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हाथरस की दलित बेटी को क्या न्याय मिल सकेगा?
हाथरस की पीड़िता और उसके परिवार को न्याय मिलेगा या नहीं, इस सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर है कि इस मामले से बीजेपी की आगामी राजनीतिक संभवानाओं पर कितना असर पड़ सकता है।
मुकुल सरल
01 Oct 2020
hathras case
हाथरस पीड़िता की चिता। जो आज भी हमारे सामने कई धधकते सवाल खड़े कर रही है। फोटो साभार : News18Hindi

हाथरस की दलित बेटी को क्या न्याय मिलेगा? इस सवाल का जवाब अगर तलाशना है तो पहले इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि क्या इस मामले से बीजेपी का वोट या आगामी चुनावी संभवनाएं प्रभावित हो सकती हैं! फिलहाल जवाब है नहीं।

अगर ऐसा होता तो राज्य की ओर से अभी तक इस कदर बेइंसाफ़ी न होती। यानी आगे इंसाफ़ की उम्मीद क्या करें जब अभी इस क़दर नाइंसाफ़ी हो रही है। कि एक परिवार को अपनी बेटी के अंतिम दर्शन तक नसीब न हों। पिता या भाई को अंतिम संस्कार तक का अवसर न मिले।

और अगर ये मामला और तूल पकड़ता है, जन-दबाव बनता है और इसकी आंच बिहार चुनाव या उत्तर प्रदेश-मध्यप्रदेश में होने वाले उपचुनाव तक तनिक भी पहुंचने की संभावना होती है तो यक़ीन जानिए इन चारों आरोपियों का अंजाम भी विकास दुबे और हैदराबाद एनकाउंटर जैसा हो सकता है।

उत्तर प्रदेश के विकास दुबे ने तो ख़ैर पुलिस वालों की ही मारा था, इसलिए सीधे पुलिस की साख, उसके इक़बाल की लड़ाई बन गई थी। फिर भी इस तरह की कई दावें हैं कि विकास दुबे को भी आख़िर तक बचाने की पूरी कोशिश हुई थी। बीजेपी शासित मध्यप्रदेश के उज्जैन में महाकाल के मंदिर में कैमरों के सामने शोर मचाकर कि “मैं हूं विकास दुबे कानपुर वाला” सरेंडर कराने की स्क्रिप्ट भी इसी लिए लिखी गई थी। लेकिन ख़ैर अंत में जो कुछ और जिस तरह हुआ वो सबने देखा। विकास दुबे मारा गया और सारे सवाल भी दफ़्न हो गए कि वो इतना कैसे बढ़ गया कि पुलिस पर सीधे हमला कर दे। कौन उसे इस बीच बचाने की कोशिश कर रहा था।

इसी तरह आपको याद है हैदराबाद एनकाउंटर। दिसंबर, 2019 की ही तो घटना है। वहां एक वेटनरी महिला डॉक्टर से रेप और हत्या के बाद आरोपियों को किस तरह एनकाउंटर में मार गिराया गया था। उस समय महिला डॉक्टर से हुई बर्बरता को लेकर भी इसी तरह का ग़म और गुस्सा था। तत्काल कार्रवाई का दबाव था। सवाल तेलंगाना के ‘लोकप्रिय’ मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की कानून व्यवस्था पर उठने लगे तो क्राइम सीन रिक्रिएशन के नाम पर जो हुआ वो सबने देखा। सभी आरोपियों को भागने के कथित प्रयास में गोली मार दी गई और केस ख़त्म। उस समय बहुत लोगों ने इसपर खुशी जाहिर की थी। कहा था कि ऐसे ही तुरंत इंसाफ़ होना चाहिए। शूट एट साइट (Shoot at site)। लेकिन ये बदला है इंसाफ़ नहीं। और इस बदले से कोई बदलाव नहीं होता। पीड़ित या पीड़ित परिवार तो इस तरह की कार्रवाई की मांग कर सकता है, इसमें कुछ भी अस्वभाविक नहीं, क्योंकि उसके विरुद्ध अपराध हुआ है, उसे ज़ख़्म मिले हैं, लेकिन एक संविधान से चलने वाली शासन व्यवस्था को इस तरह की सोच या रवैया नहीं अपनाना चाहिए। इससे साबित होता है कि हमें अपनी न्याय व्यवस्था में भरोसा नहीं। और अगर सरकार इस विश्वास को कायम करने की बजाय इसे और कमज़ोर करती है तो ये पूरी लोकतांत्रिक और न्याय की व्यवस्था के लिए ख़तरनाक है।

