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पंद्रहवा वित्त आयोग: राजकोषीय केंद्रीयकरण को नवउदारवादी बढ़ावा
2021 के बजट में खुला ऐलान किया गया गया है कि विनिवेश, रणनीतिक बिक्रियों तथा परिसंपत्तियों के मॉनीटाइजेशन के जरिए पहले से मौजूद सार्वजनिक परिसंपत्तियों को बेच कर बजट खर्चों के लिए वित्त व्यवस्था की जाएगी।
सी.पी.चंद्रशेखर
05 Mar 2021
पंद्रहवा वित्त आयोग: राजकोषीय केंद्रीयकरण को नवउदारवादी बढ़ावा

सुर्खियां तो यही बताती हैं कि पंद्रहवें वित्त आयोग ने, 2021-26 के लिए केंद्र के राजस्व के विभाज्य पूल में राज्यों का संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत बनने वाला हिस्सा तय करने में, उनके साथ कोई अन्याय नहीं किया है। वह कमोबेश, 14वें वित्त आयोग की इस सिफारिश पर ही कायम रहा है कि राज्यों का हिस्सा 42 फीसद रहे। उसमें सिर्फ 1 फीसद की कमी की गयी है ताकि जम्मू-कश्मीर के एक राज्य से दो केंद्र शासित क्षेत्रों में तब्दील किए जाने को हिसाब में लिया जा सके। इसके अलावा, विभिन्न राज्यों के तुलनात्मक हिस्से तय करने के लिए 1971 तथा 2011 के आबादी के आंकड़ों के एक मिश्रण का अब तक जो सहारा लिया जाता था, उससे छुट्टी पा ली गयी है। बहरहाल, उसने आंशिक रूप से इसकी आलोचनाओं का निराकरण कर दिया है कि 2011 की ही आबादी के आंकड़ों का सहारा लिया जाता है, तो यह व्यवहार में केरल जैसे उन राज्यों के खिलाफ जाएगा, जिनका आबादी नियंत्रण का रिकार्ड कहीं बेहतर रहा है।

जाहिर है कि आबादी के इस आंकड़े हिसाब से, देश की आबादी में ऐसे राज्यों का हिस्सा, पहले वाले आंकड़े से कम हो गया है। उसने 2011 के आबादी के आंकड़ों में, एक ऐसे जनसांख्यिकीय मानदंड को और जोड़ दिया है, तो उन राज्यों के पक्ष में जाता है, जिन्होंने अपनी संतानोत्पत्ति की दरों को निचले स्तर पर ले जाने में कामयाबी पायी है। 14 वें वित्त आयोग की सिफारिशों में राज्यों का हिस्सा तय करने में, उनकी 1971 की आबादी के आंकड़े को 17.5 फीसद वजन दिया गया था और 2011 की आबादी को, 10 फीसद। 15वें वित्त आयोग ने 1971 के आंकड़े को छोड़ ही दिया है और 2011 के आबादी के आंकड़े को 10 फीसद वजन दिया है, जबकि 12.5 फीसद वजन, संतानोत्पत्ति दर से जुड़े मानदंड का दिया है। इसके अलावा उसने पहले वाले उस तरीके को जारी रखा है जिसमें कुछ राज्यों को राजस्व घाटा अनुदान दिए जाते हैं ताकि हारीजेंटल वितरण फार्मूले के हिसाब से खर्चों की तुलना में उनकी प्राप्तियों की कमी की भरपाई की जा सके। इसके लिए 17 राज्यों के लिए 2.95 लाख करोड़ रु0 का आवंटन किया गया है।

केंद्र के पक्ष में झुकाव

अपने पूर्ववर्ती वित्त आयोगों के वर्टिकल तथा होरीजेंटल वितरण के मानदंडों पर या उनके करीब ही बने रहने के अपने इन कदमों से, 15वां वित्त आयोग हानिरहित नजर आता है। ऐसा इसलिए और भी ज्यादा है कि इसकी विचार शर्तें जब जारी की गयी थीं, वे विवादों से घिरी रही थीं। बहरहाल, इन कदमों के पीछे ऐसे मुद्दे झांक रहे हैं जो राजकोषीय केंद्रीयकरण की उन प्रवृत्तियों का निराकरण करने में विफलता को और यहां तक कि उनके और बढ़ जाने को ही दिखाते हैं, जो प्रवृत्तियां राज्यों को राजकोषीय कगार से नीचे धकेल रही हैं। 15वां वित्त आयोग राज्यों के हिस्से पर विचार ऐसे समय पर कर रहा था, जब प्रत्यक्ष कराधान के मामले में नरमी के रुख, राजस्व संकुचनकारी जीएसटी व्यवस्था में समस्यापूर्ण संक्रमण, राजकोषीय व आर्थिक नीतियों के केंद्रीयकरण की आक्रामक कोशिश और स्वैच्छिक या जबरन थोपे गए राजकोषीय अनुदारतावाद के योग ने, राज्यों को राजकोषीय मुश्किल में फंसा दिया है।

