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क्या नाबार्ड अधिनियम की धारा 56(1) के वैधीकरण करने से व्यवसाय को बढ़ाने में मदद मिल सकती है या यह नई मुश्किलें खड़ी करेगा?
भारत में “ईज ऑफ़ डूइंग बिजनेस” को सुरक्षित बनाने के लिए और कोविड-19 के दौर में अर्थव्यवस्था में आवश्यक उछाल देने के लिए सरकार की ओर से इस बात के संकेत दिए जा रहे हैं कि वह नाबार्ड अधिनियम के तहत अतिक्रमणों के वैधीकरण करने का मन बना रही है।
जागृति पाण्डेय
16 Jul 2020
Will Decriminalisation of Section 56(1

भारत में “ईज ऑफ़ डूइंग बिजनेस” को सुरक्षित बनाने के लिए और कोविड-19 के दौर में अर्थव्यवस्था में आवश्यक उछाल देने के लिए सरकार की ओर से इस बात के संकेत दिए जा रहे हैं कि वह नाबार्ड अधिनियम के तहत अतिक्रमणों के वैधीकरण करने का मन बना रही है। लेखिका यहाँ पर तर्क पेश करती हैं कि सरकार की ओर से उठाये गए इस प्रकार के किसी भी पहल से इच्छित लक्ष्य हासिल नहीं ही होने जा रहे हैं, उल्टा यह अधिनियम के मूल उद्येश्यों के विरुद्ध जाना हुआ।
———
पिछले कुछ वर्षों पर यदि नजर दौडाएं तो भारतीय अर्थव्यवस्था बेहद खस्ता हाल चल रही है। कोविड-19 महामारी की चपेट में आने से पहले ही यह काफी कुछ सिकुड़ चुकी थी। अब तो इसमें असाधारण गिरावट देखने को मिल रही है।

इन्हीं सब चुनौतियों से जूझते हुए केन्द्रीय सरकार ने बिजनेस सेंटीमेंट्स में सुधर लाने के उद्देश्य से और व्यवसाय को सुगम बनाने के लिए 8 जून को एक नोटिफिकेशन जारी की, जिसमें कुछ चुनिन्दा विधानों में आर्थिक अपराधों से सम्बन्धित कुछ दण्ड प्रावधानों के वैधीकरण के संकेत दिए थे। इन्हीं में से एक प्रावधान नाबार्ड एक्ट के अधिनियम 56(1) भी है।

दुर्भावनापूर्ण इरादे को दण्डित करने का महत्व

नाबार्ड अधिनियम की धारा 56 (1) के अनुसार कोई भी व्यक्ति यदि अपने रिटर्न को इस अधिनियम के अंतर्गत भरने में, बैलेंस शीट या अन्य सूचनाओं से सम्पन्न दस्तावेजों की जानकारी प्रस्तुत करने में या जानबूझकर गलत सूचना या तथ्य पेश करता है तो वह सजा का भागी होगा जिसे अधिकतम तीन साल तक बढाया जा सकता है और आर्थिक दण्ड का भी भागी होगा।

इस धारा का उद्येश्य सफेदपोश अपराधों को रोकने और दण्डित करना था, जिसमें अंतिम हितधारकों के कल्याण की कीमत पर कुछ लोगों द्वारा वित्तीय धोखाधड़ी और खुद के लिए लाभांश बटोर लेने जैसे अपराध शामिल हैं। धारा 56 में उल्लिखित अपराध की श्रेणी वित्तीय धोखाधड़ी के अंतर्गत आती है जिसमें  सार्वजनिक  धन की हानि शामिल है। यदि इस प्रावधान का वैधीकरण कर दिया जाता है तो यह व्यापक सार्वजनिक हितों को एक बहुत बड़ा धक्का पहुंचाने वाला कदम साबित होगा।

“इस प्रावधान के वैधीकरण किये जाने से व्यापक सार्वजनिक हितों पर गहरा धक्का लगने जा रहा है।”

