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कॉमन एंट्रेंस टेस्ट से जितने लाभ नहीं, उतनी उसमें ख़ामियाँ हैं  
यूजीसी कॉमन एंट्रेंस टेस्ट पर लगातार जोर दे रहा है, हालाँकि किसी भी हितधारक ने इसकी मांग नहीं की है। इस परीक्षा का मुख्य ज़ोर एनईपी 2020 की महत्ता को कमजोर करता है, रटंत-विद्या को बढ़ावा देता है और रचनात्मकता को नजरअंदाज करता है।
दीपक प्रकाश
29 Apr 2022
common entrance test
चित्र साभार: पीटीआई 

विश्विद्यालय अनुदान आयोग ने 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए सेंट्रल यूनिवर्सिटीज कॉमन एंट्रेंस टेस्ट की घोषणा की है। कक्षा 12 की परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर प्रवेश पाने की प्रणाली पर आधारित व्यवस्था अब समाप्त होने जा रही है। प्रस्तावित परीक्षा में सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए एकल-खिड़की प्रवेश को प्रस्तावित किया गया है। इस प्रकार, अब छात्रों को कई प्रवेश परीक्षाओं में भाग नहीं लेना पड़ेगा। अक्सर, परीक्षा की तारीखें आपस में टकराती थीं, या छात्र कई महीनों तक परीक्षाओं की तैयारी में जुटे रहते थे, जिसके चलते उन्हें भारी मनोवैज्ञानिक कष्ट के बीच में रहना पड़ता था। 

कोई भी भारतीय ऐसा नहीं होगा जो अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के दबाव से बेखबर हो। अच्छे अंकों को हासिल करने पर सारा ध्यान केंद्रित होने की वजह से हमारी शिक्षा प्रणाली छात्रों को ‘परीक्षोन्मुख’ सामग्री बटोरने और रट्टू तोता बना रही है। इतना ही नहीं, कई लब्ध-प्रतिष्ठ कालेजों, विशेषकर जो दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं, में उम्मीदवारों के लिए 100% कट-ऑफ मार्क्स की घोषणा की जाती है। इसकी वजह से कई होनहार विद्यार्थियों को बेहतर संस्थानों में पढ़ने का मौका नहीं मिल पाता है। सवाल यह है कि कॉमन एंट्रेंस टेस्ट, जिसे सीयूईटी के नाम से बताया जा रहा है, किस हद तक इन लक्ष्यों को पूरा करने और इन समस्याओं को हल करने में सक्षम हो सकता है।

सीयूईटी प्रारूप

सीयूईटी परीक्षा को संचालित करने के लिए राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) जिम्मेदार है, जो तीन वर्गों: भाषाई क्षमता, डोमेन-विशिष्ट विषयों, और सामान्य क्षमता के साथ एक कंप्यूटर-आधारित परीक्षा (सीबीटी) को आयोजित करेगी। भाषा की परीक्षा को दो भागों में विभक्त किया गया है, इसमें से प्रत्येक में 13 और 19 भाषाएँ हैं, जिसमें कक्षा 8 के विद्यार्थियों के स्तर की समझ और व्याकरण पर विशेष ध्यान केंद्रित दिया जायेगा। विषय की परीक्षा में कुल 27 क्षेत्र शामिल होंगे, जिसमें से छात्र किन्हीं छह का चयन कर सकते हैं, और इसका स्तर भी कक्षा 8 के छात्र के स्तर का होगा। विद्यार्थियों को दोनों परीक्षाओं में 45 मिनट के भीतर 50 में से 40 प्रश्नों को हल करना होगा। तीसरे खंड में, छात्रों को एक घंटे के भीतर एनसीईआरटी पाठ्यक्रम से 75 प्रश्नों में से कम से कम 60 को हल करना होगा। 

