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भारत
राजनीति
बहुजनहित की बात करने वाली मायावती अचानक ब्राह्मणों के मान-सम्मान लिए क्यों आवाज़ उठा रही हैं?
उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण मतदाता बीएसपी के जाटव और सपा के यादवों के बाद चुनाव का एक महत्वपूर्ण कारक हैं। ऐसे में क़रीब 14 साल बाद अब एक बार फिर बीएसपी दलित और ब्राह्मण ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के जरिए अपने सियासी समीकरणों को सुधारना चाहती हैं।
सोनिया यादव
08 Sep 2021
Mayawati
image credit- Social media

"राज्य में बीजेपी की सरकार के दौरान ब्राह्मणों पर जो एक्शन हुआ, उसकी जाँच कराई जाएगी। जो भी अधिकारी दोषी पाए जाएंगे, उन पर कार्रवाई की जाएगी। बीएसपी के शासन में ब्राह्मणों के मान-सम्मान और सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाएगा।"

ये बातें बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की मुखिया मायावती ने अपनी पार्टी के 'प्रबुद्ध सम्मेलन' के दौरान कहीं। बीएसपी प्रमुख मायावती ने ब्राह्मण समाज को आश्वस्त किया कि वो अन्य राजनीतिक दलों के बहकावे में न आएं और बीएसपी पर भरोसा करें। बीजेपी पर निशाना साधते हुए उन्होंने साफ़तौर पर कहा कि बीजेपी के शासन काल में ब्राह्मणों पर अत्याचार बढ़ा है।

वैसे ये विडंबना ही है कि कभी बहुजन हित को सर्वोपरी बताने वाली मायावती अब ब्राह्मणहित को साधने की कोशिश कर रही हैं।

आपको बता दें कि बहुजन समाज पार्टी ने इससे पहले साल 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के तहत ब्राह्मणों को अपनी ओर जोड़ने का बड़ा अभियान चलाया था जिसकी बदौलत राज्य में पहली बार उसकी बहुमत की सरकार बनी थी। उस चुनाव में मायावती ने 86 ब्राह्मण प्रत्याशियों को टिकट दिया था, जिनमें से 41 उम्मीदवार जीते थे। उस दौर में बीएसपी से जुड़े तमाम बड़े नेता, जिनमें कई ब्राह्मण भी हैं, आज दूसरी पार्टियो में शामिल हो चुके हैं। अब क़रीब 14 साल बाद बीएसपी उसी सोशल इंजीनियरिंग के फ़ॉर्मूले को एक बार फिर अपनाना चाहती है। हालांकि इस बार अन्य दल भी इस फ़ॉर्मूले पर चलने की कोशिश कर रहे हैं।

क्या है पूरा माज़रा?

बीती 23 जुलाई को अयोध्या में शंखध्वनि, घंटों और मजीरों की ध्वनि के बीच वेदमंत्रों के उच्चारण से शुरू हुए बहुजन समाज पार्टी के 'प्रबुद्ध वर्ग विचार संगोष्ठी' का समापन मंगलवार, 7 सितंबर को राजधानी लखनऊ में हुआ। बीएसपी लगभग डेढ़ महीने चले इस सम्मेलन को राज्य के सभी ज़िलों में आयोजित कर ब्राह्मण समाज के ज़रिए अपने सियासी समीकरणों को सुधारना चाहती है।

इसे भी पढ़ें : दलित+ब्राह्मण: क्या 2007 दोहरा पाएगी बीएसपी?

प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन की शुरुआत में बहुजन समाज पार्टी के पारंपरिक नारों के अलावा "जय श्रीराम" और 'जय परशुराम' जैसे नारे भी लगे थे और मंगलवार को लखनऊ में हुए सम्मेलन में भी इन नारों की धूम रही। हालांकि आख़िरी दो नारे बीएसपी के किसी सम्मेलन में शायद पहली बार लगे हों लेकिन यही नारे अब बीएसपी की राजनीतिक दिशा तय कर रहे हैं।

इस शृंखलाबद्ध संगोष्ठी की शुरुआत अयोध्या से ही क्यों हुई, इसका जवाब पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और कार्यक्रम के मुख्य अतिथि सतीश चंद्र मिश्र ने अपने भाषण में देने की कोशिश की लेकिन जब भाषण की समाप्ति 'जयश्रीराम' और 'जय परशुराम' के नारों के साथ हुई तो उत्तर काफ़ी कुछ स्पष्ट हो गया।

