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कलाकार: ‘आप, उत्पल दत्त के बारे में कम जानते हैं’
‘‘मैं तटस्थ नहीं पक्षधर हूं और मैं राजनीतिक संघर्ष में विश्वास करता हूं। जिस दिन मैं राजनीतिक संघर्ष में हिस्सा लेना बंद कर दूंगा, मैं एक कलाकार के रूप में भी मर जाऊंगा।’’
ज़ाहिद खान
03 Apr 2022
Utpal Dutt
उत्पल दत्त पर 2013 में जारी डाक टिकट। साभार

हिंदी पट्टी की बहुधा आबादी उत्पल दत्त को एक हास्य कलाकार के रूप में जानती है। जिन्होंने ‘गोलमाल’, ‘चुपके चुपके’, ‘रंग बिरंगी’, ‘शौकीन’ और ‘अंगूर’ जैसी फ़िल्मों में जबर्दस्त कॉमेडी की। एक इंक़लाबी रंगकर्मी के तौर पर वे उनसे शायद ही वाकिफ़ हों। जबकि एक दौर था, जब उत्पल दत्त ने अपने क्रांतिकारी रंगकर्म से सरकारों तक को हिला दिया था। अपनी क्रांतिकारी सरगर्मियों की वजह से वे आजा़द हिंदुस्तान में दो बार जे़ल भी गए। एक दौर था,जब वे देश की सबसे बड़ी थिएटर हस्तियों में से एक थे। आज़ादी के बाद उत्पल दत्त, भारतीय रंगमंच के अग्रदूतों में से एक थे। उन्होंने नाटककार, अभिनेता, थिएटर निर्देशक और थिएटर एक्टिविस्ट की भूमिका एक साथ निभाई।

उत्पल दत्त ने प्रोसेनियम थिएटर, नुक्कड़ नाटक, पारंपरिक लोक नाटक और सिनेमा यानी प्रदर्शनकारी कलाओं के सभी माध्यमों में काम किया। अवाम पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ा।

उनके लिखे और निर्देशित कई बांग्ला नाटकों ने हंगामा किया। ख़ास तौर पर नाटक ‘अंगार’, ‘कल्लोल’ और ‘बैरिकेड’ काफ़ी चर्चा में रहे। कहने को उनका नाटक ‘बैरिकेड’ जर्मनी के नाजी अधिग्रहण की कहानी कहता है, लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर यह उन घटनाओं की ओर इशारा करता है, जो देश को इमरजेंसी की तरफ ले गईं। ज़ाहिर है कि इस नाटक ने अपने दौर में काफ़ी हलचल मचाई।

उत्पल दत्त ने बंगाल के लोक नृत्य ‘जात्रा’ में भी अपनी हिस्सेदारी की और इस लोक कला मंच के ज़रिए राज्य के गाँव-गाँव एवं शहर-शहर तक पहुंचे। उनका पहला जात्रा ‘राइफल’ था, जिसका लेखन और निर्देशन उन्होंने ही किया था। साल 1968 से 1972 के दरमियान उत्पल दत्त ने 17 जात्रा नाटक का लेखन और निर्देशन किया। आगे चलकर ग्रामीण और अर्धशहरी दर्शकों को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने ‘विवेक जात्रा समाज’ संगठन का भी गठन किया। इसके ज़रिए जात्रा प्रस्तुतियां दीं।

उत्पल दत्त ने अपने रंगमंच करियर का आगाज विलियम शेक्सपियर के ड्रामों से किया। ‘ओथेलो’ में अदाकारी के साथ-साथ उन्होंने शेक्सपियर के एक और नाटक ‘रिचर्ड तृतीय’ में राजा का किरदार किया। इस रोल की उनकी दमदार अदाकारी को देखकर, जेनिफिर केंडेल के वालिदैन केंडेल दम्पत्ति जिऑफ्रे केंडल और लौरा केंडल ने उन्हें अपने चलते-फिरते थियेटर ग्रुप ‘शेक्सपियराना थियेटर कंपनी’ में शामिल होने का ऑफर दिया। ज़ाहिर है कि उत्पल दत्त की जैसे मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई। उन्होंने साल 1947 से लेकर 1949 और फिर बाद में 1953-54 के दौरान भारत और पाकिस्तान के मुख़्तलिफ़ शहरों में इस थियेटर कंपनी के मार्फ़त शेक्सपियर के नाटकों को लोगों तक पहुंचाया। केंडेल दम्पत्ति के भारत से जाने के बाद, उत्पल दत्त ने खु़द का एक नाट्य ग्रुप ‘लिटल थियेटर ग्रुप’ बना लिया। इस ग्रुप के ज़रिए उन्होंने न सिर्फ़ शेक्सपियर के ड्रामे किये, बल्कि इब्सन, बर्नाड शॉ, टैगोर और गोर्की के नाटकों की अंग्रेजी प्रस्तुतियां कीं।

