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भारत
राजनीति
त्रिवेंद्र सरकार के तीन साल : बंजर खेत, खाली गांवों वाले राज्य की नाउम्मीदी कैसे होगी दूर
85 प्रतिशत पर्वतीय क्षेत्र वाले राज्य के विकास की नीति 13 प्रतिशत वाले मैदानी क्षेत्र से तय नहीं होगी। यहां पहाड़ और मैदान की खाई में भारी अंतर आ गया है, जिसे त्रिवेंद्र सरकार पाट नहीं पायी।
वर्षा सिंह
15 Feb 2020
Uttrakhand

एक हज़ार से अधिक विरान गांव, करीब साढ़े तीन हज़ार गांव विरान होने के ठीक कगार पर, बंजर खेतों वाला राज्य, जहां के किसान खेती छोड़ रहे हैं या उनकी अगली पीढ़ी खेती के लिए तैयार नहीं, जहां अब भी सड़क पर कोई गर्भवती महिला बच्चे को जन्म देने को मजबूर है, एक साल में एंबुलेंस में ही जहां करीब 400 बच्चों ने जन्म लिया हो, जिस राज्य के पास अपनी स्थापना के बीसवें साल में एक स्थायी राजधानी तक नहीं, आंदोलन के ज़रिये अलग राज्य बनने वाला उत्तराखंड के इस हालत की जिम्मेदार राजनीति ही रही और उसे एक ख़ुशहाल राज्य में तब्दील करना हिमालय जैसी ही बड़ी चुनौती है।

उत्तराखंड में पूर्ण बहुमत के साथ आयी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के तीन वर्ष पूरे हो रहे हैं। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपने सभी मंत्रियों, विधायकों के साथ तीन साल के कामकाज को लेकर मंथन किया। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा इन तीन वर्षों में में राज्य हित में की गई 57 प्रतिशत घोषणाएं पूरी की जा चुकी हैं। बाकी घोषणाओं को पूरा करने के लिए काम चल रहा है।

मुख्यमंत्री के अड़ियल रवैये से जनता नाराज़

बीते दिनों के कुछ आंदोलनों की ही बात करें तो राज्य भर की आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं ने करीब दो महीने देहरादून में डेरा डाला। उनके मानदेय बढ़ाने की मांग पूरी करना दूर की बात है, सरकार ने आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को हटाने का फैसला लिया, थक हार कर राज्य की मातृ शक्ति ने अपना आंदोलन समाप्त कर दिया।

सुशासन का दावा करने वाली सरकार आयुष छात्रों की फीस के मुद्दे पर हाईकोर्ट के आदेश का पालन नहीं करवा सकी।

108 एंबुलेंस सेवा में कई वर्षों तक काम करने वाले कर्मचारी बेरोजगार हो गए और उनका आंदोलन बेअसर गया।

गंगा को लेकर अनशन करने वाली साध्वी को आधी रात में आश्रम से उठाया जाता है। जनता दरबार में गुस्सा दिखाने वाली शिक्षिका को बर्खास्त करने का आदेश सुना दिया जाता है।

क्या त्रिवेंद्र सरकार जन अकांक्षाओं को पूरा कर सकी?

श्रीनगर गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर एमसी सती कहते हैं कि देहरादून में रहकर राज्य सरकार ने नीतियां तो बनायी हैं लेकिन वे उत्तरकाशी के नौगांव या पुरोला के गांवों तक नहीं पहुंच पायी। फिर ऐसी नीतियों का क्या फायदा। पलायन आयोग बनाया गया, मेरा गांव मेरा तीर्थ जैसी योजनाएं बनाई गईं, लेकिन पलायन की समस्या हल नहीं हुई। गांव की समस्या जस की तस है। रोजगार के मोर्चे पर कोई प्रगति नहीं हुई। करीब 56 हज़ार सरकारी पद रिक्त हैं।

रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य की चुनौती बरकरार

प्रोफेसर सती कहते हैं कि पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को सीधे तौर पर रोज़गार चाहिए। पहाड़ का विकास करना है तो पहाड़ में शैक्षिक संस्थान लाने होंगे। स्थिति ये है कि हमारे पास श्रीनगर में एक एनआईटी है, जिसका कई बार उद्घाटन हुआ लेकिन वो आगे नहीं बढ़ सका। उसका एक स्थायी कैंपस तक नहीं बन सका। ऐसे ही हाल पहाड़ में स्वास्थ्य सेवाओं का है। श्रीनगर मेडिकल कॉलेज की बड़ी दुर्दशा है। उत्तरकाशी, चमोली, पौड़ी, टिहरी से इलाज के लिए लोग देहरादून आते हैं। ऐसे ही हल्द्वानी के अस्पताल पर सारे कुमाऊं का भार है।

