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राजनीति
आख़िर किसानों की राजनीति में बुराई क्या है?
ऐसी राजनीति चाहिए जिसमें खेती और गांव को नए संदर्भ में परिभाषित किया जाए और उसके सामुदायिक और पर्यावरणीय पहलू को बचाते हुए उसे आर्थिक रूप से व्यावहारिक बनाया जाए और शोषण और दमन से छुटकारा दिलाया जाए।
अरुण कुमार त्रिपाठी
23 Sep 2020
आख़िर किसानों की राजनीति में बुराई क्या है?
फोटो साभार : सोशल मीडिया

तथाकथित राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर बैठे उछल-कूद करने वाले एंकर अक्सर अपनी बात यहीं से शुरू करते हैं कि कृषि सुधारों पर राजनीति हो रही है। इससे लगता है कि वे राजनीति से बाहर हैं। या राजनीति कोई बुरी और प्रतिबंधित क्रिया है जिसे लोकतांत्रिक देश में नहीं होना चाहिए। इससे यह भी लगता है बॉलीवुड की अभिनेत्री कंगना राणावत को राजनीति करने की इजाजत है। रिपब्लिक टीवी के अर्णव गोस्वामी को राजनीति करने की इजाजत है। भाजपा और उसके नेताओं को तो है ही। लेकिन न तो कांग्रेस के नेताओं को राजनीति की इजाजत है और न ही अन्य विपक्षी दलों को राजनीति की इजाजत है। विशेषकर वामपंथियों को तो कतई नहीं है। राजनीति करने की इजाजत न तो किसानों को है और न ही मजदूरों और युवाओं को। यानी जो कुछ हो रहा है उसकी हाथ जोड़कर स्तुति वंदना करनी चाहिए और `जाहि विधि राखे राम वाही विधि रहिए’ वाले मंत्र का जाप करना चाहिए।

जब उदारीकरण शुरू हुआ तो यह सिद्धांत दिया जाता था कि अर्थव्यवस्था इतनी महत्वपूर्ण है कि उसे नेताओं के हवाले नहीं छोड़ा जाना चाहिए। उसे या तो बाजार के हवाले कर देना चाहिए या फिर अर्थशास्त्रियों के हवाले। आज भी कथित कृषि सुधारों के हिमायती यही कह रहे हैं कि इसे विपक्षी दलों के हवाले नहीं छोड़ा जाना चाहिए। वे लोग अफवाह फैला रहे हैं। झूठ बोल रहे हैं गलत सूचनाएं फैला रहे हैं। जबकि कृषक उपज और व्यापार के साथ आए कृषक सशक्तीकरण कीमत सेवा विधेयक पर जिस तरह राजनीति विभाजित है उससे कहीं ज्यादा किसान और अर्थशास्त्री विभाजित हैं। निरंतर बुद्धि और विचार विरोधी होते जा रहे हमारे मीडिया की दिक्कत यह है कि वह राजनीति शब्द को गाली की तरह से इस्तेमाल करने लगा है। निश्चित तौर इस कर्म का अवमूल्यन हुआ है और जो लोग इसे प्रतिष्ठा देने की बात कर रहे हैं वे इसका सबसे ज्यादा अवमूल्यन कर रहे हैं।

इन्हीं स्थितियों से ऊब कर ही चौहत्तर के आंदोलन में जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि जो लोग लोकतंत्र की रक्षा की बात कर रहे हैं और क्रांति की बात कर रहे हैं उन्हें राजनीति नहीं `जननीति’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए। लेकिन आजकल जननीति कहने पर वामपंथी बताकर खारिज कर दिया जाएगा।

मौजूदा सरकार का कृषि सुधार कितना क्रांतिकारी और कितना किसान हितैषी है इसकी हकीकत तो संघ परिवार से जुड़े संगठन भारतीय किसान संघ ने यह कह कर उजागर कर दी है, `` यह कमियां जो धरातल पर काम करते हैं उन्हीं को समझ में आती हैं। उस दृष्टि से हम अभी भी कह रहे हैं कि कमियों को दूर करना चाहिए। अगर नया कानून लाना पड़े तो नया कानून लाया जाए। यह कानून ऐसे लोगों द्वारा बनाया गया है जिन्हें व्यावहारिक जानकारियां नहीं हैं।’’ यानी किसानों के बढ़ते विरोध को देखते हुए संघ परिवार के किसान संगठन के मन में भी संदेह उत्पन्न हुआ है।

लेकिन उनके मन में कोई संदेह नहीं है जो देश में किसानों की संख्या को निरंतर कम करते रहना चाहते हैं और छोटे किसानों को खत्म करके कारपोरेट खेती लाना चाहते हैं। अशोक गुलाटी जैसे अर्थशास्त्री भले यह कहें कि इससे मंडी परिषद का एकाधिकार टूटेगा और न्यूनतम समर्थन मूल्य से मुकाबले किसानों को अधिकतम समर्थन मूल्य मिलेगा। लेकिन वे इसका कोई खाका बता नहीं पाते। लेकिन वे जब यह कहते हैं कि इंडियन एअर लाइंस के एकाधिकार तो जिस तरह तोड़ा गया उसी तरह से मंडी परिषदों के एकाधिकार को तोड़ा जाएगा तो उनका रोडमैप जाहिर हो जाता है कि आखिरी उद्देश्य एमएसपी को खत्म करके मंडी परिषदों को भंग करना है। जैसा कि बिहार चौदह साल पहले हो चुका है और वहां के किसानों को उसका कोई फायदा हुआ नहीं बल्कि वहां के किसान चोरी छुपे पंजाब की मंडियों में अनाज बेचने जाते हैं।

