NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
आधी आबादी
महिलाएं
स्वास्थ्य
लड़कियां कोई बीमारी नहीं होतीं, जिनसे निजात के लिए दवाएं बनायी और खायी जाएं
उत्तर प्रदेश के कुछ इलाक़ों में ऐसी दवाइयां बेची जा रही हैं, जो गर्भ में पल रहे भ्रूण को नर-भ्रूण में विकसित करने की गारंटी दे रही हैं। सरकारी महकमा हाथ पर हाथ रखे बैठा है और अंधविश्वास व अज्ञानता ने समाज के बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया है।
एकता वर्मा
20 Apr 2022
women in up

हरदोई ज़िले के एक छोटे से गाँव परनखा में मुंडन समारोह का आयोजन हो रहा है। औरतें झुंड में बैठी, ढोलक मंजीरे पर सोहर गीत गा रही हैं- 'बाजत अवध बधइया, दशरथ घर सोहर हो’। पूरी-पकवानों और रिश्तेदारों से भरे इस माहौल में कुछ औरतें ईंट को धोकर फिर अपने आँचल में छुपाकर, मंदिर के प्रांगण में स्थापित कर रही हैं। ऐसा करते हुए उन्हें भरोसा है कि अगले बरस उन्हें भी लड़का होगा और वे भी इसी तरह बड़ा समारोह करवाएँगी। यह इस मंदिर की पुरानी मान्यता है और लोगों को इस पर भरोसा है। औरतों के इसी समूह में दबी ज़बान में एक और बात की चर्चा है। चर्चा किसी दवाई की है, जो बहुत फ़ायदेमंद है, और लगभग हर किसी के दूर के रिश्तेदार को लाभ पहुँचाया है। एक हमउम्र लड़की से पूछने पर पता चला कि वह दवाई लड़का पैदा करने की थी।

मामला उत्तर प्रदेश के हरदोई ज़िले का है, जहाँ कुछ डॉक्टर, वैद्य अपनी विशेष दवाओं से गर्भ में पल रही संतान का लिंग निर्धारित करने का दावा कर रहे हैं। उनका कहना है कि यदि महिलाएँ उनकी दवाइयों का सेवन करती हैं तो उनके गर्भ का भ्रूण निश्चित रूप से पुरुष-लिंग के रूप में विकसित होगा। ये दवाइयाँ विश्वसनीय हैं या जालसाज़ी का तरीक़ा, इसका ख़्याल किए बिना लोग इन दवाओं पर टूट पड़े हैं। जन सामान्य के बीच इन दवाओं का ज़बरदस्त तरीक़े से प्रचार है। पितृसत्तात्मक समाज का लड़कियों से छुटकारा पाने का यह तरीक़ा जन सामान्य के बीच इतने बड़े स्तर पर फ़ैला हुआ है कि कोई भी दम्पत्ति जिसकी पहली संतान लड़की है, वह इन दवाइयों के सम्पर्क में आ जाता है, कुछ पहली संतान के लिए भी दवाएँ लेते हैं। ये दवाइयाँ एलोपैथिक, आयुर्वेदिक या कई बार प्रांतीय जड़ी बूटियों से बनी हुई होती हैं।

पेशे से अध्यापक एक चश्मदीद इन दवाओं की लोकप्रियता पर बात करते हुए कहती हैं कि बीसवीं सदी बीतते-बीतते जब गर्भ की लिंग जाँच पर रोक लग गयी और उसे आपराधिक घोषित कर दिया गया, तब लोगों को लड़के के लिए वापस झाड़फूंक और बाबाओं के पास लौटना बहुत पिछड़ा तरीक़ा लगने लगा। आदमी इतना तो जान चुका था कि लड़का या लड़की होना अब भगवान की ही मर्ज़ी नहीं बची थी। लेकिन वह इतना अज्ञानी भी था कि विज्ञान के नाम पर उसे आसानी से ठगा भी जा सके। इसीलिए लड़का पैदा करने की यह नई स्कीम डॉक्टरी भेष रखकर आयी और लोगों के बीच खूब भरोसेमंद भी रही। परिणाम कैसा भी रहे इन ग्राहकों में आधों को तो स्वतः ही लड़का होना है, जिसे वे दवाओं का असर मानकर जीवनपर्यंत डॉक्टरों के कृपालु और प्रचारक बने रहते हैं इस तरह कारोबार और फैलता जाता है।

