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राजनीति
ख़बरों के आगे-पीछे: राष्ट्रीय पार्टी के दर्ज़े के पास पहुँची आप पार्टी से लेकर मोदी की ‘भगवा टोपी’ तक
हर हफ़्ते की ज़रूरी ख़बरों को एक पिटारे में एक बार फिर लेकर हाज़िर हैं अनिल जैन
अनिल जैन
20 Mar 2022
Aap
मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते आप पार्टी के नेता और पंजाब के नए मुख्यमंत्री भगवंत मान

ख़बरों के आगे-पीछे के इस आलेख में बात होगी आम आदमी पार्टी, मायावती, बिहार स्पीकर और नरेंद्र मोदी के गुजरात प्रचार की…

राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों की संख्या में इजाफा होगा 

भारत में अभी राष्ट्रीय स्तर की कुल सात राजनीतिक पार्टियां हैं, लेकिन आने वाले दिनों में इनकी संख्या में इजाफा हो सकता है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय पार्टी बनने की दौड़ में मंजिल के काफी करीब पहुंच गई है और अगर सब कुछ ठीक रहा तो इस साल के अंत तक उसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्ज़ा मिल जाएगा। राष्ट्रीय पार्टी होने के लिए चुनाव आयोग की ओर से तय मानकों में से कम से कम एक मानक आम आदमी पार्टी इस साल पूरा कर लेगी। उसे तीन राज्यों में प्रादेशिक पार्टी का दर्ज़ा मिला हुआ और साल के अंत में गुजरात व हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, जहां वह चुनाव लड़ेगी। चुनाव आयोग के मुताबिक पहला मानक लोकसभा की दो फीसदी यानी 11 सीटें हासिल करने का है, जबकि आम आदमी पार्टी के भगवंत मान अकेले लोकसभा सदस्य हैं, जिनका जल्दी ही इस्तीफा होगा, क्योंकि वे पंजाब के मुख्यमंत्री बन चुके हैं। दूसरा मानक यह है कि चार राज्यों में छह फीसदी वोट और लोकसभा की चार सीटें मिल जाएं। यह भी अभी संभव नहीं है। तीसरा मानक चार राज्यों में प्रादेशिक पार्टी का दर्ज़ा हासिल करने का है। इसके मुताबिक अगर किसी पार्टी को राज्य के चुनाव में छह फीसदी वोट मिलते हैं और उसके दो विधायक जीतते हैं। आम आदमी पार्टी को उम्मीद है कि वह इस साल के अंत में इसे पूरा कर लेगी। उसे अभी गोवा, पंजाब और दिल्ली में प्रादेशिक पार्टी का दर्ज़ा मिला हुआ है। इसके बावजूद सबसे जल्दी राष्ट्रीय पार्टी का दर्ज़ा हासिल करने का रिकार्ड आम आदमी पार्टी के नाम नहीं होगा। यह रिकार्ड पीए संगमा की बनाई नेशनल पीपुल्स पार्टी यानी एनपीपी के नाम हो गया है। 

एनपीपी का गठन 2013 में हुआ था और 2019 में उसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्ज़ा मिल गया। आम आदमी पार्टी का गठन इससे एक साल पहले हुआ था। एनपीपी पूर्वोत्तर की पहली पार्टी है, जिसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्ज मिला। वह चार राज्यों- मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड में मान्यता प्राप्त प्रादेशिक पार्टी है। मेघालय में उसकी सरकार है और मणिपुर में इस बार वह मुख्य विपक्षी पार्टी बनी है। भाजपा, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी- मार्क्सवादी (सीपीएम), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) और बहुजन समाज पार्टी के अलावा एनपीपी सातवीं पार्टी है, जिसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्ज़ा हासिल है। 

शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) भी एक समय राष्ट्रीय पार्टी हो गई थी। लेकिन बाद मे उसका यह दर्ज़ा छिन गया। अब फिर पवार की पार्टी इस होड़ में है और नई पार्टी नीतीश कुमार का जनता दल (यू) है, जिसने मणिपुर में इस बार छह सीटें जीती हैं। बिहार, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में उसे प्रादेशिक पार्टी का दर्ज़ा मिला हुआ है और 2023 के चुनाव में वह मेघालय और नगालैंड में प्रादेशिक पार्टी का दर्ज़ा हासिल करने का प्रयास करेगी। नगालैंड में उसके उम्मीदवार विधानसभा का चुनाव जीतते रहे हैं। सो, आम आदमी पार्टी, जनता दल (यू) और एनसीपी तीन पार्टियां राष्ट्रीय पार्टी बनने की दौड़ में शामिल हैं।

बहुत शोर था मगर हंगामा न हुआ!

पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आने के बाद हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में उम्मीद के विपरीत कोई हंगामा नहीं हुआ। बैठक में पार्टी के नेताओं ने खुल कर चर्चा की। किसी पर कोई बंदिश नहीं थी। बैठक से पहले कहा जा रहा है कि बहुत हंगामा होगा और पार्टी नेतृत्व से नाराज चल रहे जी-23 के नेता पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बहाने आलाकमान को घेरेंगे। लेकिन बैठक में पार्टी आलाकमान के फैसलों पर सवाल उठाने की बजाय पार्टी के नेताओं ने आगे बढ़ कर हर फैसले का समर्थन किया। यहां तक कि कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाने के फैसले का भी विरोध नहीं हुआ।

जी-23 के नेता और पार्टी सांसद मनीष तिवारी ने कैप्टन का खुल कर समर्थन किया था। फिर भी कार्य समिति का कोई सदस्य कैप्टन के समर्थन में नहीं बोला। उलटे गुलाम नबी आजाद ने कैप्टन को हटाने का समर्थन किया और कहा कि उन्हें तो एक साल पहले हटाना चाहिए था। इस पर सोनिया गांधी ने उनसे सहमति जताई और कहा है कि हटाने में देरी हुई। इसी तरह नवजोत सिंह सिद्धू से पार्टी को नुकसान होने की बात कही गई तो सारे नेताओं ने इस पर सहमति जताई। चुनाव में कांग्रेस की ओर से उठाए गए मुद्दों पर भी कार्य समिति के सारे सदस्य एक राय से सहमत हुए। राहुल गांधी के फिर से अध्यक्ष बनने के सवाल पर भी कार्य समिति के सारे सदस्य एक राय थे। यह अलग बात है कि सबने कांग्रेस आलाकमान यानी गांधी परिवार के समर्थन की बात कही लेकिन उसी बीच कई सुझाव बहुत अच्छे दिए गए, जिनसे सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका ने भी सहमति जताई।। गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, दिग्विजय सिंह, मुकुल वासनिक आदि सभी नेताओं ने अच्छे सुझाव दिए।

बजट सत्र के बाद चिंतन शिविर आयोजित करने का सुझाव भी दिया गया। सबसे गंभीर और अच्छे सुझाव आनंद शर्मा ने दिए। वे पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठाने वाले जी-23 के सदस्य हैं, फिर भी पार्टी के नेताओं ने उनके सुझावों को सुना और गंभीरता से विचार किया। उन्होंने कहा कि दूसरी पार्टियों से आए नेताओं को प्रदेश में अध्यक्ष नहीं बनाना चाहिए। उन्होंने पार्टी के अपने नेताओं को प्रमोट करने का सुझाव दिया। इसी तरह उन्होंने नरम हिंदुत्व की राजनीति से भी दूरी बनाने को कहा और यह भी कहा कि प्रदेश अध्यक्षों के साथ कार्यकारी अध्यक्ष नहीं बनाए जाएं। ध्यान रहे इन दिनों कांग्रेस पार्टी एक अध्यक्ष के साथ चार-चार कार्यकारी अध्यक्ष बना रही है। आनंद शर्मा ने कहा है कि इससे यह मैसेज जाता है जैसे अध्यक्ष काम नहीं करने वाला हो। इसी तरह दिग्विजय सिंह, मुकुल वासनिक आदि नेताओं ने सुझाव दिया कि पार्टी अध्यक्ष को सहज रूप से उपलब्ध होना चाहिए। जमीनी हालात को समझने के लिए पार्टी नेतृत्व का आम कार्यकर्ताओं और जमीनी नेताओं से मिलना जरूरी है। सवाल है कि जब पार्टी आलाकमान से किसी मुद्दे पर मतभेद नहीं है तो फिर जी-23 के नेता अभी भी कमराबंद बैठकें किसलिए कर रहे हैं?