राजकोषीय दबाव के चलते उनके लिए रोजमर्रा के, अपरिहार्य तथा विवेकाधीन, खर्च के निर्णयों की भरपाई तक के लिए संसाधनों का आबंटन मुश्किल हो गया है। इस दबाव को जीएसटी निजाम की विफलता ने और बढ़ा दिया है। यह व्यवस्था, अपना पालन शुरू होने के चार साल बाद भी, सामान्य हालात में भी प्रत्याशा के अनुरूप राजस्व पैदा नहीं कर पायी है, फिर 2020-21 जैसे संकट के वर्ष की तो बात ही क्या करना। चूंकि जीएसटी राजस्व में 14 फीसद सालाना की कल्पित वृद्घि से किसी भी कमी की क्षतिपूर्ति किए जाने की व्यवस्था का समय, 2022 के मार्च में खत्म होने जा रहा है, इसकी संभावना बिल्कुल वास्तविक है कि राज्यों के स्तर पर ऐसा राजकोषीय संकट पैदा हो सकता है कि संभालना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए, आयोग को इस संकट का निवारण करने के रास्तों पर विचार करना चाहिए था।

इस संदर्भ में, हाल के दशकों में एक के बाद एक वित्त आयोग अपने रुख में जिस तरह का नवउदारवादी झुकाव अपनाते गए हैं, उसने संसाधनों के आवंटन को तय करना कहीं कठित बना दिया है। इसकी अभिव्यक्ति वित्त आयोग के इस रुख में होती है कि वह यह तो तय नहीं कर सकता है कि सरकार के कर राजस्व का परिमाण कितना होना चाहिए तथा उसे किस तरह से जुटाया जाना चाहिए, लेकिन उसे राजकोषीय समझदारी के पालन पर जोर देना ही होगा। इसके लिए, आयोग की सिफारिशों की अवधि के लिए, राजकोषीय घाटे के कठोर लक्ष्य तय किए जाते रहे हैं। इससे, राज्य सरकारों की न्यूनतम जरूरतें तथा उचित मांगें  पूरी करना उतना ही ज्यादा मुश्किल होता गया है।

इस समस्या का समाधान निकालने के बजाए, 15वें वित्त आयोग का झुकाव केंद्र के ही पक्ष में रहा है। उसने निहितार्थत: केंद्र सरकार की इसकी प्रवृत्ति का अनुमोदन किया है कि राजकोषीय रूप से प्रतिकूल नवउदारवादी नीतियां अपनायी जाएं और इससे होने वाली राजस्व हानि की भरपाई, राज्यों को राजस्व से वंचित करते हुए, ऐसे साधनों से की जाए, जो केंद्र की ही राजकोषीय स्थिति को मजबूत बनाते हैं। 2018-19 में 7.6 लाख करोड़ रु के अपने शीर्ष पर पहुंचने के बाद, अगले दो वर्षों के दौरान केंद्र से राज्यों के लिए आवंटित होने वाली राशि उल्लेखनीय रूप से सिकुड़ गयी थी। हालांकि, 15वें वित्त आयोग ने आशावादी तरीके से 2021-22 में इन हस्तांतरणों के बढक़र 6.7 लाख करोड़ हो जाने की भविष्यवाणी की है, यह आंकड़ा भी 2017-18 में हासिल किए जा चुके स्तर से भी नीचे ही है।

