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भविष्य में कोई महामारी न हो इसके लिए एक अलग तरह के भूमि पूजन की आवश्यकता है
हमारी झूठी शेखी बघारने और पीछे क्या लाभ हुआ, को लेकर बनी धारणा हमें परिवर्तन के प्रति हठी बनाते हैं, लेकिन कोविड-19 के कारण कोई भी विज्ञान की शरण में आये बिना नहीं रह सकता।
सुधांशु मोहंती
15 Aug 2020
COVID-19
चित्र सौजन्य: डेक्कन हेराल्ड

एक अन्तःविषयक अध्ययन के तहत 'महामारी से रोकथाम के लिए पारिस्थितिकी और अर्थशास्त्र' विषय पर, जिसे 17 शोधकर्ताओं ने अलग-अलग भू-क्षेत्रों से लिखा है और जुलाई में इसका प्रकाशन जर्नल साइंस में किया गया है। इसके निष्कर्ष में कहा गया है कि विश्व को “2020 में जीडीपी में' कम से कम 5 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ सकता है और जो जिंदगियाँ इसके चलते हम खो रहे हैं, उन्हें अपने आप में कई अतिरिक्त ट्रिलियन नुकसान के तौर पर देख सकते हैं।

वैज्ञानिकों की ओर से जो आकलन लगाये गए हैं, उसमें रुग्णता की बढ़ती संख्या, महामारी के चलते अन्य रोगों को लेकर जारी चिकित्सा व्यवस्था के ध्वस्त हो जाने की वजह से हो रही मौतें और सामाजिक दूरी के पालन की मजबूरी के कारण बाधित गतिविधियों का आकलन कर पाना संभव नहीं हो सका है।

हम सभी इस तथ्य से बखूबी परिचित हैं कि जिन दो प्रमुख इंसानी गतिविधि के कारण महामारी का जन्म हो सका है उनमें जंगलों की अंधाधुंध कटाई और वन्यजीवन की खरीद-फरोख्त की बेहद अहम भूमिका है। 'एक सदी के लिए' अध्ययन के मुख्य लेखक एंड्रयू पी डॉब्सन और उनके 16 सह-शोधकर्ताओं का मानना है कि 'प्रति वर्ष दो नए वायरस अपने प्राकृतिक निवास से मनुष्यों के बीच में प्रवेश पा रहे हैं।'

इनमें एमईआरएस (MERS), एसएआरएस (SARS) और एच1एन1 (H1N1) महामारी के साथ-साथ एचआईवी और कोविड-19 जैसी महामारियाँ शामिल हैं। 'पशुजन्य वायरस इंसानों को सीधे तौर पर अक्सर तब संक्रमित करते हैं जब उनका साबका जीवित नर-वानर, चमगादड़ या अन्य वन्यजीवों (या उनके मांस से) से पड़ता है या परोक्ष रूप से संक्रमण का खतरा मुर्गियों और सूअर जैसे पालतू जानवरों से संपर्क में आने पर हो सकता है।'

लेखकों ने इस तथ्य को नोट किया है कि इस सबके बावजूद कोविड-19 दुनिया को जंगलों की कटाई को रोकने और वन्यजीव व्यापार को नियंत्रित करने जैसे मूल्यों को सिखा पाने में नाकामयाब रहा है, जबकि 'पूरी तरह से शोध के जरिये जाँची परखी योजनाओं में इस बात को दर्शाया जा चुका है कि पशुजन्य रोगों को सीमित करने से उनके निवेश पर हाई रिटर्न को हासिल कर पाना संभव है...'