जब मुख्यमंत्री ने स्पीकर को हड़काया

बिहार विधानसभा में पिछले सोमवार को जो हुआ वह अभूतपूर्व था। स्पीकर विजय सिन्हा अपने चुनाव क्षेत्र लखीसराय से जुड़े कानून व्यवस्था के एक मसले पर राज्य सरकार को जवाब देने के लिए बाध्य कर रहे थे। पहले इस पर एक बार चर्चा हो चुकी थी लेकिन सोमवार को फिर यह मुद्दा उठा और जब सरकार संतोषप्रद जवाब नहीं दे सकी तो उन्होंने इस पर चर्चा के लिए दो दिन बाद का समय तय किया। यह कार्यवाही अपने चैंबर में बैठ कर मुख्यमंत्री देख रहे थे। जब इसी मसले पर फिर चर्चा की बात हुई तो वे चैंबर से उठ कर आए और सदन में आते ही स्पीकर पर बरस पड़े। उन्होंने बहुत ऊंची आवाज में स्पीकर के फैसले पर सवाल उठाया और उनको सदन चलाने का तरीका और संसदीय मर्यादा सिखाई। आसन पर बैठे स्पीकर हकलाते रहे और उनकी पार्टी तमाशा देखती रही।

यह पहला मौका नहीं था, जब स्पीकर की बेचारगी दिखी थी। पिछले साल सदन की कार्यवाही के दौरान भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्य सरकार के पंचायती राज मंत्री सम्राट चौधरी के भाषण के दौरान स्पीकर ने टोका था तो वे भड़क गए थे और स्पीकर को व्याकुल नहीं होने की सलाह दे डाली थी। कितनी अजीब बात है कि स्पीकर विजय सिन्हा खुद भाजपा के नेता हैं। लेकिन उनकी पार्टी के नेताओं की ओर से भी उनको सम्मान नहीं मिलता है और मुख्यमंत्री ने तो पानी ही उतार दिया। असल में उनको स्पीकर बनाए जाने के बाद से ही उन्हें लेकर सवाल उठ रहे थे। उनका राजनीतिक अनुभव भी बहुत लंबा चौड़ा नहीं है और विधानसभा में वे भी दूसरी बार ही जीत कर आए हैं। राजनीतिक कद भी बड़ा नहीं है। जाहिर है कि दिखावे के लिए किसी को संवैधानिक महत्व के पद पर बैठाया जाता है तो उसका यहीं हस्र होता है।

केजरीवाल से ज्यादा खुश तो सिद्धू हैं! 

कांग्रेस आलाकमान को पता नहीं नवजोत सिंह सिद्धू के क्रिकेट करियर की कितनी जानकारी है, पर तथ्य यह है कि वहां भी उनका अपनी टीम के कप्तान से विवाद होता रहा है। एक मैच में अपने चार साथी खिलाड़ियों को रन आउट कराने का रिकॉर्ड भी सिद्धू के नाम पर दर्ज है। शारजाह के एक मैच में उन्होंने चार खिलाड़ियों को रन आउट कराया था और खुद भी बिना को कोई बड़ा स्कोर बनाए आउट हो गए थे। राजनीति में भी सिद्धू के रंग-ढंग बदले नहीं। कांग्रेस नेतृत्व माने या न माने मगर आम धारणा यही है कि पंजाब में कांग्रेस की शर्मनाक हार का मुख्य कारण सिद्धू ही हैं। कैप्टन अमरिंदर सिंह से लेकर चरणजीत सिंह चन्नी तक अपनी ही पार्टी की सरकार को जितना बदनाम सिद्धू ने किया उतना किसी ने नहीं। सिद्धू की हरकतों ने पंजाब के मतदाताओं को कांग्रेस से दूर किया और इसी वजह से खुद सिद्धू भी हारे। इतना सब होने का भी सिद्धू पर कोई असर नहीं हुआ। पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत से जितने खुश अरविंद केजरीवाल हैं या कांग्रेस के बुरी तरह हारने से जितनी खुशी कैप्टन अमरिंदर सिंह को हुई है, उससे भी ज्यादा खुश सिद्धू दिखे। सिद्धू ने नतीजे आने के बाद पहली प्रतिक्रिया में कहा कि पंजाब की जनता ने बहुत बढ़िया जनादेश दिया है। सिद्धू ने आम आदमी पार्टी की जीत पर पंजाब की जनता को बधाई दी और उसका आभार जताया कि उसने बदलाव के लिए वोट किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि अगर किसी पार्टी के पास सिद्धू जैसा नेता और मुखिया हो तो फिर उस पार्टी की हार को कौन टाल सकता है!

