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कोविड वैक्सीन लाने की लड़ाई : जो पहले वैक्सीन लाएगा, उसे मिलेगा बाज़ार का बड़ा हिस्सा
अगर भारत स्वास्थ्य कर्मियों और अपने लोगों के साथ वैक्सीन पर खुला विमर्श नहीं करता, तो हमारे व्यापक टीकाकरण की योजना असफल हो जाएगी।
प्रबीर पुरकायस्थ
11 Dec 2020
कोरोना वायरस
Image Courtesy: Financial Times

अब तक 6 वैक्सीन अपनी कार्यकुशलता संबंधी आंकड़े जारी कर चुकी हैं या कुछ हफ़्तों में उनके आंकड़े जारी होने वाले हैं। नियंत्रकों द्वारा जिन वैक्सीनों को शुरुआत में हरी झंडी दी जाएगी, उन्हें बाज़ार में बहुत फायदा होगा। इसलिए फाइज़र-बॉयोएनटेक और मॉडर्ना वैक्सीन को अमेरिका और ब्रिटेन में अनुमति दिए जाने पर मीडिया का इतना ज़्यादा ध्यान केंद्रित है। भारत में तीन वैक्सीन निर्माताओं, फाइजर-बॉयोएनटेक, ऑक्सफोर्ट-एस्ट्राजेनेका के लिए सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बॉयोटेक ने आपात उपयोग की अनुमति लेने के लिए आवेदन लगाया है।

एक सार्वजनिक मुद्दे की नज़र से देखें, तो यह बात बहुत अहमियत नहीं रखती कि किसे सबसे पहले अनुमति मिलती है। किसी देश की वैक्सीन रणनीति, वैक्सीन की कार्यकुशलता, कीमत और आपूर्ति श्रंखला (सप्लाई चेन) के आधार पर तय होनी चाहिए। लेकिन पूंजीवाद के दौर में सार्वजनिक स्वास्थ्य को नज़रंदाज कर दिया गया है। कंपनियों में सबसे पहले अनुमतियां लेने की होड़ लगी हुई है, ताकि उन्हें बाज़ार का बड़ा हिस्सा हासिल हो सके। यह बाज़ार ना केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र द्वारा उपलब्ध कराया गया है, बल्कि निजी खरीददार भी इसमें अहम भूमिका निभाएंगे। क्योंकि लोग ज़्यादा पैसा खर्च कर टीका लगवाना चाहेंगे। वे राज्य द्वारा वैक्सीन उपलब्ध कराए जाने का इंतजार नहीं करेंगे। इसलिए कंपनियां अपने नतीज़ों में जल्दबाजी दिखा रही हैं और आपात उपयोग की अनुमति लेने की हड़बड़ी में हैं। ताकि आने वाले वक़्त में स्टॉक मार्केट में उनके शेयरों की कीमत आसमान छू सके।

भारत में फाइजर-बॉयोएनटेक द्वारा आपात उपयोग का आवेदन लगाए जाने के बाद, पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ने "भारत में हुई ट्रॉयल के फेज़-1 और 2 के आंकड़ों" और "विदेशों में हुई फेज़-3 ट्रॉयल के आंकड़ों" के आधार पर आपात उपयोग की अनुमति के लिए आवेदन किया है। दिलचस्प है कि एस्ट्राजेनेका-ऑक्सफोर्ड, जिसकी वैक्सीन का उपयोग सीरम इंस्टीट्यूट अपनी ट्रॉयल में कर रहा है, उसने ब्रिटेन के नियंत्रक MHPRA के पास अब तक ऐसा कोई आवेदन नहीं दिया है।

आश्चर्य की बात यह भी है कि ICMR-पुणे इंस्टीट्यूट ऑफ वॉयरोलॉजी की वैक्सीन बनाने वाले भारत बॉयोटेक ने भी आपात उपयोग की अनुमति के लिए आवेदन किया है। यह आवेदन फेज़-1 और फेज़-2 के ट्रॉयल आंकड़ों पर आधारित है, जिसमें फेज़-3 ट्रॉयल के कोई मजबूत नतीज़े शामिल नहीं किए गए हैं। USFDA और MHPRA जैसे नियंत्रकों से उलट, भारतीय नियंत्रक DGCI ने अब तक यह जानकारी साझा नहीं की है कि किसी वैक्सीन के आपात उपयोग के लिए किस तरह की कार्यकुशलता और आंकड़ों की जरूरत होगी। DGCI को रिपोर्ट करने वाली सब्जेक्ट एक्सपर्ट कमेटी (SEC) ने वैक्सीन निर्माताओं से ज़्यादा आंकड़ों की मांग की है।