राजकोषीय संकट बढ़ाने वाले, कारोबारी-हितकारी, नवउदारवादी राजकोषीय कदम उठाने की केंद्र सरकार की प्रवृत्ति का एक उदाहरण, मंदी के बीचौबीच कार्पोरेट करों में रियायतें देने के उसके 2019 के सितंबर के फैसले के रूप में सामने आया। आधार कार्पोरेट टैक्स दर 30 फीसद से घटाकर 22 फीसद कर दी गयी और 1 अक्टूबर 2019 के बाद इन्कार्पोरेट हुई नयी विनिर्माण फर्मों के लिए, 25 से घटाकर 15 फीसद कर दी गयी। 2019-20 में कार्पोरेट कर राजस्व 1,50,000 करोड़ रु0 घट गया और राज्यों के हिस्से में 65,000 करोड़ रु0 की कमी हो गयी। बेशक, यह कहा जा सकता है कि ऐसे फैसलों का असर तो केंद्र के अपने राजस्व पर भी पड़ता है। लेकिन, बड़े व्यवसाइयों को फायदा पहुंचाने के लिए कर राजस्व का एक हिस्सा छोडऩे का फैसला केंद्र सरकार ने, राज्यों से किसी तरह का परामर्श किए बिना ही किया था। इसके अलावा केंद्र के पास तो ऐसे उपाय हैं जिनसे वह अपने राजस्व में कमी की भरपाई कर सकता है, जैसे वह भारतीय रिजर्व बैंक के विशेष लाभांश की वसूली कर सकता है, पैसा बटोरने के लिए सार्वजनिक परिसंपत्तियों को बेच सकता है और राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों को स्थगित कर के, अपने ऋणों को बढ़ा सकता है। 2021 के बजट में नंगई से इसका एलान किया गया है कि विनिवेश, रणनीतिक बिक्रियों तथा परिसंपत्तियों के मॉनीटाइजेशन के जरिए, पहले से मौजूद सार्वजनिक परिसंपत्तियों को बेचने के रास्ते से, बजट खर्चों के लिए वित्त व्यवस्था की जाएगी।

लेकिन, राज्य सरकारों के पास ये विकल्प नहीं होते हैं। यहां तक कि अगर वे सार्वजनिक परिसंपत्तियों को बेचने के अतार्किक नवउदारवादी रास्ते पर केंद्र के पीछे-पीछे चलना भी चाहें तो, उनके हाथ में बिक्री के लिए बहुत सीमित सार्वजनिक परिसंपत्तियां ही होती हैं। बेशक, यह तय करना वित्त आयोग के विचार क्षेत्र में नहीं आता है कि केंद्र कैसे राजकोषीय पैंतरे आजमा सकता है। लेकिन, अगर इन पैंतरों से राजस्व घटते हैं और इसके चलते यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त राजस्व नहीं रहते हैं कि राज्य, संविधान में उन्हें जो जिम्मेदारियां सौंपी गयी हैं, उन्हें पूरा कर सकें, तो केंद्र के ऐसे पैंतरों को अनदेखा करने या उनका समर्थन करने के जरिए, वित्त आयोग यह रेखांकित करने में विफल हो रहा होगा कि उसके लिए एक न्यायपूर्ण वर्टिकल तथा हॉरीजेंटल वितरण एवार्ड सुनिश्चित करना क्यों मुश्किल हो रहा है। केंद्र के प्रति अपने झुकाव को प्रदर्शित करते हुए, जहां 15वें वित्त आयोग ने केंद्र सरकार की नीतियों के चलते होने वाली राजस्व हानि को हिसाब में लेने से इंकार कर दिया है, वहीं उसने राज्यों के बीच इन बांटे जाने वाले संसाधनों का बंटवारा तय करने के अपने फार्मूले में, एक नया कराधान-प्रयास मानदंड जोड़ दिया है, जो प्रतिव्यक्ति सकल कर राजस्व तथा प्रतिव्यक्ति सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के तीन साला औसत से तय होगा। इस तरह, जहां राज्यों के हिस्से को उनके कर-संबंधी प्रदर्शन से जोड़ दिया गया है, वहीं जब खर्च करना विशेष रूप से जरूरी हो, तब भी कर राजस्व को छोड़ देने की केंद्र की प्रवृत्ति को, अनदेखा ही कर दिया गया है।

