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स्वास्थ्य
भारत
राजनीति
भारत के कॉरपोरेट अस्पतालों की हक़ीक़त  
भारत के कोविड-19 की स्थिति काफी भयावह है, उधर व्यवस्था ने ग़रीबों को बुरी तरह चोट पहुंचाई है।
सुधांशु मोहंती
13 Jun 2020
covid 19

मैं उस समय से परेशान हूं जबसे मैंने एक वीडियो देखा जिसमें एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) के एक मशहूर अस्पताल में एक मरीज़ को हिरासत में रखे जाने की घटना सामने आई है। मरीज़ की मां ने इस वीडियो को रिकॉर्ड किया था जिनका कहना है कि उनसे बार-बार कहा जा रहा था कि खून चढ़ाने के लिए जितनी रक़म देने की बात हुई थी उससे ज़्यादा रक़म चुकानी होगी। जैसे-जैसे सौदेबाजी जारी रहती है, इन गंदे लोभियों की मांगे कम हो जाती हैं, लेकिन मरीज़ को कुछ घंटों के बजाय दो दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। और कोरोनावायरस रोगी होने की वजह से उसे अकेला छोड़ दिया जाता है। ऐसा लग रहा था कि उसे तब तक छोड़ा नहीं गया होगा जब तक कि उसकी मां ने पुलिस में फोन करने की धमकी नहीं दी। यह घटनाक्रम तब सामने आया जब खून चढ़ाने की प्रक्रिया काफी लंबी चली मतलब कि दो दिनों तक चलती रही। उक्त अस्पताल ने हालांकि इन आरोपों को "निराधार" बताया है और कहा है कि उक्त महिला ने "पूरी जानकारी" का खुलासा नहीं किया था।

मैं न तो कोई डॉक्टर हूं या महामारी विज्ञानी ही हूं और न ही ऐसा होने का दिखावा करता हूं। स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर शुरू से ही मेरी दिलचस्पी रही है और डॉक्टरों या अन्य लेखकों की ओर से हेल्थकेयर पर लिखी पुस्तकों को पढ़ना मुझे काफी पसंद रहा है। मार्च की शुरुआत में जब नोवेल कोरोनावायरस ने यूरोप में खास तौर से इटली और स्पेन में जब अपने पांव पसारने शुरू कर दिए थे और चीन के बाहर से इसके प्रसार हो चुके थे ऐसे में मेरे जैसे अज्ञानी व्यक्ति तक को भी यह भविष्यवानी करने में परेशानी नहीं हुई कि जल्द ही भारत भी इसकी चपेट में आने जा रहा है। लेकिन उन दिनों तो हम कई अन्य महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में व्यस्त थे जैसे कि ट्रम्प की अगवानी से लेकर दिल्ली दंगों तक!

मार्च के मध्य तक इसका साया हम पर भी पड़ना शुरू हो चुका था। लेकिन सरकारी तौर पर लॉकडाउन को 24 मार्च को ही थोपा गया था, जैसा कि पहले भी चीजें अचानक से किसी विस्फोट के तौर पर देखने को मिली हैं, उसी तरह देश में 21 दिनों के लिए इसे लागू कर दिया गया। कुल मिलाकर ये 21 दिन हमारे पास इस वायरस को परास्त करने के लिए महाभारत की लड़ाई से तीन दिन अधिक ही थे। मध्य प्रदेश में सरकार का तख्ता पलट करने के लिए सर्वथा उचित समय का चुनाव करते हुए, ताली-बाजाओ, थैली-पीटो, 9-बजे 9-मिनट तक दिया-जलाओ का आह्वान किया गया था। बीच में भारतीय वायु सेना के विमानों और हेलिकॉप्टरों से हम सभी ने आकाश से पुष्पवर्षा भी देखी थी। तथास्तु!