प्रारूप की सतह पर

दुनिया भर के राजनेता इस बात से भलीभांति से परिचित हैं कि वनों की कटाई के पर्यावरणीय दुष्प्रभाव के साथ-साथ कई अन्य दुष्परिणाम हो सकते हैं। लेकिन इस सबके बावजूद “विकास” से प्राप्त होने वाली अल्पकालिक और तात्कालिक लाभ के चक्कर में प्रकृति के अंधाधुंध शोषण की प्रवत्ति दीर्घकालिक चिंताओं को परे हटा देती है। इसके अलावा कई जगहों पर अज्ञानता के बादल भी छाये रहते हैं।

उदाहरण के तौर पर बेहद कम लोगों को ही इस बात की समझ है कि उष्णकटिबंधीय वनों के कोने इंसानों के लिए नवीनतम वायरस के सम्पर्क में आने के सबसे मुख्य स्रोत के तौर पर हैं, जैसा कि अध्ययन के लेखकों ने अपने शोध में चेताया है। सड़क निर्माण, इमारती लकड़ी और खेती के लिए जंगलों के सफाए की वजह से ये “किनारे” निर्मित होते हैं। एक बार यदि किसी अक्षत वन का 25% से अधिक हिस्से का सफाया कर दिया जाता है तो ऐसे में इंसानों और पालतू जानवरों के वन्यजीवों के संपर्क में आने की संभावना काफी अधिक बढ़ जाती है, और इससे रोग संचरण का खतरा बढ़ जाता है।

अध्ययन में इस ओर ईशारा किया गया है कि 'सड़क निर्माण, खनन और लट्ठों के शिविरों, शहरी केंद्रों और बस्तियों के विस्तार, इंसानों के प्रवासन और युद्ध, और पशुधन और फसलों की मोनो-संस्कृतियों ने वायरस के विस्तार में काफी हदतक अहम भूमिका निभाई है।'

उदाहरण के लिए चमगादड़ को ही ले लें, जो कि एक एकांतप्रिय स्तनपायी जीव है, जो एबोला, निपाह, सार्स और कोविड-19 जैसे वायरसों के सबसे बड़े स्रोत के तौर पर मौजूद है। अपने शोध में जो निष्कर्ष इन्होने और अन्य वैज्ञानिकों ने निकाले हैं वे अकाट्य हैं। वनों की अंधाधुंध कटाई और नए-नए वायरसों के उद्भव के बीच के सीधे संबंध को, जिसने इंसानों और अन्य जानवरों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दिया है, को देखते हुए इन वैज्ञानिकों ने 'वनाच्छादित क्षेत्र को बचाए रखने के लिए भागीरथ प्रयत्न की कोशिशों को किये जाने’ की आवश्यकता को सुझाया है। लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है।

यदि जंगल बने रहते हैं तो 'इस निवेश पर भारी लाभ मिलना तय है, भले ही इसका एकमात्र मकसद वायरस के पैदा होने वाली घटनाओं को कम करने से रहा हो।' लेकिन इस सबके लिए 'राष्ट्रीय प्रेरणा और राजनीतिक इच्छाशक्ति' की जरूरत है।

महामारी की उत्पत्ति के कारण प्रसंगवश दुनिया को प्रोटीन के स्रोत के तौर पर वन्यजीवों की बिक्री के बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है। “वन्यजीवों की वैश्विक मांग को देखते हुए इंसान, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बाजारों में बिक्री हेतु वन्यजीवों की धर-पकड़ के लिए जंगलों में प्रवेश करते हैं। शहरों में जहां लोगों के पास प्रोटीन के लिए विविध विकल्प हैं, वहाँ जंगली जीवों का माँस एक विलसिता के तौर पर माना जाता है ... ऐसे में आवश्यक है कि उच्च जोखिम वाली प्रजातियों जिनमें रोगों के जनक की संभावना होती है, के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानूनों को लागू करना और लागू करने को लेकर जरुरी इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा, ताकि पशुजन्य रोगों की रोकथाम में कामयाबी हासिल हो सके। आवश्यक कानूनों के जरिये नर-वानरों, चमगादड़, पैंगोलिन, गंध-बिलाव और कृन्तकों को बाजार से बाहर रखा जाना चाहिए।'

