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चुनावी माहौल को केवल हार-जीत के लिहाज से आंकेंगे तो कुछ भी हासिल नहीं होगा!
चुनाव के समय एक ऐसी खिड़की तैयार की जा सकती है जहां पर भविष्य के लिए वर्तमान के इतिहास को बड़ी गंभीरता के साथ रिकॉर्ड करते रहा जाए। अगर हम सबका ध्यान केवल चुनावी हार-जीत को पढ़ने पर होगा तो चुनावी माहौल से कुछ भी फायदा नहीं मिल पाएगा।
अजय कुमार
18 Nov 2020
bbc

जब से चुनाव आयोग किसी राज्य में चुनाव का ऐलान कर देता है तभी से उस राज्य में चुनावी हार जीत की अटकलें लगनी शुरू हो जाती हैं। सारी चिंताएं परेशानियां केवल एक ही सवाल में बदल जाती हैं। सारा फोकस केवल हार जीत की चर्चा में रहता है। इस चर्चा का विस्तार इतना अधिक हो चुका है कि पत्रकार जनता से और जनता पत्रकार से यही जानना चाहती है कि चुनाव में कौन जीत रहा है, कौन हार रहा है। कई बेहतरीन पत्रकारों और प्रबुद्ध लोगों को इस सवाल पर मैंने झल्लाते देखा है।

यह झल्लाहट बिल्कुल जायज है, क्योंकि पूरे चुनाव को सिर्फ हार जीत में बदल देना लोकतंत्र के साथ बहुत बड़ी नाइंसाफी करने जैसा है। 24 घंटे न्यूज़ के नाम पर चल रहे चैनलों के आने के बाद चुनावी हार जीत पर चर्चा बहुत अधिक बढ़ गई है। कभी कभार तो ऐसा लगता है कि राजनीति के नाम पर मीडिया वाले केवल चुनावी अखाड़ा तैयार कर पार्टियों की आपसी कुश्ती करवा रहे हैं। जबकि इस तरह की सतही चर्चाओं की इजाजत हमारे संविधान के सिद्धांतों से नहीं मिलती है। सिद्धांत यह है कि भारत एक संसदीय प्रणाली है। हर इलाके से एक सांसद और विधायक चुना जाता है। यह सांसद और विधायक मिलकर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का चुनाव करते हैं। यह हमारी संवैधानिक व्यवस्था है। यानी संसदीय व्यवस्था के तहत देश के सभी इलाकों की भागीदारी है। सब पर बहस होना जरूरी है। लेकिन दलगत राजनीति की व्यवहारिक व्यवस्था की वजह से चुनावी राजनीति का विकास कुछ इस तरह से हुआ है कि मैदान में कुछ चेहरे खड़े होते हैं। 24 घंटे इन चेहरों पर चर्चा कर सारे देश की राजनीति को इन चेहरों तक सिमटा कर रख दिया जाता है।

अंग्रेजी अखबार द हिंदू में शोभना नायर का एक आर्टिकल छपा है। आर्टिकल का शीर्षक है- द पॉइंट ऑफ कवरिंग एन इलेक्शन। जिसमें वह बताती हैं कि जब वह फील्ड पर होती हैं तो उनके दिमाग में कई तरह के सवाल संदेश की तरह पैदा होते हैं। वह खुद ही सोचती हैं कि क्या इन लोगों से इनकी जिंदगियों से जुड़ी परेशानी पर बात करना ज्यादा जरूरी है या यह सवाल पूछना ज्यादा जरूरी है कि कौन हारेगा और कौन जीतेगा। जैसे ही यह सवाल पूछा जाता है कि वह वोट किसे देने जा रहे हैं तो अधिकतर लोग यही कहते हैं कि 'जो जीत रहा होगा हम भी उसी को वोट दे देंगे' इस तरह के जवाब से हाथ में कुछ भी नहीं आता है। समाज की किसी भी परेशानी से पत्रकार जूझ नहीं पाता है। इलेक्शन के समय केवल हार जीत पर बात करना बड़ा ही निरर्थक काम है।

