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2020 का फिज़िक्स में नोबेल पुरस्कार और हमारी आकाशगंगा का विशालकाय 'ब्लैक होल'
पेनरोज़ के काम से ब्लैक होल और इसमें मौजूद "समय-स्थान की अनंतता" के लिए मजबूत गणितीय आधार का निर्माण हुआ।
प्रबीर पुरकायस्थ
10 Oct 2020
2020 का फिज़िक्स में नोबेल पुरस्कार और हमारी आकाशगंगा का विशालकाय 'ब्लैक होल'

इस साल फिज़िक्स का नोबेल पुरस्कार मैथमेटिकल फिज़िसिस्ट (गणितीय भौतिकशास्त्री) रोजर पेनरोज़ और एस्ट्रोनॉमर रीनहार्ड गेनज़ेल व एंड्रिया घेज़ को मिला है। रोजर पेनरोज़ को ब्लैक होल्स के सैद्धांतिक आधार पर काम करने के लिए पुरस्कार दिया गया है। वहीं गेनज़ेल और घेज़ ने दो स्वतंत्र टीमों का नेतृत्व किया था। इन टीमों ने हमारी आकाशगंगा (गैलेक्सी) के बीच में पेनरोज द्वारा दिए गए ब्लैक होल्स के इस सैद्धांतिक आधार को प्रायोगिक तरीके से खोजने की कोशिश की।

पेनरोज़ ने बताया कि आइंस्टीन "सापेक्षता के सिद्धांत" का नतीज़ा ब्लैक होल्स बनना है। यह ब्लैक होल्स न केवल नष्ट होते तारों में बनते हैं, बल्कि अंतरिक्ष के घने क्षेत्रों में भी निर्मित हो सकते हैं। इस तरह के ब्लैक होल्स हर चीज को अपने भीतर खींच लेते हैं, यहां तक कि प्रकाश को भी। गेंज़ेल औऱ घेज़ ने अपनी टीमों के साथ मिलकर स्वतंत्र तरीके से एक तारे के घूर्णन पथ की खोजबीन करते हुए बताया कि हमारी आकाशगंगा के बीच में एक बहुत भारी चीज है, जो सूर्य के वजन से भी करीब 4 लाख गुना भारी है। घेज़ नोबेल पाने वाली चौथी महिला हैं। पहली बार मैरी क्यूरी को 1903 में नोबेल पुरस्कार मिला था।

ब्लैक होल्स के दो भारतीय संबंध है। पहला फिज़िक्स के ज़रिए। एक भारतीय फिज़िसिस्ट सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने 1930 में बताया था कि अगर कोई तारा सौर भार से चार 1.4 गुना ज्यादा होता है, तो वह नष्ट होना शुरू नहीं करेगा। चंद्रशेखर सीवी रमन के भतीजे थे, जो फिज़िक्स में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पहले भारतीय थे। उन्हें 1983 में नोबेल पुरस्कार मिला था। वे 1936 में अमेरिका चले गए थे और 1953 में उन्होंने वहां की नागरिकता ले ली थी। "चंद्रशेखर सीमा" नाम से पहचाने जाने वाले इस भार के नीचे जाने पर तारा "बौना तारा (Dwarf Star)" बन जाता है। अगर तारे का भार ज़्यादा होगा, तो उसका क्या होगा, इस बारे में चंद्रशेखर ने अंदाजा नहीं लगाया।

लेकिन आज हम जानते हैं कि इस स्थिति में तारा सुपरनोवा बन जाएगा या फिर उसमें विस्फोट हो जाएगा, जिसके बाद उसके परमाणु न्यूक्लियस के आकार तक सिकुड़ जाएंगे और एक न्यूट्रॉन तारा बना देंगे। या फिर यह नष्ट नहीं होंगे और एक ब्लैक होल बना देंगे।

दूसरा भारतीय संबंध, खुशी न देने वाला है। यह इसके नाम से संबंधित है। अब यह बात स्थापित हो चुकी है कि प्रिंसटन में अल्बर्ट आइंस्टीन के प्रोफ़ेसर फिलिप डिके ने तारे के गुरुत्वीय निपात के लिए पहली बार ब्लैक होल शब्द का इस्तेमाल किया था। जब भी वैज्ञानिक को कोई चीज नहीं मिलती, तो उनके परिवार के लोगों ब्लैक होल शब्द का इस्तेमाल करते। वे कहते कि क्या वो चीज कोलकाता के ब्लैक होल में खो गई है।

