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भारत
राजनीति
अफस्पा के 71 साल: असफल राज्य व्यवस्था का सबूत
71वें गणतंत्र-दिवस के अवसर पर अफस्पा के खिलाफ नागरिकों की ओर से जारी भीषण संघर्ष भारत के सभी लोकतंत्र में आस्था रखने वालों के समक्ष गंभीर सवाल खड़े करता है।
तोको अनु
27 Jan 2020
Seventy One Years of AFSPA
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: लाइवमिंट

इस वर्ष भारत अपना 71 वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। हमारे पास एक संवैधानिक लोकतंत्र है, लेकिन हमारी व्यवस्था ने आज भी कई दशकों से सशस्त्र बलों को विभिन्न क्षेत्रों में तैनात करने की अनुमति जारी रखी है। सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा-AFSPA) के खिलाफ जारी संघर्ष एक निरन्तर चलने वाला एक भीषणतम संघर्ष है, जिसने भारत में स्थित सभी लोकशाही में यकीन रखने वाले लोगों के सामने गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं।

वास्तविकता यह है कि आजादी के बाद से आज 60 वर्षों से भी अधिक समय से अफस्पा लागू है और आज भी अपनी जगह पर पूरी तरह से कायम रहकर यह भारतीय लोकतंत्र के मूल तत्व के ही माखौल उड़ाने का पर्याय बन चुका जान पड़ता है।

जुलाई 2016 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों मदन बी लोकुर और यूयू ललित ने अफस्पा के तहत आने वाले क्षेत्रों में मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाए थे:

“हमारी राय में यह नागरिक प्रशासन द्वारा सशस्त्र बलों से सामान्य हालात बहाल किये जाने में प्रभावी सहयोग ले पाने में विफलता का संकेत माना जाना चाहिए या यह सशस्त्र बलों की ओर से सामान्य हालात बहाल करने में नाकामी के तौर पर लेना चाहिए, जिसमें वह नागरिक प्रशासन को समुचित सहायता दे पाने में विफल रहा है, या दोनों ही कारण हो सकते हैं।

मामला चाहे जो भी हो हो, यदि सामान्य स्थिति बहाल नहीं हो पा रही है, तो हमेशा के लिए या अनिश्चित काल के लिए सशस्त्र बलों की तैनाती के सूत्र उसमें से नहीं तलाशे जा सकते हैं (खासतौर पर सार्वजनिक कानून व्यवस्था और व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्यों के लिए)। क्योंकि ऐसा करना हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का मखौल बनाने जैसा होगा और सशस्त्र बलों की तैनाती के लिए संघ सूची की प्रविष्टि 2ए के तहत प्रदान किए गए अधिकार क्षेत्र का हनन करने जैसा होगा, विशेष रूप से आंतरिक गड़बड़ी की स्थिति को सामान्य हालत में लाने के नाम पर”।

अफस्पा के बारे में अदालत के फैसले से जैसा कि ऊपर निर्दिष्ट किया गया है, वह इस बात की इजाजत नहीं देता कि सशस्त्र बलों या राज्य पुलिस द्वारा देश में फर्जी मुठभेड़ों या अन्य अत्याचारों को जारी रखा जाये।

राज्य मशीनरी का असफल साबित होना

अफस्पा एक ऐसा कानून है जो भारत के सशस्त्र बलों को "अशांत क्षेत्रों" के रूप में अधिसूचित क्षेत्रों में "राज्य की सत्ता को बहाल करने" के लिए "विशेष अधिकार" प्रदान करने का काम करता है। क्षेत्रों, या क्षेत्रों के कुछ हिस्सों में जहां राज्य सरकारों के "सामान्य" ढंग से कामकाज करने की स्थिति खत्म हो जाती है, तो ऐसे में उन्हें “अशांत” क्षेत्र घोषित कर दिया जाता है। और इसके बाद, उस क्षेत्र विशेष को अशांत क्षेत्र के तहत (विशेष न्यायालय) अधिनियम, 1976 के तहत न्यूनतम तीन महीने तक यथास्थिति को बनाए रखना होता है।

एक बार अफस्पा के लागू हो जाने के बाद यह सशस्त्र बलों को "शत्रुतापूर्ण" उग्रवाद, उग्रवाद या पडोसी देशों द्वारा चलाए जा रहे छद्म युद्धों का मुकाबला करने के लिए चलाए जा रहे अत्यंत जोखिम भरे अभियानों के दौरान सुरक्षा प्रदान कराने का काम करता है, जिससे कि "सामान्य स्थिति बहाल हो" सके।

