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अनौपचारिक जीवनशैली, औपचारिक कानून: फिल्म इंडस्ट्री में यौन उत्पीड़न का प्रश्न
लंबी सुनवाई के लिए मशहूर क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम उन महिलाओं में बहुत उम्मीद नहीं जगाता जो यौन उत्पीड़न या हमले की शिकार हैं, खासकर तब जब ये अपराधी उद्योग जगत की ताकतवर हस्तियाँ हों।
जेनी सुलफ़थ, मधुरिमा मजुमदार, शिरीन चौधरी
17 Sep 2020
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लता हर रोज सुबह-सुबह तकरीबन 3 बजे ही उठ जाने के साथ अपने परिवार के लिए भोजन तैयार करने में जुट जाती है, और थाल्योलापरांबु से कोच्चि तक की पहली बस पकड़कर डेढ़ घंटे तक का सफर तय करती है। उसे सुबह 8 बजे तक तयशुदा मीटिंग पॉइंट पर पहुँचना होता है, जहां से अन्य जूनियर कलाकारों के साथ उसे उस फ़िल्मी फिल्म लोकेशन पर भेजा जाता है, जहां उनकी जरूरत होती है।


कभी-कभी उसे देर शाम तक अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है, और ऐसे दिनों में वह 10 बजे रात तक ही अपने घर वापस पहुँच पाती है। जब उससे काम के दौरान आने वाली कुछ प्रमुख समस्याओं को चिन्हित करने के बारे में सवाल किया गया तो उसने इसके लिए सबसे बड़ी वजह काम की कमी को ही बताया।

"हमसे हर बार यही सवाल पूछा जाता है, ‘क्या आप एडजस्ट करने के लिए तैयार हैं”? यह एक ऐसा प्रश्न है जो  इस इंडस्ट्री में अवसर की तलाश करने वाले अधिकांश जूनियर आर्टिस्टों को, वो चाहे कितनी भी उम्र की या अनुभवी ही क्यों न हों, को सुनने को मिलता रहता है।

आमतौर पर जूनियर कलाकारों को फिल्मों में उन पात्रों के किरदार निभाने होते हैं, जिनके पास संवाद अदायगी की कोई गुंजाइश नहीं होती। इसके चलते उन्हें अनस्किल्ड की श्रेणी में रख दिया जाता है, भले ही उन्हें थिएटर इत्यादि में अभिनय करने का पुराना अनुभव ही क्यों न हो।

"एक्स्ट्रा" के तौर पर उनकी हैसियत को देखते हुए फिल्म उद्योग के पदानुक्रम में जूनियर कलाकारों को सबसे अंतिम पायदान पर माना जाता है, जिसमें उनके पास अपने लिए ना के बराबर मोलभाव करने की ताकत बचती है और कमाई के नाम पर उन्हें दैनिक मजदूरी से ही संतोष करना पड़ता है। क्या आप एडजस्ट करने के लिए तैयार हैं?

इस प्रश्न का निहितार्थ है कि - क्या एक महिला के तौर पर कोई जूनियर कलाकार काम के अवसर के बदले में सेक्सुअल फेवर प्रदान करने के लिए तैयार है। और जैसे-जैसे आप इस पदानुक्रम की सीढ़ियों पर आगे बढ़ते हैं, महिलाओं से पूछे जाने वाले प्रश्नों की प्रकृति भी बदलती जाती है।

इस सम्बंध में एक महिला जूनियर आर्टिस्ट ने एक विशिष्ट अनुभव को साझा करते हुए बताया: "कभी-कभी तो ऐसा महसूस होता है जैसे मैंने खुद को इन सबसे उदासीन बने रहने के लिए प्रशिक्षित कर लिया है"

वे बताती हैं कि इस तरह की बातचीत आमतौर किस तरह से आगे बढ़ती है। "'चेची [बहन], क्या आपने खाना खा लिया, चेची क्या आप सो चुकी हो?” और कुछ कैशियर तो! इसी वजह से वे मेहनताने का अग्रिम भुगतान नहीं करते। हर बार आपको आंशिक भुगतान ही दिया जाता है, और [पूर्ण] मेहनताना मिलने में आमतौर पर तीन महीने तक लग जाते हैं। इसलिए उन्हें लगातार इस बारे में याद दिलाते रहना पड़ता है [भुगतान करने के लिए]।”