प्रोफेसर सती कहते हैं कि राज्य में शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए सबसे अधिक पलायन है। इस दिशा में अभी तक कुछ उल्लेखनीय नहीं किया जा सका है। प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च शिक्षा सबमें पर्वतीय जनपदों का बुरा हाल है। 85 प्रतिशत पर्वतीय क्षेत्र वाले राज्य के विकास की नीति 13 प्रतिशत वाले मैदानी क्षेत्र से तय नहीं होगी। यहां पहाड़ और मैदान की खाई में भारी अंतर आ गया है, जिसे त्रिवेंद्र सरकार पाट नहीं पायी।

सती कहते हैं कि चारधाम प्रोजेक्ट के लिए जरूर हम त्रिवेंद्र सरकार की सराहना कर सकते हैं।

परिवहन सेक्टर में अब भी बेहतरी का इंतज़ार

भाजपा नेता रविंद्र जुगरान अपनी ही सरकार पर कहते हैं कि मेरी राय में किसी एक फ्रंट पर भी त्रिवेंद्र सरकार आगे बढ़ी हो ऐसा नहीं लगता, सभी फ्रंट पर हम पीछे ही गए। परिवहन बेहतर करने की बात कीजिए, तो जितनी नई बसें खऱीदीं उनके गियर बॉक्स में समस्या आ गई और वो बसे ही दुर्घटना संभावित हो रही हैं।

राज्य सरकार उड़ान सेवाओं को अपनी उपलब्धि के तौर पर दर्शाती है। पिथौरागढ़ के लिए हवाई सेवा शुरू की गई, प्रचार किया गया लेकिन आप पिथौरागढ़ के लिए टिकट मांगिए, तो पता चलेगा कि वहां तो कोई फ्लाइट नहीं जा रही। अभी फरवरी में ही गौचर और चिन्यालीसौंड़ के लिए हेली सेवाएं शुरू हुई हैं। यहां भी वेट एंड वॉच का मसला है कि ये सेवाएं कितने दिन जारी रहती हैं।

ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन प्रोजेक्ट को लेकर रविंद्र जुगरान कहते हैं कि ये प्रोजेक्ट बहुत पहले से चल रहा है, अब इसमें गति आई है और समय रहते ये तैयार हो जाए तो हम इसका क्रेडिट मौजूदा सरकार को जरूर देंगे।

शिक्षा, स्वास्थ्य के मसले पर वह कहते हैं कि पर्वतीय अंचलों की बात तो बहुत दूर है, हमारी अस्थायी राजधानी देहरादून में सरकारी संस्थाएं शून्य हैं। दून जैसे अस्पतालों की स्थिति दयनीय है और सरकारी अस्पताल मात्र रेफर करते हैं।

ग्रामीण पर्यटन के लिए बेहतर है होम स्टे योजना

“पलायन एक चिंतन” संस्था के संयोजक और पलायन के मुद्दे पर मुखर रतन असवाल कहते हैं कि ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए होम स्टे योजना बहुत अच्छी है। इसके अच्छे नतीजे देखने को मिल रहे हैं। सरकार को इसे सूक्ष्म स्तर पर ले जाने की जरूरत है। असवाल बताते हैं कि पिथौरागढ़ के धारचूला के गांवों में लोगों ने होम स्टे शुरू किया है। जो एक अच्छा संकेत है।

13 जिले, 13 डेस्टिनेशन योजना भी विचार के रूप में अच्छी है।

खेती-बागवानी के ज़रिये मज़बूत करनी होगी आर्थिकी

रतन सिंह असवाल राज्य में औद्योगिक भांग (हैम्प) की खेती शुरू करने के फ़ैसले को अच्छा कदम मानते हैं। उत्तराखंड देश का पहला राज्य है जहां भांग की औद्योगिक खेती को प्रोत्साहित किया गया है। असवाल कहते हैं कि ये पलायन रोकने और बंजर जोत को दोबारा हरा करने की प्रभावी योजना है। जनवरी में ही इसका प्रावधान किया गया और कुछ लाइसेंस भी जारी किये गये हैं। रतन असवाल कहते हैं कि भांग की खेती पहले भी हमारी आर्थिकी का बड़ा स्रोत रहा है। 1970-80 तक हैम्प के कपड़े पहने जाते थे। नशे की वजह से लोग इसका विरोध करते हैं।

जबकि उत्तराखंड की आर्थिकी मज़बूत करने के लिहाज से जरूरी सेब की पैदावार को बाजार तक पहुंचाना राज्य के लिए अब भी चुनौती है। पिछले वर्ष आपदा की वजह से रास्ते बंद होने के चलते हर्षिल के सेब सही समय पर बाजार नहीं पहुंच सके और बड़ी मात्रा में खराब हो गए।

