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क्या शहरीकरण की चुनौतियों का हल गांव की छांव है?
गंदगी, अतिक्रमण, ट्रैफिक जाम, जलभराव, प्रदूषण, झुग्गी बस्तियों और अनियंत्रित निर्माण से जूझते भारतीय शहरों की ओर हो रहे पलायन को ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार देकर थामा जा सकता है।
अमित सिंह
24 Aug 2020
rural

केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने हाल ही में कहा कि उम्मीद के मुताबिक भारत की 40 प्रतिशत आबादी 2030 तक शहरी क्षेत्रों में रहेगी और हमें इसके लिए छह से आठ सौ मिलियन वर्ग मीटर का अर्बन स्पेस बनाना होगा।

पिछले हफ्ते मंगलवार को भारतीय उद्योग परिसंघ के वेबिनार आत्मनिर्भर भारत पर पुरी ने कहा "हमारी आबादी का 40 प्रतिशत या 600 मिलियन भारतीयों के 2030 तक हमारे अर्बन सेंटर्स में रहने की उम्मीद है। भारत में हर साल 2030 तक 600 से 800 मिलियन वर्ग मीटर शहरी क्षेत्र का निर्माण करना है।"

पुरी ने कहा, '100 स्मार्ट सिटी में 1,66,000 करोड़ रुपये की लगभग 4,700 परियोजनाएं शुरू की गई हैं, जो प्रस्तावित कुल परियोजनाओं का लगभग 81 प्रतिशत है।' उन्होंने यह भी कहा कि मिशन के तहत 27,000 करोड़ से अधिक की 1,638 परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं।

उन्होंने कहा कि भारत 2019 में 111.2 मिलियन टन उत्पादन के साथ दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक है और 2030 तक इस्पात मंत्रालय की 300 मिलियन टन क्षमता की दृष्टि, शहरी अवसंरचना विकास द्वारा उत्पन्न मांग से दृढ़ता से पूरक होगी।

शहरों में अधिक आबादी रहने का मतलब है कि उनका आधारभूत ढांचा संवारने का काम युद्ध स्तर पर किया जाए ताकि वे बढ़ी हुई आबादी का बोझ सहने में समर्थ रहें और साथ ही रहने लायक भी बने रहें। लेकिन हकीकत इससे बहुत अलग है।

हमारे जिन भी नीति नियंताओं और विभागों पर भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर शहरी ढांचे का निर्माण करने की जिम्मेदारी होती है वे शहरों के नियोजन के नाम पर कामचलाऊ ढंग से काम करते हैं।

इसके चलते नया बना ढांचा कुछ ही समय बाद अपर्याप्त साबित होने लगता है। साथ ही नया शहरीकरण अनियोजित और मनमाना होता है जहां पर सिर्फ कंक्रीट के जंगल होते हैं तो पुराने इलाके में पूरा ढांचा ही जर्जर और गंदगी से भरा होता है।

इसका नतीजा यह होता है कि हमारे देश में शहरों की परिभाषा गंदगी, अतिक्रमण, ट्रैफिक जाम, जलभराव, प्रदूषण, झुग्गी बस्तियों, अनियंत्रित निर्माण और कूड़े के पहाड़ के बगैर पूरी ही नहीं होती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने पहले ही कार्यकाल में स्मार्ट सिटी की अवधारणा लेकर आए थे। लेकिन यह योजना भी भ्रष्टाचार, पैसे की तंगी और हीलाहवाली की भेंट चढ़ गई। यह योजना केंद्र सरकार और राज्यों के बीच टकराव का कारण भी बन गई।

इसके अलावा भी पिछले कई दशकों से सरकारें शहरी विकास की तमाम योजनाएं लेकर आई हैं। इन योजनाओं को खासा धन मुहैया कराया गया, लेकिन शायद ही कोई योजना ढंग से परवान चढ़ पाई हो।

इसके साथ ही एक समस्या यह भी सिर्फ फ्लाईओवर, मेट्रो आदि का निर्माण करके हमारे नीति नियंता शहरीकरण के नाम पर अपनी पीठ थपथपा लेते हैं लेकिन क्या इससे शहरों में रहने लायक स्थिति बन जाती है।

