लातिनी भाषा में दो शब्द हैं ‘एन्नुस हॉरिबिलिस’ या बुरा वर्ष जो 2020 के अंत में भारतीय श्रमिक वर्ग की स्थिति और आम लोगों के हालात का वर्णन करते हैं। 2020 विपत्तियों से भरा वर्ष रहा है, क्योंकि साल शुरू होते-होते कोरोना महामारी ने श्रमिकों के वे सारे अधिकार छीन लिए, जो दशकों लम्बे संघर्ष के बाद अर्जित किये गए थे। इन अर्थों में कहा जा सकता है कि 2020 श्रमिक-विरोधी आक्रमणों के लिए इतिहास में जरूर दर्ज किया जाएगा।
अनौपचारिक श्रम भारतीय श्रमिक वर्ग का सबसे बड़ा हिस्सा है, और उसे ही कोविड-19 के प्रभाव को सबसे अधिक झेलना पड़ा है। लॉकडाउन ने उनकी आजीविका और जीवन को उतना ही संकट में डाला जितना कि वायरस ने-शायद यह कहना मुश्किल होगा कि कौन सा अधिक खतरनाक था-वायरस या लॉकडाउन। जबरन प्रवास ने 8 से 10 करोड़ प्रवासी मजदूरों को जिस तरह सड़कों पर ला दिया, उसके समान भारतीय इतिहास में सिर्फ एक घटना है-विभाजन। अपने काम और रिहायशी इलाकों से मजबूरन उजाड़े गए इन मजदूरों के काम और भविष्य का क्या कोई ठिकाना था? वे अपने और अपनों के जीवन को बचाने की खातिर सैकड़ों किलोमीटर चलने को तैयार हो गए और इस दृष्य ने विश्व की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया था। आम लोगों ने भी सहानुभूति और एकता की अभूतपूर्व मिसाल पेश की। फिर इससे ‘कल्याणकारी राज्य’ के मुलम्मे पर, चाहे वह भारत का हो या कोई और देश का, प्रश्नचिह्न लगा दिया।
भारतीय इतिहास में पहली बार, जब देश-विदेश का आक्रोश मजदूरों की दुर्दशा पर फूट पड़ा, 3500 स्पेशल ट्रेनों ने 50 लाख से अधिक प्रवासी मजदूरों को ढोया। हजारों श्रमिकों की पूरी कमाई टिकट खरीदने में चली गई और लम्बी कतारों में घंटों खड़े रहने की पीड़ा अलग थी-केवल किसी तरह घर पहुंच जाने के लिए। सर्वोच्च न्यायलय के आदेश पर ही सरकारों ने किराया माफ करने की बात कही पर आज तक केंद्र, राज्य और रेलवे विभाग एकमत न हो सके कि यात्रा भाड़े को तीनों के बीच कैसे बांटा जाएगा। 100 से अधिक लोग तो रेलवे प्रांगण में ही मर गए। पर भारत के ग्रामीणों की सहृदयता के कारण लाखों कामगार लोग सुरक्षित पहुंच सके। पर गरीबों की लाई-चने वाली एकजुटता ने मानवता की एक नई गाथा को लिख डाला।
जबकि आवश्यक सेवा देने वालों को छोड़कर सभी श्रमिकों को अस्थायी तौर पर चार महीनों के लिए अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा था, बहुतों के रोजगार हमेशा के लिए चले गये। संगठित क्षेत्र को भी भारी संकट का सामना करना पड़ा। सरकार के पास काम से हाथ धोने वालों का आंकड़ा आज तक नहीं है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी, सीएमआईई (CMIE) ने खत्म हुए वैतनिक रोजगार का आंकड़ा 1 करोड़ 89 लाख बताया। यहां तक कि सरकार-समर्थक कही जाने वाली पत्रिका इंडिया टुडे और सम्मानित अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने सीएमआईई के कुल रोजगार-हानि के आंकड़े का समर्थन किया, जिसमें वैतनिक संगठित क्षेत्र के रोजगार और अनौपचारिक क्षेत्र के काम सहित स्व-रोजगारयुक्त दुकानदार शामिल थे। यह आंकड़ा था 12.2 करोड़!
