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उत्तराखंड चुनाव: पहाड़ के अस्तित्व से जुड़े सवालों का नेपथ्य में चले जाना
प्राकृतिक और मानव-निर्मित दोनों ही तरह की आपदाओं से जूझते इस राज्य का पहाड़ी क्षेत्र वर्तमान में जिस तरह के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय संकटों से गुजर रहा है उसमें उसके भविष्य के लिए बहुत ही ख़तरनाक संकेत स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं।
कृष्ण सिंह
06 Feb 2022
uttarakhand

उत्तराखंड में सत्ता वर्ग की पार्टियां और उनसे जुड़े नेता बार-बार जिस तरह का राजनीतिक इतिहास बीते दो दशकों से दोहरा रहे हैं, लगता है जैसे वह अब कभी खत्म नहीं होने वाली लगभग एक आपदा में बदलता जा रहा है। प्राकृतिक और मानव-निर्मित (इसका हिस्सा लगातार बढ़ रहा है), दोनों ही तरह की आपदाओं से जूझते इस राज्य का पहाड़ी क्षेत्र वर्तमान में जिस तरह के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय संकटों से गुजर रहा है उसमें उसके भविष्य के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। विकास का जो आर्थिक मॉडल यहां की सरकारों ने अब तक लोगों पर थोपा है और उससे जिस तरह का असंतुलित और अनियोजित विकास पैदा हो रहा है उसे पहाड़ी क्षेत्रों से बड़े पैमाने पर मजबूरी में होने वाले लगातार पलायन से समझा जा सकता है। जिस किसी को भी जरा-सा भी अवसर मिल रहा है वह मैदानी इलाकों की तरफ भाग रहा है। आखिर इसे रोकने की कोशिश क्यों नहीं की जा रही है? हालांकि इस संबंध में वादे तो बड़े-बड़े किए गए, लेकिन तस्वीर बदलने का नाम नहीं ले रही है। उत्तराखंड में इस बार के विधानसभा चुनाव के मंजर को अब जरा देखिए!

नेताओं की सत्तालोलुपता  

नेताओं की सत्तालोलुपता और दल-बदल की चरम राजनीति तथा वर्चस्व की लड़ाई इस बार के विधानसभा चुनाव में इस कदर हावी है कि पहाड़ों में कृषि संबंधी संकट का भयावह स्तर पर पहुंचना, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की बुरी स्थिति, रोजगार का गहरा संकट, पलायन का व्यापक स्वरूप, पहाड़ों में जमीनों की बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त, अवैध खनन से नदियों की तबाही, हिमालय की भौगोलिक, पर्यावरणीय तथा पारिस्थितिकीय स्थितियों को अनदेखा करते हुए बड़े-बड़े बांधों का निर्माण, उच्च हिमालयी क्षेत्रों में आपदाओं की बढ़ती घटनाएं, जलवायु परिवर्तन से पैदा हो रहे संकट-जैसे जन-सरोकार से जुड़े अहम मुद्दे एक तरह से नेपथ्य में चले गए हैं। तथ्य वास्तविक तस्वीर को समझने में मदद करते हैं। मुख्यमंत्रियों के बनने और हटने तथा सत्ता के लिए जोड़-तोड़ से जुड़े तथ्य उत्तराखंड की अब तक की राजनीतिक कहानी को स्पष्ट कर देते हैं। उत्तराखंड राज्य का गठन 9 नवंबर, 2000 को हुआ। और, इस राज्य की विधानसभा का पहला चुनाव सन 2002 में हुआ। इससे पहले जो अंतरिम सरकार (अंतरिम विधानसभा) थी उसमें राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे नित्यानंद स्वामी। उसके बाद भगत सिंह कोश्यारी मुख्यमंत्री बने। दोनों ही भाजपा से थे। सन 2002 के चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनी और नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बने। तिवारी उत्तराखंड के एकमात्र मुख्यमंत्री थे जिन्होंने पांच वर्ष का अपना कार्यकाल पूरा किया। सन 2007 के चुनाव में भाजपा जीती। अब जरा इस तथ्य पर गौर करिए। इस दूसरी विधानसभा में भाजपा ने पहले भुवन चंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बनाया। फिर उनके स्थान पर रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ को मुख्यमंत्री बनाया गया और फिर निशंक के स्थान पर पुनः खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बनाया गया। फिर तीसरी विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आई। कांग्रेस से पहले विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बने और फिर हरीश रावत। बाद में कांग्रेस के नौ विधायकों ने पाला बदलकर भाजपा का दामन थाम लिया। इसके बाद कुछ अंतराल के लिए राष्ट्रपति शासन से लेकर अदालतों तक का जो घटनाक्रम चला उससे सभी वाकिफ हैं। फैसला हरीश रावत सरकार के पक्ष में आया और हरीश रावत फिर से मुख्यमंत्री बने। 2017 में चौथी विधानसभा के चुनाव में भाजपा को जबरदस्त बहुमत मिला, लेकिन पांच सालों में भाजपा ने पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत, फिर तीरथ सिंह रावत और उसके बाद पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया। अब पांचवीं विधानसभा के लिए चुनाव होने जा रहे हैं। 

