NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
महिलाएं
भारत
राजनीति
पैसे के दम पर चल रही चुनावी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी नामुमकिन
चुनावी राजनीति में झोंका जा रहा अकूत पैसा हर तरह की वंचना से पीड़ित समुदायों के प्रतिनिधित्व को कम कर देता है। महिलाओं का प्रतिनिधित्व नामुमकिन बन जाता है।
नाइश हसन
26 Feb 2022
women in politics
Image courtesy : Indiatimes

गुजरे सालों में कई ऐसे आंदोलन चले जिनका नेतृत्व महिलाओं ने संभाला। देश के कुछ बड़े आंदोलन जैसे कि शबरी माला आंदोलन, हैप्पी टू ब्लीड आंदोलन, तीन तलाक आंदोलन, मी टू आंदोलन, एनआरसी आंदोलन में महिलाएं काफी मुखर होकर सामने आई। किसान आंदोलन में भी महिलाओं ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इन आंदोलनों के नतीजे के तौर पर देखें तो पता चलता है कि महिलाएं सियासत के मामले में अब काफी जागरूक नजर आ रही है। वो बाकायदा अपने सवालों पर बहस भी करती है। अब वो अपने पतियों के कहने पर वोट नही डा़ल रहीं।

एनआरसी विरोधी आंदोलन से उभरी महिलाएं तो न सिर्फ अपना प्रत्याशी चुनने बल्कि उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने के लिए मैदान में है। उज्मा परवीन का यहां तक कहना है कि अगर कोई पार्टी उन्हें टिकट नही देती तो वो निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ना चाहेंगी। इसी तरह रानी, इरम , सुनीता , आदि महिलाएं सामने आई जो चुनाव लड़ने के लिए खुद को तैयार कर चुकी हैं। ये एक अच्छा संकेत है। आधी आबादी का नजरिया सियासत के प्रति अब मुख्तलिफ हो गया है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में ऐसा होना ही चाहिए।

इसी के साथ ये बात भी काबिले गौर है कि महिलाओं का वोट डालने का प्रतिशत भी गुजरे सालों में बढा है। इसी बात को समझते हुए सभी दल महिलाओं को अपने-अपने तरीके से प्रलोभन देने की केाशिश कर रहे हैं। अगर हम 2007 से अब तक गौर करें तो पाते हैं कि महिला मतदाताओं का प्रतिशत हर चुनाव में बढा है।  2012 के विधान सभा चुनाव में 58.68 फ़ीसदी पुरूष और 60.28 फ़ीसदी महिलाओं ने हिस्सा लिया था। इसी तरह 2017 के विधान सभा चुनाव में 59.15 फ़ीसदी पुरूष और 63.31 फ़ीसदी महिलाओं ने वोट किया था। तजर्बेकार बताते हैं कि इस बार भी इस प्रतिशत के बढने की उम्मीद है। प्रदेश में तकरीबन 7 करोड़ महिला वोटर है। इसके साथ ही प्रदेश में 8,853 थर्ड जेंडर मतदाता है। 

महिलाओं से बात करने पर ये पता चला कि इस चुनाव में उनका मुख्य मुद्दा रोजगार, महिला सुरक्षा और मंहगाई है। बातचीत में कइयों की जुबान पर हाथरस और उन्नाव बलात्कार कांड नाम आए। कानून व्यवस्था की खस्ताहाल स्थिति को भी महिलाएं अपना अहम मुद्दा मानती है, उनका कहना है कि गंभीर से गंभीर घटनाओं में भी पुलिस प्रथम सूचना दर्ज करने और कार्यवाही करने से कतराती है।

2017 के चुनाव को देखें तो तकरीबन 41 प्रतिशत महिलाओं ने भाजपा को वोट किया था, उन्हें भाजपा का साइलेंट वोटर कहा जाता रहा है। भाजपा ने भी पिछली सरकार में महिलाओं पर बढी हिंसा को मुख्य मुद्दा बनाया था और अपने लोक कल्याण संकल्प पत्र-2017 में महिलाओं से कई बड़े वादे किए थे, जैसे कि उनका पहला वादा था कि महिला उत्पीडन के मामलों के लिए वह 1000 महिला अफसरों का विशेष जांच विभाग महिला हिंसा के मामलों में और 100 फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाएंगे, इसके साथ ही वादा ये भी था कि हर जिले में तीन महिला पुलिस स्टेशन स्थापित किए जाएंगे, लेकिन वक्त गुजर गया और ये वादे उस लोक कल्याण संकल्प पत्र में ही बंद रह गए।

