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विदेशी अनुदान नियामक कानून के संशोधनों के मार्फ़त नागरिक चेतना के मंचों पर हमला!
चालू वित्त वर्ष के मध्य में ही इन संशोधनों को लागू कर दिया जाना इस संभावना को पुख्ता आधार देता है कि मौजूदा केंद्र सरकार नहीं चाहती कि देश में नागरिक अधिकारों का समर्थन और लोकतान्त्रिक वातावरण मुहैया कराने वाली संस्थाएं अपना काम जारी रख सकें।
सत्यम श्रीवास्तव
14 Oct 2020
FCEA

एक अक्टूबर, 2020 से देश भर के तमाम गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) पर राज्य की निगरानी की जकड़ और सख्त कर दी गयी है। मौजूदा भाजपा नीत सरकार ने जो बलात संशोधन FCRA कानून 2010 में किए हैं उन्हें गैर सरकारी संगठनों को नेस्तनाबूद किए जाने के उद्देश्य से किया जाना बताया जा रहा है।

चालू वित्त वर्ष के मध्य में ही इन संशोधनों को लागू कर दिया जाना इस संभावना को पुख्ता आधार देता है कि मौजूदा केंद्र सरकार नहीं चाहती कि देश में नागरिक अधिकारों का समर्थन और लोकतान्त्रिक वातावरण मुहैया कराने वाली संस्थाएं अपना काम जारी रख सकें। इन संशोधनों के माध्यम से गैर सरकारी, अ-लाभकारी संस्थाओं को एक तरह से आपराधिक संगठनों की श्रेणी में डाल दिया गया है। इन संस्थाओं पर, छद्म धारणाओं के आधार पर यह तोहमत है कि ये विदेशी अनुदान का उपयोग राष्ट्र विरोधी गतिविधियों व धर्मांतरण की कार्यवाहियों को संचालित करने और उग्रवाद (नक्सलवाद) को आर्थिक व नैतिक समर्थन देने में कर सकती हैं। इस बिना पर इन संस्थाओं पर निगरानी रखने और इनके प्रभाव को कम करने के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करवाए जाने की सख्त ज़रूरत है। यह संशोधित कानून इन संस्थाओं पर नकेल कसने में कारगार होंगे।

ये महज़ किसी मौजूदा कानून में किए गए कुछ संशोधन नहीं हैं बल्कि जिस मंशा से देश में 2010 में विदेशी अनुदान नियामक कानून को लाया गया था उसकी परिणति है। हालांकि 2010 में जब यह कानून लाया गया था तब भी तोहमत यही थीं। दिलचस्प है कि बीते 10 सालों में सरकार का निगरानी तंत्र इतना सक्षम नहीं हो पाया है कि वो अपने अधीन काम कर रही संस्थाओं को मिलने वाले विदेशी अनुदान और उसके उपयोग व तथाकथित दुरुपयोग पर नियंत्रण रख सकें। तब भी जबकि इन संस्थाओं पर पारदर्शिता की बहुपरतीय शर्तें पहले से ही लागू हैं।

बुनियादी सवाल विदेशी अनुदान को लेकर है। जब विदेश से निवेश आता है तो उसका स्वागत देश का वित्त मंत्रालय करता है और घोषित तौर पर वह धन राष्ट्र हित में माना जाता है लेकिन जब विदेशी धन अ-लाभकारी उद्देश्यों मसलन समाज कार्य, कौशल विकास, या टिकाऊ विकास के लक्ष्यों या मानवाधिकारों की दिशा में वंचितों की मदद के लिए आता है तो उसे देश के गृह मंत्रालय की चाक चौबन्द निगरानी के अधीन रखा जाता है।

शुरू से ही इस वंचना और भेदभाव का शिकार रही गैर सरकारी संस्थाओं को बार-बार देश की सरकारों ने न केवल संदेह की दृष्टि से देखा है, वरन उन्हें कभी वह इज्जत ही नहीं बख्शी जिसकी वो हकदार रही हैं। देशव्यापी सख्त लॉकडाउन के दौरान अपवाद स्वरूप पहली दफा देश के प्रधानमंत्री व नीति आयोग के अध्यक्ष की तरफ से इनकी सराहना की गयी। इसे बीते अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं और इन संशोधनों से जिस तरह से इस पूरे सेक्टर पर एकतरफा आक्रमण किया है वह सरकार की असल मंशा बताता है। सराहना करना एक फौरी ज़रूरत या औपचारिकता थी जिसे रस्मन निभा दिया गया वरना मूल भाव अदावत का ही था।   