महसूलों और अधिभारों का सहारा

केंद्र के कराधान के रिकार्ड की आलोचनात्मक तरीके से पड़ताल करने में 15वें वित्त आयोग की विफलता या उसकी ओर ऐसे किसी प्रयास की नामौजूदगी, बहुत ही साफ तौर पर महसूलों तथा अधिभारों पर केंद्र की बढ़ती निर्भरता के प्रति उसके रुख में दिखाई देती है। इस पैंतरे के जरिए केंद्र सरकार, पिछले वित्त आयोगों के अवार्डों को विफल करती आयी है और अपने नवउदारवादी कदमों के चलते होने वाले अपने राजस्व के नुकसान की इसी तरह भरपाई करती आयी है। चूंकि महसूलों तथा अधिभारों के राजस्व को राज्यों के साथ नहीं बांटा जाता है, इन पर बढ़ती निर्भरता केंद्र के कर राजस्व में राज्यों को मिलने वाले हिस्से को घटाने का काम करती है। केंद्र के कुल कर राजस्व में महसूलों तथा अधिभारों की प्राप्तियों का हिस्सा, 2010-11 के 10.4 फीसद से बढक़र, करीब दोगुना हो गया है और 2020-21 के बजट अनुमान में 19.9 फीसद पर पहुंच गया। वक्त गुजरने के साथ, जहां जीडीपी के हिस्से के तौर पर केंद्र का कुल कर राजस्व सिकुड़ गया है (2012-13 के 10.4 फीसद से घटकर 2019-20 में 9.9 फीसद पर आ गया है) वहीं महसूलों तथा अधिभारों का हिस्सा तेजी से बढ़ा है (0.9 फीसद से बढक़र 17 फीसद पर पहुंच गया है)। इस तरह, राज्यों से साथ बांटे जाने वाले संसाधनों में भारी कमी हुई है। 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष, एन के सिंह ने इस मामले में व्यापक स्तर पर परामर्श की जरूरत की ओर इशारा किया है, क्योंकि ‘निश्चित रूप से किसी सरकार की, संवैधानिक विशेषज्ञों की तथा संविधान संशोधन (सन 2000) की यह मंशा नहीं हो सकता है कि वित्त आयोग के अवॉर्ड  के जरिए जो भी हिस्सा दिया जाता है, उसे उसके साथ ही साथ महसूल व अधिभार में बढ़ोतरी के जरिए निष्प्रभावी बना दिया जाए।’ इसके बावजूद, वित्त आयोग ने इस मुद्दे को इस आधार पर निपटाए बिना ही छोड़ दिया कि यह उसके दायरे में नहीं आता है।

हस्तांतरण की शर्तें

राज्यों के लिए हस्तांतरित होने वाले संसाधनों के परिमाण को घटाने वाली केंद्र सरकार की तिकड़मों का निहितार्थत: अनुमोदन करने के अलावा, 15वें वित्त आयोग ने हस्तांतरण की शर्तों में भी ऐसे बदलाव किए हैं जो राज्य सरकारों की नीतिगत स्वतंत्रता को घटाते हैं, राज्य स्तर की प्राथमिकताओं को तय करने में केंद्रीय दखलंदाजी की गुंजाइश को बढ़ाते हैं और नवउदारवादी आर्थिक एजेंडा को आगे बढ़ाते हैं। इस काम के लिए दो औजारों का इस्तेमाल किया गया है। (1) राज्यों तथा स्थानीय निकायों को हस्तांतरित किए जाने वाले ऐसे संसाधनों का हिस्सा बढ़ाया गया है, जो खास इलाकों या क्षेत्रों या योजनाओं के साथ बंधे हुए हैं। (2) हस्तांतरणों को प्रदर्शन के ऐसे मानदंडों के साथ बांध दिया गया है, जिनका मकसद साफ तौर पर नवउदारवादी नीतियां थोपना है। कुल मिलाकर 15वें वित्त आयोग द्वारा सुझाए गए तथा केंद्र द्वारा स्वीकार कर लिए गए ऐसे अनुदानों का हिस्सा जो खास-खास सुधार किए जाने की शर्त के साथ जुड़े हुए हैं, फिलहाल 57 फीसद हो गया है, जबकि 14वें वित्त आयोग की सिफरिशों के मामले में सिर्फ 17 फीसद था।