इस दौरान जो नजर आया वो ये था कि महिला शक्ति मिशन, गुंड़ा दमन दल, ऑपरेशन मजनू, ऑपरेशन रोमियो जैसे कुछ टाइम बांउंड गैर-गंभीर अभियान तो चले, लेकिन बेअसर ही रहे, नेश्नल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट 2021 बताती है कि महिलाओं के खिलाफ़ मामलों में उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है। राष्ट्रीय महिला आयोग में 2021 में कुल शिकायतें 30,864 दर्ज की गईं जिनमें 15,828 शिकायतें सिर्फ उत्तर प्रदेश से थी।

हमने देखा कि एक तरफ महिला की बदहाल स्थिति में कोई सुधार आता इन 5 सालों में नजर नही आया , दूसरी तरफ महिलाएं उत्साहित है चुनाव में अपना मनपनसंद प्रत्याशी चुनने और स्वयं चुनाव लड़ने में। लेकिन गुजरे सालों में जिस तरह महिलाओं के मुद्दे अनदेखे किए गए, तामाम पितृसत्तात्मक ताकतें औरतों के खिलाफ हावी दिखीं, ऐसे में क्या गरीब महिला का सियासत में जगह बना पाने का ख्वाब पूरा हो सकता है?

ये नारा अच्छा है कि लड़की हूॅं लड़ सकती हूॅं। महिलाओं में उत्साह भरता है, लेकिन वो महिलाओं की राजनीति में राह आसान नही बना पाता। क्या वजह है कि गरीब महिलाओं के बीच से राजनीतिक नेतृत्व उभर नही पाता? ये भी पड़ताल का विषय है। इसकी तह में कई बुनियादी सवाल है, जो खास कर गरीब महिलाओं को हाशिए पर ढकेल देते है।

2021 की नीति आयोग की बहुआयामी गरीबी सूचकांक रिपोर्ट बताती है कि देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की  37.79 फ़ीसदी आबादी गरीब है। ऐसे राज्य में क्या महिलाएं जिनकी कोई राजनीतिक विरासत नहीं है, वो मुख्य धारा की राजनीति कर पाएंगी। इसे और समझने के लिए हमें चुनाव में खर्च हुई रकम पर भी नजर डालनी होगी।

2022 में होने वाले चुनाव में चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनाव खर्च की अधिकतम सीमा को 28 लाख से बढाकर 40 लाख कर दिया है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट बताती है कि चुनाव के पहले चरण में 58 सीटों पर दावेदारी करने वोल 615 प्रत्याशियों में 280 करोड़पति है। आम आदमी पार्टी के 52 प्रत्याशियों में 22 करोड़पति है। प्रत्याशियों की औसत सम्पत्ति 3.72 करोड़ रूपये है। प्रदेश में मौजूदा 396 विधायकों (7 सीटें रिक्त है) में से 313 करोड़पति हैं, उनकी औसतन सम्पत्ति 5.85 करोड़ रूपये है।

एक निजी शोध संस्थान सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज ने 2017 में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें उन्होने विधानसभा चुनावों से पहले और बाद में किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक बताया था कि एक वोट पर औसतन 750 रूपये खर्च किया गया था, जो देश में सर्वाधिक था। विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने 5,500 रूपये खर्च किए थे। इसके अलावा प्रिंट और इलेक्ट्रानिक माध्यमों के जरिए प्रचार में खर्च की रकम 6 से 9 सौ करोड़ तक थी। चुनाव के दौरान 200 करोड़़ रूपये पकडे भी गए थे।

संस्था ने अपने सर्वेक्षण के अनुसार अनुमान लगाया कि मतदाताओं को वोट के बदले 1000 करोड़ नकद भी बांटे गए थे। एडीआर ने प्रत्येक प्रत्याशी द्वारा दिए गए हलफनामें की भी पड़ताल की तो पाया कि बुंदेलखंड से निर्वाचित होने वाले विधायकों ने 2017 में 16.07 लाख, पश्चिमी यूपी से जीत दर्ज करने वाले विधायकों ने औसतन 15.6 लाख, पूर्वांचल से 11.87 लाख, मध्यांचल से 12.30 लाख और रूहेलखंड से 11.39 लाख रूपये खर्च दिखाया था, यह भी किसी से छिपा नही है कि चुनाव के दौरान जो प्रत्याशी खर्च दिखाते है वह वास्तविकता से बहुत कम होता है।

ऐसे वातावरण में जब महिलाओं को दोएम दर्जे का नागरिक बनाने और उसे घरों की तरफ ढकेल देने की कवायद में किसी भी प्रकार कमी नही आ रही, प्रदेश की महिलाएं आर्थिक रूप से कमजोर हों, ग्रामीण क्षेत्र में न रोजगार हो न शिक्षा हो, ऐसे में चुनाव खर्च को देखते हुए करोड़पति प्रत्याशियों के सामने इतना पैसा जुटा पाना एक गरीब पिछडी महिला के लिए मुश्किल ही नही नामुमकिन सा है।