साठ के दशक में उत्पल दत्त का झुकाव बांग्ला साहित्य की ओर हुआ। उन्होंने बांग्ला की मूल और अनूदित कृतियों के मंचन की शुरुआत की। ज़ाहिर है कि यहां भी वे कामयाब रहे।

उत्पल दत्त को अभिनय के साथ-साथ पढ़ने का भी शौक था। वे बेहद पढ़ाकू थे। 21 साल की उम्र होने तक उन्होंने मार्क्स, दिदेरो, रूसो, हीगल, कांट, लेनिन, पुश्किन, दास्तोएव्स्की, ट्राट्स्की और बुखारिन आदि को पढ़ लिया था। उनकी मार्क्सवादी समझ सतही नहीं थी। अध्ययन के अलावा उन्हें ज़मीनी तर्जुबा भी था। जो उनके विचारों में झलकता था। उत्पल दत्त एक सच्चे मार्क्सवादी थे और उन्होंने अपनी राजनीतिक विचारधारा और उससे प्रतिबद्धता को कभी नहीं छिपाया। उनका इस बारे में साफ कहना था, ‘‘मैं तटस्थ नहीं पक्षधर हूं और मैं राजनीतिक संघर्ष में विश्वास करता हूं। जिस दिन मैं राजनीतिक संघर्ष में हिस्सा लेना बंद कर दूंगा, मैं एक कलाकार के रूप में भी मर जाऊंगा।’’ (‘पॉलिटिकल थिएटर’-उत्पल दत्त)

उत्पल दत्त ‘इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन’ यानी इप्टा के फाउंडर मेम्बर में से एक थे। साल 1950-51 के दौरान उत्पल दत्त इप्टा से जुड़े। उस वक्त वे अंग्रेजी ज़बान के नाटकों में पूरी तरह से डूबे हुए थे। शेक्सपियर और बर्नाड शॉ के नाटकों को करते-करते उनके मन में एकरसता का भाव पैदा हुआ। जो उन्हें इप्टा की ओर ले गया। निरंजन सेन, जो उस वक्त इप्टा के महासचिव थे, ने उत्पल दत्त से इप्टा में शामिल होने का कहा। जिसे उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी मंजूर कर लिया। इप्टा से जुड़ने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि ‘‘अवाम ही अकेली ताक़त है, जो नाट्यकर्म में जीवन का स्पंदन पैदा कर सकती है।’’ (‘पॉलिटिकल थिएटर’-उत्पल दत्त)

यह वह दौर था, जब कोलकाता में इप्टा का सेंट्रल स्कवैड काम कर रहा था। जिसमें नुक्कड़ नाटक के जन्मदाता पानू पॉल, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, काली बनर्जी, संगीतकार हेमंग विश्वास, सलिल चौधरी, निर्मल घोष, बिजन भट्टाचार्य जैसे दिग्गज शामिल थे।

पानू पॉल के साथ उत्पल दत्त ने कई नुक्कड़ नाटक किए। उनका पहला नाटक ‘चार्जशीट’ (साल 1951) था। यह नाटक उन कम्युनिस्ट नेताओं के ऊपर था, जो उस वक्त बिना मुक़दमे के जेलों में बंद थे। यह नाटक बंगाल भर में मज़दूरों और कामगारों के बीच खेला गया। ‘चार्जशीट’ का विषय और कलाकारों की अदाकारी इतनी प्रभावशाली थी कि नाटक ख़त्म होने के बाद जनता कम्युनिस्ट लीडरों की रिहाई के ज़ोरदार नारे लगाती थी। इस नाटक की कामयाबी के बाद उत्पल दत्त ने दो दर्जन से ज़्यादा नुक्कड़ नाटक लिखे और खेले। जिन्हें जनता ने खूब पसंद किया। इन नाटकों से उनका दिली नाता था। वे इन नाटकों से जज़्बाती तौर पर जुड़े हुए थे। इन राजनीतिक नुक्कड़ नाटकों में अदाकारी पर उनका ख़याल था, ‘‘मैंने एक राजनीतिक व्यक्ति के रूप में ही नहीं, बल्कि एक कलाकार के नाते भी, उनका आनंद लिया है।’’(‘पॉलिटिकल थिएटर’-उत्पल दत्त)