सन 2000 से लेकर वर्तमान में 14 फरवरी, 2022 को होने जा रहे विधानसभा चुनाव तक यानी तकरीबन साढ़े 21 वर्षों में उत्तराखंड की जनता ने 10 मुख्यमंत्रियों के चेहरे देखे हैं। क्या यह किसी विचारधारा, सिद्धांत और विकास को लेकर हुए मतभेदों-विमर्शों के कारण हुआ? जी नहीं, यह सब राजनीतिक दलों की भीतरी गुटबाजी, नेताओं के निजी हितों के चलते सत्ता के शीर्ष पर बैठने के लिए हुए संघर्ष का परिणाम था। 

सत्ताधारी राजनीतिक दलों का हाईकमान क्या चाहता है, यह स्पष्ट नहीं है। क्या वे उत्तराखंड का उसकी परिस्थितियों के हिसाब से बेहतरीन आर्थिक विकास चाहते हैं? अगर ऐसा होता तो आज उत्तराखंड की तस्वीर कुछ और होती। जनता ने कांग्रेस और भाजपा, दोनों को ही बराबर मौका दिया, लेकिन वह हर बार भावनात्मक मुद्दों के नाम पर ठगी गई है। 

संसाधनों का असमान वितरण और असंतुलित विकास

भौगोगिक स्तर पर उत्तराखंड हिमालय के अन्य राज्यों से कुछ भिन्न-सा है, खासकर अगर हम उसकी तुलना उसके पड़ोस के राज्य हिमाचल प्रदेश से करें तो। उत्तराखंड के पास पहाड़ी इलाकों के अलावा मैदानी इलाका भी है, जिसे तराई और भाभर कहते हैं। इस संदर्भ में इस मध्य हिमालयी राज्य के विकास के लिए विशेष प्रकार के विजन की आवश्यकता है। यानी पहाड़ी और मैदानी इलाकों के लिहाज से विकास की एक संतुलित और मुक्कमल योजना। लेकिन हो क्या रहा है कि पहाड़ी जिले लगातार आर्थिक विकास में पिछड़ते जा रहे हैं। 

विकास और संसाधनों के असंतुलन को उत्तराखंड सरकार के ही आधिकारिक आंकड़ों से समझा जा सकता है। इसको पहले सार्वजनिक वितरण प्रणाली के उदाहरण से समझते हैं। उत्तराखंड मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग, चंपावत, चमोली और टिहरी गढ़वाल-जैसे पहाड़ी जिलों की जनता की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) पर निर्भरता बहुत अधिक है। इन जिलों की 80 प्रतिशत आबादी इस सुविधा का इस्तेमाल महीने में एक से ज्यादा बार करती है। इनकी तुलना में देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंह नगर-जैसे मैदानी जिलों की आबादी की पीडीएस पर निर्भरता कम है। एक माह में एक से अधिक बार पीडीएस के इस्तेमाल का इनका आंकड़ा क्रमशः 66.1, 66.8 और 70.4 प्रतिशत है। 