और इस प्रकार कोरोनावायरस से आने वाली प्रारंभिक धीमी आंच पार कर चुका था, जिसके बाद जाकर असली कहानी शुरू हुई थी। लॉकडाउन का इस्तेमाल शायद ही इस महामारी के लिए संभावित हॉटस्पॉट तैयार करने के लिए किया गया, सिर्फ ग़ैर तार्किक निष्कर्षों वाले मंत्र के प्रति झुकाव को देखा गया, नीरसता से मध्य-स्तर के नौकरशाह को बोलते देखा गया और मीडियाकर्मियों के चयन के लिए पेशकश की गई, कठिन सवाल न पूछने की आज्ञा दी गई।

प्रवासी मज़दूरों के लिए कोई योजना या संकेत नहीं था, जो तब तक थके-हारे पैदल ही अपने-अपने घरों की ओर लौटना शुरू कर चुके थे, जो यहां से सैकड़ों-हज़ारों किलोमीटर की दूरी पर स्थित था।

इस बीच लॉकडाउन को एक बार नहीं बल्कि दूसरी और फिर तीसरी बार तक आगे बढ़ा दिया गया था- मानो ज़िंदगी बनाम रोज़ीरोटी के बीच बादशाहत की जंग छिड़ी हो। कई मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्यों के लिए खुद की रणनीति को अपनाने का विकल्प चुना जो कि समझदारी भरा क़दम था। लॉकडाउन में किए जाने वाले हर विस्तार या उसमें दी जाने वाली छूट ने प्रधानमंत्री को परामर्श का दिखावा करने के लिए बाध्य किया। इन मैराथन स्तर पर चलने वाले परामर्शों में कुछ भी स्पष्ट नहीं था, लॉकडाउन थोपे जाते समय प्रदान किए गए समय की तुलना में ये परामर्श कहीं ज्यादा लंबे समय तक या कहें कि काफी लम्बे समय तक जारी रहे।

कोविड लिए ज़रुरी परीक्षण करने का काम, पता लगाना, अलग-थलग करना और उपचार कभी भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका, सिवाय कुछ राज्यों में जिनके मुख्यमंत्रियों ने खुद आगे बढ़कर इस संबंध में अपने प्रदेशों में मोर्चे को संभाला हुआ था। मुम्बई अपने विषम आबादी के साथ और तीव्र आर्थिक असमानता के चलते वास्तव में बैठा बत्तख था और अप्रत्याशित रुप से ऐसा ही साबित किया। और जैसी की उम्मीद थी, धारावी में महज आग दिखाने की देर थी और वह भड़क उठी। अपने सीमित सरकारी अस्पतालों के साथ महाराष्ट्र इस संहार से निपटने में बमुश्किल से तैयार है।

जबकि केंद्र इस सबसे खुद को अलग-थलग रखकर आत्मतुष्ट बैठा रहा।

निजी अस्पतालों ने प्राइमटाइम टीवी डिबेट्स में राष्ट्रीय सेवा के लिए अपने सभी उद्यमियों की उद्घोषणाओं के लिए बेहद कलात्मक अंदाज में इस बात को सुनिश्चित किया कि कोविड-19 के रोगियों के इलाज से इनकार करते हुए उनकी संस्थाएं इससे दूर ही रहें। एक चिकित्सा उद्यमी ने बताया कि तीन निजी अस्पतालों (मेदांता, फोर्टिस और आर्टेमिस) ने अपने मुख्य अस्पताल से अलग जाकर गुड़गांव में 150-बिस्तर वाले सिर्फ कोरोनावायरस से पीड़ित मरीज़़ों के लिए व्यवस्था कर रखी है। ऐसा जान पड़ता है कि कोरोनावायरस से पीड़ित लोग कोई "अछूत" हों, जिसके लिए शुद्धता-प्रदूषण प्रतिमान की जमानत दिए जाने की दरकार हो।

यहां पर कोरोनावायरस की विडंबना व्यंगोक्ति बढ़ जाती है। विशेषाधिकार हासिल इन बाशिंदों या उनके मित्रों द्वारा देश में लाए गए इस वायरस के चलते ही आज के दिन ये निर्दोष ग़रीब और बे-आवाज लोग हाशिए पर खड़े नागरिक हैं जो आज इसका शिकार हो रहे हैं। कोविड की जांच के लिए देश में मौजूद विशेषाधिकार प्राप्त आत्माओं के एक समूह द्वारा टेस्टिंग को अनुमोदित किया गया है जिसमें बिना किसी संदेह के फायदे की गुंजाइश बनती है, जिसे भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद या आईसीएमआर के आदेश से प्रत्येक किट के लिए 4,500 रूपए खर्च करने पड़ रहे हैं। वहीँ बांग्लादेश ने अपने यहां 3 डॉलर की क़ीमत की जांच किट तैयार कर ली है, लेकिन भारत में 4,500 रूपए की क़ीमत का टैग उसके सुनहरे मार्ग में बदस्तूर जारी है। क्योंकि धनाढ़्य लोगों का बोलबाला है!