उत्पल दत्त ने नदी-नाविक मजदूरों, महेशटोला के दर्जियों और उत्तरपाड़ा के आटोमोबाइल मजदूरों के बीच नुक्कड़ नाटक खेले। पानू पॉल के साथ उन्होंने जो दूसरा नुक्कड़ नाटक किया, वह भी राजनीतिक था। महेशटोला के दर्जियों के बीच उन्होंने इस नाटक के कई प्रदर्शन किए। उत्पल दत्त ने बाद में यह तस्लीम किया, ‘‘महेशतल्ला के उस दौर ने मुझे पूरी तरह से बदल दिया। मैं एक सबसे कटे हुए, एकाकी बुद्धिजीवी से एक व्यक्ति में, एक जिंदा इंसान में संघर्षशील अवाम के हिस्से में बदल गया।’’ (‘पॉलिटिकल थिएटर’-उत्पल दत्त)

उत्पल दत्त कहने को कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर नहीं थे लेकिन उन्होंने उस वक्त जो रंगकर्म किया, वह पूरी तरह से राजनीतिक है। अपने क्रांतिकारी नुक्कड़ नाटकों से उन्होंने साम्यवादी विचारों को अवाम तक पहुंचाया। जिसके चलते उन पर कई हमले भी हुए। तत्कालीन मरकजी हुकूमत ने जब बंगाल और बिहार को मिलाकर एक राज्य बनाने की कोशिश की, तो उन्होंने नाटक ‘नया तुगलक’ लिखा। इस नुक्कड़ नाटक के प्रदर्शन के दरमियान सियासी विरोधियों ने खू़ब रुकावटें डालीं, हमले किए लेकिन सूबे भर में यह नाटक लगातार खेला जाता रहा। हुड़दंगी उनके हौसले नहीं तोड़ पाये। उत्पल दत्त और पानू पॉल ने एक के बाद एक कई आंदोलनकारी नुक्कड़ नाटक तैयार किये। ‘द स्पेशल ट्रेन’ भी ऐसा ही एक नाटक था। इस नाटक में पूंजी तथा शासन के बीच के नंगे गठजोड़ को बेनकाब किया गया था। नाटक के बाद वे मजदूरों के लिए चंदा भी इकट्ठा करते।

साल 1959 में उत्पल दत्त ने नाटक ‘अंगार’ किया। जो कोयला मजदूरों की संघर्षमय ज़िंदगी पर केन्द्रित था। इस नाटक में दर्शाया गया था कि किस तरह एक कोयला कंपनी अपने कोयले को आग से बचाने के लिए खदान में पानी भर देती है और दूसरे सिरे पर मजदूर डूबकर मर जाते हैं। यह नाटक भी ख़ासा सफल रहा। जिसके 1100 से ज़्यादा प्रदर्शन हुए। इप्टा से जुड़ने के बाद उत्पल दत्त ने जो भी नाटक किए, उनमें एक सियासी पैगाम है। जनता को जागरूक करने के इरादे से ही यह नाटक तैयार किए गए। इन्हें राजनीतिक नाटक कहें, तो ग़लत नहीं होगा। उत्पल दत्त भी यह बात अच्छी तरह से जानते थे। अपने एक लेख में उन्होंने इस बात को स्पष्ट तौर पर स्वीकार करते हुए लिखा है, ‘‘सीधे-सीधे राजनीतिक नाटक करने का जो परमानंद है, किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं समझाया जा सकता है, जो अराजनीतिक हो और इसलिए अवाम की बदहाली के प्रति उदासीन हो। लेकिन जो लोग इस बात को समझते हैं कि जीवन कला से महानतर है, कि अवाम की असली भूख में तथा उसके असली शौर्य में जितना ड्रामा है, उतना काल्पनिक नाट्यकर्म में नहीं है।’’ (‘पॉलिटिकल थिएटर’-उत्पल दत्त)