जब उन्हें पारिश्रमिक अदा करने के बारे में याद दिलाया जाता है तो उनकी प्रतिक्रिया ढुलमुल या आक्रामक रहती है, वे कहती हैं। जैसे " हाय, गुड मॉर्निंग, आज आपने क्या खाया या घर पर तुम क्या पहनती हो?' निश्चय ही हर कोई कपड़े ही पहनता है! एक बार वह पूछने लगा कि मैं साड़ी पहनती हूं या चूड़ीदार।

मैंने कहा, 'साड़ी नहीं'। मैं गुस्से में थी, लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं? लेकिन वह तो शुरू ही हो गया: ‘ चेची, तुम साड़ी में बेहद खूबसूरत दिखती हो।’ अगला सवाल उसने दागा: ‘क्या तुम मुझे अपनी एक तस्वीर भेज सकती हो?’ जूनियर आर्टिस्ट ने इसके बजाय एक स्माइली भेजी, और इसके बाद जितना हो सकता था उसके सामने आने से बचने की कोशिश करने लगी।

वे कहती हैं "लेकिन ऐसे लोग बेहद प्रतिशोधी होते हैं, हो सकता है कि अगली फिल्म में भी आपका सामना इसी इंसान से पड़ जाये। इसलिए अच्छा रहेगा कि मन ही मन में उसे कोसते हुए आप एक फोटो भेज दें। आखिरकार इसमें मुझे क्या नुकसान होने जा रहा है? लेकिन कभी-कभी यह सब इतने पर ही जाकर खत्म नहीं होता है, अगली चीज वे स्तनों या पृष्ठ भाग की तस्वीर के बारे में पूछ सकते हैं।"

सहायक अभिनेत्री के तौर पर काम करने वाली एक अन्य महिला कलाकार के अनुभव भी कुछ इसी प्रकार के थे। एक सहायक अभिनेता को सिनेमा में आमतौर पर छोटी-मोटी चारित्रिक भूमिकाएं मिला करती हैं और जूनियर कलाकारों की तुलना में उन्हें कहीं अधिक पारिश्रमिक दिया जाता है। इसके बावजूद रोज़मर्रा के शोषण और मोलतौल के जरिये उद्योग जगत इन जैसी महिलाओं की स्थिति वालों से जितना कुछ वसूल लेते हैं, वैसे में इनकी स्थिति किसी जूनियर कलाकारों से बेहतर नहीं कही जा सकती है।

एक सहायक निर्देशक ने इन लेखकों को याद करते हुए बताया कि किस प्रकार एक फिल्म की शूटिंग एक दिन के लिए रुक जाने पर उसे इसका दोषी ठहरा दिया गया था, क्योंकि उसने अपने एक सहकर्मी द्वारा अनुचित तरीके से छुए जाने को लेकर प्रतिवाद किया था।

एक कॉस्ट्यूम डिजाइनर ने अपनी बात साझा करते हुए बताया कि किस प्रकार अक्सर उनके कैरियर की उपलब्धियों को लेकर व्हाट्सएप ग्रुपों में उन्हें वेश्या इत्यादि कहकर बदनाम किया जाता है। इसी तरह एक मेकअप कलाकार के अनुसार, महिलाएं अक्सर एक-दूसरे को इस प्रकार के सीरियल दरिंदों के बारे में आगाह करती रहती हैं, जो फिल्मों के सेटों पर दबे पाँव घात लगाये बैठे रहते हैं।

महिला कलाकार और तकनीशियन भले ही चाहे जितनी भी तकनीकी और रचनात्मक पहलुओं के मामले में उपलब्धियों से परिपूर्ण और प्रतिभा संपन्न हों, पदानुक्रम के सभी स्तरों पर उन्हें अक्सर विभिन्न स्तरों वाले यौन उत्पीड़न से जूझने के लिए विवश होना पड़ता है।

फिल्म उद्योग में व्याप्त भारी पैमाने पर यौन हिंसा को तात्कालिक तौर पर ही सार्वजनिक ध्यानाकर्षण तब प्राप्त हो सका जब 2017 में एक प्रसिद्ध मलयालम अभिनेत्री को उसके सहकर्मियों द्वारा यौन उत्पीड़न का शिकार बनाया गया था। उसका अपहरण कर चलती गाडी में उसके साथ छेड़छाड़ की गई और इस कृत्य की हमलावरों द्वारा रिकॉर्डिंग तक की गई थी। इस मामले में लोकप्रिय अभिनेता-निर्माता, दिलीप की गिरफ्तारी हुई थी।