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि कोरोनावायरस जैसी महामारी को 10 साल तक रोके रखने के लिए जो खर्च आने की संभावना है, वह आज के 5 ट्रिलियन डॉलर के नुकसान का मात्र 2% ही रहने का अनुमान है।

अच्छी मुसीबत की ताकत

संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्लीय न्याय को लेकर दिवंगत अमेरिकी कांग्रेसी जॉन लुईस के शब्द  'अच्छी परेशानी, आवश्यक परेशानी' – का महामारी के संदर्भ में आशय यह है कि विभिन्न देशों को ऐसे नीतियों के मार्ग को तैयार करना चाहिए, जो मानव प्रजाति की सुरक्षा या कहें कि अस्तित्व को सुनिश्चित कर सके। और इसकी शुरुआत दूसरे देशों के बजाय, हमेशा अपने घर से करने की जरूरत है। लेकिन यहाँ पर हम इरादे इसके विपरीत पाते हैं।

हमारी कोरोनावायरस उपरान्त योजनाबद्ध 'ग्रीन रिकवरी' में यह अशुभ खबर सुनने को मिल रही है, जिसमें केंद्र का इरादा छत्तीसगढ़ के हसदेव अरंड के 4,20,000 एकड़ के जैवविविधता-संपन्न जंगल के चार विशाल ब्लॉकों के व्यावसायिक दोहन के लिए 40 नए कोलफील्ड्स (जिसमें ऐश कंटेंट 45% तक हो) बनाने का है।

कोयला नीलामी परियोजना की घोषणा करते हुए पीएम की ओर से की गई बयानबाजी कुछ इस प्रकार से थी 'भारत कोयले का दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक क्यों नहीं बन सकता?' अडानी समूह इस खनन परियोजना के संभावित लाभार्थियों में से एक है जो भारत के 'आत्म निर्भर' और वसूली में आसानी के लिए निर्दिष्ट है।

यह भारत के हृदय स्थल में एक और 'बेलारी' को खड़ा करने के समान है, जहाँ आदिवासियों की गरीब और देशज आबादी अबतक रहती आई है। महाभारत के 18 दिनों के कल्पित युद्ध के दिनों के विपरीत, मार्च के विदाई वाले दिनों में चलाए गए 21 दिनों के नाटकीय राष्ट्रीय लॉकडाउन ने भारतीयों को कोई मदद नहीं पहुँची है। यहाँ तक कि उन 21 दिनों के सात गुना से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी कोरोनावायरस का कहर पूरे भारत में तूफानी गति से आगे बढ़ रहा है।

अलंकारिक रूपक और चकाचौंध रौशनी का वास्तविकता के साथ कोई लेना-देना नहीं है। चीजों को इस तरह से गुजर जाने की जरूरत नहीं है: वायरस पहले भी थे और हैं। अच्छा होता यदि वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं, सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों और महामारी विज्ञानियों के भरोसे इसे छोड़ दिया जाता।

होना तो यह था कि हमारी प्रतिक्रियाओं को विज्ञान और वैज्ञानिक आंकड़ों के आधार पर व्यक्त किया जाता, नाकि पौराणिक कथाओं के आधार पर- और हमें अपने आंकड़ों को पारदर्शी तरीके से साझा करने की जरूरत थी। वायरस और महामारी को असल में लफ्फाजी से चिढ़ है।

याद रखें कि कोविड-19 ने अब तक जिसे सामान्य समझा जाता था, उसे पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। आज के नए सामान्य ने समूचे प्रतिमान को बदलकर रख डाला है। एक बार पहले भी हम गलत कदम के साथ पकड़े जा चुके हैं, जब हमने समय से पहले अन्नो डोमिनी 2020 में शुरुआत कर दी थी। ऐसे में हमें चाहिए कि अब हम इसके प्रति सचेत रहें और सभी विचारों के प्रति खुला नजरिया रखें।