आपको मालूम होना चाहिए कि कोई भी अपराध किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ तो होता है लेकिन उससे ज़्यादा राज्य के ख़िलाफ़ होता है, तभी हमारी न्याय व्यवस्था में पीड़ित की ओर से केस राज्य लड़ता है। पीड़त को सरकारी वकील मुहैया कराया जाता है। आपने सुना होगा केस नंबर इतना स्टेट बनाम... । तो पीड़ित की ओर से जब राज्य को केस लड़ना है तो उसे अपना केस मजबूत बनाना चाहिए। न कि एनकाउंटर करके सारे सवालों को समाप्त कर देना चाहिए। इस तरह न्याय का शासन नहीं कहलाता, बल्कि जंगलराज कहलाता है।

तमाम इंसाफ़ पसंद और कानून के जानकार लोगों ने तब भी यही कहा था कि एनकाउंटर या फांसी इस समस्या का हल नहीं है। अगर होता तो ऐसी घटनाएं फिर नहीं होतीं। ये बात बार बार सच साबित होती है। लेकिन अब भी बहुत लोग इस तरह की वकालत करते हैं। इसका उल्टा ही परिणाम हो रहा है, वही जिसका डर था कि आरोपी पीड़िता को ज़िंदा ही नहीं छोड़ना चाहते। यह हाल फ़िलहाल की कई घटनाओं में सामने आया। यही हाथरस की घटना में हुआ। आरोपियों ने लड़की से जिस तरह की बर्बरता की, उनका मकसद साफ़ था कि लड़की बयान देने लायक भी न बचे। और बाद में उनका काम पुलिस प्रशासन ने आसान कर दिया।

अभी तक सरकार के रवैये से तो यही लगता है कि उसे इस मामले से अपना राजनीतिक नुकसान होने का फिलहाल डर नहीं। जैसा जाहिर है कि आरोपी दबंग और कथित उच्च जाति से हैं तो पहले उन्हें बचाने की पूरी कोशिश होगी। जैसे उन्नाव के बांगरमऊ से बीजेपी के पूर्व विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के मामले में हुआ। अब वहां भी उपचुनाव हैं। और बीजेपी को यहां भी सियासी नफ़ा-नुकसान देखना है।

हाथरस मामले अभी से विरोधाभासी बयान आने लगे हैं, जिससे आरोपियों को पूरा फ़ायदा होगा। न्यूरो सजर्न से लेकर पुलिस और प्रशानिक अधिकारियों के जैसे बयान आ रहे हैं उससे तो यही लगता है कि अदालत में इसे रेप तक साबित करना मुश्किल होगा। रही सही कसर पुलिस ने लड़की का तुरत फुरत दाह संस्कार करके पूरी कर दी। अब दोबारा पोस्टमार्टम की मांग भी पूरी नहीं हो सकती।

इसलिए अगर वाकई बलात्कार जैसे अपराध रोकने हैं, तो ऐसे मामलों में गंभीरता दिखानी होगी। एक राज्य के तौर पर भी और एक समाज के तौर पर भी।

वाकई बच्चियों और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करनी है तो शूट एट साइट या फांसी की मांग छोड़कर सरकार से ज़्यादा से ज़्यादा Conviction rate यानी अपराध साबित करके सज़ा दिलाने की मांग करनी होगी। अभी भी हमारे देश में बलात्कार के मामलों में सज़ा की दर महज़ 27.2% है। यही वजह है कि अपराध कम नहीं होते।

अभी 29 सितंबर, 2020 को जारी हुई नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 4,05,861 मामले दर्ज किए गए, इसमें 2018 की तुलना में 7.3% की वृद्धि हुई।  

रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में देशभर में रेप के 32,033 मामले दर्ज किए गए। यह 2018 के मुकाबले थोड़ा ही कम हैं। 2018 की रिपोर्ट के अनुसार देश में बलात्कार की कुल 33,356 घटनाएं हुईं थी। यानी 2019 में भी हर दिन औसतन 87 और हर घंटे कम से कम तीन बलात्कार की घटनाएं हुईं। यहां भी गौर करने वाली बात यह है कि बलात्कार की कुल घटनाओं में 11 फीसद पीड़ित दलित समुदाय से हैं।