जल्द ही एनसीआर भी बढ़ती हुई इस रोग की चपेट में आ गया। हालांकि हमारे पास न्यूयॉर्क का उदाहरण दिन के उजाले की तरफ साफ़-साफ़ नज़र आ रहा था लेकिन हमने उससे शायद ही कुछ सीखा हो - न तो इसके प्रसार की गति को लेकर और न ही इसके प्रबंधन को लेकर। जहां न्यूयॉर्क में स्वायत्त तौर पर चलने वाले निजी अस्पतालों को जो पूंजीवादी दशा-दिशा के तहत अपना कार्य संचालन कर रहे थे, उन्हें आदेश दिया गया था कि वे राज्य/संघीय सुविधाओं की तरह ही बड़ी संख्या में रोगियों की देख-रेख के काम में शामिल हों, वहीँ भारत ने इस तरह का कुछ भी नहीं किया है। धनाढ़य लोगों की पकड़ मजबूत बनी हुई है, दृढ़तापूर्वक उनका अधिपत्य जारी है और उन्हें शीर्ष का आशीर्वाद हासिल है। और अंत में जब निजी अस्पतालों को इस सब में शामिल किया भी गया तो उनकी क़ीमतों पर बढ़ती सार्वजनिक अस्वीकृति के बावजूद रोगियों की ज़िंदगी के साथ खिलवाड़ का क्रम जारी है।

सच तो यह है कि कोरोनावायरस के रोगियों का इलाज "लाभदायक" व्यवसाय नहीं होना चाहिए था, खासतौर पर सोशल मीडिया के इस दौर में कोई ज़्यादा प्रभावित होता है। कठिन परिश्रम और संघर्ष करने का काम सरकार का है, न कि उनका क्योंकि इससे व्यापार में लाभ कमाने वाले ढांचे के असुंतलित हो जाने का ख़तरा बन जाता है। इसलिए जो भी घाटा हो उसका राष्ट्रीयकरण करो और लाभ का निजीकरण!

इस पृष्ठभूमि में मैं एक बार फिर से उस मां के मामले को याद कर रहा हूं जो वीडियो में एक निजी अस्पताल पर रो रही हैं, जहां उनके बेटे को खून चढ़ाया गया था। कोरोना का उपचार न सिर्फ एक महंगा साधन बना दिया गया है, बल्कि इसने ग़ैर-कोरोना उपचार की लागतों पर भी कहर बरपाते हुए उनके इलाज पर भी एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। पिछले कुछ महीनों से अस्पतालों में रोगियों की आमद काफी कम होने की वजह से उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा है और जब तक इसका टीका नहीं मिल जाता है तब तक भविष्य में ऐसी ही स्थिति बने रहने की संभावना है। सभी व्यवसायों में नुकसान देखने को मिला है। और हर व्यवसाय इस कोशिश में है कि जितने महीनों का उन्हें नुकसान झेलना पड़ रहा है उसकी भरपाई मौका लगते ही अधिकाधिक कर ली जाए उसकी तैयारी में प्रतीक्षारत है।

लेकिन कोरोना को अभी एक तरफ रख भी दें तो जो हमारे पास है वह स्वास्थ्य सेवा जैसे परोपकार वाले पेशे के लिए एक कपटपूर्ण-दोषयुक्त मॉडल है। हमारे राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा के मॉडल ने संक्रामक रोगों और महामारी विज्ञान पर कुछ ख़ास ध्यान देने लायक काम भी नहीं किया है। अपने बेहद छोटे स्वास्थ्य सेवा बजट (सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी के हिस्से के तौर पर) और घटिया प्राथमिक और माध्यमिक सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की बदौलत राष्ट्र ने आज स्वास्थ्य सेवाओं को थाली में सजाकर बाज़ार के सुपुर्द कर दिया है। कृपया मुझे मौका दें कि मैं वीडियो में उस मां के प्रति अपनी पीड़ा को व्यक्त करने के लिए अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आईने से इसे दिखाने की कोशिश करता हूं।