याद कीजिए हाल ही में जब भारत ने ब्राजील के बेहूदा तानाशाह जैर बोल्सोनारो को गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के तौर पर सम्मानित किया था? जब इतना काफी नहीं लगा तो हमने ट्रम्प को विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर बुलाकर सम्मानित किया। आज ये दोनों ही नेता दुनिया में महानतम असफलताओं के जीते-जागते उदाहरण के तौर पर चमकदार नमूने हैं। सारे नभ-मण्डल में सबसे घटिया नेता - स्वार्थी, नालायक, विज्ञान विरोधी, प्राथमिक बेसिक ज्ञान की कमी से जूझते, कट्टर और संवेदनहीन इंसान। हमें ऐसे नेताओं से बचकर रहना चाहिए, न कि ऐसों का सम्मान करना चाहिए।

और अभी हाल ही में कुछ और मूर्खताएं हुई हैं (जो हमें कोविड-19 के प्रिज्म के माध्यम से ईआईए के मसौदे को देखने में मिली हैं)। हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि पिछले कुछ महीनों में दुनिया बदल चुकी है - और इसके तेज़ी से बदलने का क्रम जारी है, क्योंकि विज्ञान भी नए वायरस के साथ जल्दी से खुद को बदलना शुरू कर देता है। हमें इससे सीखने और खुद को दोबारा से अनुकूलन करते रहना चाहिए। सतत विकास का मिथक, स्थिरता के प्रति हमारा प्रतीकात्मक समर्थन, जलवायु परिवर्तन को नियन्त्रण में रखने के लिए हमारी ओर से जोर-जोर से झाड़-फूंक की तरह की कवायद जैसी चीजें अब बेमानी हो चुकी हैं। लोगों को भजन और कथा के साथ झूठ को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जा सकता है, लेकिन प्रकृति इतनी भोली नहीं है।

गैर-जिम्मेदाराना कार्रवाइयों को करके नागरिकों के गले के नीचे उतारा जा सकता है, और स्वतंत्र निकाय वीरता के बेहतर हिस्से को हासिल किया जा सकता है, लेकिन प्रकृति तो रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान और भौतिकी है। खास क्रोनीवाद से लगाव, अस्पष्टता, पक्षपातपूर्ण व्यवहार, लोकलुभावनवाद, जवाबदेही की कमी के प्रति प्राकृतिक दुनिया में कोई आकर्षण नहीं है। हमें इसे आत्मसात करना होगा: हमें प्रकृति को अपना मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक बनाने की जरूरत है।

हमारी डींगों और भूतकाल के लाभ के बारे में बकबक हमें परिवर्तन से रोकने का काम करते हैं। हो सकता है कि वैक्सीन की खोज के बाद हमारी आज की पीड़ादायक यादें कमजोर पड़ जाएँ। लेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि अगली महामारी घात लगाये बैठी हो, और इसीलिए आज जरूरत इस बात की है कि हम इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करने के लिए कमर कसकर खड़े हों।

जब मैं पर्यावरण, वन, और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय में कार्यरत था तो मैंने 2014 के चुनावी जीत के उत्साह में 'चाय पे चर्चा' जैसी नकली आडम्बर वाली नौटंकी को होते देखा था, जिसे वरिष्ठ अधिकारियों को हर रोज सुबह-सुबह प्रस्तुत करना पड़ता था। राष्ट्रीय राजमार्ग 7 पर प्रोजेक्ट टाइगर और सड़क चौड़ीकरण की परियोजना बहस का विषय बनी हुई थी।