महामारी के काल में किसानों को लुभाते हुए उन पर मीठी छुरी चलाने की इस कोशिश को उन लोगों के हवाले से देखना चाहिए जो इसका समर्थन कर रहे हैं। यह जानना जरूरी है कि उन समर्थकों की विचारधारा क्या रही है और वे देश की खेती को क्या रंग रूप देना चाहते रहे हैं। उनमें से एक है महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन है। इस संगठन के अनिल घानावत का कहना है कि इससे किसानों को वित्तीय स्वायत्तता मिली है और वे अपना अनाज बाहर भी बेच सकते हैं। शेतकारी संगठन वही है जिसे विश्व बैंक से आए एक अधिकारी शरद जोशी ने बहुत चर्चित किया था और प्याज और गन्ने के ऊंचे दाम को लेकर शुरू हुए उनके आंदोलन ने पूरे देश में किसान आंदोलन की लहर पैदा कर दी थी।

उन्हीं शरद जोशी से जब इस स्तंभकार ने एक इंटरव्यू में पूछा था कि इस देश में किसानों का क्या भविष्य है तो उन्होंने कहा था कि आखिरकार छोटे और मझोले किसानों को तो मरना और खत्म होना ही है। यही वजह थी कि शरद जोशी के शेतकारी संगठन और चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के भारतीय किसान यूनियन के बीच बनी नहीं। दिल्ली में बोटक्लब पर एक साथ आंदोलन के दौरान मंच पर ही झगड़ा हो गया और मारपीट की नौबत आ गई। वजह साफ थी कि टिकैत को शरद जोशी की उदारीकरण की नीतियां पसंद नहीं थीं। अस्सी के दशक के आरंभ में कही गई उनकी यह बात आज ज्यादा साफ तरीके से चरितार्थ होती दिख रही है। अगर कांग्रेस के कार्यकाल में शुरू हुए उदारीकरण ने तीन से चार लाख किसानों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया तो पिछले छह सालों में एनडीए सरकार की किसान नीतियों के कारण वह संख्या निरतंर बढ़ ही रही है और इन विधेयकों से वह घटेगी नहीं।

असल में किसानों की दिक्कत यह है कि उनकी राजनीति हर कोई कर रहा है बस वे ही अपनी राजनीति नहीं कर पा रहे हैं। राजनीतिक पार्टियां किसानों को बांटती हैं, पटाती हैं और जब वे आंदोलन करते हैं तो उन्हें कुचल देती हैं। अर्थशास्त्री उनके लिए तमाम आंकड़े इकट्ठा करते हैं लेकिन उनकी जमीनी सच्चाई समझने की कोशिश नहीं करते। अफसर अपनी नीतियां तैयार करने के लिए किसानों के बीच जाने की बजाय अमेरिका और यूरोप के दौरे करते हैं। मीडिया किसानों पर लंबी बहसें कराता है लेकिन उसमें किसी किसान को बिठाने की कोशिश नहीं करता। उसके संवाददाता किसानों को इस तरह से पेश करते हैं जैसे वे कुछ जानते ही नहीं सब कुछ संवाददाता ही जानता है।

खेती के बारे में विश्व व्यापार संगठन का एजेंडा साफ है कि दुनिया की चार अरब किसानों की आबादी को किसी तरह से घटाकर एक अरब तक लाना होगा। हालांकि उसके पास उन तीन अरब किसानों के लिए शहर में रोजगार का कोई इंतजाम नहीं है। विशेष कर भारत जैसे देश में लॉकडाउन के समय जिस तरह से बड़ी संख्या में शहर के मजदूर भागकर गांव गए हैं और अर्थव्यवस्था के सभी सेक्टरों में गिरावट के बावजूद खेती में वृद्धि होती रही उससे लगता है कि खेती के बारे में कॉरपोरेट योजना से अलग हटकर सोचना होगा। ``खेती की जमीन धीरे धीरे किसान के हाथ से बड़ी कंपनियों के हाथ में जाएगी। बड़ी जमीन का मालिक छोटा किसान बनेगा, छोटा किसान मजदूर बनेगा और मजदूर भूखा मरेगा।’’ `मोदी राज में किसान’ नामक पुस्तिका में यह अवलोकन करते हुए स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव कहते हैं, `` मोदीराज इस मायने में अनूठा है कि यह देश की पहली केंद्र सरकार है जो तीन अर्थों में किसान विरोधी है। यह व्यवस्थागत रूप से किसान विरोधी है, अपनी सोच में किसान विरोधी है और इसकी मंशा किसान विरोध की है। यह व्यावहारिक, मानसिक और भावनात्मक तीनों स्तरों पर किसान विरोधी है।’’

