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आंदोलन
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
“...अब वे किसानों को बेचना चाहते हैं, लेकिन हमें बेचा नहीं जा सकता”
तराई के किसानों का कहना है कि यह लड़ाई अपने वाजिब हक़ों को फिर से हासिल करने, मुनाफाखोरों और बड़े कॉर्पोरेट्स को रोकने को लेकर है।
रवि कौशल
14 Dec 2020
Farmers protest

शाम ढल चुकी थी और किसान तितर-बितर हो चुके थे और सर्द हवाओं के थपेड़ों से खुद को बचाने के लिए अस्थाई टेंटों के भीतर डेरा डाले हुए थे। टेंटों में रोशनी बेहद मद्धिम थी, क्योंकि बिजली का स्रोत मुख्य रूप से ट्रैक्टर की बैटरियाँ थीं, जिन्हें फोन और स्पीकरों को चार्ज करने के लिए इस्तेमाल में लाया जा रहा था। टैंटों के बाहर की मनोदशा के विपरीत, भीतर किसानों के चेहरे उत्साह और ख़ुशी से दमक रहे थे। हालाँकि बातचीत मुख्यतया संघर्ष और सरकार के रवैये के ही इर्द-गिर्द ही घूम रही थी, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही बना हुआ था कि क्या इस लड़ाई से अपेक्षित परिणाम मिलने जा रहे हैं।

प्रदर्शनकारी किसानों में हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पंजाब के साथ-साथ उत्तराखंड के तराई क्षेत्र से आये हुए सिख किसानों का एक जत्था भी तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ अपने विरोध को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से शामिल था, जिसे कुछ नेता देश के लोगों के ऊपर ‘राज्य-प्रायोजित दमन’ के तौर पर उल्लेख कर रहे थे।

दलजीत सिंह जो कि उत्तराखंड के शहीद उधम सिंह नगर के रहने वाले हैं, का कहना था कि ये कानून उनके जैसे किसानों के लिए विनाशकारी साबित होने जा रहे हैं। क्योंकि जब सरकार द्वारा बाजार से अनाज खरीद की बारी आती है तो मेरे जैसे किसान पहले से ही नौकरशाही की उदासीनता के शिकार हैं। उनके अनुसार “सरकार मंडियों से उपज की खरीद तो करती है, लेकिन इस खरीद की रफ्तार इतनी धीमी है कि एक सीजन के अनाज की खरीद करने में ही इन्हें कई साल लग सकते हैं! बाजार समिति का हाल यह है कि एक दिन में बमुश्किल वह 500 कुंतल की ही खरीद कर पाती है। मैं तकरीबन 800 कुंतल अनाज उपजाता हूँ लेकिन बाजार में सिर्फ 200 कुंतल ही बेच पाता हूँ। शेष उपज को मुझे निजी व्यापारियों के हाथ ही बेचना पड़ता है, क्योंकि हम लंबे समय तक इसका भण्डारण करके नहीं रख सकते हैं। मैंने अपना धान 1,400 रुपये प्रति कुंतल की दर पर बेचा है, जबकि इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य 1,888 रूपये प्रति कुंतल था। इसकी लागत करीब 1,200 रुपये प्रति कुंतल के आसपास थी। बताइये, मुझको आखिर क्या बच रहा है? मेरी सारी मेहनत और समय का मोल मात्र 200 रूपये बैठ रहा है। यह सब सरकार की घोर उपेक्षा और अक्षमता का ही नतीजा है। इन कानूनों के लागू हो जाने की स्थिति में बड़े कॉरपोरेट्स गिद्धों के समान हमारे शरीर को नोच-नोचकर खायेंगे, जबकि हमारी किस्मत में कर्ज के बोझ तले और भी गहरे डूबना ही बदा है।”

तराई क्षेत्र का इलाका उत्तर प्रदेश में जहाँ पीलीभीत, रामपुर और लखीमपुर खीरी में तो उत्तराखंड में यह उधमसिंह नगर, बाज़पुर, जसपुर, रुद्रपुर और हल्द्वानी के इलाकों में फैला हुआ है। सिंह ने तराई क्षेत्र में सिख आबादी की प्रमुख उपस्थिति को लेकर एक रोचक वाकये को साझा किया। उन्होंने बताया “विभाजन के दौरान पाकिस्तान में अपनी जमीनों से बेदखल होकर सिख आबादी इस क्षेत्र में आकर बस गई थी। उसी दौरान इस क्षेत्र में हैजे का भारी प्रकोप फैला हुआ था और स्थानीय लोग इस क्षेत्र से भाग खड़े हुए थे। इस हालात को देखते हुए रामपुर के नवाब ने पटियाला के महाराजा से जंगलों को साफ़ करने के लिए मजदूरों को भेजने का आग्रह किया था। जब जंगलों को साफ़ कर दिया गया तो सिख मजदूरों को यहाँ पर जमीन के पट्टे दे दिए गए थे और इस प्रकार हम इस क्षेत्र में आबाद हो गए।”