हारने के बाद सक्रिय हुईं मायावती

बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती विधानसभा चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान लगभग पूरी तरह से शांत रहीं। लेकिन चुनाव नतीजे आने और पार्टी के ऐतिहासिक रूप से खराब प्रदर्शन के बाद वे अब अचानक सक्रिय हो गई हैं। पार्टी के जानकार नेताओं का कहना है कि मायावती को अंदाजा था कि इस बार उनके लिए मौका नहीं है और उनकी पार्टी का प्रदर्शन खराब होगा। लेकिन उनको यह अंदाजा नहीं था कि एक चौथाई जाटव भी साथ छोड़ देंगे और दलितों का आधे से ज्यादा हिस्सा दूसरी पार्टियों के साथ चला जाएगा। चुनाव नतीजों के बाद जातियों के वोटिंग पैटर्न का जो डाटा सामने आया है उसके मुताबिक 21 से 25 फीसदी तक जाटवों ने भाजपा को वोट दिया है। भाजपा ने इस वोट के लिए सबसे ज्यादा जोर भी लगाया। उत्तराखंड की राज्यपाल रहीं बेबी रानी मौर्य को वापस बुला कर पार्टी में सक्रिय किया गया और चुनाव लड़ाया गया। चर्चा है कि वे उप मुख्यमंत्री बन सकती हैं। इसी तरह आईएएस अधिकारी असीम अरुण को वीआरएस दिला कर कानपुर से चुनाव लड़ाया गया। वे जीत गए हैं और उनके भी मंत्री बनने की चर्चा है। बेबी रानी मौर्य और असीम अरुण दोनों जाटव समाज से आते हैं। भाजपा के इस कदम से मायावती की चिंता बढ़ी है और उन्होंने अपना कोर वोट बचाने का प्रयास शुरू कर दिया है। सबसे पहले उन्होंने लोकसभा में पार्टी का नेता बदला है। मायावती ने ब्राह्मण वोट की उम्मीद में रितेश पांडेय को अपने 10 लोकसभा सांसदों का नेता बना रखा था। लेकिन अब रितेश पांडेय को हटा कर उनकी जगह गिरीश चंद्र को लोकसभा में पार्टी का नेता बनाया है। वे जाटव समाज से आते हैं। मायावती ने करीब तीन साल में पांचवी बार नेता बदला है। उम्मीद की जा रही है कि अगले लोकसभा चुनाव तक वे नेता नहीं बदलेंगी। मायावती ने अपना कोर दलित वोट बचाने के मकसद से ही मीडिया पर भी हमला किया। उन्होंने मीडिया को जातिवादी बताया और अपनी पार्टी के सारे प्रवक्ताओं को निर्देश दिया कि वे टेलीविजन चैनलों पर होने वाली बहसों में शामिल न हों। बहरहाल, जाटव और व्यापक दलित समाज का वोट बचाने के साथ मायावती एक बार फिर मुस्लिम वोट की राजनीति भी शुरू कर रही हैं ताकि अगले लोकसभा चुनाव में वे भाजपा विरोधी वोटों में हिस्सेदार बन सकें।

खाएंगे चने लेकिन डकार लेंगे बादाम की

देश की अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर बनाने की चर्चा इन दिनों बंद हो गई है। कोरोना वायरस की महामारी शुरू होने से थोड़ा पहले ही यह चर्चा बंद हो गई थी क्योंकि उसी समय से अर्थव्यवस्था में गिरावट शुरू हो गई थी। अब कहीं इसकी बात नहीं होती है। उलटे आर्थिकी के जानकार और भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने पिछले दिनों ट्वीट करके कहा कि डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा की गिरती कीमत की वजह से अर्थव्यवस्था का आकार सिकुड़ रहा है और यह तीन ट्रिलियन डॉलर से घट कर 2.8 ट्रिलियन डॉलर पर आ जाएगा। लेकिन इस बीच अब उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य की अर्थव्यवस्था को एक ट्रिलियन डॉलर की बनाने का ऐलान किया है। इसके लिए राज्य सरकार को सलाहकार की जरूरत है। राज्य योजना विभाग की ओर से अखबारों में विज्ञापन दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि राज्य की अर्थव्यवस्था का आकार बड़ा कर एक ट्रिलियन डॉलर का बनाने में सहयोग, सलाह देने के लिए सलाहकारों की जरूरत है। आर्थिक जानकारों को 15 मार्च से एक महीने तक आवेदन करने का समय दिया गया है। सवाल है कि इस शिगूफे का क्या मतलब है? वित्त वर्ष 2020-21 के आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था का आकार 230 अरब डॉलर का है। इसे एक हजार अरब डॉलर का बनाने के लिए 770 अरब डॉलर बढ़ाना होगा। देश की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला राज्य महाराष्ट्र है, जिसका आकार 430 अरब डॉलर का है। यूपी की अर्थव्यवस्था का आकार उसके मुकाबले आधा है फिर भी तीन गुने से ज्यादा बढ़ाने के लिए सलाहकार खोजे जा रहे हैं। अगले दो चुनावों तक यह शिगूफा चलता रहेगा।