और पूरी तरह तब स्पष्ट हो गया जब सतीश चंद्र मिश्र ने इस सम्मेलन के दूसरे चरण की शुरुआत मथुरा से, तीसरे की शुरुआत काशी (वाराणसी) से और चौथे चरण की शुरुआत चित्रकूट से करने की घोषणा की।

13 फ़ीसद ब्राह्मणों को 23 फ़ीसद वाले दलित समाज के साथ मिलाने की कोशिश

सतीश चंद्र मिश्र ने ब्राह्मण समाज की एकजुटता के महत्व को बताते हुए बीएसपी के साथ उसके जुड़ने की वजह कुछ इस तरह बताई, "सत्ता की चाभी लेने के लिए 13 फ़ीसद ब्राह्मण अगर 23 फ़ीसद वाले दलित समाज के साथ मिल जाएं तो जीत सुनिश्चित है। जिसकी जितनी तैयारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। हमने 45 ब्राह्मण विधायक बनाए थे।"

बीते विधानसभा चुनाव को देखें, तो साल 2017 के चुनाव में ब्राह्मणों ने बड़ी संख्या में भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदान किया था लेकिन सरकार बनने के बाद से ही ब्राह्मणों के उत्पीड़न के आरोप लगने लगे। ख़ासकर तब, जब पिछले साल जुलाई में कानपुर में बिकरू गांव में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे और उनके छह साथियों की अलग-अलग पुलिस मुठभेड़ में मौत हुई थी।

बीएसपी नेता सतीशचंद्र मिश्र ने सभी प्रबुद्ध सम्मेलनों में इसकी चर्चा की और मुठभेड़ में मारे गए अमर दुबे की पत्नी ख़ुशी दुबे को जेल में रखे जाने के लिए सरकार को दोषी ठहराया। उन्होंने दावा किया कि यूपी में पिछले चार सालों में सैकड़ों ब्राह्मणों की हत्या हो चुकी है।

मायावती का भी कहना था, "ब्राह्मणों के साथ हमेशा अत्याचार और अन्याय हुआ। बीएसपी ने ब्राह्मण समाज के सम्मान, उनकी सुरक्षा और तरक़्क़ी के लिए पहले चरण में सभी ज़िलों में उनकी संगोष्ठी करके उन्हें जोड़ा है। ब्राह्मण समाज की भागीदारी ने सभी विरोधी पार्टियों को चिंतित किया है।''

उन्होंने कहा, ''ब्राह्मण समाज ने इनके अत्याचार को जवाब देते हुए एक बार फिर बीएसपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का संकल्प ले लिया है।"

मायावती ने अपने भाषण में कृषि क़ानूनों का भी विरोध किया और साफ़ कर दिया कि उनकी पार्टी की सरकार आने पर कृषि क़ानून यहां लागू नहीं किए जाएंगे। किसान आंदोलन का उन्होंने एक बार फिर समर्थन करते हुए केंद्र सरकार पर निशाना साधा।

उनका कहना था, "बीजेपी सरकार में किसानों की आय दोगुना तो नहीं हुई, लेकिन तीन काले कृषि क़ानून लाकर उनपर अत्याचार ज़रूर किया गया। किसानों के साथ बहुजन समाज पार्टी संसद से सड़क तक खड़ी है।''

सम्मेलन की खास बातें

मालूम हो कि इस सम्मेलन की सबसे ख़ास बात तो यह रही कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद यह पहला मौक़ा था जब मायावती किसी सार्वजनिक मंच पर दिखीं। दूसरी ख़ास बात रही कि मायावती ने पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र पर पूरा भरोसा जताते हुए उनकी पत्नी कल्पना मिश्रा को पार्टी के साथ महिलाओं को जोड़ने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दे दी।