एक दुर्लभ ट्यूमर वाले रोगी के तौर पर एक के बाद तुरंत दूसरी सर्जरी के उपरांत मुझे दो गैस्ट्रोएंटेरोलॉजिस्ट की गहन निगरानी के बीच रखा गया था। मेरा खून लगातार बह रहा था। यह माइक्रोस्कोपिक था और कोलोनोस्कोपी से खून के रिसाव का पता नहीं लग पा रहा था। मुझे कैप्सूल एंडोस्कोपी से गुजरना पड़ा था, तब तक यह एक नई तकनीक हुआ करती थी, ताकि मेरी छोटी आंत की तस्वीर हासिल की जा सके। यह एक डे-केयर प्रक्रिया थी, जो शाम तक पूरी हो चुकी थी।

जब मैं अपने गैस्ट्रोएंटेरोलॉजिस्ट के परामर्श के अनुसार डिस्चार्ज की तैयारी कर रहा था, और मैंने अपने बिल की मांग की तो उस फ्लोर को कोआर्डिनेट कर रह एक नौजवान कर्मी ने मुझे सूचित किया कि मुझे उस शाम के समय अस्पताल से छुट्टी नहीं मिल सकती है। मैं आश्चर्य से हक्का-बक्का रह गया था और पूछ बैठा "पर क्यों नहीं?" उसका जवाब था, "हम शाम 4 बजे के बाद मरीज़ों को अस्पताल से छुट्टी नहीं देते हैं।" मैंने उससे कहा: "लेकिन मेरे सारे जांच पूरे हो चुके हैं और मुझे इसके अलावा कुछ नहीं कराना है!"

“हमारी कंपनी के नियम के अनुसार दिन के इस समय पर किसी भी मरीज़ को डिस्चार्ज नहीं किया जा सकता है। आप अब कल सुबह ही डिस्चार्ज हो सकते हैं।”

मेरे डॉक्टर मेरी तरह ही हैरान-परेशान थे। लेकिन क्या कर सकते थे, प्रबंधन का फैसला था!

कुछ महीनों के बाद मेरी एक और बहस हुई। मुझे एक और सर्जरी से पहले गैलियम-68 डोटनोक स्कैन की ज़रूरत थी। मेरा पहला स्कैन चार साल पहले नई दिल्ली के एम्स के पीईटी-सीटी विभाग में किया गया था। (उस समय यह स्कैन अन्य स्थानों पर उपलब्ध नहीं था।) बाद के स्कैन बेंगलुरु के एक निजी अस्पताल में किए गए थे। उनमें कोई समस्या नहीं हुई थी।

स्कैन हो जाने के बाद मैंने नर्स से अनुरोध किया कि मैं डॉक्टर से बात करना चाहता हूं ताकि एक दिन बाद आने वाले नतीजे से पहले प्रारंभिक इलाज़ के बारे में मालूमात हासिल कर सकूं। नर्स का जवाब था, “अभी कोई भी डॉक्टर मौजूद नहीं हैं। इस काम को तकनीशियन ने अंजाम दिया है।" एक लंबे इंतज़ार के बाद आखिरकार जब मैं न्यूक्लियर मेडिसीन विशेषज्ञ से बातचीत कर पाने में सक्षम हुआ तो मैंने उनसे सवाल किया "ऐसा कैसे संभव हुआ कि जब मेरा स्कैन किया जा रहा था तो कोई भी डॉक्टर वहां पर मौजूद नहीं था?"

उसकी ओर से रटा सा जवाब मिला: "मैं प्रतिदिन किए जाने वाले सारे 60-70 स्कैन के दौरान उपस्थित नहीं रह सकता। आप चाहें तो अपना पैसा वापस ले सकते हैं!" अगली सुबह एक राष्ट्रीय दैनिक के पहले पेज पर मुझे आधे पन्ने का विज्ञापन नजर आया, जिसमें यह अस्पताल कैंसर के मरीज़ों को अपनी ओर लुभाने में लगा हुआ था।

यह है वास्तविक दुनिया, भारत के कॉरपोरेट अस्पतालों की। इसमें कोई संदेह नहीं कि कुछ अपवाद भी अवश्य हैं।