तकरीबन 1997 से लेकर 2012 तक गुजरात में रिपोर्टिंग कर चुके राजीव शाह कहते हैं कि जब आप लोगों की जिंदगी के बारे में बात करते हैं तो उसके सामने राजनीतिक हार जीत बहुत ही मामूली चीज लगती है। लोगों में अभी बहुत अधिक जागरूकता नहीं आई है। राजनीति का उन्हें अर्थ नहीं पता है। वे केवल चेहरे और अपनी पहचान को केंद्र में रखकर वोट देते हैं। उन्हें भी पता है कि उनकी जिंदगी में कोई बड़ा बदलाव नहीं आने वाला। इसलिए केवल चुनावी राजनीति की हार जीत भांप लेने से समाज का सही अंदाजा नहीं लग पाता है।

प्रशासनिक अधिकारी उमेश पंत कहते हैं कि 24 घंटे न्यूज़ दिखाने के नाम पर एंटरटेनमेंट का तड़का अधिक लगाया जाता है। प्री पोल, एग्जिट पोल सर्वे की क्या जरूरत है? जबकि चुनाव के रिजल्ट आ ही जाते हैं। ऐसा नहीं लगता कि बिना किसी मकसद के केवल मनोरंजन के नाम पर काम किया जा रहा है। भारत में कई तरह के आंकड़ों की बहुत कमी है। सामाजिक आर्थिक स्थिति का सही ढंग से आकलन करने वाले डाटा को सरकार भी जल्दी इकट्ठा नहीं करती है। इन प्राइवेट संस्थाओं को जो पोल और सर्वे में इतनी अधिक दिलचस्पी लेते हैं उन्हें इस दिशा में काम करना चाहिए। लोक समाज और देश सबका भला होगा ।

यह तो चुनावी अटकलों से जुड़ा एक पक्ष हुआ। लेकिन चुनावी अटकलों से दूसरा पक्ष भी है। इंसान का यह  स्वभाव है कि जैसे ही हार और जीत की बात आती है तो वह अनुमान भी लगाने लगता है। जैसे परीक्षा देने से पहले हम सब अनुमान लगाते हैं कि परीक्षा में हमें कितने नंबर आएंगे। इस भाव से पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल काम है। इसमें आनंद भी आता है और लोग इस पर बड़े चाव से बात भी करते हैं। थोड़ा दुख की बात यह है कि चुनाव में मतदान होता है, अधिकतर लोग अपने मत को अपनी समझ के हिसाब से बहुत ही सोच समझ कर देते हैं, लेकिन चुनावी हार जीत के समीकरण में इन सब को आंकड़ों में तब्दील कर दिया जाता है। और इंसानों की मत की बातें केवल आंकड़ों में कैद होकर रह जाती हैं।

यह हमारे सिस्टम की भी कमी है। जैसे इसी बिहार चुनाव में जो नीतीश कुमार के कामकाज से खुश नहीं भी था उसने भी अपने मत का इस्तेमाल नीतीश को वोट देकर किया। लोग यह जानते हैं कि मोदी जी खुलेआम झूठ बोलते हैं फिर भी लोग मोदी जी को मत देते हैं। महज मतदान से नेताओं की हर तरह से स्वीकार्यता बढ़ जाती है। जीतने वाले लोग कहने लगते हैं कि उन्होंने सब कुछ सही किया तभी उन्हें वोट मिले। वह जीत पाए। मतों के आंकड़ों में तब्दील हो जाने की वजह से ऐसे विमर्श राजनीतिक दल को भले फायदा पहुंचाएं लेकिन समाज को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाते हैं।