यह आंकड़ा दर्शाता है कि पहाड़ी इलाकों में गरीबी मैदानों क्षेत्रों से कहीं अधिक है। इसके अलावा रिपोर्ट साफ तौर पर कहती है कि राज्य के सामने जो चुनौतियां हैं, वे हैं – असमानताओं की खाई का लगातार चौड़ा होना, रोजगार के अवसरों का सिकुड़ना, मजबूरी में होने वाला पलायन, अनियोजित शहरीकरण, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा के अवसरों तक अपर्याप्त पहुंच और साथ ही पर्यावरण की चुनौतियां। जाहिर है, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थितियां कितनी विकट हो चुकी हैं। वहीं, मानव विकास के सूचकांकों में पहाड़ी जिलों के मुकाबले देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर-जैसे तीन मैदानी जिले बेहतर स्थिति में हैं। यही नहीं, असमानता की यह खाई लगातार चौड़ी हो रही है। उत्तराखंड के 13 जिलों में अगर औद्योगिक गतिविधियों को तस्वीर देखें तो राज्य के अधिकांश उद्योग देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर में स्थित हैं और पहाड़ी जिले इससे वंचित हैं। पहाड़ी इलाकों में गरीबी आम है और उसका स्तर बहुत गंभीर है। वहीं, राज्य के शहरी इलाकों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की स्थिति और भी ज्यादा भयावह है। संसाधनों के असमान वितरण और असंतुलित विकास को प्रति व्यक्ति आय के संदर्भ से भी समझा जा सकता है। 

सांख्यिकी डायरी-2019-20 के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2017-18 में देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर में प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ें क्रमशः 2,15,064, 2,93,078 और 2,20,429 लाख रुपये थे। अगर हम पहाड़ी जिलों की ओर बढ़ें तो, उत्तरकाशी में यह 98,100 रुपये, टिहरी गढ़वाल में 93,444 रुपये, रुद्रप्रयाग में 88,987 रुपये, चमोली 1,27,450, चंपावत में 1,00,646 रुपये और बागेश्वर में 1,13,031 रुपये थी। यहां गौर करने वाली बात यह है कि जिन चार धामों (गंगोत्री, यमनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ) को उत्तराखंड के पर्यटन विकास का पर्याय माना गया है वे उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और चमोली जिलों में स्थित हैं। गौर करने वाली बात यह है कि इन तीनों जिलों में प्रति व्यक्ति आय देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर-जैसे मैदानी जिलों से काफी कम है। 

यह आंकड़ा उत्तराखंड के ‘विकास’ के मॉडल की तस्वीर साफ कर देता है। इसके अलावा यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पहाड़ी जिलों में रहने वाले अधिकांश परिवारों के एक या दो सदस्य राज्य के मैदानी इलाकों में या फिर राज्य से बाहर नौकरी करते हैं। अतः पहाड़ी जिलों में प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों में इनका बड़ा योगदान है। दरअसल, अगर सरकारी नौकरी में लोगों की एक छोटी-सी संख्या को छोड़ दिया जाए तो सरकार ने पहाड़ी इलाकों में राज्य के संसाधनों को उस तरह से विकसित नहीं किया है जो स्थानीय लोगों के लिए आय का स्थायी स्रोत बन सकें।

कृषि संकट और पलायन 

उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में अधिकांश लोगों की आय का एकमात्र जरिया कृषि है। राज्य में ज्यादातर सीमांत किसान हैं। एक हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों की संख्या 74.78 प्रतिशत है। जबकि 1 से 2 हेक्टेयर जोत वाले किसानों की संख्या 16.89 प्रतिशत है। राज्य में जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा वन भूमि (फॉरेस्ट लैंड) और ऊसर भूमि (वैस्टलैंड) है और भूमि का बहुत ही छोटा हिस्सा खेती-बाड़ी के लिए इस्तेमाल होता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, खेती योग्य भूमि करीब 14 प्रतिशत है। यहां इस बात को समझना जरूरी है कि इस 14 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि का एक अच्छा-खासा हिस्सा राज्य के तराई क्षेत्रों में पड़ता है। गैर-सरकारी संगठनों की रिपोर्टों के अनुसार, पर्वतीय क्षेत्र में कुल कृषि योग्य भूमि 4 प्रतिशत ही है। राज्य के पहाड़ी इलाकों में कृषि के परंपरागत तरीकों को बदलने के लिए राज्य सरकारों ने कोई बड़ी पहलकदमी की ही नहीं है। 

