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विदेशी साव्रन बॉण्ड देश के लिए बड़ा जोख़िम?
Foreign sovereign bond के जरिये सरकार अपने राजकोषीय खर्चों को पूरा करने के लिए अब विदेशियों से कर्ज़ लेने जा रही है।
अजय कुमार
30 Jul 2019
Foreign sovereign bond 
Image Courtesy : Business Standard

आंकड़ों के साथ लीपापोती करके चाहे जो मर्जी सो बताने की कोशिश की जाए लेकिन एक बात तो साफ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था खस्ताहाली की दौर से गुजर रही है। अर्थव्यवस्था के साथ विकास की गति बढ़ाने के लिए प्राइवेट इन्वेस्टमेंट की कमी है। आसान शब्दों में कहा जाए तो न ही लोग बाजार से ज्यादा खरीदारी कर हैं ताकि बाजार को पैसा मिले और न ही लोग बचत कर रहे हैं ताकि बैंकों में पैसा जमा हो। इसका परिणाम यह है कि अर्थव्यवस्था की गति रुक सी गयी है, उसे चलाने के लिए उसके पास पैसे की कमी होती जा रही है। 

 
अर्थव्यवस्था के थोड़ा सा जान फूंकने के लिए 2019-20 के बजट भाषण के दौरान वित्त मंत्री ने विदेशी संप्रभु बॉण्ड यानी ऋणपत्र (Foreign sovereign bond) का जिक्र किया। इस बॉण्ड के जरिये सरकार अपने राजकोषीय खर्चों को पूरा करने के लिए अब विदेशियों से कर्ज़ लेने जा रही है। अब इस कर्जे की राशि कितनी होगी, इसपर कोई पुख्ता जानकारी नहीं है लेकिन वित्त मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि यह 10 बिलियन डॉलर के आसपास होगी। सरकार और आरबीआई का कहना है की सितम्बर तक इसे विदेशों में जारी कर दिया जाएगा। 

ऐसा नहीं है कि बॉण्ड जारी करके पहले कर्ज़ नहीं लिया जाता था। पहले स्थानीय मुद्रा में बॉण्ड जारी करके घरेलू बाजार से कर्जा लिया जाता था। लेकिन फॉरेन साव्रन बॉण्ड के साथ चिंता वाली बात यह बताई जा रही है कि यह बॉण्ड फॉरेन करेन्सी में इशू किया जाएगा। यानी विदेश मुद्रा में कर्ज़ लिया जाएगा, ब्याज की दरें विदेशी मुद्रा के हिसाब से तय की जाएगी और मूलधन सहित ब्याज का भुगतान भी विदेशी मुद्रा में जाएगा। 

इस पर अब तक कई जानकर अपनी राय रख चुके हैं, तकरीबन सभी जानकरों ने इस बॉण्ड पर चिंता जाहिर की है। रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने तो यहाँ तक कहा कि उनके समय में भी यह प्रस्ताव आया था, जिसे उन्होंने मानने से इंकार कर दिया था। उनकी भी चिंता फोरेंन करेंसी में बॉण्ड को जारी करने से जुड़ी थी। 

 
सॉवरेन बॉण्ड जानने से पहले हम यह जान लेते हैं कि आखिरकार बॉण्ड क्या होता है?

बॉण्ड एक तरह का कर्ज़ लेने का डॉक्यूमेंट है। इस पर कुछ राशि लिखी होती है। जैसे कि 100 रुपये का बॉण्ड। सामन्यतः इसमें निवेश करने वाला व्यक्ति इसे कम रुपये में खरीदता है। जैसे कि मान लीजिये 70 रुपये। इस बॉण्ड पर ही लिखा रहता है कि कितने समय बाद कितने फीसदी ब्याज की दर से इस पर लिखे 100 रुपये खरीदने वाले को मिल जाएंगे। ऐसे में अगर आने वाले दिनों में रुपये का मूल्य गिरता है तो बॉण्ड खरीदने वाले को नुकसान होगा और आने वाले दिनों में रुपये का मूल्य बढ़ता है तो बॉण्ड खरीदने वाले को फायदा होगा।  

लेकिन सॉवेरेन बॉण्ड केवल सरकार जारी करती है। इसे भुगतान करने की जिम्मेदारी भी सरकार की होती है। अगर रुपये में बॉण्ड जारी किया जाता है तो नुकसान होने की स्थिति में सरकार अधिक नोट छापकर भरपाई कर सकती है लेकिन फॉरेन करेंसी में बॉण्ड जारी करने का मतलब कि पूरी तरह से सरकार द्वारा रिस्क उठाना। उसके पास ऐसा तरीका तो है नहीं कि वह डॉलर छाप सके। डॉलर में भुगतान करने के लिए उसके पास डॉलर होना चाहिए। और अगर डॉलर नहीं है तो बॉण्ड की मेच्यूरिटी डेट पर उसे अपने रुपये के बदले डॉलर का प्रबंध करना पड़ेगा। ऐसे में सरकार कम दर पर निर्यात करने की कोशिश करेगी ताकि उसके पास डॉलर आये और वह भुगतान कर सके। जिसका अंतिम भार देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। रुपये के मूल्य में गिरावट आएगी और देश की अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी।  