मौजूदा महामारी के दौर में वैक्सीन की जरूरत के चलते, हर आपात आवेदन के मामले में नियंत्रक पैमानों में फेरदबल की कोशिश हुई। भले ही इस दौर में हमें तेजी से वैक्सीन की जरूरत है, लेकिन सुरक्षा और कार्यकुशलता पर निश्चित हुए बिना इन्हें अनुमति नहीं दी जा सकती। एक असफल वैक्सीन विज्ञान विरोधी और वैक्सीन विरोधी समूहों को बढ़ावा देगी। मौजूदा नियामक दिशा-निर्देशों के हिसाब से (जैसा SEC ने भी कहा) भारत बॉयोटेक द्वारा आपात अनुमति के लिए दिए आवेदन में फेज़-3 के आंकड़ों को शामिल ना किया जाना, इस तरह की वैक्सीन के सार्वजनिक उपयोग में भयंकर रिक्ति है।

बॉयोएनटेक-फाइजर, मॉडर्ना और गेमेल्या की ट्रॉयल-3 के प्राथमिक नतीज़े अब उपलब्ध हैं। जिनमें से 90 फ़ीसदी से ज़्यादा कार्यकुशलता पाई गई है। यह बहुत शानदार नतीज़े हैं, हालांकि यह नतीज़े बहुत कम, कुछ हजारों या उससे भी कम आंकड़ों से हासिल किए गए हैं। दो चीनी वैक्सीन, साइनोफॉर्म और साइनोवैक फेज़-3 ट्रॉयल के अंतिम दौर में हैं, जल्दी ही वे अपने आंकड़े जारी कर सकते हैं। यूएई के अधिकारियों ने कहा है कि उनके देश में साइनोफॉर्म वैक्सीन ने 86 फ़ीसदी की कार्यकुशलता दिखाई है। चीनी कंपनियां फेज-3 की ट्रॉयल देशों की ज़्यादा बड़ी संख्या में कर रही हैं, उनके द्वारा जल्द ही अपनी कार्यकुशलता के आंकड़ों के सार्वजनिक किए जाने की संभावना है। 

यह दोनों चीनी वैक्सीन भारत के लिए अहम हैं, क्योंकि दोनों ही वैक्सीन पुरानी "निष्क्रिय वायरस तकनीक" पर आधारित हैं। भारत बॉयोटेक इसी का इस्तेमाल कर रहा है। इसका मतलब यह नहीं है कि भारत बॉयोटेक की वैक्सीन निश्चित तौर पर सफल हो जाएगी। लेकिन यह इस बात का प्रमाण है कि निष्क्रिय वायरस तकनीक कम से कम कोविड-19 के सफल वैक्सीन की तरफ ले जा सकती है। इस तकनीक पर कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि इसे हम पिछले 100 से भी ज़्यादा सालों से इस्तेमाल कर रहे हैं।

ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका वैक्सीन, जिस पर सीरम इंस्टीट्यूट ने बड़ा दांव लगाया है, उसने फेज़-3 ट्रॉयल में 62 फ़ीसदी की कार्यकुशलता के ठीक-ठाक आंकड़े दिखाए हैं। लेकिन इसी प्रयोग में एक दूसरे अभ्यास में, जिसमें गलती से कुल डोज़ की पहली खुराक में कम मात्रा में वैक्सीन दी गई थी, उसमें 90 फ़ीसदी की कार्यकुशलता पाई गई है। लेकिन इसके साथ समस्या यह है कि दूसरे अभ्यास के नतीज़े बहुत कम आंकड़ों पर आधारित हैं। इस अभ्यास को ज़्यादा बड़े आधार पर किए बिना अनुमति नहीं दी जाएगी। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका अब भी ब्रिटेन में आपात उपयोग के लिए आवेदन करने से कुछ हफ़्तों दूर है।