इस पूरे मामले को समझने के लिए उन औरतों से बातचीत हुई जिन्होंने इन दवाओं का प्रयोग किया था। पता चला कि ये दवाइयाँ चंद खुराकों से लेकर छह महीने के कोर्स तक लम्बी होती हैं। इस पूरे ‘इलाज’ को महिलाओं को ही करवाना होता है, जिसे गर्भ धारण करने के लगभग एक महीने बाद से शुरू किया जाता है। दरअसल लोगों में यह धारणा प्रचलित है कि एक महीने के बाद भ्रूण का शरीर विकसित होना शुरू होता है इसलिए इन दवाओं को इस विशेष अवधि से शुरू किया जाता है। धार्मिक रीति-रिवाज़ जैसे पुंसवन संस्कार भ्रूण के लिंग विकसित होने की यही अवधि मानते हैं, इससे जन मानस के इन विश्वासों को वैधता मिली है। इन महिलाओं से बात करते हुए ऐसे पचासों नुस्ख़ों, तरीक़ों, मान्यताओं के बारे में पता चला जिन्हें यह समाज पुत्र-प्राप्ति के लिए प्रयोग करता आ रहा था। ये सारे क्रियाकलाप अंधविश्वास थे, लेकिन इनके निर्माण की ज़मीन यह बताती है कि लड़कियाँ इस समाज की कितनी अनचाही प्रजाति थीं।

दवाओं द्वारा लिंग निर्धारण की पूरी प्रक्रिया कई स्तरों पर अज्ञानता और अंधविश्वासों पर टिकी हुई है। स्कूली स्तर तक विज्ञान पढ़ा कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि संतान के लिंग निर्धारण में स्त्री की भूमिका नहीं होती फिर भी ये सारी दवाएँ स्त्रियों को खिलायी जा रही हैं। इस संदर्भ में पेशे से डॉक्टर, महताब आलम स्पष्ट रूप से बताते हैं कि संतान के लिंग निर्धारण के लिए पुरुष ज़िम्मेदार होता है, स्त्री नहीं। लम्बे समय से स्त्रियाँ लड़का पैदा न करने की वजह से सामाजिक, पारिवारिक और धार्मिक दंश झेल रही हैं, जबकि उसमें उनकी कोई भूमिका ही नहीं थी। ये दवाइयाँ जिन्हें गर्भ-धारण के लगभग एक महीने के बाद खाने के लिए दिया जाता है, बहुत हास्यास्पद है। वैज्ञानिक तथ्य यह है कि गर्भ धारण के समय ही भ्रूण का लिंग निर्धारित हो जाता है। यह पूरी प्रक्रिया XY गुणसूत्रों पर निर्भर करती है। स्त्री में एक ही तरह के XX दो गुणसूत्र होते हैं जबकि पुरुष में XY गुणसूत्र। जब Y गुणसूत्र स्त्री के X गुणसूत्र से मिलता है, तब संतान लड़का होता है जब पुरुष का X गुणसूत्र स्त्री के X गुणसूत्र से मिलता है तब लड़की पैदा होती है। इस तरह बच्चे के लिंग निर्धारण में पुरुष ज़िम्मेदार होता है, स्त्री नहीं। और लिंग भी गर्भ-धारण के वक्त निर्धारित हो जाता है। इसलिए इन दवाओं को खाने का कोई तुक नहीं है। इन दवाओं की बिक्री और उपयोग को रोकने के लिए क़ानून भी बने हैं। ‘द ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ ऐक्ट 1954’ के सेक्शन 2 से 9 बीच इस तरह की प्रैक्टिसेज़ का निषेध है एवं उल्लंघन करने वाले को एक साल तक की जेल व जुर्माना का प्रावधान है।

पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों का प्रभाव-क्षेत्र अधिक होता है। इसलिए पुत्र प्राप्ति की कामना रखने वाले परिवारों तक पहुँचने का रास्ता पुरुषों के सहारे ढूँढा जाता है। एक बार परिवार तक पहुँच बना लेने के बाद ये सूचनाएँ औरतों को होस्ट बना लेती हैं और संक्रमित बीमारी की तरह एक से दूसरे तक पहुँचती हैं। इन दवाइयों को लेने वाली एक औरत बातचीत में बताती है कि उन्होंने लड़का पैदा करने की आयुर्वेदिक दवाई खायी है जो उनके पति ने उन्हें दिलवायी थी। उनके पति को दवाई उनके किसी दोस्त ने दिलायी थी, जिनकी पत्नी ने भी उसे खाया था। उन्हें लगता है कि उनको जो लड़का हुआ, वह इसी दवाई से हुआ। वो बताती हैं कि इसके बाद उनकी जान-पहचान की आठ महिलाओं ने दवाई खायी और सबको फ़ायदा हुआ। यह पूछने पर कि दवाई लेने के बाद भी लड़का न हुआ हो , ऐसा कोई केस हुआ है? तब वे अपनी बहन का ज़िक्र करती हैं, ‘जिसको दवाई ने फ़ायदा नहीं किया था।’ और लड़की ही हुई, हालाँकि इसके अनेक कारण बताकर उस दम्पति को और स्वयं इस औरत को संतुष्ट कर दिया गया था। 

इस तरह की दवाइयों के के नाम पर कितने पैसे ठगे जाते हैं, यह जानने के लिए कुछ और औरतों से बात हुई तो पता चला कि अधिकतर वैद्य/डॉक्टर ऐसे हैं जो ‘दवाई के काम कर जाने पर ही फ़ीस लेते हैं।’ और तब उस फ़ीस की कोई निश्चितता नहीं होती। चढ़ावे की तरह बड़ी-बड़ी रकमें, इनामी तोहफ़े भी इन डॉक्टरों/वैद्यों के नाम किए जाते हैं। कुछ जगह बंधी फ़ीस भी है। बयान देने वाली औरत बताती है उसके समय में 101 रुपए फ़ीस थी लेकिन अब तो 5000 तक पहुँच गयी है। 

इस तरह के गिरोह में फँसने और शिक्षित होने की समीकरण भी बड़ी उलझी हुई है। शिक्षित और अशिक्षित दोनों तरह की औरतें इस चिकित्सा गिरोह की धूर्तता में फँसी हैं। ऐसा कैसे सम्भव है, इसका जवाब उत्तर प्रदेश की लचर शिक्षा व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। प्राथमिक स्तर से लेकर उच्चतर शिक्षा तक न तो बेहतर शिक्षण संस्थान हैं और न ही विज्ञान और तर्क आधारित चिंतन विकसित करने की कोई परम्परा। शिक्षा का पर्याय डिग्रियाँ बनी हुई हैं जिनको बहुत आसानी से घर बैठे पा लिया जाता है। हालत तो ऐसे निकले कि सैम्प्लिंग में शामिल अधिकतर औरतें शिक्षित थीं और लगभग आधी ग्रैजुएट थीं। विकृत शिक्षा व्यवस्था कैसे सामाजिक विसंगतियों को पनाह देकर उनको पोषित करती है, यह वहाँ पर साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। ये औरतें संतान के लिंग निर्धारण की प्राकृतिक प्रक्रिया से परिचित नहीं थीं। इसके चलते वे लड़का पैदा न हो पाने पर सामाजिक दबाव झेलती हैं और बाबा/वैद्य/डॉक्टरों के चंगुल में भी फँसती हैं।