इसकी वजह से ऑनलाइन गाली-गलौज भी देखने को मिली, जिसमें वीमेन इन सिनेमा कलेक्टिव (डब्ल्यूसीसी) के सदस्यों को इसका निशाना बनाया गया था, जो पीड़िता के पक्ष में निकलकर सामने आया था और जिसने इंडस्ट्री और सिनेमा यूनियनों के भीतर स्त्री-द्वेष के बारे में चर्चा की शुरुआत की थी।

दिलीप के मुकदमे की सुनवाई अब पूरी होने वाली है और पीड़िता को फैसले का इंतजार है। एक ऐसी पृष्ठभूमि के साथ यह बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि फिल्म उद्योग में महिलाओं के लिए काम की शर्तों पर गौर किया जाए, जिसके चलते यौन हिंसा और स्त्री-द्वेष का माहौल उत्पन्न होता है और उसे संभव बनाता है।

सामूहिकता के साथ ही अनौपचारिकता का पर्याय मलयालम फिल्म उद्योग

मलयालम फिल्म उद्योग की कुछ विशिष्ट विशेषताओं में से एक यह भी है कि इसके पास एफईएफकेए (FEFKA) या फिल्म फेडरेशन ऑफ़ केरल जैसी ताकतवर कर्मचारी यूनियनें अस्तित्व में हैं, जोकि अखिल भारतीय फिल्म कर्मचारी महासंघ से जुड़ी यूनियनों का एक संघ,  एमएसीटीए (MACTA) या मलयालम सिने टेक्नीशियन एसोसिएशन, और द असोसिएशन ऑफ़ मलयालम मूवी आर्टिस्ट्स या AMMA से सम्बद्ध है। ये निकाय राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और कल्याणकारी उपायों के संदर्भ में ये संस्थाएं एक महत्वपूर्ण घटक के तौर पर कार्य करती हैं।

केरल कल्चरल एक्टिविस्ट्स वेलफेयर फंड एक्ट, 2010 के अनुसार, इस वेलफेयर बोर्ड के साथ एक लाभार्थी के तौर पर पंजीकरण के लिए "किसी भी सांस्कृतिक कार्यकर्ता को संबंधित अकादमी या व्यापार निकाय या सरकार द्वारा अनुमोदित किसी अन्य निकाय या संघ से अनुमोदन के लिए प्रमाण पत्र पेश करने की बाध्यता है"।

इसका अर्थ हुआ कि किसी सिनेमा कर्मी को राज्य से मिलने वाली सुविधाओं को हासिल करने के लिए स्थापित यूनियनों या संघों द्वारा प्रमाणित किये जाने की आवश्यकता है। संक्षेप में कहें तो इंडस्ट्री एवं राज्य की योजनाओं तक पहुंच बनाने के लिए उन्हें इन यूनियनों की सदस्यता हासिल करनी ही होगी।

ये यूनियनें इंडस्ट्री की प्रथाओं और मानदंडों को नियंत्रित करती हैं, लेकिन मुख्यतया महिलाएं इन स्थानों में अभी भी अपना दखल मुश्किल से ही रखती हैं। "पर्दे के पीछे" की भूमिका मुख्य तौर पर पुरुषों द्वारा ही नियंत्रित की जाती है, जिसके कारण एंट्री लेवल पर ही महिलाओं के लिए बाधाएं खड़ी होने लगती हैं।

कुछ स्पष्ट प्रतिबंधों जैसे कि मेकअप आर्टिस्ट जैसे कुछ विशिष्ट व्यवसायों में महिला सदस्यता पर सामूहिक प्रतिबंध के अतिरिक्त ये यूनियनें जानबूझकर महिला कर्मियों की सदस्यता की प्रक्रिया में देरी करती हैं। एफईएफकेए की एग्जीक्यूटिव कमेटी में इस साल बीस पुरुष सदस्य और एक महिला सदस्य ही हैं, जबकि पिछले साल इसमें एक भी महिला सदस्य नहीं था।

मलयालम फिल्म उद्योग के इतिहास पर यदि नजर डालें तो कामकाज की एकमात्र श्रेणी जिसमें महिलाएं बहुतायत में हैं, तो वह अभिनय के क्षेत्र में है। जूनियर कलाकारों से प्राप्त सूचना के अनुसार, अभिनेताओं की यूनियन में सदस्यता हासिल करने के लिए सदस्यता शुल्क 1 लाख रुपये से अधिक का है। इसलिए, अधिकांश जूनियर कलाकार इस यूनियन के सदस्य बनने पर विचार तक नहीं कर सकते हैं, क्योंकि सिनेमा से मिलने वाली उनकी दैनिक आय मात्र 400 रुपए प्रति दिन तक ही सीमित है।