रिपोर्ट के अनुसार 2019 में उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ सबसे ज्यादा 59,853 अपराध हुए जो पूरे देश में हुए ऐसे अपराधों का 14.7 फीसदी हैं। उत्तर प्रदेश के बाद राजस्थान (41,550) और महाराष्ट्र (37,144) में महिलाओं के खिलाफ सबसे अधिक अपराध हुए।

रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में केवल अनुसूचित जाति/जनजाति (एससी-एसटी) के ख़िलाफ़ अपराध के कुल 45,935 मामले दर्ज किए गए। इस तरह दलितों के प्रति अपराध में 2018 के मुकाबले 7.3% की वृद्धि दर्ज की गई। साल 2019 में दलित महिला के साथ बलात्कार के कुल 3,486 मामले दर्ज किए गए थे, जो कि दलितों के खिलाफ अपराध का 7.6 फीसदी है। राजस्थान में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार के सबसे ज्यादा 554 मामले दर्ज हुए, उसके बाद उत्तर प्रदेश में 537 और मध्य प्रदेश में 510 मामले दर्ज किए गए।

कई रिपोर्ट बताती हैं कि उत्तर प्रदेश में दलितों के खिलाफ अपराधों में वर्ष 2014 से 2018 तक 47 प्रतिशत की भारी बढ़ोतरी हुई है। इसके बाद गुजरात और हरियाणा हैं, जहां क्रमश: 26 और 15 फीसदी अपराध बढ़े हैं।

ये सब उन मामलों की रिपोर्ट है जो दर्ज हुए। ऐसे न जाने कितने मामले हैं जो कभी कहीं दर्ज ही नहीं हो पाए।

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एनसीआरबी की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018 में कुल 1,56,327 बलात्कार के मुकदमे चल रहे थे। इनमें से, कुल 17,313 मामलों में ट्रायल पूरा हुआ, जिसमें केवल 4,708 मामलों में दोषसिद्धि हुई। बलात्कार के 11,133 मामलों में आरोपी बरी हो गए और 1,472 मामलों में आरोपमुक्त हो गए। किसी मामले में आरोपमुक्त तब किया जाता है जब आरोप ही तय नहीं किए जाते। इस तरह 2018 में कुल 1,38,642 बलात्कार के मामले लंबित रहे।

हमारे देश में किसी भी मामले में कानूनों की कमी नहीं है। कमी है उनके क्रियान्वयन की, उन्हें लागू कराने की। बलात्कार के मामलों में भी ऐसा है। 2012 के निर्भया केस के बाद 2013 में बनी जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों के बाद तो इन्हें और सख़्त किया गया है। और हत्या को लेकर तो पहले से ही फांसी का प्रावधान है। निर्भया केस में भी रेप और हत्या हुई थी, उसी तरह हाथरस केस में भी रेप और हत्या का मामला बनता है। इसलिए इसमें अगर जुर्म साबित हुआ तो फांसी मिलना भी लगभग तय है। इसलिए मांग फांसी की बजाय इसपर फोकस करना चाहिए कि न्याय की प्रक्रिया जल्द से जल्द शुरू और पूरी हो। पुलिस ठीक ढंग से सुबूत इकट्ठा करे, ऐसा न हो कई साल केस चलने के बाद अदालत कहे कि सबूतों के अभाव में आरोपी बरी किए जाते हैं। इसके बहुत उदाहरण हमारे सामने हैं।

जल्द न्याय और महिला सुरक्षा की दिशा में आगे बढ़ने के लिए हमें देश में फास्ट ट्रैक अदालतों की संख्या बढ़ाने, और जजों की नियुक्ति की मांग करनी होगी।

और हाँ, इससे भी ज़्यादा ज़रूरी आरोपी को राजनीतिक संरक्षण देना बंद करना होगा। परिवार, जाति और धर्म के नाम पर उनका बचाव बंद करना होगा और अपनी पितृसत्तात्मक सोच को बदलना होगा, जो शासन-प्रशासन से लेकर समाज हर जगह व्याप्त है, जिसकी वजह से लोग हर बात में लड़की का ही दोष ढूंढने लगते हैं। तभी हम कुछ बदलाव की उम्मीद कर सकते हैं। वरना इसी तरह एक बलात्कार के बाद दूसरे बलात्कार और हत्या की ख़बरें आती रहेंगी और हम और आप ऐसे ही ग़म और गुस्सा जताते रहेंगे।

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