हमें इस परीक्षा की बुनावट को नई शिक्षा नीति 2020 के ढाँचे के तहत देखना होगा। एनईपी का मुख्य जोर गुणवत्ता एवं समानता को सुनिश्चित करने के साथ-साथ उच्च शिक्षा में बहु-विषयक पाठ्यक्रम पर था। इसकी ओर से “प्रवेश परीक्षाओं में सुधारों” के जरिये “कोचिंग कक्षाओं” की जरूरत को समाप्त करने” का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। अब, सीयूईटी के जरिये देश भर के छात्रों के लिए उच्च शिक्षा में प्रवेश पाने के लिए प्रतिस्पर्धा करने का रास्ता खुल जाता है। हालाँकि, इस परीक्षा के प्रारंभिक चरण में ही कुछ चेतावनियाँ हैं।

प्रवेश परीक्षाएं और कोचिंग संस्कृति 

किसी प्रवेश परीक्षा को छात्रों की बुनियादी दक्षताओं का परीक्षण करने के लिए माना जाता है, लेकिन सीयूईटी के चलते और भी अधिक गला-काटू प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलने की संभावना नजर आ रही है और पहले से कहीं अधिक रटंत विद्या की ओर रुख देखने को मिल सकता है, जो प्रवेश परीक्षा के मकसद को ही असफल बना देता है। छात्रों के बीच में बढ़ती अनिश्चितता उन्हें कोचिंग लेने के लिए मजबूर करेगी ताकि संभ्रांत या प्रतिष्ठित संस्थानों में अपने प्रवेश को सुनिश्चित किया जा सके।  

इसके आलावा एनटीए इंजीनियरिंग (जेईई), एमबीबीएस (नीट), कॉमन मैनेजमेंट एडमिशन टेस्ट (सीमेट) सहित अन्य परीक्षाएं भी आयोजित करता है। इनके अनुभवों से हमें पता है कि कोचिंग की मांग कई गुना बढ़ गई है। आज के दिन, शायद ही ऐसा कोई छात्र होगा जो बिना कोचिंग के मेडिकल या इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा को उत्तीर्ण करने की कल्पना भी करता होगा। इसी का नतीजा है कि देश के हर नुक्कड़ों और चौराहों पर कोचिंग संस्थान कुकुरमुत्तों की तरह उग आये हैं। कोटा इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। 

स्नातक स्तर पर प्रवेश पाने के लिये प्रस्तावित सीयूईटी असल में कोचिंग संस्थाओं के लिए एक नया स्वर्ग साबित होने जा रही है जो अब राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को एक कोचिंग हब में बदल सकता है। भारतीय छात्रों को अब अपने बेशकीमती वर्षों को प्रतियोगी परीक्षाओं और परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए बिताना पड़ेगा, जिससे उनके उपर और भी ज्यादा मनौवैज्ञानिक दबाव बढ़ने जा रहा है। कुछ चरम मामलों में इसकी परिणिति – छात्रों की आत्महत्या में हो सकती है, जो उम्मीद के मुताबिक अच्छा प्रदर्शन कर पाने में असमर्थ रहते हैं- जो भारत में आज के दिन कोई दुर्लभ घटना नहीं रह गई है। एक दोषपूर्ण परीक्षण डिजाइन से छात्रों की मेधा-शक्ति और रचनात्मक सीखने की क्षमताओं को भी नुकसान पहुँचने की संभावना है।

संभ्रांत संस्थानों में रिक्त स्थानों और प्रवेश-चाहने वालों के बीच का असुंतलन 

भारत में हर साल 1.50 करोड़ से अधिक छात्र 12 वीं की बोर्ड परीक्षाओं को उत्तीर्ण करते हैं, और स्नातक पाठ्यक्रम में प्रवेश पाने के इच्छुक होते हैं। केंद्रीय माध्यमिक परीक्षा बोर्ड के मुताबिक हर साल 13 लाख उम्मीदवार इस परीक्षा में हिस्सा लेते हैं, जिसमें 12.96 लाख उत्तीर्ण होते हैं, जिनका उत्तीर्ण प्रतिशत 99.37% है। इनमें से मात्र 70,000 विद्यार्थियों के ही 95% या इससे अधिक अंक आते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय हर साल स्नातक कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए तकरीबन 70,000 सीटें प्रदान करता है। इस प्रकार इसके द्वारा सिर्फ उन्हीं छात्रों को प्रवेश की सुविधा प्रदान की जा सकती है जिन्होंने सीबीएसई में 95% अंक प्राप्त किए हों।