किसानी संकट पर अपने विलक्षण काम के लिए मशहूर पत्रकार पल्लागुमी साईनाथ कहते हैं कि देश की संसद को चाहिए कि वह चुने हुए प्रतिनिधियों के बीच बात करवाने की बजाय कभी किसानों को बुलाकर उनकी बातें सुने। वे देश के पत्रकारों से आह्वान करते हैं कि वे किसानों के बीच जाकर उनकी मौलिक सोच और आर्थिक विपत्तियों का आकलन करें। आज भी देश के तमाम किसान परिवारों की सालाना आय 20,000 रुपये से ज्यादा नहीं है।

वे बताते हैं कि किस तरह सरकार ने जब एक किसान को भैंस दे दी तो उसने साईनाथ से कहा कि आप पत्रकार हो और यह भैंस ले लो। जब उन्होंने कहा कि वे भैंस क्या करेंगे तो किसान ने कहा कि ले जाकर सरकार को दे देना और कहना कि यह तो उतना खाती है जितना मेरा पूरा परिवार खाता है। यह बात उनकी प्रसिद्ध पुस्तक `तीसरी फसल’(Everyone loves a good drought) में मौजूद है, जिसका शीर्षक एक किसान ने ही दिया था।

किसान आंदोलन बहुत उत्साहित भी करता है और बहुत निराश भी करता है। दीवाली के राकेट की तरह जोर से ऊपर उठता है और फिर नीचे गिर जाता है। कभी सहजानंद सरस्वती, बाबा रामचंद्र दास, चौधरी चरण सिंह, महेंद्र सिंह टिकैत फिर नंजुंदास्वामी, निमाड़ में मेधा पाटकर और कभी सिंगुर नंदीग्राम में ममता बनर्जी वगैरह के बहाने अपने को चर्चा में तो लाता है लेकिन ज्यादा देर टिक नहीं पाता। इसलिए उसके अर्थशास्त्रीय पक्ष के साथ राजनीतिक पक्ष पर भी विचार होना चाहिए। इस बारे में समाजवादी नेता किशन पटनायक ने `किसान आंदोलन दशा और दिशा’ नामक रोचक पुस्तिका लिखी है। यह पुस्तिका समय समय पर लिखे गए उनके लेखों का संकलन है लेकिन उसमें कई दूरदर्शी सुझाव और सवाल उठाए गए हैं। किसान राजनीति के सूत्र समझाते हुए वे कहते हैं कि राजनीतिक संदर्भ में किसी भी समूह को अपनी अस्मिता का अहसास होना चाहिए। पिछड़ी जातियों में जातिगत चेतना का एहसास तो रहता है लेकिन किसान चेतना का एहसास कम रहता है। दूसरा सूत्र यह है कि समूह अपने हित को समझे और राजनीतिक विचार के तौर पर उसको पेश करे। कुछ समूह अपनी अस्मिता को तो समझते हैं लेकिन राजनीति विचार के तौर पर उसे पेश नहीं कर पाते।

किसान इन दोनों बिंदुओं पर चूक जाता है। किसानों के दीर्घकालिक हित राजनीति में परिभाषित नहीं होते। जबकि किसान इतना बड़ा समूह है कि अगर वह चाहे तो देश की व्यवस्था बदल दे। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं , `` अब पूंजीवाद का एक गैर मार्क्सवादी विकल्प चाहिए। मार्क्सवाद बहुत ज्यादा उत्पादन प्रणाली से जुड़ा हुआ है और गांधीवाद बहुत ज्यादा चरखा के साथ जुड़ा हुआ है। इसलिए गैर मार्क्सवादी और गैर गांधीवादी समाजवाद को परिभाषित करना होगा। किसान राजनीति के माध्यम से यह नया समाजवाद परिभाषित हो सकेगा।’’

इसलिए बाबा साधु, धर्मगुरुओं और पूंजीपतियों से अलग किसानों के मुद्दे पर राजनीति होनी चाहिए। जमकर होनी चाहिए लेकिन उसी के साथ कोई सैद्धांतिक राजनीति निकलनी चाहिए। कोई रणनीति भी निकलनी चाहिए। यह राजनीति जाति और धर्म के विभाजन को घटाएगी। ऐसी राजनीति चाहिए जिसमें खेती और गांव को नए संदर्भ में परिभाषित किया जाए और उसके सामुदायिक और पर्यावरणीय पहलू को बचाते हुए उसे आर्थिक रूप से व्यावहारिक बनाया जाए और शोषण और दमन से छुटकारा दिलाया जाए। इस बारे में डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा की बात की ओर ध्यान देना होगा। वे कहते थे कि किसानी का मोल कुशल कारीगरी से कम नहीं होना चाहिए। यह मांग तेजी से उठनी चाहिए कि किसान परिवार की न्यूनतम आय सुरक्षित की जाए और उसे राजनीति ही उठा सकती है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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