इसके लागू होते ही ढेर सारे प्रतिबन्ध लागू हो जाते हैं जैसे कि पांच या उससे अधिक व्यक्तियों के एक स्थान पर इकट्ठा होने पर प्रतिबंध, आग्नेयास्त्रों को अपने पास रखने पर प्रतिबंध और इसी प्रकार के अन्य प्रतिबन्ध लागू हो जाते हैं। अफस्पा सेना को बल प्रयोग करने की भी छूट देता है जिसमें उचित तौर पर चेतावनी देने के बाद गोली मारने और "पर्याप्त संदेह" के आधार पर गिरफ्तारी की अनुमति देता है और अन्य प्रावधानों के साथ ही साथ यदि ऐसा लगता है कि कोई व्यक्ति नियम-कानून तोड़ रहा है तो बिना किसी वारंट के उसके स्थान की तलाशी लेने जैसी कार्यवाही करने की इजाजत देता है। उपरोक्त सभी चीजें सेना अफस्पा के तहत करती है और जो सेना के खिलाफ किसी भी प्रकार के क़ानूनी कार्यवाही के लिए कोई प्रावधान नहीं छोड़ते।

यह ब्रिटिश हुकूमत है जिसने पहले पहल आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स को एक अध्यादेश के रूप में 1942 में लागू करने का काम किया था, ताकि महात्मा गांधी द्वारा छेड़े गए भारत छोड़ो आंदोलन को किसी भी तरह से कुचला जा सके। देश विभाजन के समय भी आंतरिक सुरक्षा से निपटने के लिए 1947 में केंद्र सरकार ने अफस्पा कानून लागू किया था। इसी तरह 1953 में, असम सरकार ने नगा हिल्स में नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) का मुकाबला करने के लिए अफस्पा का इस्तेमाल असम मेंटेनेंस ऑफ पब्लिक ऑर्डर (स्वायत्त जिला) एक्ट के तहत किया था, जो भारत से आज़ादी की माँग कर रहे थे।

स्थिति को काबू में नहीं किया जा सका और मार्च 1956 में नगा नेशनलिस्ट काउंसिल (एनएनसी) ने एक समानान्तर सरकार खड़ी कर डाली, जिसे नगालैंड की संघीय सरकार (फ़ेडरल गवर्नमेंट ऑफ़ नगालैंड) का नाम दिया गया। इससे निपटने के लिए, आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स आर्डिनेंस 1958 को अस्तित्व में लाया गया था।

बाद में इसे आर्म्ड फोर्सेज (असम और मणिपुर) स्पेशल पावर्स एक्ट, 1958 के साथ तब्दील कर दिया गया, जो राज्य के राज्यपालों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासकों को समूचे राज्य में या इसके किसी भी हिस्से को "अशांत" क्षेत्र घोषित करने की इजाजत प्रदान करता है। यह सशस्त्र बलों को हासिल अपनी "विशेष" शक्तियों को इस्तेमाल में लाये जाने में सक्षम बनाता है।

1958 में, उस समय के भारत के गृह मंत्री जीबी पंत ने तात्कालिक उपाय के तौर पर 1942 के मूल अध्यादेश को बदलने के लिए अफस्पा को एक अध्यादेश के तौर पर लागू किया था। इसने भारतीय सेना और अधिक ताकत देने का काम किया। अब यह अलग बात है कि अफस्पा, जिसे एक अस्थायी कानून मानकर चला गया था, वह पिछले 60 वर्षों से अधिक समय से लागू है। इसका अर्थ तो यही निकलता है कि यह अपने घोषित लक्ष्यों को पूरा करने या उसे लागू करने के इरादे को सफल बना पाने में विफल साबित हुआ है।
 
अफस्पा का असम और मणिपुर से इतर इस्तेमाल किया जाना
 

जल्द ही अफस्पा के दायरे को बढ़ाकर मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मिज़ोरम जैसे अन्य राज्यों तक विस्तारित कर दिया गया। खालिस्तान अलगाववादी आंदोलन जो खुद के लिए एक अलग सिख राष्ट्र की मांग कर रहे थे, से मुकाबले के नाम पर अब पंजाब और चंडीगढ़ में 1983 से 1997 तक सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम, 1958 के साथ अफस्पा कानून लगा दिया गया।

कश्मीर में भी आतंकवाद से लड़ने के नाम पर 1990 के दशक में अफस्पा को लागू कर दिया गया था। इस बात को याद रखा जाना चाहिए कि कश्मीर में उग्रवाद की जड़ें आत्मनिर्णय के अधिकार से लेकर भारत और पाकिस्तान दोनों से कश्मीर की आजादी से लेकर कश्मीर के पाकिस्तान का हिस्सा होने जैसे मुद्दों से जुड़ी हुई हैं। कश्मीर में उस समय भारत सरकार द्वारा प्रदान किए गए लोकतांत्रिक सुधारों ने कश्मीर के भीतर के असंतोष को अहिंसक भाव से प्रदर्शित किये जाने के लिए समुचित स्थान दे पाने में असफल रहे। यही वह विफलता रही, जो उन उग्रवादियों के लिए समर्थन में नाटकीय वृद्धि का कारण बनी जो हिंसा और/या भारत से विलगाव की वकालत करते थे।

