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भारत
राजनीति
हिजाब को गलत क्यों मानते हैं हिंदुत्व और पितृसत्ता? 
यह विडम्बना ही है कि हिजाब का विरोध हिंदुत्ववादी ताकतों की ओर से होता है, जो खुद हर तरह की सामाजिक रूढ़ियों और संकीर्णता से चिपकी रहती हैं।
शुभम शर्मा
28 Feb 2022
karnataka
कर्नाटक के कुछ कॉलेजों में हिजाब पर प्रतिबंध के खिलाफ प्रदर्शन करतीं महिलाएं। 

मई 2014 के बाद से मुसलमान हिंदुत्व के मुख्य निशाने पर रहे हैं। सोची-समझी लिंचिंग से लेकर नागरिकता के दावों को दूर करने वाले कानूनों तक, भारतीय मुसलमानों को आजादी के बाद से ही देश में एक दुःस्वप्न का सामना करना पड़ा है। उनकी हालिया परेशानी हिजाब या हेडस्कार्फ़ का मुखालफत किए जाने के लेकर है, जिन्हें कई मुस्लिम महिलाएं पहनती हैं। विडम्बना है कि यह विरोध उन हिंदुत्ववादी ताकतों से होता है, जो खुद सामाजिक रूढ़िवाद और हर रंग की संकीर्णता पर टिकी रहती हैं। 

हिजाब निस्संदेह महिलाओं पर पितृसत्तात्मक रस्मो-रिवाज को थोपना है। लेकिन यहां यह मुद्दा नहीं है-यहां बहस कक्षाओं के अंदर मुस्लिम महिलाओं के हिजाब पहनने की मांग के साथ शुरू हुई है। कहा जाता है कि हिंदुत्व से प्रेरित-संचालित इस्लामोफोबिया, जो मुख्य रूप से साम्राज्यवादी अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगी देशों द्वारा बनाया गया है, उसमें हिजाब और बुर्का को केवल मुसलमान तक ही सीमित कर दिया गया है। सच्चाई तो यह है कि पर्दा या पर्दा-प्रथा, इस्लाम के जन्म से काफी पहले से चलन में थी। ऐसा इसलिए कि पितृसत्ता इस्लाम के बहुत पहले से थी। इस्लाम से पहले, पश्चिम एशिया की सासानियन महिलाएं पर्दा या घूंघट करती थीं जैसा कि भूमध्यसागरीय क्षेत्र में बीजान्टिन काल के दौरान ईसाई समुदायों की महिलाएं करती थीं। असीरियन कानून ने महिलाओं के पर्दा या घूंघट करने के नियम भी बनाए थे कि किस महिला को घूंघट करना चाहिए और किसको नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए, रईसों की पत्नियों को पर्दा या घूंघट करना पड़ता था, जैसा कि रखैल और पूर्व 'पवित्र वेश्याओं' करती थीं, जो अब विवाहिता हो गई थीं। अलबत्ता, गुलाम औऱतों को पर्दा या घूंघट करने की जरूरत नहीं थी। 

इसी तरह, उत्तर-पश्चिमी भारत में, महिलाओं में घूंघट निकालने की एक सामान्य प्रथा है, जो अपने से बड़ी महिलाओं एवं बड़े-बुजुर्गों से सामना होने पर उनके सहनशील एवं आदरयुक्त-विनम्र व्यवहार के रूप में प्रकट होती है। 1970 के दशक में यह अनुमान लगाया गया था कि हरियाणा में लगभग 72.61 फीसदी महिलाएं रोजमर्रे के अपने व्यवहार में घूंघट काढ़ती थीं। अभी हाल ही में 2017 में हरियाणा सरकार की पत्रिका कृषि संवाद के विज्ञापन में घूंघट काढ़े एक महिला की प्रकाशित तस्वीर से जाहिर होता है कि चीजें नहीं बदली हैं। इस महिला के फोटो कैप्शन में लिखा गया है “घूंघट की आन-बान, म्हारा हरियाणा की पहचान”।

अपनी पुस्तक वीमेन एंड जेंडर इन इस्लाम में, लैला अहमद लिखती हैं कि पैगंबर मोहम्मद के जीवनकाल के दौरान, केवल मुस्लिम पत्नियों को ही घूंघट करने की आवश्यकता होती थी। कहा जाता है कि पैगम्बर मोहम्मद के इंतकाल के बाद और आसपास के क्षेत्रों में इस्लामिक परचम लहराए जाने के बाद से उच्च वर्ग की औरतें पर्दानशीं होने लगीं थीं। इनकी देखा-देखी घूंघट या हिजाब मुस्लिम उच्च वर्ग की औरतों के बीच एक सामान्य रिवाज बन गया। आसान लहजे में कहें तो मोहम्मद की बीवियों का यह पर्दा, घूंघट या हिजाब एक आदर्श रिवाज बन गया, जिसको कि बाद में आम महिलाओं ने भी अपनाया। 

कुरान से हिजाब की मंजूरी मिलने या न मिलने के बारे में बहस गूढ़ है और इस मसले को इसके मानने वालों की आस्था पर छोड़ देना ही बेहतर है। हालांकि कर्नाटक उच्च न्यायालय का यह तय करना कि कुरान हिजाब को मंजूरी देता है या नहीं, यह एक विभाजनकारी अभ्यास होगा। सवाल है कि क्या होगा अगर अदालत पवित्र पुस्तक की अनेक व्याख्याओं को नजरअंदाज कर देती है और इस्लाम के लिए आवश्यक हिजाब को अयोग्य करार देती है, जैसा कि उसने बाबरी मस्जिद वाले मामले में किया था? और क्या होगा अगर अदालत यह तय करती है कि हिजाब या पर्दा या घूंघट इस्लाम में एक जरूरी दस्तूर है? क्या इसका मतलब यह होगा कि मुस्लिम धर्म के प्रति आस्था रखने वाली सभी महिलाओं को हिजाब पहनना होगा? 

