NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
संस्कृति
भारत
राजनीति
टीपू सुल्तानः विविध आख्यान
सांप्रदायिक ताकतें पेंडुलम की तरह टीपू को सिर-आंखों पर बिठाने के बाद अब उन पर कालिख पोतने में जुटी हुई हैं। यह सब केवल और केवल उनकी राजनीति का हिस्सा है।
राम पुनियानी
20 Nov 2017
tipu sultan

पिछले कुछ सालों से, 10 नवंबर के आसपास, भाजपा, टीपू सुल्तान पर कीचड़ उछालने का अभियान चलाती रही है। पिछले तीन सालों से कर्नाटक सरकार ने आधिकारिक तौर पर टीपू की जयंती मनाना शुरू कर दिया है। टीपू सल्तान देश के एकमात्र ऐसे राजा हैं जिन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ते हुए अपनी जान गंवाई। इस साल भी, 10 नवंबर के कुछ पहले, केन्द्रीय मंत्री और कर्नाटक भाजपा के वरिष्ठ नेता अनन्त कुमार ने टीपू जयंती समारोह में भाग लेने का कर्नाटक सरकार का निमंत्रण ठुकरा दिया। उन्होंने कहा कि टीपू सुल्तान बलात्कारी, दुष्ट और कट्टरपंथी था और उसने कई कत्लेआमों को अंजाम दिया था। कुछ स्थानों पर भाजपा ने टीपू की जयंती मनाए जाने का विरोध भी किया।

समाज के कुछ तबके यह मानते हैं कि टीपू सुल्तान एक आततायी शासक था, जिसने हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाया। यह भी आरोप लगाया जाता है कि उसने कन्नड़ भाषा की कीमत पर फारसी को बढ़ावा दिया। ऐसा आरोप है कि अपने सेनापतियों को लिखे अपने पत्रों में, जिनके बारे में यह दावा किया जाता है कि वे ब्रिटिश सरकार के कब्जे में हैं, टीपू ने यह लिखा था कि काफिरों का इस धरती पर से नामोनिशान मिटा दिया जाना चाहिए। टीपू के मुद्दे पर समय-समय पर विवाद उठते रहे हैं। कुछ सतही जानकारियों के आधार पर चंद लोग यह दावा करते हैं कि उसने सैंकड़ों मंदिरों को ध्वस्त किया और हज़ारों ब्राह्मणों को मौत के घाट उतार दिया।

यह दिलचस्प है कि भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द, जो संघ की विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं, ने हाल में अपनी कर्नाटक यात्रा में टीपू की जमकर प्रशंसा की। उन्होंने कहा, ‘‘टीपू सुल्तान अंग्रेज़ों से लड़ते हुए एक नायक की मौत मरे। उन्होंने रॉकेटों का विकास किया और युद्ध में उनका इस्तेमाल किया’’। राष्ट्रपति के इस कथन से भाजपा को धक्का लगा और उसके कुछ प्रवक्ताओं ने यह दावा किया कि राष्ट्रपति का भाषण कर्नाटक सरकार द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर तैयार करवाया गया था।

टीपू सुल्तान के मुद्दे पर आरएसएस-भाजपा परिवार में भी मतभेद हैं। सन 2010 में चुनाव के ठीक पहले, भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा ने टीपू सुल्तान की पगड़ी पहनकर, तलवार हाथ में लेकर तस्वीरें खिंचवाईं थीं। सन 1970 के दशक में आरएसएस ने अपनी भारत-भारती श्रृंखला के तहत प्रकाशित एक पुस्तिका में टीपू की प्रशंसा करते हुए उन्हें देशभक्त बताया था।

कन्नड़ नाटककार गिरीश कर्नाड टीपू के इतने जबरदस्त प्रशंसक हैं कि उन्होंने यह मांग की है कि बेंगलुरू के हवाईअड्डे का नाम टीपू के नाम पर रखा जाना चाहिए। कर्नाड का यह भी कहना है कि अगर टीपू सुल्तान हिन्दू होते तो उन्हें कर्नाटक में वही दर्जा मिलता जो शिवाजी को महाराष्ट्र में मिला हुआ है।

टीपू सुल्तान को राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलवाने में टीवी सीरियल ‘‘स्वोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान’’ का महत्वपूर्ण योगदान है। भगवान गिडवानी की पटकथा पर आधारित इस सीरियल के 60एपीसोड प्रसारित हुए थे, जिनमें ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ टीपू की लंबी लड़ाई का चित्रण किया गया था। टीपू ने मराठाओं और हैदराबाद के निज़ाम से पत्राचार कर उनसे यह अनुरोध किया था कि वे अंग्रेज़ों का साथ न दें। टीपू का यह मानना था कि ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन भारत के लिए अहितकर होगा। अपनी इसी सोच के चलते उन्होंने अग्रेज़ों के साथ कई लड़ाईयां लड़ी। सन 1799के चैथे अंग्रेज़-मैसूर युद्ध में वे मारे गए। कर्नाटक में उन पर लिखे हुए कई लोकगीत प्रचलित हैं। वे राज्य के लोगों की स्मृति में आज भी जिंदा हैं। लोगों के मन में उनके प्रति वही आदर भाव है जो शिवाजी के प्रति महाराष्ट्र के लोगों में है।