इस मुद्दे ने महत्वपूर्ण खिंचाव हासिल कर लिया था, क्योंकि इस राजमार्ग के चौडीकरण कर देने से मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में पड़ने वाले भारत के दो प्रतिष्ठित बाघ अभयारण्य, कान्हा और पेंच के बीच के पशु गलियारे के विनाश की संभावना खड़ी हो गई थी। इससे नवेगांव-नागजीरा टाइगर रिज़र्व भी प्रभावित होने जा रहा था जो अपने में पाँच संरक्षित क्षेत्रों- नागज़ीरा, न्यू नागज़ीरा, कोका, नवेगांव राष्ट्रीय उद्यान और नवेगांव वन्यजीव अभयारण्य को शामिल करता है।

यहाँ एक क्लासिक पर्यावरण-बनाम-विकास की पहेली सामने आ खड़ी हो गई थी: क्या हमें अमूर्त पर्यावरण की रक्षा के लिए इस राजमार्ग के विस्तार हेतु निर्धारित राशि से दस गुना अधिक खर्च को मंजूरी देनी चाहिए, जिसके निवेश पर वापसी की तत्काल भविष्य में कोई सूरत नजर नहीं आ रही हो?

अतिरिक्त महानिदेशक (प्रोजेक्ट टाइगर) जोकि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के सदस्य- सचिव भी हैं, वे 50 मीटर लम्बे अंडरपास के निर्माण के प्रस्ताव से सहमत नहीं होने वाले थे। उनका मानना था कि यह जानवरों की आवाजाही को बाधित करके रख देगा, और उन्होंने जंगली जानवरों की आवाजाही के लिए बड़े अंडरपास के निर्माण के पक्ष में तर्क रखे। मंत्री का कहना था कि जब हम इंसानों तक को खिला पाने में असमर्थ हैं, तो ऐसे में क्या हमें जंगली जानवरों के बारे में चिंतित होने की जरूरत है?

सारी कवायद यहाँ पर आकर खत्म हो गई। लेकिन यह तय है कि कोविड-19 के बाद की दुनिया की सामान्य चीजें निश्चित तौर पर उस तरह की और अधिक चुनौतियों को सामने लाने वाली हैं, लेकिन पुराने दिनों के सामान्य से अब काम नहीं चलने जा रहा। विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों का क्या कहना है, उसे अब सुनना पड़ेगा - हमारे पास वास्तव में अब केवल एक विश्व जलवायु और एक विश्व स्वास्थ्य ही बचा है। इस सरल लेकिन गहन पाठ को आत्मसात करने के लिए ज्ञान, चिन्तन और मनन की दरकार होती है। इसमें कोई शॉर्ट कट नहीं चलता और कोई मानता है, और किसी बेध्यानी की इसमें कोई जगह नहीं है- जैसा कि इस देश में निर्णय लेने की दुखद विरासत रही है।

फिलहाल पर्यावरण मंत्रालय अपने ईआईए 2020 के मसौदे के परीक्षण के दौर में है। इसके जरिये नई परिस्थितियों और नीतियों के आकलन में मदद मिल सकती है: वो चाहे कोविड-19 उत्तरार्ध की दुनिया में हम परिवर्तन और अनुकूलन को नए नीति-वाक्य के तौर पर स्वीकार करने वाले हैं, या मंत्रालय अपने पिछले कामधाम की कठोरता के साथ बनी रहने वाली है। क्या हमारे भविष्य के मॉडल गोपनीयता और सार्वभौमिक ईआईए मानदंडों के खुलेआम खात्मे पर आधारित होंगे, जैसा कि वे आज हैं? हमें जिस बात को नहीं भूलना चाहिए वह यह है कि पर्यावरण की रक्षा और संरक्षण के लिए ईआईए को और अधिक सख्त बनाने की आवश्यकता है।

उदाहरण के लिए क्या 2019 में तेलंगाना के अमराबाद टाइगर रिजर्व में 83 वर्ग किलोमीटर से अधिक के वन क्षेत्र में यूरेनियम के सर्वेक्षण और अन्वेषण के लिए परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) के प्रस्ताव पर जंगलात पैनल की सैद्धांतिक मंजूरी आखिरकार रद्द होने जा रही है?