जैसा हम जानते हैं कि कोलकाता की ब्लैक होल की घटना जरूरत से ज़्यादा प्रसारित मिथक है। जिसके मुताबिक़ ईस्ट इंडिया कंपनी के यूरोपीय कर्मचारी और अंग्रेजी सैनिकों की बड़ी संख्या को कोलकाता के एक छोटे से कमरे में बंद कर दिया गया था। कमरे में सिर्फ दो खिड़कियां थीं। इसके चलते कई लोगों की दम घुटने से मौत हो गई थी। इन आंकड़ों का दावा उस वक़्त अंग्रेजों ने किया था, लेकिन कई सारे इतिहासकारों ने इस पर सवाल उठाए हैं। अंग्रेजों ने इन आंकड़ों का इस्तेमाल हत्याएँ, लूटपाट और ज़मीन हथियाने के लिए की गई कार्रवाई की वज़ह बनाने के लिए किया, जिससे आखिरकार भारत में अंग्रेजी साम्राज्य स्थापित हुआ। अंग्रेजों के दिमाग में यह घटना ब्रिटेन औपनिवेशिक ताकतों द्वारा किए गए नरसंहारों और भयावह अकालों पर पर्दा डाल देती है।

आइंस्टीन ने सापेक्षता का जो सिद्धांत 1915 में बताया, इसी पर आधारित जर्मन आर्मी में काम करने वाले कार्ल श्वार्ज्सचाइल्ड ने आइंस्टीन के फील्ड इक्वेशन का समाधान निकाला। समाधान में बताया गया कि अगर ऊर्जा और पदार्थ एक निश्चित सीमा को पार कर लेते हैं, तो इससे 'स्थान और समय' नष्ट होकर एक ब्लैक होल बना सकता है। बाहरी दुनिया इसका गुरुत्वीय प्रभाव महसूस करेगी, लेकिन ऐसे ब्लैक होल से कोई भी भार, यहां तक कि प्रकाश भी बाहर नहीं जा सकता।

जैसा इसके नाम से ही पता चलता है, ब्लैक होल एक ऐसी जगह होती है, जहां पदार्थ खो जाते हैं और इससे कुछ भी बाहर नहीं निकल पाता। तो हम इसके अस्तित्व के बारे में कैसे बता पाते हैं? पहला तरीका एक पुष्ट हो चुके सिद्धांत पर आधारित गणितीय आंकलन है। पेनरोज़ ने यही किया। उन्होंने आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत से इसे निकाला। उन्होंने खुद के द्वारा विकसित गणितीय सांस्थिति (मैथमेटिकल टोपोलॉजी- जिसे पेनरोज़ ट्रांसफॉर्म्स के नाम से जाना जाता है) के आधार पर बताया कि ब्लैक होल बनने की उनकी अवधारणा में तारे का "निपतित (नष्ट)" होना जरूरी नहीं है।

पेनरोज़ ने बताया कि ब्लैक होल बनने के लिए पदार्थ के तय घनत्व की जरूरत होती है। सापेक्षता के सिद्धांत का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने बताया कि यह स्थिति किसी ब्लैक होल के निर्माण के लिए पर्याप्त है। यहां तक कि आइंस्टीन ने भी ब्लैक होल्स के अस्तित्व में विश्वास नहीं किया था, जबकि उनके सापेक्षता के सिद्धांत ने इसकी संभावना बताई थी।

लेकिन भौतिकशास्त्रियों के लिए इस तरह का सैद्धांतिक समीकरण ही पर्याप्त नहीं हो सकता। फिज़िक्स में किसी अवधारणा की पुष्टि के लिए प्रायोगिक साक्ष्य होना जरूरी होता है। नहीं तो यह नोबेल पुरस्कार के लिए पर्याप्त नहीं होता, न ही यह स्वीडिश अकादमी के लिए काफ़ी होता है, जो सिद्धातं के ऊपर प्रायोगिक भौतिकशास्त्र को तरज़ीह देती है। एक ऐसा परीक्षण जो एक बेहद भारी वस्तु की पुष्टि कर देता, ऐसी वस्तु जो किसी तरह की ऊर्जा नहीं छोड़ती, उससे पेनरोज़ के ब्लैक होल को लेकर लगाए अनुमान की पुष्टि हो जाती। गेनज़ेल और घेज़ ने यही किया। उन्होंने बताया कि ज़्यादातर आकाशगंगाओं की तरह हमारी आकाशगंगा के बीच में भी एक बहुत बड़ा ब्लैक होल है।