बहरहाल, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपने हिंदुत्व के निकम्मे अनुयायियों-समर्थकों के लिए मुस्लिम पिछड़ेपन की बहस को फिर से मेज पर ले आने में बाजी मार ली है, जैसा कि उसने तीन तलाक बिल के साथ किया था। पर इसके दोगुने खतरे हैं: पहला, इससे बहुसंख्यक समुदाय की रूढ़िवादिता और सामाजिक पिछड़ेपन का मसला अछूता छूट जाता है। यहां हम जवाहरलाल नेहरू की प्रसिद्ध उक्ति को देखें जिसमें कहा गया है कि, यदि बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता अल्पसंख्यक की तुलना में कहीं अधिक खतरनाक है, तो बहुसंख्यकों का रूढ़िवाद अल्पसंख्यक की तुलना में कहीं अधिक एक गंभीर सामाजिक बाधा है। हिंदू महिलाओं में पितृसत्तात्मकता को थोपने के प्रतीकों को बरकरार रखकर हिंदुत्व ने एक खतरनाक शोरबा बनाया है। 

दूसरे, इसने मुसलमानों के भीतर रूढ़िवादी ताकतों को मजबूत किया है, जिनकी पकड़ को अभी भी उसके भीतर से एक विकट चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। महिलाओं को हिजाब पहनने पर जोर देने वाले उनके पहले के पितृसत्तात्मक प्रत्युत्तर ने अब एक प्रतिरोधी चरित्र धारण कर लिया है। दूसरे शब्दों में, हिजाब स्त्री-शालीनता के थोपे गए प्रतीक से अलग हिंदुत्व के खिलाफ प्रतिरोध का एक प्रतीक बन गया है। 

इस अपमानजनक मुकाबले में जाहिर तौर विजेता हिंदुत्व और इस्लामवादियों की ताकतें ही हैं। फिर भी इसका मिजाज न जीती जाने वाले जंग की है, क्योंकि हिंदुत्व को जो भी लाभ होगा, वह अंततः एक समुदाय के रूप में मुसलमानों के खिलाफ काम करेगा। दूसरे शब्दों में, चूंकि हिंदुत्व शाहरुख खान और पहलू खान के बीच अंतर नहीं करता है, एक समुदाय के रूप में मुसलमान एक और अग्निपरीक्षा के खिलाफ हैं। 

धर्मनिरपेक्षतावादियों और प्रगतिवादियों को बहुत सावधानी से चलना चाहिए। तीन दशक से भी पहले, जब राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने शाह बानो के फैसले को पलटने के लिए कानून में संशोधन किया था, तब इसका फायदा हिंदुत्ववादी ताकतों ने ही उठाया था। वे एक 'पीड़ित' हिंदू की तुलना में मुस्लिम 'तुष्टीकरण' का बाइनरी बनाने में सफल रहे थे और एक स्थानिक और निराधार धारणा पर एक पूरा का पूरा आंदोलन खड़ा कर दिया कि भगवान राम का जन्म ठीक उसी स्थान पर हुआ था, जहां बाबरी मस्जिद थी। आज हिंदुत्व राम मंदिर बनाने में सफल हो गया है और फिर भी मुसलमानों के खून का प्यासा बना हुआ है। ऐसे मंजर में, हिजाब के लिए किसी भी समर्थन को मुस्लिम तुष्टीकरण की दिशा में एक प्रयास के रूप में माना जाना तय है। 

ऐसे में प्रगतिशीलों के सामने दोहरी चुनौती है। सबसे पहले, मुस्लिम पहचान की रक्षा हिजाब के समर्थन से पहले होनी चाहिए। संदेश को इस तरह से कोडित करने की आवश्यकता है, कि वह उन लोगों का समर्थन नहीं करता है, जो हिजाब को मुस्लिम महिलाओं के लिए आवश्यक मानते हैं। दूसरे, महिलाओं की मुक्ति का एजेंडा तय करने लिए सभी वर्गों के नारीवादियों के नेतृत्व में पितृसत्ता के खिलाफ एक साझा सार्वजनिक अभियान शुरू करना चाहिए। तभी हिंदू और मुस्लिम महिलाओं के बीच धर्म के पार एकता स्थापित की जा सकती है, जो गढ़ी गई सांप्रदायिक कटुता से ग्रस्त-त्रस्त नहीं होगी, जिसको हिंदुत्व लगातार बढ़ावा देने की फिराक में रहता है। 

(लेखक एक स्वतंत्र रिसर्च स्कॉलर हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं) 

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Why Hindutva and Patriarchy Get Hijab Wrong

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Shah Bano
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Lynching
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