दरअसल मई 2020 में बेरोजगारी का सरकारी आंकड़ा अभूतपूर्व साबित हुआ -27.1 प्रतिशत, और यह तो सीएमआईई के आंकड़े को भी मात देता है। यदि हम मानें कि कुल कार्यशक्ति 60 करोड़ है, 27.1 प्रतिशत बेरोज़गारी के मायने हैं 16.26 करोड़ लोग अप्रैल से लेकर मई 2020 के बीच बेरोजगार थे; यानी एक-तिहाई कार्यशक्ति को घर बैठना पड़ा।
यही नहीं, बहुतों को वैधानिक कार्य-समाप्ति लाभ तक नहीं मिला। सरकारी आदेश के बावजूद कइयों को लॉकाडाउन की अवधि का वेतन भी नहीं मिला। और इतने बड़े प्रलयकारी उथल-पुथल के बावजूद आधुनिक भारतीय राज्य ने किसी वैतनिक श्रमिक को ‘जॉब लॉस’ के लिए मुआवजा नहीं दिया। यह एक चमत्कार ही है कि भारत के श्रमिक इतनी बड़ी आपदा को सह सके।
क्षेत्रीय तौर पर देखें तो सर्विस सेक्टर के कामगार, जिनमें आईटी वर्करों की सबसे बड़ी तादाद थी, भारतीय श्रमिकों का सबसे बड़े हिस्से के रूप में उभरे; इनके लिए ‘वर्क फ्रॉम होम’(work from home) ही आदर्श बन गया। कॉरपोरेट प्रबंधन के लिए यह नया अविष्कार था कि वे अपने कर्मचारियों का और अधिक शोषण कम कीमत पर करते हुए प्रतिदिन 12-14 घंटे काम ले सकते थे। कई श्रमिकों को सारी-सारी रात जागकर काम करना पड़ा और हज़ारों को दैनिक क्रिया के लिए तक समय नहीं दिया गया। इसमें सबसे बुरा हाल महिलाओं का था, जिन्हें घर के काम के साथ ऑफिस का काम मिलाकर करना पड़ा। ऐसे कर्मियों को पहली बार महसूस हुआ कि काम के घंटों को नियंत्रित करने के लिए एक कानून की सख़्त जरूरत है, पर सरकार सोती रही। 2020 में कार्यक्षेत्र की गुलामी का नया नाम हो गया ‘वर्क फ्रॉम होम’ वाली गुलामी। स्वास्थ्य कर्मियों को भी जान जोखिम में डालकर हुए रात-दिन काम करना पड़ा, और इसके लिए उन्हें उचित इन्सेटिंव व संरक्षा नहीं दी गई।
2020 में भारतीय श्रमिकों ने जो सबसे बुरा आक्रमण झेला वह था विधान-संबंधी आक्रमण। सदियों के कानूनी अधिकार 4 कानूनी कोड्स के माध्यम से छीन लिये गए; यह 44 लेबर कानूनों के समेकन के नाम पर किये गए। इनमें से 3 कोड 2020 में पारित हुए।
एक कोड औद्योगिक विवादों को लेकर है जो हड़ताल के अधिकार को तबतक टाल सकता है जबतक समझौते की निर्धारित प्रक्रियाएं और मुकदमेबाज़ी समाप्त हो जाएं, जो 10 साल भी हो सकता है। श्रमिकों को इन्तजार करना पड़ेगा यद्यपि उन्हें अन्यायपूर्ण बर्खास्तगी और गैरकानूनी वेतन कटौती पर हड़ताल करनी होगी। इस कोड ने मालिकों के लिए ट्रेड यूनियजों को मान्यता देना अनिवार्य नहीं बनाया, बल्कि मान्यता देने के लिए कई मानदंड तय कर दिये हैं।
वेतन पर कोड तो जुलाई 2019 में ही पारित हो चुका था और 2020 बीत गया पर अस्थायी कर्मियों और गिग वर्करों को पूरी तरह नज़रंदाज कर दिया गया। जिन बातों को बिना किसी लाग-लपेट के सीधे तौर पर लिखा जाना था, उन्हें कुछ नियमों यानी रूल्स पर छोड़ दिया गया, जो राज्यों में लेबर नौकरशाही के विवेक के अनुरूप गढ़े जाएंगे। एक राज्यस्तरीय क्षुद्र नौकरशाह को पावर दे दिया गया है कि वह किसी भी औद्योगिक श्रेणी को कोड के दायरे से मुक्त कर दे। कई बार तो नियम कानून के टेक्स्ट का ही उलंघन करते हुए नजर आते हैं। केंद्र द्वारा तय किया गया न्यूनतम वेतन राज्यों के लिए बाध्यकारी नहीं होता और ‘न्यूनतम’ वेतन भी वेतन सीमा के लिए बाध्यकारी नहीं होता। न्यूनतम वेतन लागू करने की जवाबदारी किसी की नहीं होती और मालिक यदि न्यूनतम वेतन न भी दे रहे हों, उनके लिए कड़ी सजा का प्रावधान नहीं है। यानी कुछ जुर्माना भर देना मालिकों के लिए न्यूनतम वेतन देने से अधिक लाभकारी साबित होता है।
