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राजनीति
49 बनाम 61 हस्तियां और उनकी चिट्ठी : तय करो किस ओर हो तुम...
49 और 61 हस्तियों की चिट्ठी या उनके विचारों में जो द्वंद्व है वही द्वंद्व भारत की राजनीति के दो अलग-अलग धुरी भी हैं। एक तरफ अल्पसंख्यक और दलितों की चिन्ता और उनसे जुड़ी राजनीति है, तो दूसरी तरफ आक्रामक होता जा रहा बहुसंख्यकवाद और उसकी सियासत है।
प्रेम कुमार
27 Jul 2019
Mob lynching

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम एक चिट्ठी 49 हस्तियों ने लिखी, तो उसका जवाब लेकर 61 हस्तियां सामने आ गयीं। ये दोनों चिट्ठियां महज चिट्ठी नहीं हैं हिन्दुस्तान के धड़कते दिल की ज़ुबान हैं। उस दिल की, जो इन दिनों घायल है। देश की नामचीन हस्तियों की चिट्ठी और जवाबी चिट्ठी की तुलना उत्तर प्रदेश में सड़क पर हनुमान चालीसा पढ़ने के आयोजन से भी की जा सकती है जो खुले में नमाज पढ़ने के विरोध में आयोजित हुए। प्रशासन ने तुरंत ‘तटस्थ’ आदेश दे डाला कि प्रशासन से पूछे बगैर कोई आयोजन खुले में नहीं होगा। चिट्ठियों के मामले में भी राष्ट्रीय बहस के निष्कर्ष के बहाने ऐसी ही ‘तटस्थता’ का मकसद नज़र आता है। मगर, यह‘तटस्थता’ ख़तरनाक होगी।

49 हस्तियों की चिट्ठी में मॉब लिंचिंग रोकने की मांग की गयी थी। अल्पसंख्यक और दलितों पर बढ़ते जुल्म पर चिन्ता व्यक्त की गयी थी। ‘जय श्री राम’ का इस्तेमाल हमला करने और इसे उकसावे का नारा बनाने की ओर ध्यान दिलाया गया था।

Letter by eminent personali... by NDTV on Scribd

 61 हस्तियों की चिट्ठी इस चिन्ता को खारिज करती है और चिन्तित 49 हस्तियों को देश तोड़ने वाले, नक्सलियों, देश विरोधियों का साथ देने वाला बताती है। इसके अलावा उनकी चिट्ठी को इस प्रयास के रूप में देखती है कि यह नरेंद्र मोदी सरकार के ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ की भावना को छिन्न-भिन्न करने वाला है।

61 personalities including actor Kangana Ranaut, lyricist Prasoon Joshi, Classical Dancer and MP Sonal Mansingh,Instrumentalist Pandit Vishwa Mohan Bhatt, Filmmakers Madhur Bhandarkar& Vivek Agnihotri write an open letter against 'selective outrage and false narratives'. pic.twitter.com/RGYIxXeJzS

— ANI (@ANI) July 26, 2019

मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं से सुप्रीम कोर्ट भी ख़फ़ा

मॉब लिंचिंग पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश भी आ चुका है। नोटिस देकर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को जवाब देने को कहा है कि एक साल बाद भी मॉब लिंचिंग रोकने के उपाय करने के निर्देश पर अमल क्यों नहीं हो पाया है और मॉब लिंचिंग की घटनाएं क्यों बढ़ती चली जा रही हैं। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की बेंच ने 26 जुलाई को एंटी करप्शन काउंसिल ऑफ इंडिया की तरफ से दायर याचिका पर गृह मंत्रालय के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी नोटिस जारी किया है।

सुप्रीम कोर्ट का निर्देश 49 हस्तियों की चिन्ता की पुष्टि कर रहा है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि मॉब लिंचिंग बढ़ी है। घटनाएं रुक नहीं रही हैं। केंद्र और राज्य सरकारों ने इन घटनाओं को रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं। सवाल ये है कि जिस चिन्ता को सुप्रीम कोर्ट मान रहा है उस चिन्ता को प्रकट करते हुए देश के प्रधानमंत्री के नाम चिट्ठी लिखना क्या इतना बड़ा गुनाह है कि विरोध में 61 हस्तियों को सार्वजनिक चिट्ठी लिखने की जरूरत आ पड़ी?