उत्पल दत्त एक आंदोलनकारी रंगकर्मी थे, जो बार-बार सियासी ड्रामों की ओर वापस आते थे। मिसाल के तौर पर उनका नाटक ‘तीर’, सांस्कृतिक दर्पण में क्रांतिकारी पुनर्जीवन को उभारता है। उत्पल दत्त सच्चे अर्थ में अंतरराष्ट्रीयवादी थे। 1962 में चीन युद्ध के समय जब चारों और चीन के खि़लाफ़ नस्लवादी कोरस था। उन्होंने भोंडे अंधराष्ट्रवाद के उन्मादी नाच में शामिल होने से साफ इंकार कर दिया था। जिसका नतीजा यह निकला कि उनके घर और उस थियेटर पर हमला हुआ, जहां नाटक ‘अंगार’ खेला जा रहा था। कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर हमला हुआ। कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तर जला दिए गए। ‘प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट’ के तहत उत्पल दत्त को बिना किसी ट्रायल के जे़ल में डाल दिया गया। वजह, ‘देशबृति’ में छपा उनका एक आर्टिकल ‘एनअदर साइड ऑफ द स्ट्रगल’ सरकार की नज़र में ‘विवादित’ था।

मुंबई के 1946 के नौसैनिक विद्रोह पर केन्द्रित उनका नाटक ‘कल्लोल’ (साल 1965) भी ख़ासा चर्चा में रहा। इस नाटक में उत्पल दत्त ने उस समय के शीर्ष कांग्रेसी नेताओं को पेश करते हुए, यह दिखाया था कि उनकी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ खुली मिलीभगत थी। इस सशस्त्र विद्रोह को, जिसका नेतृत्व खिसककर कम्युनिस्टों के हाथ में जा रहा था, कुचलने की साजिश में उन्होंने सीधे-सीधे हिस्सा लिया था। ज़ाहिर है कि उनके इस नाटक पर तत्कालीन कांग्रेस हुकूमत की टेड़ी निगाह हुई और साल 1965 में उत्पल दत्त को कई महीनों के लिए जेल जाना पड़ा। 1967 में जब बंगाल विधानसभा के चुनाव हुए, तो कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। बंगाल में पहली बार वाम दलों की गठबंधन सरकार बनीं। कांग्रेस की हार की एक वजह उत्पल दत्त की गिरफ्तारी भी मानी गई।

बहरहाल, यह सरकार महज आठ महीनों तक ही कायम रही। राज्य में इसके बाद का दौर, राजनीतिक अस्थिरता का दौर था। इस दौरान नक्सलबाड़ी आंदोलन चला, जिसे सरकार ने हिंसक रूप से दबा दिया। उत्पल दत्त ने नक्सलाइट आंदोलन में हिस्सेदारी की। ज़रूरत पढ़ने पर वे कुछ दिनों के लिए अंडरग्राउंड भी रहे। साल 1968 में जब उत्पल दत्त फिल्म ‘द गुरु’ की शूटिंग कर रहे थे, तब उनको सरकार ने एक बार फ़िर गिरफ्तार कर लिया। सरकार के दमन और गिरफ़्तारियों से उत्पल दत्त कभी नहीं घबराये। जे़ल से वापस आकर वे फिर रंगकर्म में लग जाते थे। जिस ख़याल पर उत्पल दत्त का अकीदा था, उस पर अंत तक कायम रहे। इस बारे में उनका कहना था, ‘‘मैं अपनी राजनीति के सम्बंध में ईमानदार रहा हूँ। जिसमें मेरा विश्वास रहा है, उसका मैंने प्रचार भी किया है, भले ही उसके परिणाम कुछ भी निकले।“ (‘पॉलिटिकल थिएटर’-उत्पल दत्त)

देश में जब इमरजेंसी लगी, तो उत्पल दत्त ने इसका रचनात्मक विरोध किया। इमरजेंसी के खि़लाफ़ उन्होंने उस वक़्त तीन नाटक ‘बैरीकेड’, ‘सिटी ऑफ नाइटमेयर्स’, ‘इंटर द किंग’ लिखे। सरकार ने उनके इन तीनों नाटकों को बैन कर दिया। लेकिन जहां भी यह नाटक खेले गए, लोगों ने इन्हें खूब पसंद किया।