1 जुलाई 2016 को भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने “धोखधड़ी पर विशेष दिशानिर्देशों’ को जारी करते हुए इस बात पर जोर दिया था कि बैंकों के सम्बंध में किसी भी प्रकार के धोखाधड़ी की प्रकृति को दण्डित करने का क्या महत्व है। बॉम्बे हाई कोर्ट की न्यायाधीश साधना जाधव ने अपने 13 दिसम्बर 2016 के आदेश श्री रविकांत मारुती बागल बनाम द स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र (2016 की आपराधिक जमानत याचिका संख्या 1204) पर टिप्पणी करते हुए लिखा था:

“आपराधिक अभियोजन कोई वसूली की प्रक्रिया नहीं है। इसके बावजूद अभियोजन की प्रक्रिया को अपने अंजाम तक ले जाना ही होगा क्योंकि यह राज्य और बैंक के ग्राहकों के खिलाफ अपराध की श्रेणी में आता है, जिन्हें अभ्यर्थी के व्यवहार के कारण वित्तीय मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इस पहलू को ध्यान में रखना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि सहकारी बैंकों के खाताधारक मुख्यतया किसान हैं और कृषि अर्थव्यवस्था के रख-रखाव और विकास के लिए धन का इस्तेमाल करने के साथ-साथ किसानों के अस्तित्व के लिए भी सहायक है।”

इसलिए इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि नाबार्ड अधिनियम की धारा 56 के अंतर्गत आने वाले अपराध वे हैं जिनमें इरादे का तत्व शामिल है। नीति-निर्माताओं और न्यायालयों ने इस पर कड़ा रुख अपना रखा था, ताकि सफेद-पोश अपराधों पर लगाम लगाईं जा सके।

नाबार्ड अधिनियम का क़ानूनी मकसद

लोकसभा में नाबार्ड बिल को पेश करते समय तत्कालीन वित्त मंत्री श्री आर. वेंकटरमण के अनुसार:

‘राष्ट्रीय बैंक को सर्वोच्च संस्था के तौर पर स्थापित करने के पीछे हमारा मकसद है कि नीतियों, योजनाओं और संचालन सम्बंधी सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए ऋण के प्रवाह को कृषि के विकास के लिए, लघु उद्योगों, कुटीर एवं ग्रामोद्योग, हस्तशिल्प एवं हस्त कौशल सहित ग्रामीण क्षेत्रों में चलने वाले अन्य सहयोगी आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र में मदद पहुँचाई जा सके। यह नया बैंक सभी प्रकार के खेतिहर एवं ग्रामीण विकास के लिए ऋण की जरूरतों को पूरा करने के लिए और नीतियों और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में मदद पहुंचाने के उद्येश्य से एक एकल एकीकृत एजेंसी होगी....’

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नाबार्ड अधिनियम के जो भी हितधारक होंगे वे आमतौर पर समाज के सबसे निचले पायदान पर मौजूद लोग होंगे जिन्हें समान रूप से ऋण सुविधाओं से लाभान्वित किये जाने की योजना है।

इकोनॉमिक सर्वे ऑफ इंडिया 2019-2020 ने किसानों की आय को दुगुना करने के उद्येश्य से ऋण तक पहुँच, बीमा कवरेज और कृषि में निवेश जैसे मुद्दों पर ध्यान देने का सुझाव दिया था। भारत में खेती अपेक्षाकृत कम मशीनीकृत है, जिस पर काम करने की जरूरत है। जबकि खाद्यान्न प्रसंस्करण के क्षेत्र में और अधिक गहराई से ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि इसके जरिये फसल कटाई के बाद होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है और कृषि उत्पादों के लिए एक अतिरिक्त बाजार के निर्माण में सहायक हो सकता है।

“ये आंकड़े हालाँकि इस बात के गवाह हैं कि अर्थव्यवस्था के लिए कृषि क्षेत्र अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र है, लेकिन इसके बावजूद किसानों की आज भी बेहद कम ऋण उपलब्धता जैसी समस्याओं को सुलझाया नहीं जा सका है।”