दुनिया के बड़े हिस्से के लिए फाइज़र-बॉयोएनटेक और मॉडर्ना की वैक्सीन अच्छा विकल्प नहीं हैं। क्योंकि इनके स्टोरेज के लिए -70-80 डिग्री की बेहद कम तापमान की जरूरत होती है। यहां तक कि विकसित देशों के लिए भी इस तरह की कोल्ड-चेन वाली वैक्सीन के साथ, तेजी से बड़े पैमाने पर टीकाकरण समस्या साबित होगा। बाकी 4 वैक्सीन को 2-8 डिग्री सेल्सियस की कोल्ड चेन की जरूरत होती है, जिसका वहन ज़्यादातर देश कर सकते हैं।

फाइजर-बॉयोएनटेक द्वारा यूएस फेडरल ड्रग अथॉरिटी में जमा किए गए आंकड़ों के बाद हमारे पास फाइजर-बॉयोएनटेक वैक्सीन पर और ज़्यादा आंकड़े उपलब्ध हैं। भले ही आंकड़ों की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है, लेकिन इसके नतीज़े बहुत ज़्यादा सकारात्मक हैं। हालांकि हम यह नहीं जानते कि रोग प्रतिरोधक क्षमता कब तक बरकरार रहेगी। वैक्सीन ने उन लोगों को भी सुरक्षित करने का काम किया है, जो बीमारी के गंभीर स्तर पर जा रहे थे। पहले डोज़ के बाद ही उन्हें कुछ सुरक्षा हासिल हो गई। अगर मॉडर्ना की प्रेस रिलीज में किए गए दावे सही साबित होते हैं, तो इनके नतीज़े भी कुछ ऐसी ही हो सकते हैं। इसका दूसरा पहलू यह है कि वैक्सीन से कुछ प्रतिकूल प्रतक्रियाएं भी हुई हैं, लेकिन यह कुछ ऐसी नहीं हैं, जिन्हें बहुत गंभीरता से लिया जाए। जब पहले बैच के कुछ लोगों में एलर्जी पाई गई, तो ब्रिटेन के नियामक प्रशासन ने कहा कि जिन लोगों में एलर्जिक रिएक्शन्स का इतिहास रहा है, उन्हें फाइज़र-बॉयोएनटेक वैक्सीन का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। 

बाज़ार पर कब्ज़ा कमाने की जल्दबाजी चीन या रूस की वैक्सीन प्रगति के जवाब में है। बाज़ार पर कब्ज़ा जमाने की यह जल्दबाजी ही पूंजीवाद की मूल अवधारणा है। ज़्यादातर पश्चिमी मीडिया एजेंसी, चीन के वैक्सीन पर प्रतिक्रिया देते हुए ब्राजील में क्लीनिकल ट्रॉयल के दौरान जान गंवाने वाले शख़्स का जिक्र करती हैं। लेकिन यह मीडिया एजेंसियां यह नहीं बतातीं कि संबंधित शख़्स ने ड्रग के अतिरेक इस्तेमाल की वज़ह से जान गंवाई, जिसका वैक्सीन ट्रॉयल से कोई लेना-देना नहीं है। अमेरिका और यूरोपियन फार्मा कंपनियों की वैक्सीन ट्रॉयल में इस तरह के संभावित प्रतिकूल घटनाओं की रिपोर्टिंग बहुत कम हुई है या उन्हें कमतर दर्शाया गया है। जैसा आमतौर पर बड़े स्तर के वैक्सीन ट्रॉयल में होता ही है, इस तरह की घटनाएं कोविड-19 वैक्सीन के ट्रॉयल में भी बड़े स्तर पर हुई हैं। रूस और चीन के खिलाफ़ शीत युद्ध में अब वैक्सीन युद्ध को भी शामिल कर लिया गया है। 

वैश्विक मीडिया में चर्चा है, जो भारत में भी लगातार दोहराई जाती है कि भारत में 2021 तक 1.6 अरब डोज़ उपलब्ध हो जाएँगी। यह दुनिया में वैक्सीन की बुकिंग की एक सबसे बड़ी मात्रा है। यह बात सीरम इंस्टीट्यूट-एस्ट्राजेनेका वैक्सीन की 50 करोड़ वैक्सीन डोज़, गेमेल्या द्वारा 10 करोड़ वैक्सीन डोज़ के साथ सीरम-इंस्टीट्यूट-नोवावैक्स के साझा उपक्रम के आधार पर कही जा रही है। नोवावैक्स वैक्सीन को अब भी अपने फेज़-3 ट्रॉयल के शुरू होने का इंतज़ार है। फिलहाल इस वैक्सीन के सफल होने की संभावना पर एक अरब डोज़ का भरोसा करना बहुत जल्दबाजी होगी।