पुरुषों के पक्ष में स्पष्ट तौर पर वर्गीय और लैंगिक पूर्वाग्रहों के बावजूद यदि महिलाओं को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को लेकर कोई शिकायत करनी है तो ये यूनियनें ही महिलाओं के लिए एकमात्र सहारे के तौर पर उपलब्ध हैं।

पोश अधिनियम के साथ अक्षमता

कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध एवं निवारण) या पोश (POSH) अधिनियम, महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्यस्थल को सुनिश्चित करने हेतु 2013 में अस्तित्व में आया था, जोकि यौन उत्पीड़न से मुक्त है। यह एक्ट प्रत्येक कार्यस्थल पर दस से अधिक कर्मचारियों की एक समिति के गठन को अनिवार्य बनाता है, जिसे यौन उत्पीड़न के किसी भी कथित मामलों पर कार्रवाई करनी होती है।

इस कानून के अनुसार, यौन उत्पीड़न को अनुचित कार्य या व्यवहार के तौर पर परिभाषित किया गया है जैसे कि (i) शारीरिक संपर्क या इस तरह की पहल करना; (ii) सेक्सुअल फेवर की माँग या उसके लिए अनुरोध; (iii) लैंगिक तौर पर भद्दी टिप्पणी करना; (iv) नग्न चित्रों या वीडियो का प्रदर्शन; या (v) सेक्सुअल प्रकृति वाली कोई भी अन्य अवांछित शारीरिक, मौखिक, गैर-मौखिक हरकत करना इसमें शामिल है। कार्यस्थल पर यदि एक यौन उत्पीड़न कमेटी नहीं गठित है तो यह एक्ट पीड़ित महिला को इस अधिनियम के तहत गठित स्थानीय शिकायत समिति से संपर्क साधने के लिए भी निर्देशित करता है।

सारे देश भर में फिल्म उद्योग की संरचना इतनी ज्यादा अनौपचारिक है कि यहाँ पर एक कार्यस्थल किसे कह सकते हैं, यही पूरी तरह से अस्पष्ट है। जैसा कि इंडस्ट्री में मौजूद विशेषज्ञों ने इन लेखकों को बताया कि जब लोगों का एक समूह किसी स्क्रिप्ट को पढ़ रहा होता है तो यह काम एक निजी कमरे में भी संपन्न हो सकता है, या जब कॉस्टयूम डिजाइनर खरीदारी कर रहा होता है और जब एक जूनियर कलाकार खेल के मैदान में इंतजार कर रहा होता है, तो ये सभी कार्यस्थल की श्रेणी में आते हैं।

भले ही यौन उत्पीड़न विरोधी समिति का गठन कुछ संगठित कार्यक्षेत्रों (जैसे कि कोई प्रोडक्शन हाउस) में किये जा सकने की संभावना है, किन्तु कार्य सम्बंधों में मौजूद लचीलेपन और अनौपचारिकता को देखते हुए, किसी एक कार्यस्थल पर किसी व्यक्ति के खिलाफ की गई कार्रवाई के कोई खास मायने नहीं रह जाते।

अपराधियों के पास नियत प्रक्रिया से बच निकलने के अनेकों रास्ते निकल आते हैं और वे कहीं भी दूसरी जगह रोजगार पा सकते हैं। पीड़िता को किसी अन्य प्रोजेक्ट में उसी अपराधी के साथ काम करने के लिए मजबूर किया जा सकता है या प्राप्त हो रहे अवसर को उसे छोड़ देने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।

अपनी प्रकृति में ही सिनेमा निर्माण के कार्य के लिए कोई भौतिक स्थान तय नहीं होता है। फिल्म को शूट करने के लिए दुनिया के किसी भी लोकेशन को चुना जा सकता है। आंतरिक शिकायत समितियों (जिन्हें आईसीसी (ICCs) के तौर पर जाना जाता है) की अनुपस्थिति में यह एक्ट जिला-आधारित स्थानीय शिकायत समितियों या LCCs में शिकायत करने के विकल्प को मुहैय्या कराता है।

