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भारत
राजनीति
भाजपा की तमिलनाडु के विभाजन की मांग के पीछे क्या वजह है?
तमिलनाडु के कई भाजपा नेताओं ने एक अलग ‘कोंगु नाडु’ की मांग का जोरदार समर्थन किया है।
ओंकार पुजारी
23 Aug 2021
भाजपा की तमिलनाडु के विभाजन की मांग के पीछे क्या वजह है?
चित्र साभार: तेलुगु न्यूज़ 

12 जुलाई को बीजेपी की कोयंबटूर ईकाई ने दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में एक प्रस्ताव पारित कर एक राजनीतिक तूफ़ान की शुरुआत कर दी है। उक्त ईकाई की कार्यकारी समिति की बैठक के दौरान राज्य के पश्चिमी जिलों से छांटकर ‘कोंगू नाडु’ राज्य बनाने के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया गया है। इसने केंद्र सरकार से पश्चिमी क्षेत्र के लोगों के “आत्म-सम्मान और आजीविका की रक्षा” और विकास को सुनिश्चित करने के लिए कोंगु नाडु के गठन के लिए राज्य को ‘पुनर्गठित’ किये जाने की अपील की है। 

प्रस्ताव पारित होने से कुछ दिन पहले, नव नियुक्त केंद्रीय मंत्रियों की सूची में लोगनाथन मुरुगन, जिन्हें मत्स्य पालन, पशुपालन एवं डेयरी राज्य मंत्री और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई थी, के मूल स्थान का उल्लेख ‘कोंगु नाडु’ के तौर पर किया गया था। जहाँ मुरुगुन ने तत्काल ‘कोंगु नाडु’ को एक लिपकीय त्रुटि बताते हुए ख़ारिज कर दिया था। किन्तु यह विवाद यहीं पर खत्म नहीं हुआ क्योंकि राज्य से कई भाजपा नेता लगातार अलग कोंगु नाडु के निर्माण को लेकर पार्टी के रुख के साथ-साथ विरोधाभासी बयानबाजी कर रहे हैं। 

आखिर अलग कोंगु नाडु क्यों?

तमिलनाडु के भीतर कोंगु नाडू कोई सुपरिभाषित भौगौलिक या प्रशासनिक ईकाई नहीं है, लेकिन राज्य के पश्चिमी भाग में स्थित कुछ जिलों को अनौपचारिक तौर पर या आम बोलचाल की भाषा में इस नाम से संदर्भित किया जाता है। इसमें कोयंबटूर, इरोड, करुर, सेलम, नमक्कल, निलगिरी और धर्मपुरी एवं डिंडीगुल जिलों के कुछ हिस्से शामिल हैं।

‘कोंगु नाडु’ का उल्लेख प्राचीन तमिल संगम साहित्य में भी मिलता है, जिसमें पांच विभिन्न क्षेत्रों का जिक्र किया गया है। ‘कोंगु’ शब्द का अर्थ है अमृत या शहद, और इस प्रकार ‘कोंगु नाडु’ का अनुवाद एक ऐसी धरती हुआ जो शहद या अमृत से परिपूर्ण हो। वैकल्पिक रूप से, ऐसा कहा जाता है कि कोंगु नाडु का नाम इस क्षेत्र के संख्यात्मक रूप से प्रभावी ओबीसी समुदाय कोंगु वेल्लाला गौन्दर्स से लिया गया है। रोचक तथ्य यह है कि ‘कोंगु नाडु’ के रूप में अलग राज्य के निर्माण की मांग को लेकर कभी भी कोई सशक्त आंदोलन नहीं हुआ है। कोंगु नाडु देसिय मक्कल कच्ची जैसे कुछ दोयम दर्जे के समूहों की ओर से अलग राज्य के निर्माण की मांग होती रही हैं, लेकिन इस प्रकार के कदमों से कुछ ख़ास नतीजा हासिल नहीं हुआ है। 

यह क्षेत्र तमिलनाडु के लिए एक औद्योगिक शक्ति केंद्र के रूप में स्थापित है, जिसमें सलेम, कोयंबटूर, तिरुपुर, नमक्कल जैसे औद्योगिक बहुल जिले मौजूद हैं, और ये रिपोर्टों के मुतबिक राज्य के तकरीबन 40-45% आय में योगदान देते हैं। काफी हद तक विकसित होने के बावजूद, जो लोग कोंगु नाडु के निर्माण के पक्ष में हैं इन लोगों का तर्क है कि इस क्षेत्र की लंबे समय से अनदेखी की गई है। कुछ इसी प्रकार की भावनाओं को प्रतिध्वनित करते हुए भाजपा के कोयंबटूर से विधायक, वनथी श्रीनिवासन को यह कहते हुए उद्धृत किया गया कि “हम राज्य के विभाजन के पक्ष में नहीं है, लेकिन इस क्षेत्र के लोगों के विकास और उनकी जरूरतों को ध्यान में रखा जाना भी महत्वपूर्ण है, जो कि कई वर्षों से लंबित है। राज्य इन मुद्दों को कैसे हल करने जा रहा है, इस बात पर यह निर्भर करता है कि हम कोंगु नाडु पर चर्चा को आगे बढ़ाते हैं या नहीं।’

क्या यह मांग द्रमुक के संघवाद पर बल दिए जाने के खिलाफ प्रतिशोध के तौर पर है?

