर भी सरकार उनकी मांग को सुन नहीं रही है।
  • ऋचा चिंतन
    वृद्धावस्था पेंशन: राशि में ठहराव की स्थिति एवं लैंगिक आधार पर भेद
    03 Jun 2022
    2007 से केंद्र सरकार की ओर से बुजुर्गों को प्रतिदिन के हिसाब से मात्र 7 रूपये से लेकर 16 रूपये दिए जा रहे हैं।
  • भाषा
    मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने चंपावत उपचुनाव में दर्ज की रिकार्ड जीत
    03 Jun 2022
    चंपावत जिला निर्वाचन कार्यालय से मिली जानकारी के अनुसार, मुख्यमंत्री को 13 चक्रों में हुई मतगणना में कुल 57,268 मत मिले और उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वाल़ कांग्रेस समेत सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो…
  • अखिलेश अखिल
    मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 
    03 Jun 2022
    बिहार सरकार की ओर से जाति आधारित जनगणना के एलान के बाद अब भाजपा भले बैकफुट पर दिख रही हो, लेकिन नीतीश का ये एलान उसकी कमंडल राजनीति पर लगाम का डर भी दर्शा रही है।
  • लाल बहादुर सिंह
    गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया
    03 Jun 2022
    मोदी सरकार पिछले 8 साल से भारतीय राज और समाज में जिन बड़े और ख़तरनाक बदलावों के रास्ते पर चल रही है, उसके आईने में ही NEP-2020 की बड़ी बड़ी घोषणाओं के पीछे छुपे सच को decode किया जाना चाहिए।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License