मोदी की भगवा टोपी का माजरा क्या है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश सहित चार राज्यों में भाजपा को मिली जीत का प्रचार करने के लिए अहमदाबाद हवाई अड्डे से पार्टी कार्यालय तक भगवा टोपी पहन कर रोड शो किया। ऐसी ही टोपी उन्होंने उत्तर प्रदेश में आखिरी दो चरण के चुनाव प्रचार के दौरान भी पहनी थी। वह पहला मौका था, जब प्रधानमंत्री ने टोपी पहन कर प्रचार किया। सवाल है कि उन्होंने अचानक भगवा टोपी पहन कर क्यों प्रचार शुरू कर दिया? प्रदेश मे समाजवादी पार्टी के नेता लाल टोपी पहन कर प्रचार कर रहे थे तो मोदी ने कहा था कि लाल टोपी रेड अलर्ट यानी खतरे का संकेत है। सपा की लाल टोपी के अलावा आम आदमी पार्टी के नेता सफ़ेद टोपी पहनते हैं और आरएसएस के स्वयंसेवक काली टोपी लगाते हैं। खुद नरेंद्र मोदी की पुराने दिनों की अनेक तस्वीरें हैं, जिनमें उन्होंने काली टोपी पहनी है। इसलिए यह भी सवाल है कि उन्होंने काली टोपी क्यों नहीं पहनी? इस रहस्य को सुलझाना आसान नहीं होगा। यह वैसे ही रहस्य रह जाएगा, जैसे मोदी के दाढ़ी और बाल बढ़ाने का रहस्य है। उन्होंने बाल-दाढ़ी बढ़ाए और फिर चुपचाप कटवा लिए। वैसे ही उन्होंने टोपी लगानी शुरू की है। पता नहीं इसके पीछे क्या मकसद है! कहा जा रहा है कि गुजरात चुनाव की तैयारियों के सिलसिले में वहां इस तरह की लाखों टोपियां बांटी गई हैं। आने वाले दिनों में भाजपा कार्यकर्ता भगवा टोपी पहन कर प्रचार करते नजर आएंगे।

पंजाब के डर से दिल्ली के चुनाव टले!

दिल्ली नगर निगम के चुनाव को लेकर भाजपा और आप में तलवार खिंची हुई है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतंत्र की रक्षा करें और समय से चुनाव कराएं। दूसरी ओर केंद्र सरकार ने तीनों नगर निगमों को मिला कर एक बनाने का निर्देश जारी किया है, जिसके बाद राज्य चुनाव आयोग ने चुनाव की घोषणा टाल दी। नियम के मुताबिक मई के आखिरी हफ्ते से पहले तक चुनाव कराना है। लेकिन अगर निगमों का एकीकरण होना है तो चुनाव सितंबर तक टल सकते हैं। निगमों के एकीकरण की घोषणा पांच राज्यों के चुनाव के बाद आए एक्जिट पोल नतीजों के एक दिन बाद हुई। तभी ऐसा लग रहा है कि एक्जिट पोल नतीजों में पंजाब में आप के भारी बहुमत से जीतने के अनुमान के बाद यह फैसला हुआ। ध्यान रहे पिछले 15 साल से दिल्ली नगर निगम पर भाजपा का कब्जा है। अगर अभी चुनाव होगा तो आप का दावा है कि भाजपा को 10 सीटें भी नहीं मिलेंगी। दूसरी ओर भाजपा का कहना है कि एमसीडी के फंड पर आम आदमी पार्टी की नजर है। इस खींचतान में अगर अगले हफ्ते चुनाव की घोषणा नहीं होती है तो यह तय हो जाएगा कि चुनाव टलेंगे। एकीकरण के अलावा इसका एक मकसद यह भी दिख रहा है कि पंजाब से बनी आप की आंधी थम जाए तो चुनाव कराया जाए।

ये भी पढ़ें: ख़बरों के आगे-पीछे: केजरीवाल मॉडल ऑफ़ गवर्नेंस से लेकर पंजाब के नए राजनीतिक युग तक

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