कोंगु नाडु के लिए भाजपा की मांग को डीएमके के लिए एक काउंटर नैरेटिव के तौर पर देखा जा रहा है, जिसमें द्रमुक द्वारा ‘मथिया अरासु’ (केंद्र सरकार) के तौर पर कहने के बजाय ‘ओंद्रिया अरासु’ (संघ सरकार) शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है। ‘ओंद्रिया अरासु’ के प्रयोग ने भाजपा नेताओं को गुस्से से भर दिया है। जब भाजपा नेता और तिरुनेलवेली के विधायक, नयनार नागेन्द्रन ने प्रश्न किया कि क्या राज्य सरकार का इसके पीछे कोई उल्टा मंतव्य है या क्या वह जानबूझकर ‘ओंद्रिया अरासु’ शब्द का इस्तेमाल मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए कर रही है, तो इसपर मुख्यमंत्री स्टालिन ने संघीय सिद्धांतों के प्रति राज्य की वचनबद्धता को दोहराते हुए कहा था कि किसी को भी ‘ओंद्रिया’ शब्द से डरने की कोई वजह नहीं है, क्योंकि संविधान भारत को ‘राज्यों के एक संघ’ के रूप में व्याख्यायित करता है।

एक तमिल दैनिक दिनामलार द्वारा प्रकाशित एक खबर ने आग में और घी डालते हुए यह दावा किया है कि भाजपा के नेतृत्ववाली केंद्र सरकार, डीएमके सरकार द्वारा केंद्र सरकार को तमिल में “ओंद्रिया अरासु” के तौर पर उद्धृत करने के प्रतिउत्तर में “मुहंतोड़” जवाब देते हुए तमिलनाडु से कोंगु नाडु को अलग कर एक केंद्र शासित प्रदेश के रूप में बनाने की योजना बना रही है। 

जहाँ दिनामलार की रिपोर्ट को घाव पर नमक छिड़कने के समान लेने की जरूरत है, क्योंकि किसी को नहीं पता कि केंद्र सरकार इस प्रस्ताव को लेकर कितनी गंभीरता से काम कर रही है, किंतु इसने इस सिद्धांत को बल देने का काम किया है कि भाजपा ने कोंगु नाडु मुद्दे को द्रमुक के राज्यों के अधिकार और संघवाद पर आक्रामक रुख से निपटने के लिए तत्काल प्रतिशोध के रूप में उठाया है।

जब भाजपा के प्रदेश महासचिव कारू नागराजन से केंद्र के राज्य के विभाजन करने की केंद्र की योजना के बारे में पुछा गया तो उनका कहना था कि “यह अभी पहला चरण है।” उन्होंने आगे कहा “ऐसा अन्य राज्यों में भी पहले हो चुका है। तेलंगाना इसका उदाहरण है। यदि उनकी इच्छा केंद्र सरकार को ओंद्रिया अरासु कहने की है, तो लोगों की भी यह इच्छा है कि वे इसे ‘कोंगु नाडु’ कहें।

जहाँ द्रमुक की ओर से राज्यों के लिए सत्ता के बंटवारे में कहीं अधिक हिस्सेदारी की मुहिम की काट के रूप में भाजपा द्वारा कोंगु नाडु कार्ड खेलने की मंशा हो सकती है, लेकिन यहाँ पर भगवा पार्टी की मंशा इससे कुछ अधिक भी हो सकती है।

इस कदम के पीछे की दीर्घकालीन राजनीतिक सोच 

कोंगु मंडलम या कोंगु बेल्ट के राजनीतिक महत्त्व को समझना बेहद आवश्यक है। कोंगु बेल्ट और राज्य का समूचा पश्चिमी हिस्सा, जिसमें कोंगु बेल्ट पड़ता है, पारंपरिक तौर पर एआईएडीएमके का मजबूत गढ़ रहा है। हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में, इस क्षेत्र में एआईएडीएमके गठबंधन का अभूतपूर्व प्रदर्शन ही था जिसने चुनावों में उनके पूर्ण सफाए की भविष्यवानियों को धता बताने में मदद की। इन जिलों में मौजूद कुल 57 विधानसभा सीटों में से एआईएडीएमके गठबंधन को 40 सीटें हासिल हुई हैं।