शेष सभी सीबीएसई बोर्ड से पास होने वालों को अन्य विश्वविद्यालयों का रुख करना पड़ता है, और इस प्रकार प्रत्येक छात्र के लोकप्रिय विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने की चाहत से अनुपस्थित होने के लिए बाध्य होना पड़ता है। सीयूईटी के चलते दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में अपने लिए सीट हथियाने के लिए छात्रों के बीच में भय की मानसिकता को बढ़ावा मिलने की संभावना है। उनकी असुरक्षा और अनिश्चितता माता-पिता और छात्रों को कोचिंग का सहारा लेने के लिए बाध्य कर देगी, और सीयूईटी कोचिंग माफिया के लिए जन्नत की स्थिति बन सकती है।

कोचिंग सेंटरों ने पहले से ही सोशल मीडिया और समाचार पत्रों को विज्ञापनों से पाट डाला है–थिंक सीयूईटी थिंक फलाना कोचिंग! सीयूईटी ने उनके लिए एक बेहद महत्वपूर्ण नए बाजार को पैदा कर दिया है, ठीक उसी तरह जैसे मेडिकल और इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाओं ने किया था। ऐसे में, भोले-भाले विद्यार्थियों के पास किसी न किसी ओलिगार्च संस्थान में प्रवेश पाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं रह जाता है!

ग्रामीण छात्रों की चुनौतियां

सीईयूटी ने सीबीटी के आधार पर उम्मीदवारों की योग्यता की जांच करने का प्रस्ताव रखा है। प्रवेश परीक्षा में उच्च कौशल की जरूरत भले ही न हो, लेकिन कौशल का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता है जब कंप्यूटर तक पहुंच- वह भी इंटरनेट कनेक्शन के साथ - ग्रामीण भारत में एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। इसके अलावा ग्रामीण छात्रों के द्वारा कोचिंग संस्थानों या संसाधनों तक पहुँच बना पाने या इसे वहन कर पाने में असमर्थता उनकी छंटाई कर देगी। कुलीन संस्थानों के दरवाजे उनके लिए वस्तुतः बंद हो जायेंगे, जो ग्रामीण-शहरी शैक्षिक विभाजन को और तेज कर देगा। आरक्षण नीति को भी नजरअंदाज किया जायेगा, क्योंकि इसका लाभ असमान रूप से समृद्ध शहरी छात्रों के हितों के लिए झुक जायेगा। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि सीयूईटी के चलते पढ़े-लिखे लोगों के बीच में एक नया वर्गीय पक्ष तैयार होने की संभावना है।

प्रवेश परीक्षा पर गलत जोर

भारत का खंडित उच्च शिक्षण पारिस्थितिकी तंत्र, मेधा कौशल, विकास पर कम जोर, हाशिये के वर्गों के लिए सीमित पहुँच, रिक्त शिक्षण पद, प्रतिबंधात्मक स्वायत्तता, बहु-विषयक दृष्टिकोण का अभाव, अप्रभावी विनियमन, निकृष्टतम शासन, शिक्षा का निम्न स्तर इत्यादि। इन सभी खामियों को एनईपी के द्वारा भी सूचीबद्ध किया गया है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एवं अन्य नियामक निकायों को इन मुद्दों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए, मुख्य रूप से उच्च शिक्षा में समानता और गुणवत्ता पर। हालांकि, लगता नहीं है कि नीति-निर्माता इसको लेकर गंभीर हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में अभी तक कोई कार्यवाई नहीं की गई है। इसके बजाय, यूजीसी ने एक ऐसे मुददे को उठा दिया है, जिसकी किसी भी हितधारक ने मांग नहीं की थी - और वह है कॉमन एंट्रेंस टेस्ट।

सीयूईटी के अपने फायदे और नुकसान हो सकते हैं, लेकिन जिस बात की भारत को तत्काल आवश्यकता है, वह है बेहतर सामाजिक एवं भौतिक बुनियादी ढांचे की जरूरत। भारत अपने आप में एक स्व-घोषित विश्वगुरु है। लेकिन चंद मुट्ठी भर भारतीय संस्थान ही दुनिया भर के चोटी के 100 शीर्ष संस्थानों या विश्वविद्यालयों में खुद को शुमार कर पाने की स्थिति में पाते हैं।