कोरोनावायरस ने दुनिया को कितना कुछ बदल कर रख दिया है, इसे डॉ. अली एस खान द्वारा पेश किये गए एक रूपक से पकड़ा जा सकता है, जो रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (सीडीसी) में सार्वजनिक स्वास्थ्य तैयारी और प्रतिक्रिया कार्यालय के पूर्व निदेशक रहे हैं, और वर्तमान में नेब्रास्का विश्वविद्यालय के मेडिकल सेंटर में सार्वजनिक स्वास्थ्य कॉलेज के डीन पद पर हैं।

उनके पास पिछले कुछ दशकों के दौरान आने वाली लगभग सभी संभावित महामारी के खतरों का अंतरंग अनुभव रहा है। इसके बारे में उन्होंने अपनी पुस्तक, द नेक्स्ट पान्डेमिक में बताया है कि 'आज हमारे लिए वह समय आ चुका है जिसमें हमें सार्वजनिक स्वास्थ्य को प्रदर्शनी के लिए आलमारी में रखी कुल्हाड़ी के तौर पर देखे जाने से परे जाने की आवश्यकता है, जहाँ संकेत कहते हैं कि आपातकाल की स्थिति में काँच तोड़ दें।”

लेकिन भारत का ईआईए मसौदा 'विवादास्पद' की श्रेणी से कोसों दूर है। इसमें तो आपातकालीन स्थिति में भी कांच तोड़ने को लेकर कोई विकल्प नहीं रखा गया है। प्रकृति ने संयुक्त राज्य अमेरिका में ट्रम्प को और ब्राजील में उनके नकलची बोल्सनरो को पटखनी दे मारी है, जिसे बड़े परिश्रम के साथ मोटेरा स्टेडियम में पेट को ऐंठ कर स्वर निकालते हुए 'विवेकामुंडन' प्रकिया के जरिये वैश्विक प्रचार की चाह की गई थी, ताकि खुद को दोबारा से चुनावों में जिताया जा सके, लेकिन सब गुड़-गोबर होकर रह गया है। हालाँकि भारत में अभी भी कुछ भी कर पाना मुमकिन बना हुआ है।

मुमकिन के जोरदार गर्दन के खम ने सभी वार्तालापों को किसी कोने में पटक दिया है: इसमें प्रकृति रक्तरंजित होगी, यहां तक कि बदतरीन स्थिति हो सकती है और ईआईए फरमान के साथ उसे मौन सहमति के लिए स्वीकार्य बनाया जाएगा। कम से कम, मसौदे की भावना तो यही कहती है।

इसके रामबाण के तौर पर बिना किसी लाग-लपेट के हमारे सामने हाल ही में भूमिपूजन की पेशकश की गई थी। लेकिन जिस चीज की हमें आवश्यकता है वह इससे भी सरल और सहज है – और वह है प्रकृति के शिलान्यास की। बिना किसी धर्मान्धता के, गैर-ध्रुवीकरण के साथ, जो सभी मजहबों के लिए खुला हो और जहां हमारी प्रकृति के बेहतर देवदूत अभी भी राजा की तरह शासन कर सकते हैं।

इस देवी को पूजने की कला को सीखना होगा, उसकी इच्छाओं का ख्याल रखना और मानवीय और निःस्वार्थ ढंग से अपना काम-काज करते हुए इस ग्रह पर जीवन को फलते-फूलते देखने को संभव बनाया जा सकता है। इसके सिवाय कुछ भी अब काम में नहीं आने वाला है।

(इसके साथ ही महामारी और जलवायु परिवर्तन के बीच के संबंधों पर दो-हिस्सों में लिखी श्रृंखला समाप्त होती है।)

लेखक पूर्व लोक सेवक रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Tackling Future Pandemics: Bhoomi Pujan of Another Kind

Pandemic
Environment regulation
healthcare

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