हालांकि पत्नी और बेटे को राजनीति के मैदान में उतारने के लिए पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र की पार्टी के भीतर आलोचना भी हो रही है। खुले तौर पर भले ही इस पर कोई चर्चा नहीं कर रहा है लेकिन सोशल मीडिया के ज़रिए सतीश चंद्र मिश्र इस बात के लिए लोगों के निशाने पर हैं।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण मतदाता बीएसपी के जाटव और सपा के यादवों के बाद चुनाव का एक महत्वपूर्ण कारक हैं। एक अन्य कारण ब्राह्मण समुदाय का मजबूत सामाजिक-राजनीतिक इतिहास है जो चुनाव अभियान के दौरान विशेष रूप से अवध और उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्रों में किसी भी पार्टी को चुनाव में बढ़त दिलाने में मदद करता है। हालांकि, मंदिर की राजनीति के बाद से ब्राह्मणों को बीजेपी के समर्थक के तौर पर देखा जाता है जो बड़े पैमाने पर बीजेपी को वोट देते देते रहे हैं।

यूपी में बीजेपी और ब्राह्मण

उत्तर प्रदेश में भले ही ब्राह्मण सिर्फ 10 से 13 फीसदी वोट तक सिमटा हो, लेकिन ब्राह्मणों का प्रभाव समाज में इससे कहीं अधिक है। ब्राह्मण समाज राजनीतिक हवा बनाने में सक्षम है। 1990 से पहले तक सत्ता की कमान ज्यादातर ब्राह्मण समुदाय के हाथों रही है। कांग्रेस के राज में ज्यादातर मुख्यमंत्री ब्राह्मण समुदाय के बने, लेकिन बीजेपी के उदय के साथ ही ब्राह्मण समुदाय का कांग्रेस से मोहभंग हुआ। यूपी में जिस भी पार्टी ने पिछले तीन दशक में ब्राह्मण कार्ड खेला, उसे सियासी तौर पर बड़ा फायदा हुआ है।

यूपी में पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ब्राह्मण ही थे। एनडी तिवारी, जो 1989 में कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री थे, वे भी ब्राह्मण थे। 'मंडल और कमंडल' की राजनीति से पहले ब्राह्मण यूपी में कांग्रेस के प्रति वफादार थे, लेकिन राम जन्मभूमि आंदोलन से कांग्रेस कमजोर होती गई और बीजेपी का ग्राफ मजबूत होता गया। हालांकि, बीच में जरूर ये थोड़ा-बहुत बदलाव देखने को मिला लेकिन ज्यादा तस्वीर नहीं बदली।

बीते कुछ समय से उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण समाज के बीजेपी से नाराज होने की चर्चा से इस समाज के वोट बैंक पर बीएसपी और एसपी की नजर है। वैसे तो बीजेपी ब्राह्मण ब्राह्मण समाज की नाराजगी दूर करने के लिए तमाम जतन कर रही है, लेकिन 2017 की तरह उसे ब्राह्मणों का साथ मिलता नहीं दिख रहा है। ऐसे में मायावती ब्राह्मण समाज में अपनी पैठ बनाने के लिए सम्मेलनों के साथ ही उनके लिए तमाम वादे करती दिख रही हैं।

मालूम हो कि 2012 में सत्ता गंवाने के बाद से अब तक हुए विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बीएसपी का राजनीतिक जनाधार खिसकता ही रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में तो पार्टी शून्य पर सिमट गई थी। बीजेपी के बढ़ते सियासी प्रभाव से दलितों का एक तबका खासकर गैर-जाटव बीएसपी से खिसककर दूसरी पार्टी में चला गया है। ये बीएसपी की घटती ताकत का ही नतीजा रहा कि पिछले लोकसभा चुनाव में मायावती ने अपनी धुर विरोधी समाजवादी पार्टी तक से गठबंधन करने में गुरेज नहीं किया। सपा से गठबंधन से बसपा को दस लोकसभा सीटें तो मिल गईं, लेकिन पार्टी की स्थिति सुधरती नहीं दिखी। ऐसे में मायावती ने एक बार फिर गठबंधन तोड़ अकेले ही विधानसभा चुनाव में उतरने का फैसला किया।

अब यूपी विधानसभा चुनाव में महज कुछ महीने ही बचे हैं, ऐसे में मायावती अपने समीकरण को दुरुस्त करने में जुटी हैं और एक बार फिर से ब्राह्मण और दलित समीकरण के जरिए सत्ता हासिल करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती हैं।

इसे भी पढ़ें: सियासत: हर दल में अयोध्या जाने की होड़

Uttar pradesh
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Dalit-Bramins Politics
UP elections
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