कश्मीर में उग्रवाद के लिए उत्प्रेरक की भूमिका 1987 के विवादित विधानसभा चुनाव के कारण हुई थी। इन चुनावों के बाद कुछ विधायकों ने उग्रवादी गुटों का गठन कर डाला, और इसकी वजह से 1988 में कश्मीर में उग्रवाद में उभार लाने वाले तीखे हमलों की एक पूरी श्रृंखला और झड़पें देखने में आईं। और इस प्रकार यह भारत में सबसे गहन आंतरिक सुरक्षा मुद्दों में से एक बन गया। इस सन्दर्भ में कश्मीर में अलगाववाद को हवा देने के लिए पाकिस्तान की ओर से "नैतिक और कूटनीतिक" समर्थन का उल्लेख करना भी महत्वपूर्ण होगा।

इरादे बनाम परिणाम
 
हालांकि जाहिर तौर पर यह "अशांत क्षेत्रों" में शांति और स्थिरता को पुनर्स्थापित करने के उद्देश्य से लाया गया कदम था, लेकिन अफस्पा का पूरी तरह से उल्टा प्रभाव पड़ा है। नागरिकों के खिलाफ सशस्त्र बलों द्वारा कानून का सदुपयोग और दुरुपयोग के मामले गैर-न्यायिक हत्याओं, फर्जी मुठभेड़ों और इसके पीड़ितों की ओर से लगाए गए अत्याचार के आरोपों की संख्याओं के जरिये सिद्ध होते हैं।

न्यायेतर क्रियान्वयन पीड़ित परिवार संघ (एक्स्ट्राजुडिशल एग्जेक्युशन विक्टिम फैमिलीज़ एसोसिएशन) की ओर से दायर 2016 की एक याचिका में दावा किया गया है कि सिर्फ मणिपुर में ही पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा 1528 के आसपास ऐसी वारदातों को अंजाम दिया गया था। कश्मीरी पुरुषों के गायब होने की श्रृंखला ने अर्ध-विधवाओं की एक नई अवधारणा को जन्म दिया है, एक ऐसे गुम हो चुके पुरुषों की पत्नियों के संदर्भ में, जिन्हें अपने पतियों के ठौर-ठिकानों के बारे में कोई जानकारी नहीं है।

ऐसा विश्वास है कि सारे कश्मीर में पाए जाने वाली जो सामूहिक कब्रें हैं, उनमें इन "गायब" हो चुके पुरुषों के शव मौजूद हैं। इसके अलावा नियमित तौर पर नागरिकों को अपमानित करने और डराने-धमकाने के तौर पर बलात्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है।

मणिपुर में अर्धसैनिक बल असम राइफल्स की हिरासत में हुई मनोरमा देवी की मृत्यु के बाद से नागरिक समाज संगठनों की ओर से एक तीव्र आंदोलन की शुरुआत हुई। 1990 के दशक से मानवाधिकार समूहों ने मणिपुर में सेना के जवानों द्वारा यौन हिंसा की घटनाओं का दस्तावेजीकरण करने का काम शुरू कर दिया है। अफस्पा के चलते पीड़ितों को भय, तनाव और अनिश्चितता के कारण जिन मनोवैज्ञानिक आघात का शिकार होना पड़ता है, उसने स्वाभाविक रूप से उन्हें चिंता, आत्महत्या और अन्य पोस्ट-ट्रॉमाटिक विकारों के प्रति संवेदनशील बना दिया है।

दुष्परिणाम

उत्तर-पूर्व के क्षेत्र में जब अफस्पा को थोपा गया था, तब उस समय वहाँ पर सिर्फ दो उग्रवादी समूह ही मौजूद थे। आज ऐसे गुटों की संख्या 40 से अधिक है। इतने वर्षों में उत्तर-पूर्व के क्षेत्रों में और कश्मीर में जहाँ-जहाँ अफस्पा लागू है, वहाँ पर "सामान्य हालात" के मायने ही बदल कर रह गए हैं। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जहाँ फर्जी मुठभेड़ों, गैर-न्यायिक हत्याओं, यातनाओं और बलात्कार की घटनाओं से दो-चार नहीं होना पड़ता, यह अब बेहद “आम” बात हो चुकी है।