ये आंकड़े हालाँकि इस बात के गवाह हैं कि अर्थव्यवस्था के लिए कृषि क्षेत्र अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र है, लेकिन इस सबके बावजूद किसानों की आज भी बेहद कम ऋण उपलब्धता जैसी समस्याओं का निराकरण नहीं किया जा सका है। इसलिए जिन परिस्थितियों के चलते नाबार्ड अधिनियम को लाया गया था वे आज भी बरकरार हैं। ऐसे में उन्हीं प्रावधानों के वैधीकरण की प्रक्रिया को करने से, जो नाबार्ड अधिनियम के तहत वित्तीय अनियमितताओं और धोखाधड़ी से निपटने के लिए बनाये गए थे, की वजह से ये कदम मौजूदा समस्याओं को सिर्फ और बढाने में ही सहायक सिद्ध होंगे।

कृषि क्षेत्र पर हो रहे निरंतर हमले

एक आरटीआई आवदेन के जरिये प्राप्त आंकड़ों के अनुसार इसके कार्यान्वयन के पहले वर्ष में ही पीएम-किसान योजना के लाभार्थियों में से मात्र 25% लोगों को ही 6000 रूपये की कुल धनराशि उनके खातों में प्राप्त हो सकी है। इसी तरह इस वर्ष सामान्य खाद्यान्न उत्पादन के बावजूद किसानों को अपनी उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य से 10 से लेकर 15% कम दरों पर बेचना पड़ा है।

“हालाँकि कई किसान संगठनों ने इस संभावित बदलाव को देखते हुए अपनी चिंता जाहिर की है और उनका कहना है कि कहीं न कहीं सरकार का यह कदम कृषि-व्यवसाय से जुड़ी हुई कम्पनियों को मदद पहुंचाने की मंशा से उठाया जा रहा है, न कि किसानों के लिए।”

हाल ही में सरकार ने कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) के सांचे में बदलावों की घोषणा करते हुए कहा है कि किसानों को उनकी रूचि के हिसाब से अपने उत्पादों को उचित दर पर बेचने के लिए एक केन्द्रीय कानून को तैयार किया जाएगा। इसके जरिये किसान न सिर्फ अपने उत्पाद उचित मूल्य पर अपनी मर्जी से किसी को भी बेचने के लिए स्वतंत्र होंगे, बल्कि इसके लिए बाधा मुक्त अंतर-राज्यीय व्यापार और कृषि उत्पादों के ई-ट्रेडिंग के लिए आवश्यक ढाँचे को तैयार किया जायेगा। हालाँकि कई किसान संगठनों ने इस संभावित बदलाव पर अपनी चिंता जाहिर की है और उनका कहना है कि सरकार का यह कदम कहीं न कहीं कृषि-व्यवसाय में शामिल कम्पनियों को मदद पहुंचाने की ओर झुकी दिख रही है, बनिस्बत किसानों के।

कोविड-19 महामारी के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में अन्य क्षेत्रों की तुलना में सबसे कम नुकसान उठाने वाला जो क्षेत्र था, वह कृषि क्षेत्र रहा है। लेकिन सरकार की कुछ नीतियाँ का प्रतिकूल असर पड़ा है और किसान संघों के गुस्से को झेलना पड़ा है। लेकिन अब जिस प्रकार से ‘इज ऑफ़ डूइंग बिजनेस’ के नाम पर जिस प्रकार से धारा 56(1) का वैधीकरण किया जा रहा है, इसके चलते यह भारतीय किसानों की जिन्दगी में पहले से ही मौजूद संकटों में इजाफा करने वाला साबित होने जा रहा है।

अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव

वित्त मंत्रालय के अनुसार धारा 56(1) में जिस अपराध का जिक्र किया गया है उसके वैधीकरण के पीछे की वजह व्यवसाय को सुगम तरीके से कर सकने के उद्येश्य से प्रयोग में लाने को बताया जा रहा है। लेकिन इस धारा के तहत जिन अतिक्रमणों का जिक्र किया गया है वे कोई छोटे-मोटे अपराध की श्रेणी में नहीं आते। 2018 में स्वर्गीय अरुण जेटली जो उस दौरान वित्त मंत्री थे, ने इज ऑफ़ डूइंग बिजनेस के नाम पर बैंक धोखाधड़ी को लेकर चेताया था। उन्होंने इस ओर इशारा करते हुए बताया था कि यदि इसी प्रकार से बैंकिंग में धोखाधड़ी चलती रही तो समूचे इज ऑफ़ डूइंग बिजनेस के आईडिया को धक्का लग सकता है। इस प्रकार के बैंकिंग से जुडी धोखाधड़ी से न सिर्फ राष्ट्रीय बैंकों की अखंडता को ही खतरा पहुँचाने वाले साबित हो सकते हैं, बल्कि इसके चलते अर्थव्यवस्था भी अस्थिर हो सकती है और यह ईमानदार व्यक्तियों की भावनाओं को भी आहत करने का काम करती है।
 