फिर है सामाजिक सुरक्षा कोड। सरकार ने सामाजिक सुरक्षा कानून के 4 अलग-अलग मसौदे बनाए। पहले मसौदे ने सेवानिवृत्ति पेंशन सहित 14 सामाजिक सुरक्षा लाभों की बात आखरी श्रमिक तक को देने की बात की। पर चौथे मसौदे से यह सकल आश्वासन गायब हो गया। सामाजिक सुरक्षा अंततः मानव सुरक्षा है-मानव अस्तित्व के लिए गारंटी। क्या श्रमिकों की अलग-अलग श्रेणियों के लिए अलग-अलग सामाजिक सुरक्षा मापदंड हो सकते हैं? श्रम मंत्रालय का ऐसा ही विचार है। मालिकों के जो दायित्व हैं वे सही तरह से लागू नहीं होते। सुपरवाइजरों को बहुत सारे सामाजिक सुरक्षा लाभों से मुक्त रखा गया है। सार्वजनिक क्षेत्र के वर्करों और संगठित निजी क्षत्र कर्मचारियों को ठेके पर या अस्थायी श्रमिक के रूप में खटावाया जा रहा है, वह भी ग्रैचुइटी के बगैर। अब तय हो गया है कि ईएसआई अस्पतालों को प्राईवेट हाथों में सौंप दिया जाएगा।
नया राष्ट्रीय पेंशन स्कीम यानी एनपीएस, जिसका श्रमिकों ने जबरदस्त विरोध किया था, अब ईपीएस की जगह उनपर जबरन थोपा जाएगा। अब 10 लाख करोड़ का ईपीएफओ वर्कर्स फंड निजी कॉरपोरेटों के हाथों में होगा। सर्वोच्च न्यायालय को श्रम विभाग को इस बात के लिए फटकार लगानी पड़ी है कि असंगठित श्रम कल्याण फंड द्वारा एकत्रित दसियों हज़ार करोड़ रुपयों को उसके द्वारा खर्च नहीं किया गया, मस्लन निर्माण मजदूरों के लिए एकत्रित फंड को। पर उनके ईपीएफ को देने में देरी करने के लिए मालिकों पर कोई दंड नहीं लगाया गया।
एक कोड लाया गया जो व्यवसायिक संरक्षा और कार्यस्थितियों के बारे में है पर उसमें व्यावसायिक संरक्षा को परिभाषित नहीं किया गया है। संरक्षा के मापदंड तय करने का काम राज्य सरकारों के जिम्मे छोड़ दिया गया है। अब जिन श्रमिकों को व्यावसयिक संरक्षा की सबसे ज्यादा जरूरत है, यनि लघु इकाइयों के मजदूर, उनको तो यह लाभ मिलना ही नहीं है क्योंकि 10 से कम श्रमिकों वाली इकाइयों को कोड के दसयरे से बाहर कर दिया गया है। आज इन श्रमिकों की कार्यस्थितियों को और भी अधिक नियंत्रण की जरूरत है। आईटी सेक्टर सहित सर्विस सेक्टर के बड़े हिस्से को कोड के दायरे से केवल इसलिए बाहर रखा गया है कि वे फैक्टरीज़ ऐक्ट नहीं बल्कि शॉप्स ऐण्ड एस्टैब्लिशमेंट ऐक्ट के अंतरगत आते हैं। इन वर्करों की कार्य स्थितियों और संरक्षा के बारे में सरकार जरा भी चिंतित नहीं लगती। इस कोड के एक पूर्व मसौदे में बजुर्ग कर्मचारियों के लिए सालाना स्वस्थ्य जांच का प्रावधान था परंतु पीएमओ ने इसपर आपत्ति करके इसे हटवा दिया!
तिसपर मोदी सरकार ने केवल राष्ट्रीय सुरक्षा महत्व की एक दर्जन इकाइयों को छोड़कर सार्वजनिक क्षेत्र उपकरणों यानी पीएसयूज़ को पूरी तरह निजी पूंजीपतियों और विदेशी पूंजीपतियों के हवाले कर दिया है। और विरोधाभास यह है कि यह सब ‘आत्मनिर्भर भारत’ के नाम पर हुआ!
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि 2020 में भारतीय श्रमिकों ने एक शासन परिवर्तन का सामना किया। मोदी ने जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्थापित उदार औद्योगिक संबंध शासन को पूरी तरह समाप्त कर दिया। यह आक्रमण सार्वभौम था और श्रमिकों के सभी तबकों को और श्रम अधिकारों के समस्त पहलुओं को कवर करने वाला भी। जैसे कि जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया था, इस साल के अंत में हम इस निश्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि मोदी युग का अंत करने वाली पूर्ण जनवादी क्रांति ही श्रमिकों के अधिकारों को वापस दिला सकती है।
(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)