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भारत
राजनीति
वैवाहिक बलात्कार और भारतीय कानून
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 17 जुलाई को सुनवाई के दौरान कहा कि विवाह का यह मतलब नहीं कि पत्नी हमेशा शारीरिक संम्बंधो के लिए तैयार होI
मुकुंद झा
19 Jul 2018
marital rape

दिल्ली उच्च न्यायालय ने 17 जुलाई को अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एडवा) और रीट फाउंडेशन की जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान कहा कि विवाह का मतलब यह नहीं है कि एक महिला हमेशा अपने पति के साथ शारीरिक संबंधों के लिए सहमति दे और बलात्कार जैसे अपराध करने के लिए किसी प्रकार के शारीरिक बल ज़रूरी नहीं है| 

दिल्ली उच्च न्यायालय में एडवा और रीट फाउंडेशन ने अलग–अलग  जनहित याचिका दायर की थीं| जिसमें उन महिलाओं के लिए लड़ाई की बात कही गई है जहाँ महिलाओं को शादी के बाद उनकी मर्ज़ी के बिना पुरुष सम्बन्ध बनाते हैं और महिला को इसका विरोध करने का कोई हक़ नहीं है| इसी मसले पर  न्यायालय सुनवाई कर रहा है|

वैवाहिक बलात्कार महिलाओं के लिए क्यों है अभिशाप

एडवा एक वामपंथी  महिला संगठन है जो लोकतंत्र, समानता और महिलाओं की मुक्ति के लिए समाज में कार्य करता है। इन्होंने अपनी याचिका में कहा है कि मौजूदा कानून विवाहित महिलाओं को अपने पति के खिलाफ़ बलात्कार जैसे अपराध के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने से वंचित करता हैI वैवाहिक बलात्कार अपराध संविधान के अनुच्छेद 14, 15(1) और 21 का उल्लंघन करता है।

वैवाहिक बलात्कार अपवाद संविधान के  अनुच्छेद 14 के खिलाफ़ है जिसमें कानून के सामने समानता का अधिकार दिया गया हैI यह अनुच्छेद 15(1) में लिंग के आधार पर भेदभाव न किये जाने के अधिकार का भी उल्लंघन करता हैI यह अपवाद संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन करता है जिसमें कहा गया है कि राज्य का दायित्व है कि वह एक उचित कानूनी तंत्र के माध्यम से नागरिकों (जिसमें विवाहित महिलाएँ भी शामिल हैं) के जीवन और शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य सुनिश्चित करेगा।

वैवाहिक बलात्कार अपवाद अधिनियम का इतिहास 

वैवाहिक बलात्कार अपवाद अधिनियम 1860 में भारतीय दंड संहिता के साथ ही लागू किया गया थाI यह प्राचीन ब्रिटिश नैतिकता की ही एक उपज है जिसके मुताबिक शादी के समय ही एक महिला अपने पति को वांछित यौन संभोग के लिए हमेशा के लिए सहमति दे देती है। 18वीं शताब्दी के ब्रिटिश न्यायवादी सर मैथ्यू हैले ने लिखा था कि "एक पत्नी ने खुद को अपने पति को इस तरह सौंप दिया है कि वह खुद को वापस नहीं ले सकती है।"

इंग्लैंड में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक विवाह के मुताबिक, कानून के तहत, एक  अविवाहित महिला को संपत्ति रखने का अधिकार था और अपने नाम पर अनुबंध कर सकती थी परन्तु  विवाह के माध्यम से एक महिला का अस्तित्व उसके पति में शामिल किया गया था, ताकि उसे अपने स्वयं के व्यक्तिगत अधिकार बहुत कम प्राप्त हों। उदाहरण के लिए एक विवाहित महिला संपत्ति की  मालिक नहीं हो सकती थी, कानूनी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर नहीं कर सकती थी या अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) का हिस्सा नहीं हो सकती थी, अपने पति की इच्छाओं के खिलाफ शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकती थी या खुद के लिए वेतन नहीं रख सकती थी। अगर पत्नी को काम करने की इजाज़त दी गई तो पति-आश्रय  के नियमों के तहत उसे अपने पति को अपनी मज़दूरी देनी पड़ती थी। यह स्थिति 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक जारी रही फिर विवाहित महिलाओं की संपत्ति और कार्य को लेकर कई  कानूनी क्षेत्राधिकारों में नियम बनने  लगे और सुधारों के लिए मंच स्थापित हुआI विवाहित महिलाओं के अधिकारों को उनके  पतियों से अलग किया गया  है।

एडवा का कहना है  कि यह अपवाद स्वतंत्रता आंदोलन के चरित्र से भी मेल नहीं खाता जहाँ महिलाओं ने महत्वपूर्ण सार्वजनिक भूमिका निभाईI साथ ही साथ संविधान के साथ भी धोखा है जो सभी के लिए समान सम्मान और चिंता के आधार पर बना है। एडवा के अनुसार संविधान वैवाहिक संघ को कोई ऐसी विशेष पवित्रता प्रदान देता कि किसी को  आपराधिक और दंड कानूनों के सामान्य संचालन से अलग रखा जा सकेI तो फिर यह विशेष छूट क्यों? 