उत्तराखंड सरकार ने पर्वतीय क्षेत्रों में खेती की ज़मीन लीज़ पर देने को अनुमति दे दी है। जिससे बंजर खेतों की समस्या सुलझायी जा सके। राज्य के पर्यावरणविद इस फ़ैसले से ख़ुश नहीं दिखाई देते। जगत सिंह जंगली कहते हैं कि ये हमारी राजनीतिक असफलता का परिणाम है कि हम अपने युवाओं को उनके खेतों में रोक नहीं सके और अब बाहरी उद्योगपति उस ज़मीन पर काम करेंगे।  

आंध्र प्रदेश की तीन राजधानी, उत्तराखंड की एक भी नहीं

समग्र विकास के विचार के साथ आंध्र प्रदेश तीन राजधानी बना रहा है और 20 साल के हो चुके उत्तराखंड के पास एक स्थायी राजधानी तक नहीं है। देहरादून अस्थायी राजधानी है। यहां अब तक की सरकारें स्थायी राजधानी के मसले पर चुप्पी ही साधे रहते हैं। नेताओं पर आरोप लगते हैं कि वे पहाड़ चढ़ना ही नहीं चाहते। प्रोफेसर सती कहते हैं कि जब तक आप पहाड़ को स्थिर नहीं करोगे, यहां विकास की कल्पना नहीं हो सकती।

उनके हिसाब से गैरसैंण राजधानी होती तो बेहतर होता। गैरसैंण में विधानसभा का जो स्ट्रक्चर खड़ा किया है अगर उसका इस्तेमाल नहीं होगा तो वह भी ढह जाएगा। पर्वतीय जिलों के विकास पर कार्य करना होगा और केंद्र सरकार के आकांक्षी जिलों की सूची में पहले से विकसित हरिद्वार और उधमसिंहनगर हैं।

उत्तराखंड की जनता के पास नहीं कोई मज़बूत राजनीतिक विकल्प

उत्तराखंड में एक मज़बूत विपक्ष की कमी खलती है। प्रदेश कांग्रेस अपने आपसी खींचतान और गुटबाजी को खत्म नहीं कर पा रही और मजबूत विपक्ष की भूमिका में नहीं दिखाई देती। जनवरी में ही बड़ी मशक्कत के बाद नई प्रदेश कार्यकारिणी गठित हुई। प्रीतम सिंह, इंदिरा ह्रदयेश खेमा, हरीश रावत ख़ेमा आपस में उलझ गए। अगले विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन के लिए कांग्रेस अपनी ज़मीन पुख्ता करे, उससे ज्यादा वो अपने अंदरुनी कलह में उलझी है।

दिल्ली में आप पार्टी की जीत देशभर को एक नई उम्मीद देती है। रविंद्र जुगरान कहते हैं कि उत्तराखंड की जनता के पास कोई तीसरा मज़बूत विकल्प नहीं है। उत्तराखंड क्रांति दल से जनता का भरोसा उठ चुका है। ऐसी सूरत में उन्हें भाजपा-कांग्रेस से ही काम चलाना होगा।

‘जंगल हमारे धरोहर या बाधा’

उत्तराखंड की ज़मीन के करीब 71 फीसदी हिस्से पर जंगल हैं। बल्कि अब तो बंजर होते खेत और खाली होते गांवों में चीड़ के पेड़ उगने लगे हैं। राज्य में निवेश लाने के लिए त्रिवेंद्र सरकार के फैसले पर्यावरण के लिहाज से चिंता में डालने वाले होते हैं। उदाहरण के तौर पर ऑल वेदर रोड के लिए काटे गए पेड़ों की आड़ में हजारों पेड़ काट डाले गए। सैकड़ों टन मलबा नदियों में उड़ेल दिया गया।

छोटी-छोटी जलविद्युत परियोजनाओं की जगह बड़े डैम के नक्शे खींचे जाते हैं। दायरे में रहकर खनन के ज़रिये ही राज्य आर्थिकी का अच्छा स्रोत अर्जित कर सकता है लेकिन इसकी आड़ में अवैध खनन से नदियों के जीवन तक पर संकट की स्थिति आ जाती है। सरकार इन्हीं जंगलों के आधार पर ग्रीन बोनस मांगती है और यही जंगल उन्हें विकास की राह में रोड़ा लगते हैं।

बीते समय में रिवर्स माइग्रेशन के भी कुछ चुनिंदा उदाहरण सामने आए हैं। लेकिन जिस तेज़ी से उत्तराखंड का आम आदमी पहाड़ से नीचे उतर रहा है, उसकी तुलना में वे कुछ भी नहीं हैं। स्कूल, अस्पताल, नौकरी, सड़क और बेहतर जीवन के लिए जरूरी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए लोग पलायन कर रहे हैं। यहां सरकार को लोगों की मूलभूत आवश्यकता पूरी करने के लिए काम करना है। 

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