इस कानून को बेहद गोपनीय तरीके से संसद के पटल पर रखा गया। प्राय: किसी कानून के मसौदे पर उससे प्रभावित होने वाले पक्षों से राय-मशविरा किए जाने की एक लोकतान्त्रिक मर्यादा रही है। लेकिन इस कानून के मसौदे के बारे में पहली दफा तब चला जब यह लोकसभा में सत्तापक्ष ने बहुमत के ज़ोर पर पारित करवा लिया। उसके बाद राज्यसभा में तो खैर इस पर महज़ औपचारिकता के लिए चर्चा हुई क्योंकि विपक्ष उस रोज़ संसद सत्र का बहिष्कार कर रहा था। बिना विपक्षी दलों के इस कानून को पारित करवाना और चालू वित्त वर्ष के बीच में इसे लागू करवाना सरकार की मंशा पर गंभीर सवाल खड़ा करते हैं।

इस कानून में जो मुख्य संशोधन हैं उनमें उल्लेखनीय ढंग से उन पहलुओं को चोट पहुंचाई गयी है जो धीरे-धीरे एक बेहतर और वृहत नागरिक समाज बनाने के लिए ईज़ाद हुए थे। उदाहरण के लिए इस नए कानून में कोई बाइलेटरल फंडिंग एजेंसी किसी अन्य पात्र संस्था को अनुदान मुहैया नहीं करा सकती। इसका सीधा प्रभाव दोनों स्तरों पर होना तय है। देश में पंजीकृत ऐसी कितनी ही फंडिंग संस्थाएं हैं जिनकी पहुँच सीधे ज़रूरत मंद लोगों तक है। वहाँ स्थानीय स्तर पर संस्थाएं काम करती हैं। उनके साथ एक उद्देश्य विशेष पर अनुदान देना वास्तव में उस समाज तक शिक्षा, स्वास्थ्य, सरकारी कार्यक्रमों, स्वच्छता, और नागरिक विवेक तैयार करने में मदद करता रहा है। लेकिन इस नए कानून के अमल में आने के बाद यह कतई संभव नहीं रहा है।

यह प्रावधान स्थानीय नेतृत्व विकसित होने, वैज्ञानिक चेतना विकसित होने, नागरिकता बोध और लोकतन्त्र में अपनी हिस्सेदारी मांगने के लिए तैयार होती पीढ़ियों की ‘सप्लाई लाइन’ को काटने जैसा है।

संभावनाएं जताईं जा रही हैं कि सरकार इन गैर सरकारी संगठनों के काम की प्रवृत्ति के लिहाज से चोट करना चाहती है। जैसा कि राज्य सभा में इस कानून पर सीमित चर्चा के दौरान कई सांसदों ने कहा भी कि इससे ‘अच्छी संस्थाओं’ को नुकसान न हो, सरकार यह सुनिश्चित करे। यह किसी कानून के अमल में आने का नया मापदंड पैदा हो गया है जो बेहद पूर्वाग्रह ग्रस्त है और किसी की निजी धारणाओं पर आधारित है।

इस कानून का सबसे बुरा असर उन संस्थाओं पर होने जा रहा है जो अपनी प्रकृति में थोड़ा भी राजनैतिक रुझान रखती हैं, अधिकारों पर बात करती हैं और लोगों को शोषण के विरुद्ध खड़ा होने और अपनी आवाज़ बुलंद करने का समर्थन करती हैं।

सरकार को यह आवाज़ें पसंद नहीं हैं और इसलिए जो लोग इन आवाज़ों को नैतिक समर्थन, आर्थिक सहयोग और उनकी क्षमताएं बढ़ाने में मदद करती हैं उन्हें काम करने से रोका जाना भी एक प्राथमिक उद्देश्य इन संशोधनों का है। 

दूसरा महत्वपूर्ण संशोधन किसी संस्था द्वारा प्राप्त विदेशी अनुदान का 20 प्रतिशत से ज़्यादा खर्च प्रशासकीय कार्यों में करने की शर्त है जिसकी सीमा पहले 50 प्रतिशत तक थी। अब सवाल है कि संस्था स्वमेव एक अमूर्त चीज़ है जिसे साकार करते हैं उसके साथ काम करने वाले लोग। यह गैर-सरकारी और अ-लाभकारी सेक्टर इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि इसमें काम करने वाले लोग प्राय: अपनी खुद की प्रेरणा से आते हैं और खुद को उसी नागरिक समाज का हिस्सा मानते हैं। यह भी गलत नहीं है कि उन्हें उनके समय, ऊर्जा और जिम्मेदारियों के बदले में तनख़्वाहें भी मिलती हैं लेकिन मूल रूप से वह उनका रोजगार का जरिया केवल नहीं है। अब ऐसी संस्थाएं जहां केवल लोग हैं और उस संस्था में बोर्ड से लेकर सेक्रेटरी और संस्था प्रमुख भी वहीं हैं तब इस अधिकतम 20% प्रशासनिक खर्च की सीमा में ऐसी संस्थाओं का काम करना मुश्किल है।

संस्था के बोर्ड के सभी सदस्यों के लिए आधार कार्ड अनिवार्य करना, जिसके बारे में गृह राज्य मंत्री ने संसद में माननीय सर्वोच्च अदालत के हवाले से जो कहा उसमें अपने अनुकूल व्याख्या किए जाने की वजह से गंभीर तर्कदोष हैं। हालांकि यह जानकारी देने में संस्थाओं को कोई मुश्किल तो नहीं होगी लेकिन उन्हें ‘निजता के अधिकार’ और संस्था के सुचारू संचालन के बीच अनिवार्य चुनाव के लिए अभिशप्त तो किया ही गया है।