मैंने अपने कई डॉक्टर दोस्तों के साथ इस महिला वाले वीडियो पर लगातार बात की। उनमें से एक, जिन्हें मैं उनकी पेशेवर योग्यता और नैतिक मूल्यों के चलते इज्ज़त करता हूं, (उन्होंने अपना कार्य का जीवनकाल एम्स में और सेवानिवृत्त होने पर दो बड़े निजी अस्पतालों में बिताया है) ने इस यथार्थवादी दृष्टिकोण को पेश किया: “प्रशासनिक, मार्केटिंग या बिलिंग विभाग से ऐसा कोई नहीं है जो उपचार, प्रक्रिया, परीक्षण, वित्तीय लागत के आकलन/शुल्क आदि के बारे में हमारी सलाह के बाहर क़दम रख सके। अक्सर हमारी टीम बिना किसी दबाव के नियमित तौर पर फीस में कमी या उसे माफ तक कर देती है। वरिष्ठ चिकित्सक अपने लिए खुद के प्रैक्टिस के पैटर्न को निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र हैं, जबकि कई जूनियर्स की ज़रूरत रोगियों पर मामूली ध्यान देने की होती है, जैसे खून चढ़ाने इत्यादि में, वरना भारी भरकम फीस कईयों की स्थिति को काफी दयनीय बना सकती है। यहां तक कि एक मामूली बायोप्सी या एंडोस्कोपी तक के लिए हमारी टीम पहले से ही तय कर लेती है ताकि रोगी और उनका परिवार खुद को परेशान न महसूस करे या उसे ऐसा न लगे कि धोखा हो रहा है। संक्षेप में कहें तो वित्तीय मामले डॉक्टर और उनकी टीम के दायरे से बाहर नहीं रह सकते हैं।

इन कई अनुभवों के आधार पर मेरा यह मानना है कि कॉरपोरेट अस्पतालों में जो डॉक्टर कार्यरत हैं, हालांकि उनमें से ज़्यादातर अच्छे और मानवीय हैं, लेकिन प्रबंधन द्वारा निर्धारित लक्ष्यों की वजह से वे लोग असहाय की स्थिति में हैं। कईयों ने मेरे साथ अपने परेशानी को साझा किया है। कुछ का कहना था कि "इन एमबीए टाइप के लोगों को चिकित्सा सेवा का जरा सा भी अंदाजा नहीं रहता, उनके विचार से यह भी किसी अन्य धंधे की तरह ही है। इनके लिए टारगेट हासिल करना और लाभ कमाना ही सबकुछ है!"

ऐसे में जिस प्रकार से कोरोनावायरस इंसानी ज़िंदगियों को निगलता जा रहा है, ग़रीबों और हाशिए पर रह रहे लोगों की किस प्रकार से देखभाल की जा सकेगी? यह मम्मों (धन दौलत) और ज़िंदा बने रहने के बीच की लड़ाई है। मेरा अनुमान है कि हमारे राज कर रहे धनाढ़य लोगों को देखते हुए, मम्मों को ही जीत हासिल हो सकेगी और बेजुबान ग़रीब की मौत पर मर्सिया भी नहीं पढ़ा जायगा और उसे इस दुनिया से रुखसत होना पड़ेगा।

इस अनवरत निराशावादी तस्वीर को पेश करने का मेरा कोई इरादा नहीं था। लेकिन यही कड़वा सच है। मैं बेहद गुस्से में हूं। ऐसा मैं अकेला हूं, ऐसा नहीं हो सकता! कुछ और लोग भी हैं। लेकिन जैसे-जैसे मरने वालों की संख्या बढ़ती जाएगी, आने वाले दिनों में इसमें इज़ाफा देखने को मिलेगा। इंसानी जीवन का मोल, ख़ासकर ग़रीब के जीवन का मोल, जोकि सामान्य दिनों में भी कुछ ख़़ास मायने नहीं रखती, उसे कुछ भी नहीं में अदृश्य कर दिया जाएगा – मात्र एक संख्या!

मेरी दिली इच्छा है कि मेरा पूर्वानुमान ग़लत साबित हो।

अस्पताल प्रबंधन से विनती है, खुद को ठीक करे!

लेखक पूर्व लोक प्रशासक हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी है।

अंग्रेंज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर के पढ़ जा सकता है।


The Real World of India’s Corporate Hospitals

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