टीपू ने अपने दरबार की भाषा फारसी को क्यों बनाया? यहां यह याद रखा जाना आवश्यक है कि उस समय भारतीय उपमहाद्वीप के कई राजदरबारों की भाषा फारसी थी। शिवाजी भी फारसी में पत्राचार किया करते थे और इसके लिए उन्होंने मौलाना हैदर अली को अपना प्रमुख सचिव नियुक्त किया था। टीपू धार्मिक कट्टरवादी नहीं थे, जैसा कि आज बताया जा रहा है। टीपू की नीतियां धर्म से प्रेरित नहीं थीं। कामकोटि पीठम के शंकराचार्य को लिखे अपने पत्र में उन्होंने शंकराचार्य को ‘जगत गुरू’ के नाम से संबोधित किया था। उन्होंने कामकोटि पीठम को ढेर सारी धन दौलत भी दान में दी थी।

पटवर्धन की मराठा सेना द्वारा श्रेंगेरी मठ में लूटपाट किए जाने के बाद टीपू ने इस मठ का पुराना वैभव बहाल किया। उनके शासनकाल में 10 दिन का दशहरा उत्सव मैसूर की सामाजिक जिंदगी का अभिन्न हिस्सा था। अपनी पुस्तक ‘‘सुल्तान ए खुदाद’’ में सरफराज शेख़ ने ‘टीपू का घोषणापत्र’ प्रकाशित किया है। इस घोषणापत्र में टीपू कहते हैं कि वे धार्मिक आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करेंगे और अपनी अंतिम सांस तक अपने साम्राज्य की रक्षा करेंगे।

यह आरोप लगाया जाता है कि टीपू ने कुछ समुदायों को प्रताड़ित किया। यह सही है। परंतु इसका कारण धार्मिक न होकर राजनीतिक था। इतिहासकार केट ब्रिटिलबैंक लिखती हैं, ‘‘यह उनकी धार्मिक नीति नहीं थी बल्कि लोगों को सज़ा देने की नीति थी’’। उन्होंने उन समुदायों को निशाना बनाया जिनके बारे में वे यह मानते थे कि वे राज्य के प्रति वफादार नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने सिर्फ हिन्दू समुदायों को प्रताड़ित किया। उन्होंने महादवी जैसे कुछ मुस्लिम समुदायों को भी अपना निशाना बनाया। इसका कारण यह था कि ये समुदाय अंग्रेज़ों के समर्थक थे और ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के घुड़सवार दस्ते में इन समुदायों के बहुत सारे व्यक्ति शामिल थे। एक अन्य इतिहासविद सुसान बैली लिखती हैं कि अपने राज्य के बाहर के हिन्दुओं और ईसाईयों पर उनके हमलों को उनकी राजनीति का भाग माना जाना चाहिए क्योंकि अपने राज्य के भीतर इन समुदाय के लोगों से उनके निकट और सौहार्दपूर्ण संबंध थे।

उनके वे तथाकथित पत्र, जो ब्रिटिश सरकार के कब्जे में हैं, के बारे में जो कुछ कहा जा रहा है उसे भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की ज़रूरत है। अभी तो यह भी पक्का नहीं है कि वे पत्र असली हैं या नहीं।

हम किसी भी व्यक्ति को उसकी पूर्णतः में ही देख-समझ सकते हैं। जब पुर्णैया नामक एक ब्राह्मण उनके मुख्य सलाहकार थे और वे कांची कामकोटि पीठम के शंकराचार्य के प्रति सम्मान भाव रखते थे, तब इस बात की संभावना बहुत कम रह जाती है कि उन्होंने हिन्दुओं का कत्लेआम करवाया होगा। अंग्रेज़ उनसे बहुत नाराज़ थे क्योंकि वे अंग्रेज़ों के भारत में बढ़ते प्रभाव के कड़े विरोधी थे और उन्होंने मराठाओं और निज़ाम से यह कहा था कि हमें अपने झगड़े आपस में मिल बैठ कर सुलझाने चाहिए और अंग्रेज़ों को इस देश से बाहर रखना चाहिए। अंग्रेज़ों ने टीपू सुल्तान का दानवीकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस योद्धा और शासक के बारे में हमें संतुलित ढंग से सोचना होगा। हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि टीपू ने प्राणपन से अंग्रेज़ों का विरोध किया क्योंकि उन्हें एहसास था कि भारत पर जिन शक्तियों ने कब्ज़ा जमाया, उनसे अंग्रेज़ कई मामलों में एकदम भिन्न थे। एक तरह से टीपू सुल्तान अंग्रेज़ों के खिलाफ भारतीय प्रतिरोध के अग्रदूत थे।सांप्रदायिक ताकतें पेंडुलम की तरह टीपू को सिर-आंखों पर बिठाने के बाद अब उन पर कालिख पोतने में जुटी हुई हैं। यह सब केवल और केवल उनकी राजनीति का हिस्सा है।

Tipu sultan
Communalism
BJP
RSS

Related Stories

क्या ताजमहल भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है?

उर्दू पत्रकारिता : 200 सालों का सफ़र और चुनौतियां

सफ़दर: आज है 'हल्ला बोल' को पूरा करने का दिन

सांप्रदायिक घटनाओं में हालिया उछाल के पीछे कौन?

अति राष्ट्रवाद के भेष में सांप्रदायिकता का बहरूपिया

क्या तमिलनाडु में ‘मंदिरों की मुक्ति’ का अभियान भ्रामक है?

ज्ञानवापी मस्जिद : अनजाने इतिहास में छलांग लगा कर तक़रार पैदा करने की एक और कोशिश

‘लव जिहाद’ और मुग़ल: इतिहास और दुष्प्रचार

बनारस: ‘अच्छे दिन’ के इंतज़ार में बंद हुए पावरलूम, बुनकरों की अनिश्चितकालीन हड़ताल

हल्ला बोल! सफ़दर ज़िन्दा है।


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License