याचिकाकर्ता ने माननीय न्यायालय से संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत महिलाओं के इस कमज़ोर वर्ग की रक्षा के लिए अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने के लिए कहा है। याचिकाकर्ता स्पष्ट करता है कि वह माननीय न्यायालय से राज्य को कानून बनाने या नए अपराध कानून बनाने के लिए नहीं कह रहा है बल्कि केवल मौजूदा दंड प्रावधान और इसके साथ-साथ कानूनी व्याख्यानों (इंटरपेटीशन) को अमान्य करने का अनुरोध कर रहे हैं जो संविधान के अनुच्छेद 14,15,19 और 21 की भावना का विरोध करता हैI

पिछले तीन दशकों में, पूरी दुनिया में वैवाहिक बलात्कार अपवाद उदार और संवैधानिक लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के साथ असंगत माना जा रहा हैI यह मानव गरिमा, शारीरिक सुरक्षा और व्यक्तिगत आत्मनिर्भरता के सिद्धांत के आधार पर किया जा रहा है। लिंग समानता और समान सम्मान 1993 में, मानव अधिकारों के संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त ने पाया कि वैवाहिक बलात्कार एक मानवाधिकार उल्लंघन है। यह संयुक्त राष्ट्र का निरंतर रुख रहा है।

ऑस्ट्रेलिया, आयरलैंड, बेल्जियम जैसे विभिन्न कानूनी परंपराओं के साथ , नीदरलैंड, कोलंबिया, चिली, नामीबिया, जिम्बाब्वे और दक्षिण अफ्रीका सभी देशो में वैवाहिक बलात्कार को बलात्कार की श्रेणी में रखा गया है|

एडवा के मुताबिक जब ये देश वैवाहिक बलात्कार को अपराधी बनाने पर विचार कर रहे थे तब वहाँ भी आपत्तियाँ उठाई गयीं कि इस तरह के कदम से परिवार का "टूट" सकता है। यहा हम कहना चाहते हैं कि समय बीतने से इस तरह के भय पूरी तरह से आधारहीन साबित हुए। वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण और परिवार के "टूटने" के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है|

रिट फाउंडेशन अपनी स्थापना के बाद से समाज के वंचित वर्गों के लिए सक्रिय कानूनी सहायता शिविर आयोजित करता है। रीट फाउंडेशन  की एक कार्यकर्ता ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा कि उन्होंने “अपनी याचिका में न्यायालय से यही माँग की है कि समाज की आधी आबादी के साथ आज भी शोषण होता है उसे उसका विरोध करने का भी अधिकार नहीं है| शादी के नाम पर कई बार उनकी इच्छा के विपरीत जाकर जबरन यौन सम्बंध बनाने के लिए मज़बूर किया जाता है| यह एक प्रकार का हिंसा है परन्तु इसे पुरुष अपना समाजिक अधिकार मानते हैं और महिला को अपनी संपति समझ कर व्यवहार करते हैं| यही हमारे समाज की हक़ीकत है इसी को रोकने और उस महिला के अधिकार के लिए हम एक क़ानूनी सुरक्षा की माँग को लेकर न्यायलय में आए हैं|  इस प्रकार के कानून दुनिया के कई अन्य देशो में बने हैं अब समय है कि भारत भी अपनी आधी आबादी से न्याय करे|”

अफ़सोस है कि आज भी ऐसे लोग व संस्थाएँ मौजूद हैं जो विवाहित महिलाओं के इस अधिकार के खिलाफ़ खड़े हैंI कोलकाता स्थित एनजीओ हृदय ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध बनाने की याचिका का विरोध किया था और कहा था कि जब कोई व्यक्ति विवाह संस्था में प्रवेश करता है तो शारीरिक संबंधों की सहमति हर समय होती है।

एक महिला कार्यकर्ता ने कहा की न्यायलय की सुनवाई से उम्मीद जगी है कि जल्द ही विवाहित महिलाओं को भी एक स्वतंत्र और सुरिक्षित जीवन ज़ीने का अधिकार मिल सकेगा|

कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल और सी हरि शंकर की एक पीठ ने कहा कि वैवाहिक संबंध में पुरुष और महिला दोनों को शारीरिक संबंधों बनाने के लिए मना करने का अधिकार है। इस मामले की सुनवाई की अगली तारीख 8 अगस्त हैI  

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