इसे पढ़ें : 49 हस्तियों ने "जय श्री राम" के दुरुपयोग पर मोदी को लिखा ख़त 

61 हस्तियां मानती हैं कि मोदी सरकार को बदनाम करने की साजिश की जा रही है, सवाल उठाने वाले लोग खास विचारधारा से जुड़े हैं, वे टुकड़े-टुकड़े गैंग और नक्सलियों के समर्थक हैं, वे मुसलमानों और दलितों की बात कर देश को तोड़ने की मंशा रखते हैं। ये हस्तियां ये भी मानती हैं कि ये लोग बहुसंख्यक हितों की चिन्ता नहीं करते। मतलब ये कि 61 हस्तियां बहुसंख्यकों की पैरोकार हैं।

राजनीतिक सोच में द्वंद्व की प्रतीक हैं दो चिट्ठियां

49 और 61 हस्तियों की चिट्ठी या उनके विचारों में जो द्वंद्व है वही द्वंद्व भारत की राजनीति के दो अलग-अलग धुरी भी हैं। एक तरफ अल्पसंख्यक और दलितों की चिन्ता और उनसे जुड़ी राजनीति है, तो दूसरी तरफ आक्रामक होता जा रहा बहुसंख्यकवाद और उसकी सियासत है। एक वर्ग है जो हमेशा से कमज़ोर रहा है, उसकी आवाज़ उठाए जाने की कोशिशों के बावजूद कमज़ोर रही है, तो दूसरा वर्ग है उसे उसके मज़बूत होने का एहसास कराए जाने की कोशिश होती रही है। गो रक्षा के नाम पर यह कोशिश आज़ादी की लड़ाई पर भी प्राथमिकता देने के रूप में हुई थी, मगर तब देश में गांधी, नेहरू, जिन्ना, अम्बेडकर जैसे नेता थे जिनके रहते यह कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई। आज़ाद हिन्दुस्तान में भी जनसंघ ऐसी कोशिशें करते हुए मिट गया, मगर भारत का बहुसंख्यक वर्ग कभी उनके उकसावे में नहीं आया।

90 के दशक में मंडल और कमंडल ने देश की सोच बदली। आरक्षण और जाति के नाम पर भी बहुजन की बात हुई और राम मंदिर के नाम पर भी बहुसंख्यकवर्ग के हितों और उनके सम्मान की चर्चा रही। मंडल की सियासत जब कमज़ोर हुई है तो राज्यों से लेकर केंद्र तक में कमंडल की सियासत करने वालों का कब्जा हो गया है। कमंडल की सोच निर्माण से ज्यादा विध्वंस की दिखी। इसका असर भी राजनीति में पड़ा और दिख रहा है। अब गोरक्षा की आवाज़ पर मॉब लिंचिंग भारी है। अगर गोरक्षा की आवाज़ मजबूत होती, तो उत्तर प्रदेश के ज़िले-ज़िलों से सैकड़ों गायों की भूख से मरने की ख़बरों पर बहुसंख्यक सोच कुम्भकर्णी निद्रा में नहीं सोया होता।

कमंडल वर्जन 2 है ‘जय श्री राम’

कमंडल की सियासत का नया रूप ‘जय श्री राम’ है- कमंडल वर्जन 2. ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ की सौगंध से ख़तरनाक है इस नारे का उपयोग। कमंडली सियासत इस नारे का खुद उद्घोष करे, तो भी बात समझ में आती है। मगर, वे चाहते हैं कि उनके नारे के साथ बाकी लोग भी वही सुर-ताल अपनाएं। नहीं अपनाने पर इनकी भृकुटी तन जाती है। कोई भी आवाज़ जो कमंडली सोच को चुनौती देती है, उसे दबा देने के लिए अधिकतम क्रूरता करने को तैयार बैठी है यह सोच। एमएम कलबुर्गी, गौरी लंकेश, एमएम दाभोलकर, गोविंद पानसरे जैसी हस्तियों की हत्याएं सबूत हैं।

61 हस्तियां इन हत्याओं की तुलना बंगाल और केरल में राजनीतिक हत्याओं से करती हैं। वह उन हत्याओं को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने के लिए बेचैन दिख रही हैं। यह चिंता का विषय है मगर यह उन राजनीतिक हत्याओं से बिल्कुल भिन्न है। गरीबों और अल्पसंख्यकों की आवाज़ उठाते हुए मारा जाना और राजनीतिक सत्ता की लड़ाई में कार्यकर्ताओँ का मारा जाना- दोनों में बड़ा फर्क है। कार्यकर्ता दोनों ओर होते हैं। मगर, बौद्धिक लोगों की दिशा एक होती है। वे किसी ओर के नहीं होते।