दूसरी तरफ एक बात और भी बहुत साफ है। असली भारत गांवों में ही बसता है जिसमें देश की करीब 70 फीसद आबादी रहती है। हरदीप पुरी के बयान को माने तब भी अगले दस सालों बाद भी 60 फीसद आबादी गांवों में रहेगी। इसके अलावा एक आंकड़े के अनुसार शहरीकरण की चमक बढ़ाने के तमाम प्रयासों के बावजूद वर्ष तक 2050 देश की ग्रामीण क्षेत्र की आबादी 50 फीसद के स्तर पर बनी रहेगी।

ऐसे में जब कोरोना जैसे अभूतपूर्व संकट के दौरान बेतरतीब जीवनशैली से भरे शहर अचानक डराने लगे तब हमारे गांवों ने तेजी से रिवर्स माइग्रेट कर रहे लोगों को पनाह दी। इसलिए यह आवश्यक है कि ऐसी योजनाएं बनाई जाएं जिससे गांवों में शहरों जैसी सुविधाएं उपलब्ध हो सकें ताकि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों को होने वाले पलायन की रफ्तार कुछ थम सके।

दरअसल वास्तविकता यह है कि हमने वह काम नहीं किया जो हम आसानी से कर सकते थे। इसके बजाय आजादी के बाद से लेकर अब तक हमने गांवों को नकारा है। उन्हें बेहतर बनाने के बजाए हमने वहां से पलायन करवाया है।

हमारे नीति नियंता शहरीकरण के नाम पर हजारों करोड़ रुपया खर्च करने के लिए तैयार है लेकिन गांवों में मूलभूत सुविधाओं के नाम पर भी पैसा निकालने के उन्हें तकलीफ होने लगती है।

सरकार की नीतियां कुछ यूं थी कि शहरों पर लगातार रहम किया गया और गांवों पर सितम जारी रहा। खेती को घाटे का सौदा बता दिया गया और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को निराश करने वाली व्यवस्था में बदल दिया गया। खेती को मुनाफे का सौदा बनाने और गांवों की अर्थव्यवस्था में निवेश करने के बजाय पूरा ध्यान गांवों की जनसंख्या को शहरों में खींच लेने पर रहा।

हकीकत यह है जिन गांवों में बड़ी आबादी रहती है वहां आज भी पेयजल की सप्लाई नहीं है। आज भी ज्यादातर गांवों में अगर किसी की तबीयत ज्यादा खराब हो जाए तो जान बचानी मुश्किल हो जाती है। इलाज के लिए शहर जाना पड़ता है।

प्रति व्यक्ति बिजली की खपत देखी जाए तो गांव काफी पीछे हैं लेकिन इसके बावजूद बिजली कटौती की सबसे ज्यादा मार ग्रामीण इलाकों पर ही पड़ती है। इसी तरह एक तिहाई आबादी को जगह देने वाले शहर दो-तिहाई कूड़ा फैला रहे हैं।

गांवों में शिक्षा का ढांचा आज भी जर्जर है। बीते सात दशकों में रोजगार सृजन को लेकर गांवों की अनदेखी की गई है। गांवों की परिवहन समस्याओं के प्रति भी हमारे नीति नियंता उदासीन रहे हैं।

फिलहाल आज के एक दशक पहले जब पूरी दुनिया आर्थिक मंदी के चपेट में थी तब भारत की अर्थव्यवस्था के कुछ स्थिर और संभले रहने के पीछे की वजह यहां की मजबूत ग्रामीण अर्थव्यवस्था थी। एक दशक बाद जब फिर हालात उससे बुरे हैं तो ये गांव ही संकट मोचक की भूमिका में नजर आ रहे हैं। इस दौरान जब सारे सेक्टर डूब रहे हैं तो कृषि उत्पादन में उम्मीद से अधिक पैदा हुआ है।

हमें अभी जरूरत अपने गांवों पर और ध्यान देने की है। शहरीकरण की रफ्तार पर लगाम लगाने के लिए गांवों में निवेश की जरूरत है। हमें यह समझने की जरूरत है कि शहरीकरण की चुनौतियों का हल गांव की छांव में है।

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