आइंस्टीन दुनिया भर में न्यूटनवादी फिज़िक्स को ऊपर से नीचे तक पलट देने के लिए मशहूर हुए थे। लेकिन अपनी प्रसिद्धि के बावजूद अकादमिक दुनिया के साथ-साथ जर्मनी के भीतर और बाहर, उनके दुश्मन थे। यह दुश्मनी पहले विश्व युद्ध के खिलाफ़ उनके विरोध, समाजवाद समेत उनके क्रांतिकारी विचारों और यहूदी होने के चलते उपजी थी। उस वक़्त पारंपरिक फिज़िक्स की दुनिया, जिसमें नोबेल कमेटी भी शामिल थी, वह आइंस्टीन से इन वज़हों से नफ़रत करती थी। उन्होंने तर्क दिया कि आइंस्टीन की सिद्धांत बस किताबी सिद्धांत हैं, उनका कोई प्रायोगिक साक्ष्य नहीं है।

इस तर्क को काटने के लिए 1919 में एक अंग्रेज एस्ट्रोनॉमर आर्थर एडिंगटन ने सापेक्षता के सिद्धांत की पुष्टि करने के लिए एक प्रयोग करने का प्रस्ताव दिया। अगर कोई बहुत बड़ी वस्तु अपने वजन के चलते जगह घेरती है, तो जगह घेरने वाले इस वक्र को मापने के लिए, ग्रहण के दौरान सूर्य के पास से निकलने वाले तारों के प्रकाश का इस्तेमाल किया जा सकता है। एडिंगटन ने एक सूर्य ग्रहण के समय यह प्रयोग किया। एडिंगटन के प्रयोग के नतीज़े आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांतों के हिसाब से ही आए। लंदन टाइम्स ने लिखा, "विज्ञान में क्रांति, ब्रह्मांड का नया सिद्धांत।" न्यूयॉर्क टाइम्स का एक शीर्षक कुछ यूं था- "गति बढ़ाइए, वक़्त शून्य हो जाएगा।" आइंस्टीन फिज़िक्स की दुनिया के चमकते सितारे बन गए थे, उनका कद इतना बड़ा हो गया था कि सभी वैज्ञानिक उनके सामने बौने नज़र आ रहे थे।

लेकिन इसके बावजूद उन्हें 1920 और 1921 में नोबेल पुरस्कार नहीं मिला। विज्ञान के इतिहासकार रॉबर्ट फ्रीडमैन ने अपनी किताब, द पॉलिटिक्स ऑफ एक्सीलेंस में लिखा है कि "कमेटी एक राजनीतिक और बौद्धिक उग्र सुधारवादी के फिज़िक्स का बादशाह बनने की बात को पचा नहीं पा रही थी। जिसके बारे में कमेटी ने कहा था कि उसने अपने सिद्धातों पर प्रयोग नहीं किए हैं।" 1920 का नोबेल पुरस्कार एक निकेल-स्टील की मिश्रधातु के लिए दिया गया, जिसे भुला दिया गया है, वहीं 1921 में फिज़िक्स का नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया। मतलब वह ऐसा वक़्त था, जब कमेटी आइंस्टीन को पुरस्कार देने से इंकार तो कर सकती थी, लेकिन उनके बदले में किसी दूसरे को नहीं दे सकती थी। आखिरकार 1922 में आइंस्टीन को 1921 का नोबेल पुरस्कार दिया गया। यह पुरस्कार उन्हें सापेक्षता के सिद्धांत के लिए नहीं दिया गया, जबकि वह इसी के लिए सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध थे। आइंस्टीन को फोटोइलेक्ट्रिक इफेक्ट की खोज के लिए पुरस्कृत किया गया, आइंस्टीन ने यह खोज 1905 में की थी। इसी साल उन्होंने सापेक्षता को लेकर अपना पहला पेपर- द स्पेशल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी प्रकाशित किया था।