उत्पल दत्त एक सजग बुद्धिजीवी थे। देश की अहम समस्याओं पर उनकी हमेशा नज़र रहती थी। अपने तईं वे इन मुद्दों पर वाज़िब हस्तक्षेप भी करते थे। किताब ‘टुवर्ड्स ए रिवोल्यूशनरी थिएटर’, क्रांतिकारी विचारों से ओतप्रोत उनकी एक अहम किताब है। जिसमें उन्होंने अपनी तमाम मुद्दों पर बेलाग राय पेश की है। एक जगह वे लिखते हैं, ‘‘भारत का पूंजीपति, जो अज्ञानी है तथा मध्ययुगीन अंधविश्वास में डूबा हुआ है, अपने मुनाफ़ों के लिए ख़तरा देखता है, तो वहशी बन जाता है और पड़ोसी देशों के साथ युद्ध करना, एक तरह से उसकी सालाना तिकड़म है, जिसका सहारा लेकर काल्पनिक दुश्मनों के खि़लाफ़ भारतीय अवाम का ध्यान मोड़ा जाता है और अवाम के बीच पाशविक कट्टरता को जगाया जाता है और उसे कम्युनिस्टों, जनतंत्रवादियों तथा शांतिवादियों के खि़लाफ़ मोड़ दिया जाता है।’’ उत्पल दत्त की इस बात की प्रासंगिकता मौजूदा दौर में भी विधमान है। देश में आज हम आये दिन इस तरह की हिंसक प्रवृतियों को देख रहे हैं। उत्पल दत्त सरमायेदारी के कट्टर मुख़ालिफ थे। सरमायेदारी को वे हर समस्या की जड़ मानते थे। फ़िल्मों और कला में आज पूंजी का जिस तरह से दखल बढ़ा है, इस पर उनका ख़याल था, ‘‘पूंजीवादी व्यवस्था के आदेश पर निर्मित कला कभी भी कचरे के स्तर से ऊपर नहीं उठ सकती है।’’ (‘पॉलिटिकल थिएटर’-उत्पल दत्त)

उत्पल दत्त खांटी मार्क्सवादी थे। ज़ाहिर है कि मार्क्सवाद से ही उन्हें आत्म-आलोचना की सीख मिली थी। साल 1988-90 के दरमियान जब उन्होंने देश की राजनीति में धर्म का बेजा इस्तेमाल देखा, यही नहीं कम्युनिज्म का गिरता असर भी उनकी निग़ाहों में था। इन हालात में वे ख़ामोश तमाशाही नहीं बने रहे, बल्कि उन्होंने अपनी फ़िल्मों के ज़रिए सार्थक हस्तक्षेप किया। ‘ओपिएट ऑफ द पीपल’ और ‘द रेड गॉडेस ऑफ डिसट्रक्शन उसी दौर की उनकी फ़िल्में हैं। उत्पल दत्त ने हिंदी फ़िल्मों में भी काम किया। मशहूर फ़िल्मकार और लेखक ख़्वाजा अहमद अब्बास ने फ़िल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ (1969) में उन्हें पहली दफ़ा अभिनय करने का मौका दिया। उसी साल फ़िल्मकार मृणाल सेन ने अपनी हिंदी फ़िल्म ‘भुवन सोम’ में उन्हें मुख्य किरदार के लिए चुना। इत्तेफ़ाक से मृणाल सेन की भी यह पहली हिंदी फ़िल्म थी। फिल्म ‘भुवन सोम’ में उत्पल दत्त की अदाकारी खूब सराही गई। यहां तक कि उन्हें इस फ़िल्म में अभिनय के लिए वर्ष 1970 का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। आगे चलकर उत्पल दत्त ने डायरेक्टर ऋषिकेश मुखर्जी की अनेक फ़िल्मों में काम किया। उन्हीं की फिल्म ‘गोलमाल’, ‘नरम गरम’ और ‘रंग बिरंगी’ के लिए उत्पल दत्त को कॉमेडी का फ़िल्मफेयर पुरस्कार हासिल हुआ। उन्होंने अपने फ़िल्मी करियर में 100 से ज्यादा फ़िल्में कीं। सत्यजित राय की आख़िरी फ़िल्म ‘आगुंतक’ में अदाकारी के लिए उत्पल दत्त को ‘बंगाल फ़िल्म पत्रकार संघ पुरस्कार’ मिला। यही नहीं साल 1990 में थियेटर में बेमिसाल योगदान के लिए उन्हें ‘संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप’ से भी सम्मानित किया गया। सरकार ने उत्पल दत्त की दीर्घ कला साधना का सम्मान करते हुए उनकी स्मृति मे डाक टिकट जारी किया। अभी 29 मार्च को उनका जन्मदिन था। 29 मार्च, 1929 को जन्मी इस अहम शख़्सियत ने 19 अगस्त, 1993 को ज़िंदगी के रंगमंच पर आख़िरी भूमिका निभाई और हमेशा के लिए विदाई ले ली।

(ज़ाहिद ख़ान एक स्वतंत्र लेखक-पत्रकार हैं। और करीब डेढ़ दशक से लगातार लेखन कर रहे हैं।)

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