सिंह जो कि अपनी पंचायत के प्रधान भी हैं, ने बताया कि जमीन की उर्वरता को बनाये रखने के लिए किसान सारे साल भर विभिन्न फसलों की बुआई करते हैं। उन्होंने बताया कि “मैं अपने 32 एकड़ के खेत में गेहूं, धान, गन्ना और मटर उगाता हूँ। धान की फसल उगाने में अब कोई फायदा नहीं रह गया है। वहीं गेहूं की फसल में मौसम ने यदि हर तरह से साथ दिया, तो उसमें कुछ लाभ हो जाता है। मटर की फसल खुले बाजार में बेचीं जाती है और उस पर मिलने वाला रिटर्न उस दिन के मंडी भाव पर निर्भर करता है। जहाँ तक गन्ने का सवाल है तो इस पर हम प्रति एकड़ लगभग 60,000 रुपये तक खर्च करते हैं, जबकि बदले में हमें लगभग 95,000 रुपये प्रति एकड़ मिलता है। हालाँकि चीनी मिलों द्वारा इसका भुगतान एक साल के बाद ही जाकर किया जाता है। इसलिए यह ‘सिर्फ नुकसान’ वाला सौदा ही बनकर रह गया है। यही वजह है कि हम एमएसपी और उसके बाद सरकारी खरीद की गारंटी की माँग पर अड़े हुए हैं।”

सरकार द्वारा निजीकरण के तथाकथित प्रयासों को लेकर किसानों के गुस्से पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए न्यूज़क्लिक से अपनी बातचीत में सिंह का कहना था “सरकार ने हवाई अड्डों से लेकर राजमार्गों एवं बंदरगाहों सहित सब कुछ को बेच डाला है। हमने साफ़-साफ़ देखा है कि किस प्रकार से बीएसएनएल को 4जी लाइसेंस आवंटन मुहैया न कराकर उसे कमजोर किया गया। यदि इन कानूनों को भी अमल में लाया गया तो एपीएमसी के साथ भी यही हश्र होना है। सारे देश को बेच देने के बाद अब वे किसानों को बेचना चाहते हैं। लेकिन हमें बेचा नहीं जा सकता है।”

विरोध-स्थल के आस-पास चहलकदमी कर रहे नौजवान अमरपाल सिंह सिद्धू ने न्यूज़क्लिक को बताया कि यह संघर्ष, निजी मुनाफाखोरों के हाथों जो अधिकार किसान खो बैठे हैं, उसे दोबारा हासिल करने के बारे में यह कहीं अधिक है। संधू जो कि उत्तराखंड के बाज़पुर से आये हुए हैं, के अनुसार “जब खरीद की मात्रा निर्धारित करने की बारी आती है तो यह पूरी तरह से जिलाधिकारी के मूड पर निर्भर करता है। इस बारे में सरकार से कोई भी मदद नहीं मिलती। मोदी जी किसानों को 6,000 रुपये मदद की बातें करते रहते हैं। जिसका मतलब प्रतिदिन के हिसाब से 17 रुपये बैठता है। क्या हम इस आय पर जिन्दा रह सकते हैं? इसके अतिरिक्त क्षतिग्रस्त फसलों के मामले में मुआवजे को लेकर कोई भी प्रारूप वजूद में नहीं है। तराई क्षेत्र में हम जैसों के लिए ओला वृष्टि या बाढ़ कोई नई बात नहीं है। हर गुजरते दिन के साथ हम और भी अधिक कर्ज के बोझ में डूबते जा रहे हैं। इस समय मैं 17 लाख रूपये कर्ज में डूबा हुआ हूँ।”

जब इसको लेकर किसी संभावित समाधान के बारे में पूछा गया तो संधू का उत्तर था “किसान जो माँग कर रहे हैं, कृपया वह उन्हें दे दिया जाए। हम चाहते हैं कि एमसपी में हमारी लागत, जोखिम कारकों और सबसे महत्वपूर्ण मुद्रास्फीति को शामिल करने के साथ-साथ समय पर सरकारी खरीद को सुनिश्चित किया जाए।”

संधू के अलावा एक अन्य नौजवान लड़के, गुरसिमरन सिंह ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा “बहुत हो चुका, सरकार हमें अब और मूर्ख बनाना बंद करे। हमने भी कानून पढ़ रखा है। जब कृषि एक राज्य का विषय है तो कैसे वे इस पर केन्द्रीय कानून बना सकते हैं? अब तोमर कह रहे हैं कि ये कानून कृषि को लेकर नहीं बल्कि व्यापार को ध्यान में रखकर बनाये गए हैं। मुझे लगता है कि वे खुद को बहुत बड़ा होशियार समझ रहे हैं, जबकि असल में वे इतने हैं नहीं।”

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Struggle About Reclaiming Rights, Stopping Profiteers and Big Corporates, Say Farmers from Terai

MSP
apmc
Terai Kisan Sangathan
Farm Laws
Farmers’ Protests
Delhi
Narendra modi
Narendra Singh Tomars

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