वास्तविक उच्च शिक्षा ठंडे बस्ते में 

आल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन (एआईएसएचई) के अनुसार, भारतीय उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) काफी कम है। 2018-19 के लिए इसकी रिपोर्ट में उच्च शिक्षा के लिए जीईआर को मात्र 26.3% पर रखा गया था। एनईपी का कहना है कि भारत को इसे 2035 तकहर हाल में 50% तक बढ़ाना होगा। इसका अर्थ हुआ कि माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के बीच की खाई को पाटना होगा, क्योंकि प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर की स्कूली शिक्षा के लिए जीईआर तेजी से बढ़ रहा है।

हालांकि, उच्च शिक्षा के लिए सबसे दुखती रग इसकी खराब गुणवत्ता है। एनईपी ने भले ही अपने लक्ष्य के तौर पर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने की घोषणा की हो, लेकिन इसे पूरा करने के लिए अभी तक कोई ठोस प्रयास नहीं किए गए हैं।असल में देखें तो कई कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में यूजीसी की न्यूनतम जरूरतों तक को पूरा नहीं किया जा सका है।

सार्वजनिक संस्थानों में खराब सार्वजनिक एवं सामाजिक बुनियादी ढांचे की स्थिति बदतर बनी हुई है, और सार्वजनिक निवेश की मांग करता है। फैकल्टी की कमी और छात्रों-शिक्षकों का खराब अनुपात अन्य संकटग्रस्त विशेसताएं बनी हुई हैं। (एनईपी 30:1 अनुपात के लक्ष्य को निर्धारित करता है)। 2021 में भारत में तकरीबन 12 लाख रिक्त शिक्षण पद थे, जिनमें से 69% पद ग्रामीण भारत में रिक्त थे। जबकि छात्र-शिक्षक अनुपात भी ग्रामीण स्कूलों।की तुलना में काफी विषम बना हुआ है। इस अनुपात में काफी अंतर हो जाने की स्थिति में शिक्षण कार्य बेहद अप्रिय और कठिन हो जाता है। यह छात्रों-शिक्षकों के बीच में बातचीत को, अनुसंधान और अन्य विश्वविद्यालय की गतिविधियों को बाधित करता है। राज्य-स्तर के उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थिति भी काफी जर्जर है, और उन्हें सुधारने के लिए तत्काल मूलभूत ढांचे में सुधार की जरूरत है।

समाधान 

भारत दुनिया के सबसे युवा देशों में से एक है, जिसकी औसत उम्र मात्र 28.4 वर्ष है। ऐसी युवा आबादी को उत्पादक दिशा में ले जाने की जरूरत है। ऐसा करने में विफल रहने की स्थिति में यह जनसांख्यिकी लाभ को जनसांख्यकीय दुःस्वप्न में तब्दील कर सकता है! इसे शिक्षकों की तमाम संस्थानों में जरूरत को पूरा करने की आवश्यकता है। इसके लिए इस पेशे की पारंपरिक एवं तकनीकी शिक्षा को और भी अधिक आकर्षक बनकार संस्थानों में शिक्षकों की मांग की पूर्ति करने की जरूरत है। विश्व आर्थिक मंच ने अपने पूर्वानुमान में कहा है कि आगामी वर्षों में दुनिया भर में करीब 100 करोड़ नौकरियां प्रौद्योगिकी आधारित होंगी, जिसका अर्थ है कि यदि भारत खुद को युवाओं को तकनीकी शिक्षा मुहैया कराने के लिए तैयार नहीं करता है तो उस सूरत में बड़े पैमाने पर लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा।

अफ़सोस की बात यह है कि एनईपी तक ने शिक्षा के साथ रोजगार सृजन को युक्तिसंगत बनाने पर ज़ोर नहीं दिया है। देश में पहले से ही बड़ी संख्या में बेरोज़गारों की रिज़र्व सेना है। हमारी दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली का कुल जमा नतीजा यह है कि हमारे पास प्रमाणपत्र देने वाली व्यवस्था तो है, लेकिन कौशल को विकसित करने वाली नहीं है।

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। 

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

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