वह राजनीति में जोर आजमाते तमाम धनपशुओं से कैसे मुकाबला कर पाएगी? खास कर मुस्लिम, दलित और आदिवासी महिला जो ऐतिहासिक रूप से पिछड़ों में भी आखरी पायदान पर खड़ी है, उसके लिए तो नेतृत्व कर पाना अभी ख्वाब जैसा ही है।

मौजूदा सरकार महिला हितैषी होने का बहुत दिखावा करती रही। तीन तलाक पर बहुत सीनाजनी करती रही, लेकिन वास्तविकता ये है कि किसी भी महिला को मुख्य धारा में जगह दिलाने के लिए जमीन पर सरकार ने कोई ऐसा काम ही नही किया, अगर सरकार महिलाओं के सवाल पर संजीदा होती तो बहुमत की सरकार कम से कम महिला आरक्षण बिल तो पास करा ही सकती थी, लेकिन ऐसा भी हो न सका।

इसीलिए सियासत में कोई मुकाम पाती केवल वही महिलाएं दिखती हैं जो राजनीतिक परिवारों की विरासत संभाल रही है। बाकी के लिए सियासत एक सपना ही है। सवाल यह है कि आधी आबादी का एक बड़ा हिस्सा जिसमें उत्साह है, कुछ करने की क्षमता भी है वह अपनी सियासी भागीदारी कैसे बढाए, उसे पर्याप्त अवसर कैसे मिले, यह बड़ा प्रश्न है। यह बहुत मुनासिब वक्त था जब संसद में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण बिल जो पिछले 25 वर्षो से लंबित है, उसे पास कर दिया गया होता तो निश्चित रूप से महिलाओं की संख्या राजनीति में बढ जाती जो भारत के लोकतंत्र को गौरवांन्वित भी करती।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

Women in Politics
Women to participate in electoral politics
Money in indian election
Representation of women in parliament
Women Leadership

Related Stories

विधानसभा चुनाव 2022: पहली बार चुनावी मैदान से विधानसभा का सफ़र तय करने वाली महिलाएं

यूपी: सत्ता के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने वाली महिलाओं का संघर्ष हार-जीत से कहीं आगे है

पंजाब की सियासत में महिलाएं आहिस्ता-आहिस्ता अपनी जगह बना रही हैं 


बाकी खबरें

  • सत्यम् तिवारी
    वाद-विवाद; विनोद कुमार शुक्ल : "मुझे अब तक मालूम नहीं हुआ था, कि मैं ठगा जा रहा हूँ"
    16 Mar 2022
    लेखक-प्रकाशक की अनबन, किताबों में प्रूफ़ की ग़लतियाँ, प्रकाशकों की मनमानी; ये बातें हिंदी साहित्य के लिए नई नहीं हैं। मगर पिछले 10 दिनों में जो घटनाएं सामने आई हैं
  • pramod samvant
    राज कुमार
    फ़ैक्ट चेकः प्रमोद सावंत के बयान की पड़ताल,क्या कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार कांग्रेस ने किये?
    16 Mar 2022
    भाजपा के नेता महत्वपूर्ण तथ्यों को इधर-उधर कर दे रहे हैं। इंटरनेट पर इस समय इस बारे में काफी ग़लत प्रचार मौजूद है। एक तथ्य को लेकर काफी विवाद है कि उस समय यानी 1990 केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी।…
  • election result
    नीलू व्यास
    विधानसभा चुनाव परिणाम: लोकतंत्र को गूंगा-बहरा बनाने की प्रक्रिया
    16 Mar 2022
    जब कोई मतदाता सरकार से प्राप्त होने लाभों के लिए खुद को ‘ऋणी’ महसूस करता है और बेरोजगारी, स्वास्थ्य कुप्रबंधन इत्यादि को लेकर जवाबदेही की मांग करने में विफल रहता है, तो इसे कहीं से भी लोकतंत्र के लिए…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    फ़ेसबुक पर 23 अज्ञात विज्ञापनदाताओं ने बीजेपी को प्रोत्साहित करने के लिए जमा किये 5 करोड़ रुपये
    16 Mar 2022
    किसी भी राजनीतिक पार्टी को प्रश्रय ना देने और उससे जुड़ी पोस्ट को खुद से प्रोत्सान न देने के अपने नियम का फ़ेसबुक ने धड़ल्ले से उल्लंघन किया है। फ़ेसबुक ने कुछ अज्ञात और अप्रत्यक्ष ढंग
  • Delimitation
    अनीस ज़रगर
    जम्मू-कश्मीर: परिसीमन आयोग ने प्रस्तावों को तैयार किया, 21 मार्च तक ऐतराज़ दर्ज करने का समय
    16 Mar 2022
    आयोग लोगों के साथ बैठकें करने के लिए ​28​​ और ​29​​ मार्च को केंद्र शासित प्रदेश का दौरा करेगा।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License