पेनरोज़ के काम ने ब्लैक होल्स और इसके केंद्र में स्थान-समय के एकीकरण (स्पेस-टाइम सिंगुलेरिटी) के लिए मजबूत गणितीय आधार तय कर दिया था। हॉकिंग ने इसे आगे बढ़ाते हुए बताया कि पूरा ब्रह्मांड एक बड़े विस्फोट (बिग-बैंग) से पैदा हुआ है। हालांकि हॉकिंग को बहुत बड़ा दर्जा मिला, शायद वे आइंस्टीन के बाद दूसरे सबसे विख्यात भौतिकशास्त्री रहे, लेकिन उन्हें कभी नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया। पेनरोज़ को जो नोबेल पुरस्कार मिला है, वह हॉकिंग के उस नोबेल पुरस्कार के लिए भी श्रद्धा है, जो उन्हें कभी नहीं मिल पाया।

फिज़िक्स के सिद्धातों ने हमें अपने ब्रह्मांड को समझने की संभावना दी है। लेकिन बिना प्रायोगिक पुष्टि के हमेशा यह शंका बनी रहती है कि कोई नई अवधारणा इसे खारिज कर सकती है। इसलिए प्रायोगिक पुष्टि की कोशिश हमेशा बनी रहती है, यही फिज़िक्स में पुष्टि का सबसे बेहतर तरीका है। जब एस्ट्रोफिज़िक्स की बात होती है, तब कई प्रकाशवर्ष दूर स्थित चीजों के प्रयोग करना बहुत कठिन काम हो जाता है। इसलिए चंद्रशेखर को नोबेल पुरस्कार मिलने में 50 और पेनरोज़ को 55 साल लगे। चूंकि नोबेल पुरस्कार मरणोपरांत नहीं दिया जाता, इसलिए कुछ भौतिकशास्त्रियों को यह कभी नहीं मिल पाया।

डॉ. एंड्रिया घेज़ लॉस एंजेल्स की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं। डॉ. गेनज़ेल जर्मनी के मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं। घेज़ की टीम ने हवाई की केक प्रयोगशाला व गेनज़ेल की टीम ने चिली में यूरोपियन सदर्न ऑबजर्वेटरी द्वारा प्रबंधित टेलिस्कोप का इस्तेमाल किया। कुछ वक़्त के लिए दोनों टीमों के बीच प्रतिस्पर्धा थी, उन्हें सामूहिक तौर पर भी कई सम्मान मिले। यहां उन्हें आकाशगंगा के गालाक्टिक केंद्र के पास सितारों पर काम के लिए पुरस्कृत किया गया।

दोनों ही टीमों ने एक ही तारे पर काम किया, इसे घेज़ की टीम So2 और गेनज़ेल की टीम S2 नाम से पुकारती थी। इस तारे की आकाशगंगा के केंद्र के आसपास घूर्णन अवधि काफ़ी कम थी। यह अवधि केवल 16 साल थी। जबकि सूर्य 200 मिलियन सालों में इस केंद्र का एक चक्कर पूरा कर पाता है। दोनों टीमों ने कई दशकों तक अलग-अलग टेलिस्कोप और आंकड़ों का इस्तेमाल कर यह बताया कि दोनों टीमें इस बात पर सहमत हैं कि हमारी आकाशगंगा के केंद्र में एक बहुत भारी वस्तु है, जिसका वज़न 40 लाख सूर्य के बराबर है। नोबेल कमेटी की गंभीर भाषा में कहें, "इन परीक्षणों की व्याख्या यह है कि गालाक्टिक केंद्र पर मौजूद वस्तु एक बहुत बड़ा ब्लैक होल मानी जा सकती है।"

हम आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत और चंद्रशेखर के "स्टेलर कोलेप्स" से बहुत दूर आ चुके हैं। तो मैं इस लेख का खात्मा चंद्रशेखर के नोबेल भाषण में उल्लेखित रबिंद्रनाथ टैगोर की कविता से करता हूं:

जहां मन में ना हो कोई डर और ऊंचा हो मस्तक

जहां ज्ञान के लिए ना चुकानी पड़े कोई कीमत

जहां सच की तलहटी से निकलते हों शब्द

जहां अथक प्रयासों से उठते हाथ निपुणता को गले लगाने के लिए मिलते हों;

जहां मृत आदतों के सूखे रेगिस्तान में ना खो गई हों तर्क और बुद्धि की धारा

मेरी कामना है कि मैं ऐसे ही स्वर्ग में जागूं

इन पंक्तियों का खूब इस्तेमाल हुआ है, लेकिन यह आज के अंधेरे वक़्त में फिर भी प्रासंगिक हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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