“धोखाधड़ी की कारगुजारियों के मार्ग को प्रशस्त करने से ईमानदार निवेशकों के मन में नकारात्मक भावनाओं को बढ़ावा मिलता है।”

जो कार्यक्रम लिए गए हैं उनसे उम्मीद है कि व्यवसाय को सुगम बनाने की राह में इससे काफी फायदा होने जा रहा है’ लेकिन कई शोधों में देखा गया है कि यदि धोखधड़ी की कारगुजारियों की भरमार बनी रहती है तो यह राष्ट्रीय बैंकों की अखंडता के लिए खतरा उत्पन्न करने वाला साबित होने लगता है और आगे चलकर इसकी वजह से अर्थव्यस्थाओं के अस्थिर होने की संभावना तक पैदा होने लगती है। धोखाधड़ी की कारगुजारियों के मार्ग को प्रशस्त करने से ईमानदार निवेशकों के मन में नकारात्मक भावनाओं को बढ़ावा मिलता है।

इसलिए इस बात में कोई संदेह नहीं कि प्रस्तावित कदम बिजनेस सेंटीमेंट्स और व्यवसाय को और सुगम बनाने के उपायों के तौर पर कोई बेहतर विकल्प नहीं हैं। इस प्रकार की पहल से हो सकता है कि वह माहौल ही न कहीं खत्म हो जाये जो किसी स्वस्थ्य व्यवसाय को सुगम बनाने में सहायक हो।  

अन्य माध्यमों से न्यायालयों के अवरुद्ध मार्ग को खोलने के प्रयास

इसे लागू कराने के पीछे के मकसद में से एक यह भी है कि न्यायालयों में अटके पड़े मामलों की वजह से काफी दिक्कतें पेश आती हैं, और इसके परिणामस्वरूप बिजनेस सेंटीमेंट्स पर बुरा असर पड़ता है। गैर-जिम्मेदाराना कार्य और गलत तौर तरीकों का वैधीकरण करना समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि इसका उपाय हमें न्यायिक अधिकारियों की भारी संख्या में खाली पड़ी रिक्तियों को भरने के सवाल में खोजना होगा।
 
‘ईज ऑफ़ डूइंग बिजनेस’ के सूचकांक में भारत की मौजूदा रैंकिंग कोई संतोषजनक नहीं कही जा सकती। उपर से महामारी ने इसमें भारी संख्या में बेरोजगारी और नियोक्ताओं के हिस्से में लाभ की कमी के चलते मुश्किलों को बढाने का ही काम किया है। कृषि क्षेत्र भी इस परिघटना से अछूता नहीं रह सका है। इसके बावजूद नाबार्ड अधिनियम की धारा 56(1) में ढील देने से समस्या का समाधान नहीं होने जा रहा है। उल्टे वास्तव में देखें तो इस प्रकार के बिना सुविचारित कदम खेती से जुड़े कार्य बल को ही अंततः नुकसान पहुंचा सकता है।

कृषि उन क्षेत्रों में से एक है जिसने भारत की राष्ट्रीय रीढ़ को सुदृढ़ करने का काम कर रखा है और जहाँ तक भोजन की उपलब्धता का प्रश्न है तो इस मामले में हमें आत्म-निर्भर बनाए हुए है। इन संकट के क्षणों में यदि हम किसानों के मुद्दों को अपना समर्थन नहीं देते हैं और वास्तव में उनके हितों की रक्षा के लिए आगे नहीं आते हैं तो हम उनके साथ बहुत बड़ा अन्याय करने जा रहे हैं।

(जाग्रति पाण्डेय नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, पटना की छात्रा हैं और श्रमिक सारथी की सदस्या हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

सौजन्य: द लीफलेट,

इस आलेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Will Decriminalisation of Section 56(1) of NABARD Act Help Business Grow or Create Hurdles?

NABARD Act
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