उत्तराखंड मानव विकास रिपोर्ट भी कहती है कि पहाड़ी इलाकों में खेती एक गैर-लाभकारी उद्यम बन गया है। इन इलाकों में कृषि की उत्पादकता बहुत कम है और इससे होने वाली आय भी कम है। लिहाजा पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि के परंपरागत पैटर्न को बदलने की सख्त आवश्यकता है। वहीं, पहाड़ी इलाकों में खेती वर्षा पर निर्भर है और भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर वहां सिंचाई की व्यवस्था उतनी आसान नहीं है जितनी मैदानी इलाकों में हो सकती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि भविष्य में जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन की वजह से संकट बढ़ेगा तो हिमालयी इलाकों में स्थितियां और भी विकट होंगी। इसका असर यह होगा कि बचे-खुचे जो लोग मजबूरी में कृषि कार्यों में लगे हैं उनके लिए स्थितियां और भी विकट हो जाएंगी। जैसा कि पहले जिक्र किया गया है कि पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि के लगातार अलाभकारी होते चले जाने ने पलायन की रफ्तार को तेज किया है। इस पलायन का बड़ा हिस्सा मजबूरी में किए गए पलायन की श्रेणी में आता है। पलायन करने वालों में करीब 47 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन्होंने रोजगार के अभाव में पलायन किया है। राज्य सरकार की एक रिपोर्ट स्वयं यह कहती है कि पलायन की गति ऐसी है कि कई ग्रामों की आबादी दो अंकों में रह गई है। देहरादून, उधम सिंह नगर, नैनीताल और हरिद्वार-जैसे जनपदों में जनसंख्या वृद्धि दर बढ़ी है, जबकि पौड़ी और अल्मोड़ा जिलों में यह नकारात्मक है। टिहरी, बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग और पिथौरागढ़ जनपदों में असामान्य रूप से जनसंख्या वृद्धि दर काफी कम है। उल्लेखनीय है कि पहाड़ी क्षेत्रों में ऐसे गांवों की संख्या में इजाफा हो रहा है जहां आबादी एकदम शून्य हो गई है। ऐसे गांवों के लिए एक शब्द काफी प्रचलित है – भूतिया गांव (घोस्ट विलेज)। 

मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, 2011 से 2017 के बीच उत्तराखंड पलायन आयोग ने पाया कि 734 गांवों से पूरी-की-पूरी आबादी ही पलायन कर चुकी है और 465 गांवों में 50 फीसदी से भी कम आबादी रह गई है। वहीं, गैर सरकारी आंकड़े करीब 3000 गांवों का जिक्र करते हैं जो पलायन से बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। 

यह मध्य हिमालयी राज्य आज तथाकथित विकास के नाम पर जिस तरह के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय संकटों से घिरा हुआ है, उसको इससे बाहर निकालने के लिए एक दूरदृष्टि वाले नेतृत्व की जरूरत है। ऐसा नेतृत्व जिसके पास पहाड़ी क्षेत्रों की सांस्कृतिक, भौगोलिक, पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय परिस्थितियों को संवेदनशीलता से समझने की दृष्टि हो। जिसके पास राज्य के मैदानी और पहाड़ी, दोनों के लिहाज से आर्थिक विकास का अलग-अलग वैकल्पिक मॉडल का विजन हो। जिसका शासन के केंद्रीयकरण पर नहीं बल्कि विकेंद्रीयकरण के म़ॉडल पर विश्वास हो, क्योंकि पहाड़ी क्षेत्रों का उनकी भौगोलिक स्थितियों के लिहाज से आर्थिक विकास शासन के केंद्रीयकरण से नहीं हो सकता है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)

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