राजनीतिक हत्याएं और मॉब लिचिंग में फर्क

राजनीतिक हत्या और मॉब लिंचिंग में भी बहुत फर्क है। राजनीतिक हत्याएं सत्ता के लिए होती हैं। सत्ता को बनाए-बचाए रखने या फिर हड़पने के लिए होती हैं। हालांकि मारे तो निरीह लोग ही जाते हैं। मगर, मॉब लिंचिंग में भीड़ का कोई निजी स्वार्थ नहीं होता। बल्कि, भीड़ में उन्माद होता है, वैमनस्यता और क्रूरता होती है। बदले की भावना होती है। वर्ग विशेष में यह डर पैदा करता है और यही वह मकसद से जिसके जरिए भीड़तंत्र को छद्म रूप से इस्तेमाल किया जा रहा होता है। राजनीतिक हत्याएं अगर पिस्टल है तो मॉबलिंचिंग परमाणु विस्फोट, जिससे पीढ़ियां तबाह हो जाती हैं।

61 हस्तियों की चिट्ठी में कमज़ोर और दलित-अल्पसंख्यक वर्ग की चिन्ता तो गायब है ही, उनके हितों की चिन्ता का विरोध है जो सबसे ज्यादा ख़तरनाक है। बहुसंख्यक वर्ग की चिन्ता का प्रकटीकरण है जो हकीकत से परे है। बहुसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व राजनीतिक सत्ता में है और इसलिए उसके लिए अतिरिक्त चिन्ता की आवश्यकता है ही नहीं। इसके लिए शासन, प्रशासन और कानून है। मगर, कमज़ोर और अल्पसंख्यक वर्ग राजनीतिक प्रतिनिधित्व में भी कमजोर हैं और इसी वजह से उनकी आवाज़ को उठाने की आवश्यकता ज़रूरी लगती है।

क्या हो बहुसंख्यक वर्ग की चिन्ता

बहुसंख्यक वर्ग की चिन्ता क्या होती है इसकी समझ का अभाव भी 61 हस्तियों की चिट्ठी में साफ झलकता है। प्रगति के पथ पर बढ़ता शांति और सौहार्दपूर्ण हिन्दुस्तान में ही बहुसंख्यक वर्ग का हित है। अगर यह सोच नहीं रखें तो महात्मा गांधी का बंटवारे के बाद वादे के मुताबिक 55 करोड़ रुपये लौटने की मांग पर अनशन भी देश विरोधी और बहुसंख्यक विरोधी हो जाएगा। अगर यह सोच नहीं रखें तो अम्बेडकर-गांधी पूना पैक्ट भी गलत नज़र आएगा क्योंकि उसमें दलितों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण का वादा था। बंटवारे का दंश भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के अल्पसंख्यक वर्ग ने सहा है जिनके साथ कोई वादा-समझौता कभी किया ही नहीं गया। इसकी ज़रूरत ही नहीं समझी गयी।

49 हस्तियां जब कथित तौर पर चुनिन्दा घटनाओं पर आवाज़ उठा रही हैं तो वह कमज़ोर आवाज़ को ही मज़बूत कर रही हैं। वहीं, 61 हस्तियां जब चुनिन्दा घटनाओं का ज़िक्र कर रही हैं तो उससे कमज़ोर सरकारें और फेल्योर प्रशासन की असफलता का पर्दाफाश हो रहा है। दोनों चिट्ठियां यह मानने को विवश करती हैं कि देश में इंसानियत का गला घोंटा जा रहा है। एक चिट्ठी इसके लिए सत्ता को ज़िम्मेदार मानती है, तो दूसरी चिट्ठी सत्ता की ओर उंगली उठा रही आवाज़ को ही- यही है इन चिट्ठियों के मजमून में असली फर्क। अब बात समझ में आ रही होगी कि दूसरी चिट्ठी के बहाने पहली चिट्ठी की आवाज़ ऊंचे कान से सुनना कितना ख़तरनाक होगा या फिर यूं कहें कि दूसरी चिट्ठी पर कान देना और पहली चिट्ठी को उसके बराबर समझ लेना कितना गैरवाजिब होगा।

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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