अफस्पा लागू किये जाने के बाद हम मुठभेड़ों और शत्रुतापूर्ण व्यवहार में बढ़ोत्तरी की घटनाओं को किस प्रकार से व्याख्यायित कर सकते हैं? हथियारबंद उग्रवाद की घटनाओं और हिंसा में हो रही बढ़ोत्तरी इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि समाधान के रूप में अफस्पा पूरी तरह से विफल रहा है। यह राज्य की ओर से इस्तेमाल किये जाने वाले एक विफल साधन के तौर पर ही साबित नहीं हुआ है, अपितु नागरिकों के एक बड़े हिस्से को भी उनकी सरकारों से अलग-थलग कराने वाला साबित हुआ है, जबकि उनका दायित्व उनके "रक्षक" के तौर पर है।

अफस्पा के द्वारा जिस प्रकार से मानवाधिकारों के उल्लंघन के काम को अंजाम दिया गया है उसे सरकारों, न्यायपालिका और यहां तक कि सेना द्वारा भी स्वीकार किया जा चुका है। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की इसी पीठ ने 2016 में कहा था कि अगर "हमारे सशस्त्र बलों की तैनाती देश के नागरिकों को मात्र आरोपों या संदेह के आधार पर मार डालने के लिए की गई है तो वे न सिर्फ कानून के शासन के 'दुश्मन' हैं बल्कि हमारे लोकतंत्र के लिए ही यह गंभीर खतरे का सूचक है। ”

केंद्र और राज्यों में स्थापित कई राजनीतिक दलों, जिनमें कांग्रेस, भाजपा सहित कुछ क्षेत्रीय राजनीतिक दल शामिल हैं, ने अपने घोषणापत्र में अफस्पा को हटाने का वादा किया है। लेकिन समय के साथ इसने खुद को बचाए रखा है।

इस काले कानून को मात्र "अमानवीय" कानून कहना ही काफी नहीं होगा। सच्चाई यह है कि एक ऐसी राजनीति है जो विभिन्न क्षेत्रों में इस अधिनियम और इसके उपयोग को बनाए रखना चाहती है। सेना के लिए यह अपना प्रभुत्व बनाए रखने और असीमित स्वतंत्रता का उपभोग करने के लिए यह एक आसान साधन के रूप में है, जबकि  राज्य सरकारों के लिए यह केंद्र से अतिरिक्त धन हासिल करने का एक महत्वपूर्ण साधन है, और वहीं केंद्र के लिए अफस्पा कानून लोगों को प्रभावी प्रशासन और विकास प्रदान करने में उसकी विफलता पर परदेदारी करने वाली काम की चीज साबित होती है।

वैकल्पिक उपाय क्या हैं

ऐसे विकल्पों की कमी नहीं है जो आमजन के समर्थन के साथ अफस्पा को हटाकर उग्रवाद की घटनाओं पर अंकुश लगाने का काम कर सकते हैं। उदाहरण के लिए त्रिपुरा के मामले में जहाँ पर सरकार, उग्रवादी गुटों और लोगों के बीच लगातार बातचीत के जरिये मई 2015 में अफस्पा को निरस्त कर दिया गया था। कानून और व्यवस्था की स्थिति की विस्तृत समीक्षा के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य में अफस्पा को वापस लेने के लिए एक अधिसूचना जारी की। त्रिपुरा में मौजूद विभिन्न समूहों जैसे कि इंडीजेनस नेशनलिस्ट पार्टी ऑफ त्विप्रा और इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा जैसे संगठन काफी समय से इस कानून को हटाने की माँग कर रहे थे, जिसके बारे में उनका मानना था कि यह राज्य की जनजातीय आबादी के हितों के खिलाफ है।

सरकार के हिसाब से जो कोई भी व्यक्ति अफस्पा का विरोध करता हो, वह “राष्ट्र-द्रोही” हो सकता है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। हमें इस बात पर गहराई से मंथन करना होगा कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसके सगे-सम्बन्धी की राज्य द्वारा हत्या कर दी गई हो, बलात्कार या यातनाएं दी जा रही हों, वह शेष भारत से जुड़े रहने को उत्सुक कैसे रह सकता है? आज इस बात पर गहनता से पुनर्विचार करने की जरूरत है कि क्यों एक लोकतान्त्रिक देश में, जिसके बारे में माना जाता है कि यह सत्य, न्याय और मानवता के आदर्शों पर आधारित है, उसे आज भी उग्रवाद का मुकाबला करने के लिए अफस्पा जैसे काले कानूनों को लागू करना पड़ रहा है।

और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें सरकारों के प्रति उनके ही नागरिकों के विक्षोभ के मूल कारणों के बारे में प्रश्न उठाने की जरूरत है, जिनकी वजह से ही उग्रवाद को सर उठाने का मौका मिलता है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Seventy One Years of AFSPA: Failed State Machinery

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