अब यहां समझने वाली बात है कि अमेरिकी डॉलर यानी फॉरेन करेंसी में बॉण्ड क्यों जारी किया जा रहा है? इसका सीधा जवाब है कि रुपये की इतनी साख नहीं है कि वह अपने दम पर निवेशकों को आकर्षित कर पाए। इसे सामान्य जीवन के उदाहरण से समझिये कि आदतन उसे ही कर्ज़ देना पसंद किया जाता है, जिससे आस रहती है कि पैसा डूबेगा नहीं, भले ही ब्याज की दर कम क्यों न हो? विदेशों से पैसा मिलना इस बात पर निर्भर करता है कि देश की अर्थव्यवस्था की साख कैसी है? दुनिया में अमुक देश में प्रचलित मुद्रा की पूछ कितनी है? अंदर और बाहर के कारकों से देश प्रभवित कैसे होता है? देश की मुद्रा की विदेशी मुद्रा से विनिमय दर कैसी रहती है? इस तरह के कारकों पर निर्भर करता है कि विदेशों से पैसा मिलेगा या नहीं। जैसे सीरिया जैसे देशों में इन्वेस्ट करना कोई नहीं चाहेगा लेकिन अमेरिकी डॉलर में इन्वेस्ट करने की चाह सबकी होगी। साथ में यह भी होगा कि जिन देशों को पैसे की बहुत ज़रूरत होगी और जिन्हें लगेगा कि उनके बॉण्ड लोग अधिक खरीदें वह देश अधिक ब्याज देने की शर्त रखकर बॉण्ड बेचेंगे। 


साल 1970 में भी मैक्सिको और ब्राजील जैसे देशों ने भी फॉरेन बॉण्ड जारी किये। उन्हें बहुत ज्यादा पैसा भी मिला। लेकिन आगे चलकर इन देशों की अर्थव्यवस्था की मुद्राओं के मूल्य में गिरवाट आ गयी। यानी जिस अमेरिकी डॉलर की वापसी के लिए उन्हें कम पैसे का खर्च करना पड़ता वही भुगतान के समय बहुत अधिक अधिक हो गयी। भारत के संदर्भ में इसे ऐसे समझा जा सकता है कि 300 रुपये के बदले अगर 10 डॉलर मिल जाता है और कुछ सालों के बाद 10 डॉलर का भुगतान करना है। लेकिन रुपये में गिरावट आ जाती है तो 10 डॉलर के 900 रुपये खर्च करने पड़ते हैं तो फॉरेन बॉण्ड से बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। अधिकांश अर्थशास्त्रियों की फॉरेन बॉण्ड को लेकर यही चिंता है। इसकी आलोचना भाजपा की सहयोगी स्वेदेशी जागरण मंच ने भी की है। 

एक सम्भावना और बनती है कि बॉण्ड के जरिये बहुत अधिक विदेशी मुद्रा हासिल हो जाएगी। सरकारी कोष में विदेशी मुद्रा की बढ़ोतरी हो जायेगी। रुपये का मूल्य मजबूत होगा। यानी कम रुपये में अधिक डॉलर मिल जायेगा। ऐसी स्थिति में देश में निर्यात बढ़ने के बजाय आयात की स्थिति बढ़ेगी। देश की अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन मिलने की बजाय विदेशी अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन मिलेगा। 

पूर्व वित्त सचिव अशोक कुमार झा कहते हैं कि अभी हाल-फिलहाल इस बजट के तहत राजकोषीय घाटा 7.1 लाख करोड़ है। इसमें से10 बिलियन डॉलर यानी तकरीबन 70 हजार करोड़ रुपये सॉवरेन बॉण्ड के जरिये हासिल करने की बात की जा रही है। यह राशि राजकोषीय घाटे में बहुत कम है। अभी यह तय नहीं है कि किस ब्याज दर पर बॉण्ड जारी किये जायेंगे। इस समय अमेरिका की तरफ से अमेरिकी डॉलर पर तकरीबन 2 फीसदी ब्याज के दर पर कर्ज़ लिया जाता है। भारत की अर्थव्यवस्था की साख इतनी मजबूत नहीं है फिर भी भारत की तरफ से तकरीबन साढ़े 3 फीसदी या 4 फीसदी के दर पर बॉण्ड जारी करने की आशा है। यानी कम ब्याज दर पर कर्ज़ मिल सकता है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में मंदी का दौर भी बना हुआ है। पैसा डॉलर के मुकाबले गिरता है तो स्थिति  खराब भी हो सकती है। 


जानकरों का कहना है कि अगर कम ब्याज दर पर बाहर से पैसा मिलता है तो घरेलू निवेशकों पर गाज गिरेगी। सरकारें यह चाहेंगी कि उन्हें बाहर से ही पैसा मिले। ऐसे में घरेलू निवेशक हतोत्साहित होंगे। देश में निर्यात की अर्थव्यवस्था का चलन होने की बजाय आयात  की अर्थव्यवस्था का चलन बढ़ेगा। साथ में अगर रुपये के मूल्य में गिरावट हुई तो स्थिति और बदतर हो जाएगी। 

अशोक कुमार झा  कहते हैं कि राजकोषीय घाटे की परेशानी अर्थव्यवस्था के संरचनागत ख़मियों की वजह से है, जिसमें प्राइवेट इन्वेस्टमेंट नहीं बढ़ रहा है। सस्ते दर पर बाहर पैसा उगाही कर लेना बहुत अच्छा हल नहीं है। इससे अर्थव्यस्था की संरचनागत खामियों में सुधार नहीं होगा बल्कि यह आगे चलकर यह बद से बदतर भी हो सकती है।  


आर्थिक मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार परन्जॉय गुहा ठाकुरता तो कहते हैं कि यह एक तरह का नशा है। जैसे जब नशे की आदत पड़ जाती है तो वह छूटती  नहीं है। कम ब्याज दर पर बाहर से पैसा मिलेगा। इसकी चाह बढ़ेगी। अंदर की अर्थव्यवस्था में सुधार नहीं होगा, अचानक से जब दुनिया की अर्थव्यवस्था में मंदी आएगी, रुपये का मूल्य गिरेगा तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान देश को सहना पड़ेगा।

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