सिनेमा के काम की गतिशीलता यहाँ पर भी महिलाओं को इस विकल्प तक पहुँचने से रोकती है। यदि काम की स्थिति गतिशील बनी हुई है तो ऐसे में आंतरिक समितियों का अधिकार क्षेत्र भी संबंधित जिले तक ही सीमित होकर रह जाता है। यहाँ तक कि आदर्श स्थितियों में भी यदि कोई स्थानीय समिति में शिकायत करने के विकल्प को चुनता है तो ऐसे में यह एक्ट यह निर्दिष्ट नहीं करता, कि उस व्यक्ति को उस स्थान पर शिकायत करनी चाहिए जहां यह घटना घटित हुई थी या जहां पर शिकायतकर्ता का निवास-स्थल है।

इसके अलावा यह अधिनियम कहता है कि नियोक्ता का यह दायित्व है कि वह महिला को उन लोगों से सुरक्षा मुहैय्या कराये, जिनसे महिलाएं कार्यस्थल पर संपर्क में आती हैं। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि सिनेमा के क्षेत्र में कार्यस्थल कोई भी स्थान हो सकता है।

एक ऐसी इंडस्ट्री में जिसमें सितारे करोड़ों की कमाई करते हों, इस नियम के गैर-अनुपालन के परिणामस्वरूप यदि कानून द्वारा अनिवार्य 50,000 रुपये का जुर्माना किसी नियोक्ता को आंतरिक समिति गठित करने में विफल होने के चलते देना भी पड़ जाए तो भी उसके लिए किसी फिल्म के निर्माण की लागत की तुलना में यह बेहद मामूली है। इन परिस्थितयों एवं काम की स्थितियों को देखते हुए POSH अधिनियम के साथ यह इंडस्ट्री अपनी डिजाइन में ही असंगत नजर आती है।
जस्टिस हेमा कमीशन की रिपोर्ट कहाँ है?

जुलाई 2017 में न्यायमूर्ति के. हेमा की अध्यक्षता में बने एक आयोग का गठन डब्ल्यूसीसी से उन हालातों की जांच की मांग उठने के बाद किया गया था, जिसकी वजह से फिल्म उद्योग में यौन उत्पीड़न का होना आम बात है।

डब्ल्यूसीसी ने इस इंडस्ट्री की विशिष्टताओं को देखते हुए इसके संचालन के लिए व्यवस्था के सम्बंध में सिफारिशें मांगी थीं। एक लंबी और विस्तृत जांच के बाद जाकर आयोग की ओर से दिसंबर 2019 में अपनी रिपोर्ट पेश की गई थी। हालांकि आजतक यह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हो सकी है। जब रिपोर्ट की एक प्रति के लिए इन लेखकों द्वारा एक आरटीआई दायर की गई तो इसे यह कहकर ख़ारिज कर दिया गया कि इसमें व्यक्तिगत विवरण दिए गए हैं। व्यक्तिगत विवरणों को हटाकर इस रिपोर्ट की एक प्रति मुहैय्या किये जाने की अपील को भी ख़ारिज कर दिया गया था।

एक आपराधिक न्यायिक प्रणाली जो मुख्य तौर पर सबूतों के भरोसे ही टिकी हुई है और जिसकी खासियत ही लंबी मुकदमेबाजी हो, ऐसे में उन महिलाओं को जिन्हें यौन उत्पीड़न या हमले का शिकार होना पड़ा है, के लिए बहुत उम्मीद नहीं बचती। खासकर ऐसे मामलों में जिनमें इस उद्योग के ताकतवर  लोग अभियुक्त/मुजरिम के तौर पर शरीक हों। इसके बावजूद एक लोकतांत्रिक राज्य की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह हेमा आयोग की रिपोर्ट को जारी करे और महिलाओं को न्याय मुहैय्या कराने की खातिर, इस विषय पर बहस शुरू करने के लिए इसकी सिफारिशों को सार्वजनिक दायरे में रखे। इसे शुरु करने के लिए भी कम से कम एक प्रक्रिया की आवश्यकता पड़ती है, जिससे न्याय की आस बनी रहती है।

लेखकगण सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज, नई दिल्ली के शोधार्थी हैं। यह लेख कार्यस्थलों में यौन उत्पीड़न पर एक वृहत्तर अध्ययन का हिस्सा है जोकि इंडिया एक्सक्लूशन रिपोर्ट के लिए तैयार किया गया था। विचार व्यक्तिगत हैं।

 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Informal-Lives-Formal-Laws-Sexual-Harassment-Film-Industry

 

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