भारत के लिए हमारे पास सीरम-इंस्टीट्यूट-एस्ट्राजेनेका-ऑक्सफोर्ड वैक्सीन है, बशर्ते यह नियामक बाधाओं को पूरा कर ले। इसकी कार्यकुशलता 60 फ़ीसदी है। इसके अलावा हमारे लिए गेमेल्या वैक्सीन भी है, लेकिन अब भी इस वैक्सीन ने भारत में अनुमति के  लिए आवेदन नहीं किया है। ऐसा लगता है कि सीरम इंस्टीट्यूट भारतीय प्रशासन के साथ कम दरों पर वैक्सीन कार्यक्रम उपलब्ध कराने के लिए बातचीत कर रहा है, सीरम इंस्टीट्यूट अपने उत्पादन का एक हिस्सा खुले बाज़ार में बेचने के लिए भी आरक्षित कर रहा है। प्रेस रिपोर्ट से पता चलता है कि हेटेरो बॉयोफॉर्मा ने भी गेमेल्या के साथ भारत में वैक्सीन बनाने के लिए करार किया है। हेटेरो बॉयोफॉर्मा भारतीय जैविक निर्माता है। यह उन 100 मिलयन डोज के अतिरिक्त है, जो डॉ रेड्डी लैब भारतीय बाज़ारों के लिए उपलब्ध करवा रही है। तो हां, यह जरूर है कि भारत के पास वैक्सीन तक बेहतर पहुंच है, लेकिन यह मीडिया के 1.6 अरब डोज़ के दावे बराबर नहीं हैं।

जैसा हमने पहले भी लिखा, अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, जापान, केनेडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे अमीर देशों ने दुनिया में वैक्सीन की आपूर्ति के आधे हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया है। चूंकि भारत में जेनरिक वैक्सीन निर्माताओं की स्थिति बेहतर है, इसलिए हम इन अमीर देशों के बाद बेहतर स्थिति में हैं। यह उस लंबी लड़ाई का नतीज़ा है, जो भारत ने वैश्विक बहुराष्ट्रीय कंपनियों, बौद्धिक संपदा अधिकार व्यवस्था और WTO के खिलाफ़ लड़ी है। ताकि हमारी आत्मनिर्भर फॉर्मास्यूटिकल क्षेत्र खड़ा हो सके। इसी आधार पर आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा जेनरिक ड्रग और वैक्सीन निर्माता है। इसलिए भारत के पास अपने लोगों को वैक्सीन उपलब्ध कराने का मौका है, बशर्ते भारत लोगों तक वैक्सीन की पहुंच का निदान कर ले।

भारतीय स्वास्थ्य प्रशासन द्वारा अब भी वैक्सीन पहुंच या बड़े स्तर पर वैक्सीन कार्यक्रम पर कोई दस्तावेज़ निकाला जाना बाकी है। आज हमें इस पर खुले विमर्श की जरूरत है, जिसमें बड़े सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठन शामिल हों, जिसमें यह विमर्श किया जाए भारत में लोगों को वैक्सीन लगाना किस तरह प्रस्तावित है। पारदर्शिता और स्वास्थ्य पेशेवरों के साथ-साथ लोगों की सहभागिता के बिना अगर कोई बड़ा वैक्सीन कार्यक्रम चलाया जाता है, तो वह असफल लॉकडाउन की तरह ही कहानी दोहराएगा। लोगों और स्वास्थ्य कर्मियों को महामारी के खिलाफ़ लड़ाई में साझेदार बनाना होगा। उनसे निष्क्रिय प्राप्तकर्ताओं की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए ना ही उन्हें एक दुश्मन की तरह मानना चाहिए, जिसे दबाया जाना जरूरी है। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Vaccine Rollout Battle: First Past the Post May Win Major Market Share

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