चुनाव को भांपने का सबका अपना तरीका होता है। कुछ लोग प्री पोल सर्वे को पढ़ते हैं। कुछ लोग चुनावी इतिहास को खंगालते है। कुछ लोग जमीन पर उतरते हैं। गली-गली भटकते हैं। लोगों से बतियाते हैं और किसी ना  किसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। कुछ लोग बड़े ध्यान से नेताओं को पढ़ते हैं। नेताओं की शारीरिक हाव-भाव, बोलचाल की शैली पढ़कर किसी नतीजे पर पहुंचते हैं। इन सभी तरीकों की कुछ मजबूतियां और कुछ कमियां होती हैं। सब को साधने के बाद ही किसी ना किसी ठीक-ठाक निष्कर्ष पर पहुंचने की संभावना बनती है।

चुनावी अनुमान को कभी भी इस तरीके से नहीं लेना चाहिए कि भविष्य में यही होगा। यह महज अनुमान होते हैं। और इन्हें अनुमान की तरह ही लेना चाहिए यानी कि यह मानकर चलना चाहिए कि परिणाम इनसे अलग भी हो सकते हैं। लेकिन परेशानी कहां है। परेशानी यहां है की चुनावी अनुमान हार और जीत पर अधिक फोकस करते हैं। इनसे यह नहीं पता चलता चुनाव में इस्तेमाल होने वाले हथकंडे जैसे मीडिया, पैसा, बाहुबल का चुनाव में क्या प्रभाव पड़ा? एडीआर जैसी संस्थाएं बाहुबल और पैसे के पहलू पर काम करती हैं तो मीडिया और लोगों की आपसी बातचीत के बीच संबंध दिखाने वाली संस्थाएं बहुत कम हैं। सेंटर फॉर सोसाइटीज डेवलपमेंट स्टडीज के सर्वे को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी संगठनों के सर्वे का फोकस केवल हार और जीत बताने में रहता है।

चूंकि सीएसडीएस की शाखा लोकनीति चुनावी राजनीति को अकादमिक तौर पर पढ़ने का काम करती है तो इस संस्था के सवाल केवल चुनावी हार-जीत से जुड़े हुए नहीं होते हैं। इसमें बहुत सारे पहलू होते हैं जैसे जाति के आधार पर लोगों ने कैसे वोट दिया? मुद्दों की क्या अहमियत रही? वोटरों की आमदनी के लिहाज से बंटवारा करने के बाद वोटरों के चुनाव में किस तरीके का बदलाव देखा गया? जैसे तमाम सवालों की छानबीन सीएसडीएस का सर्वे करता है। इस लिहाज से सीएसडीएस का सर्वे समाज के लिए उपयोगी भी साबित हो पाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि सीएसडीएस की लोकनीति शाखा सर्वे का काम केवल चुनावी मौसम में नहीं करती है। बल्कि कई तरह के मुद्दों पर आंकड़े इकट्ठे करने का काम साल भर करती रहती है। जैसे कि यह संस्था पुलिस के कामकाज पर हर साल रिपोर्ट प्रस्तुत करती है।

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के राहुल वर्मा कहते हैं कि चुनाव और चुनावी कैंपेन ऐसे अवसर होते हैं जहां पर समाज को हार जीत से इतर बड़े मकसद के लिए पढ़ने और बताने की जरूरत होती है। पत्रकार, अकादमिक दुनिया के लोग, सर्वे करने वाले, नेताओं की चाल चलन पढ़ने वाले, जमीन की आवाज सुनने वाले सभी तरीकों में चुनाव पढ़ने कि कुछ खामियां और मजबूतियां होती है। जरूरत इस बात की होती है कि सबको मिलाकर समाज की चाल को समझा जाए। लोकतंत्र की मिजाज और समाज की छटपटाहट दोनों को खंगाला जाए। चुनाव के समय एक ऐसी खिड़की तैयार की जा सकती है जहां पर भविष्य के लिए वर्तमान के इतिहास को बड़ी गंभीरता के साथ रिकॉर्ड करते रहा जाए। अगर हम सबका ध्यान केवल चुनावी हार-जीत को पढ़ने पर होगा तो चुनावी माहौल से कुछ भी फायदा नहीं मिल पाएगा।

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