भाजपा जो अभी भी राज्य में एक हाशिये की राजनीतिक ताकत बनी हुई है, को कोंगु बेल्ट के कुछ हिस्सों में, खासतौर पर हिन्दू नादार और देवेंद्र्कुला वेल्लालारों के बीच में कुछ समर्थन प्राप्त है। राज्य में भाजपा की सीमित उपस्थिति पूरी तरह से इसी क्षेत्र में केंद्रित है। पार्टी के कुल चार विधायकों में से दो इसी क्षेत्र से आते हैं। बिना कुछ कहे ही इस बात को समझा जा सकता है कि यदि भाजपा को राज्य भर में एक प्रमुख ताकत बनना है तो उसे कोंगु बेल्ट के विभिन्न पॉकेट्स में अपने प्रभाव को मजबूत करना होगा। भाजपा के कोंगु नाडु दांव को उसकी तमिलनाडु में विस्तार योजना के एक हिस्से के तौर पर देखे जाने की आवश्यकता है, और इसके साथ ही अपने प्रमुख सहयोगी एआईएडीएमके को उसके ही गढ़ में कमजोर करने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। और इस प्रकार उनकी कीमत पर खुद को बढ़ाने की उम्मीद – एक ऐसी रणनीति जिसने उसे बिहार और महाराष्ट्र जैसे कुछ अन्य राज्यों में अत्यंत लाभान्वित किया है। 

इस बात को महसूस करते हुए कि यह दांव उल्टा भी पड़ सकता है, भाजपा इसे बेहद सावधानी के साथ खेल रही है, और जैसा कि तमिलनाडु के भाजपा नेता कोंगु नाडु मुद्दे पर अलग-अलग सुरों में बोलते हुए नजर आ रहे हैं। जहाँ पार्टी के राज्य महासचिव, नागराजन, कोयंबटूर ईकाई और कुछ अन्य आवाजों ने अलग कोंगु नाडु की मांग के पीछे अपना सारा जोर पर लगा रखा है, वहीँ नवनियुक्त राज्य पार्टी प्रमुख, के अन्नामलाई और राज्य विधानसभा में पार्टी के नेता नयनार नागेन्द्रन जैसों ने इस मुद्दे पर संयम बरतते हुए खुद को इस मुद्दे से दूर रखा है।

जिन राज्यों में गैर-भाजपा शासित सरकारें शासन में हैं, और जो केंद्र सरकार के अतिसन्धान वाले तरीकों के प्रति विरोधी बनी हुई हैं, उनके लिए राज्य के विभाजन का खतरा बना रहता है, जो कि हाल के दिनों में भाजपा की राजनीतिक रणनीति की सारतात्विक विशेषता बन चुकी है। पश्चिम बंगाल में जहाँ तमिलनाडु के साथ ही चुनाव हुए थे, वहां तृणमूल कांग्रेस के हाथों हुई शर्मनाक हार के बाद राज्य के कई भाजपा नेताओं ने राज्य को विभाजित करने और उत्तरी बंगाल को केंद्र शासित प्रदेश बनाये जाने की मांग को तूल देना शुरू कर दिया है। महाराष्ट्र में भी भाजपा को पराजय का मुहँ देखना पड़ा, जब कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना ने एक असंभावित गठबंधन बना डाला, वहां पर भी भाजपा नेता समय-समय पर एक अलग विदर्भ राज्य बनाने को लेकर टिप्पणियाँ करते रहते हैं। राजनीतिक तौर पर विरोधी सरकारों को ‘ठिकाने लगाने’ का यह खाका अब तक जम्मू-कश्मीर और यहाँ तक कि दिल्ली में भी लागू किया गया है जहाँ पर राज्य सरकार की शक्तियों को गंभीर रूप से कम कर दिया गया है।  

लेकिन तमिलनाडु जैसे राज्य में भी यह मंसूबा काम करेगा, इसकी संभावना नहीं है क्योंकि यहाँ केंद्र सरकार के अतिसन्धान से निपटने और प्रचंड क्षेत्रीय भावनाओं का एक लंबा इतिहास रहा हैं। जैसा कि मुहावरे के रूप में यह जान पड़ता है कि समय आ चुका है कि भाजपा सरकार को इस बात का अहसास हो जाए कि ‘एक ही साइज़ सभी को सूट करता है’ वाला सिद्धांत हर बार राजनीति और नीति निर्धारण में काम नहीं करता है। 

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Why is BJP Demanding Bifurcation of Tamil Nadu?

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