कुछ औरतें ऐसी भी मिलीं, जिन्होंने घर-परिवार से दबाव होने बावजूद इन दवाइयों का सेवन नहीं किया। हालाँकि उनके नैतिक और आध्यात्मिक आधार ही रहे, वैज्ञानिक नहीं। ऐसी ही एक औरत, जिनको तीन लड़कियाँ हैं, बताती हैं कि उनको कई लोगों के कहने के बावजूद उन्होंने दवाई नहीं ली। ऐसा नहीं था कि उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी या कि उन्हें इन दवाओं की असलियत मालूम हो। दरअसल ऐसा करने के पीछे उनके कारण नैतिक और ईश्वरीय थे। उन्होंने बताया, ”अगर हम दवाई ले लेते और लड़का हो जाता तो हम उससे उतना अपनापन नहीं रख पाते। लगता कि जैसे वो किसी और का लड़का है। लड़कियाँ हुई हैं, हैं तो हमारी ही। जैसे हमारी ज़िंदगी कट गयी उनकी भी कट जाएगी। यह बताते-बताते वे संतान प्राप्त करने की कोशिश में लगी अपनी रिश्तेदार का ज़िक्र करती हैं, जिनको एक साधु ने पूजा के बहाने अपने से बच्चा करने के लिए कहा था। वे अपनी पड़ोस की एक लड़की का भी ज़िक्र करती हैं जिसकी अभी-अभी सरकारी नौकरी हुई है। वे कहती हैं, वो भी अपनी लड़कियों को पढ़ा-लिखाएंगी ताकि वे खुद कमा-खा सकें।

ऐसा नहीं है कि ऐसी खबरें रौशनी में नहीं आयी हैं। कई ज़िलों में इसको रोकने के प्रयास भी चल रहे हैं। हरदोई ज़िले में इस समस्या से निपटने के क्या प्रयास हुए हैं यह जानने के लिए मुख्य चिकित्सा अधिकारी देश दीपक पाल एवं ज़िला विकास अधिकारी अजय प्रताप सिंह से बातचीत हुई। पहले तो सीएमओ साहब ने गोलमोल बातें करते हुए जानकारी देने से यह कहते हुए मना कर दिया कि आप किसी प्राइवेट हॉस्पिटल में जाकर बात कीजिए, सरकारी संस्थान की जानकारियाँ ऐसे नहीं दी जा सकतीं। यह व्यवस्था की पारदर्शिता थी, जो एक सामाजिक समस्या पर एकजुट होकर लड़ने की बजाय गोपनीयता का आचरण कर रही थी। अंत में उनके प्रतिनिधि के तौर पर वरिष्ठ सहायक कमल कुमार त्रिपाठी से बात हुई और CMO साहब की तुनकमिज़ाजी की असली वजह समझ आयी। दरअसल उनके पास इस विषय पर कोई जानकारी थी ही नहीं। कमल कुमार ने बताया कि इस तरह के मामले उनके संज्ञान में नहीं हैं। यह आश्चर्य की बात थी कि जहां अन्य ज़िले ऐसे मामलों में बक़ायदा टीम बनाकर रेड कर रहे हैं, सूचना देने के लिए इनामी राशि की घोषणा कर रहे हैं, वहीं इस ज़िले के प्रशासन में कोई सचेतता नहीं दिखी। इसलिए ऐसी चिकित्सीय ठगी के लिए कोई दंडात्मक कार्यवाही या जागरूकता अभियान की अपेक्षा करना बेमानी सा लगा।

डीडीओ अजय प्रताप ने मामले में रुचि दिखाते हुए बातचीत की और बताया कि समाज को अपनी सोच बदलने की ज़रूरत है, हालाँकि उस बदलाव में उनके नेतृत्व वाले प्रशासन की ज़मीनी रणनीति क्या रहेगी, इसका कोई ज़िक्र नहीं था।

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय की शोधार्थी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। उन्होंने यह स्टोरी स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फाउंडेशन फ़ॉर इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत रिपोर्ट की है)

Uttar pradesh
Women
Prenatal Health

Related Stories

मायके और ससुराल दोनों घरों में महिलाओं को रहने का पूरा अधिकार

मैरिटल रेप : दिल्ली हाई कोर्ट के बंटे हुए फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती, क्या अब ख़त्म होगा न्याय का इंतज़ार!

सवाल: आख़िर लड़कियां ख़ुद को क्यों मानती हैं कमतर

यूपी से लेकर बिहार तक महिलाओं के शोषण-उत्पीड़न की एक सी कहानी

रूस और यूक्रेन: हर मोर्चे पर डटीं महिलाएं युद्ध के विरोध में

बिहार विधानसभा में महिला सदस्यों ने आरक्षण देने की मांग की

यूपी चुनाव: बग़ैर किसी सरकारी मदद के अपने वजूद के लिए लड़तीं कोविड विधवाएं

विशेष: लड़ेगी आधी आबादी, लड़ेंगे हम भारत के लोग!


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License