स्थानीय निकायों के लिए अनुदान की व्यवस्था, एक ऐसा कदम था जो 14वें वित्त आयोग ने अपनाया था ताकि निचले स्तरों के लिए समुचित आवंटन सुनिश्चित किया जा सके। उसी प्रकार, 15वें वित्त आयोग ने स्थानीय निकायों के लिए कुल 4.36 लाख करोड़ रु0 के अनुदानों की सिफारिश की है। लेकिन, इस राशि के प्रचंड रूप से बड़े हिस्से का वितरण सशर्त है और खास-खास चीजों के लिए ही है। राज्यों को, राज्य स्तर से अनुदानों को तय करने के लिए, राज्य वित्त आयोगों का गठन करना होगा, ताकि 2024 के मार्च तक सिफारिशों के परिपालन की रिपोर्ट दे दें। राज्य अगर इसमें विफल रहते हैं तो स्थानीय निकायों को और अनुदान नहीं मिलेगा। इसके अलावा, प्रदर्शन से जुड़ी हुई शर्तें भी हैं, जैसे संपत्ति कर के लिए फ्लोर रेट अधिसूचित करना, ‘संपत्ति करों के संग्रह में निरंतर सुधार, जो राज्य के अपने सकल राज्य घरेलू उत्पाद में वृद्घि की दर से कदम मिलाकर चले’ सुनिश्चित करना और वित्त वर्ष 2021-22 से ऑनलाइन खाते उपलब्ध कराना। आखिरी बात यह कि इन अनुदानों में से 60 फीसद, सेनीटेशन तथा पानी की आपूर्ति के प्रावधान से जुड़े होंगे। बेशक, इसमें से कुछ वांछनीय हो सकते हैं, फिर भी यह तो राज्यों तथा स्थानीय निकायों को अपनी प्राथमिकताएं तय करने के अधिकार से ही वंचित करना है और संसाधनों के वैधानिक वितरण का इस्तेमाल, केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं तथा उसकी चहेती योजनाओं को, राज्यों पर थोपने तथा उनकी प्राथमिकताओं के ऊपर रखने के औजार के रूप में करना ही हो गया।

15वें वित्त आयोग ने केंद्र के इस सुझाव को भी स्वीकार कर लिया है कि प्रतिरक्षा तथा आंतरिक सुरक्षा के आधुनिकीकरण की जरूरतें पूरी करने के लिए एक लैप्स न होने वाला, समर्पित कोष स्थापित किया जाए। इसके लिए आंशिक रूप से तो फंडिंग कंसोलिडेटेड फंड ऑफ इंडिया से पांच साल के अर्से में, 1.53 लाख करोड़ रु0 के हस्तांतरण से होनी है, लेकिन इस संबंध में अस्पष्टïता बनी हुई है कि और संसाधन कहां से आएंगे। चूंकि केंद्र सरकार की ओर से इसका दावा किया जाता रहा है कि राज्यों को भी प्रतिरक्षा तथा सुरक्षा का बोझ उठाने में हिस्सा बंटाना चाहिए, इससे इसका द्वार खुल सकता है कि संसाधनों में राज्यों के हिस्से में से एक भाग, इस कोष के लिए साधन जुटाने के लिए मांगा जाने लगे।

आखिरी बात यह है कि 15वें वित्त आयोग ने राज्यों की इस मांग को स्वीकार नहीं किया है कि उन्हें अपने तात्कालिक राजकोषीय दबाव से निपटने के लिए कहीं बड़ी मात्रा में ऋण लेने की इजाजत दी जाए और बिना शर्तें लगाए ऐसे ऋण लेने की इजाजत दी जाए। राज्य सरकारों के शुद्ध ऋण की आधार सीमा, जो कोविड संकट के बाद 2021-22 में जीएसडीपी के 4 स्तर तक तय की गयी थी, 2022-23 में घटकर 3.5 फीसद हो जानी है और 2025-26 तक, 3 फीसद की एफआरबीएम के लक्ष्य की सीमा में आ जानी है। इस तरह, कोविड संकट के चलते राज्यों को 1 फीसद की जो अतिरिक्त ऋण गुंजाइश दी गयी थी, उसे घटाकर राज्यों के लिए जीएसडीपी के 0.5 फीसद के स्तर पर ला दिया गया है और इसके लिए भी बिजली क्षेत्र के सुधारों को पूरा करने की शर्त लगा दी गयी है।

15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट की ये चीजें, केंद्र के पक्ष में ऐसे झुकाव को दिखाती हैं, जो हाल के वर्षों में तेज कर दिए गए राजकोषीय केंद्रीयकरण को उल्लेखनीय ढंग से बढ़ा देगा। यह सभी राज्य सरकारों को राजनीतिक रूप से विघटनकारी राजकोषीय संकट में धकेल देगा। अचरज की बात नहीं है कि केंद्र सरकार ने बड़ी तत्परता से इनमें से अनेक सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है और ज्यादा संभावना इसी की है कि वह ज्यादातर दूसरी सिफारिशें भी मंजूर कर लेगी।    

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

15th Finance Panel: Hurtling Towards Fiscal Centralisation

15th Finance Commission
Centre-State Taxes
Fiscal Centralisation
States’ Tax Share
GST Shortfall
Tax Devolution
Tax revenues
Neoliberalism

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