इस कानून में पहली दफा संस्थाओं को यह विकल्प मुहैया कराया गया है कि अगर वो चाहें तो अपनी संस्था को मिले एफसीआरए सर्टिफिकेट को विभाग को लौटा सकते हैं जिसे सरेंडर करना कहा गया। लेकिन इसकी शर्तें और प्रक्रियाएं इतनी जटिल बतायीं जाती हैं कि कोई संस्था इस रास्ते चलना न चाहेगी। ऐसे में दूसरा विकल्प हर 5 साल में एक बार रिनुअल का है जो पहले से मौजूद कानून में भी था। इस कानून ने रिनुअल की प्रक्रिया को जटिल और अधिकारियों की मन मर्ज़ी पर छोड़ दिया गया है। अगर किसी वजह से रिनुअल नहीं हो पता है और पात्रता अवैध हो जाती है तो ऐसी संस्थाओं को अपने जीवन काल में जो भी संपत्ति (भवन, ज़मीन, वर्कशॉप, वाहन, जमा पूंजी, उपकरण आदि) बनाई है उसे मंत्रालय के अधीन राजसात कर देना होगा। यही प्रावधान तब भी हैं जब संस्थाएं स्वेच्छा से इस पात्रता को सरेंडर करें। बहरहाल, अब यह पूरी तरह मंत्रालय के विवेक के अधीन हैं कि वो संस्था को सुचारू रूप से सीमित और निर्धारित संसाधनों में काम करने देना चाहते हैं और किन संस्थाओं को हमेशा हमेशा के लिए नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं। आने वाले समय में सबसे ज़्यादा असर इसी प्रावधान के दिखलाई पड़ेंगे।

इस प्रावधान का निशाना चर्च से सम्बद्ध संस्थाएं बहुतायत में होने वाली हैं। यह आशंका इसलिए भी है क्योंकि कानून को लाने के उद्देश्यों में एक प्रमुख उद्देश्य धर्मांतरण रोकना भी है। यह महज़ संयोग नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ समय समय पर घर वापसी अभियान के जरिये पीढ़ियों पहले ईसाई बन चुके आदिवासियों को जबरन हिन्दू बनाने की कार्यवाहियों को अंजाम देते आया है। हाल ही में संघ ने एक सम्मेलन में इस अभियान को तेज करने के संकेत भी दिये हैं।

यह वास्तविकता है कि विभिन्न आदिवासी इलाकों में ब्रिटिश काल से ही चर्च और उससे जुड़ी और विभिन्न सेवा कार्यों में लगीं संस्थाओं ने विशाल संरचनाएं खड़ी की हैं और जिनके माध्यम से आदिवासियों की कई पीढ़ियों को बेहतर भविष्य दिया है। इनमें स्कूल, हस्पताल, कौशल विकास केंद्र, आजीविका से जुड़े विभिन्न संस्थान हैं। उल्लेखनीय है इन सब के साथ इन संस्थाओं ने दूरस्थ अंचलों के बच्चों, युवाओ, लड़कियों को नागरिक बोध और आधुनिक चेतना का भी निर्माण किया है।

कानून के इस प्रावधान से सरकार इन ऐतिहासिक कामों को महज़ सम्पत्तियों में तब्दील कर देना चाहेगी और इन सम्पत्तियों को अपने अधीन लाने की प्रक्रिया बड़े पैमाने पर दिखलाई पड़ेगी।

यह दुखद और अफसोसजनक है कि एक संप्रभु राष्ट्र में पंजीकृत स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली संस्थाओं की हैसियत महज़ एक विभाग के अधिकारियों की कृपा पर निर्भर होगी।

देश भर की संस्थाओं को विदेशी अनुदान प्राप्त करने के लिए देश की राजधानी नई दिल्ली में संसद मार्ग पर मौजूद स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की एक शाखा में प्राथमिक खाता खुलवाना अनिवार्य कर दिया गया है। पहले अनुदान इस शाखा में आयेगा जिसे बाद में संस्था के अब तक मौजूद खाते में भेजा जाएगा। हालांकि अभी नियम कायदे सामने नहीं आए हैं इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि स्टेट बैंक की इस शाखा में कितनी अवधि तक अनुदान रखा जाएगा। बहरहाल यह एक तरह का फरमान है जिससे सरकार अपने होने और ‘मजबूत सरकार’ होने का प्रमाण देती नज़र आती है। यह दिलचस्प है जिसे अमिताभ बेहर ने हाल में, स्क्रॉल पर लिखे अपने एक लेख में कहा है कि डिजिटल इंडिया के इस दौर में जहां बैंको के बीच में इन्टरनेट के माध्यम से नेटवर्किंग हो वहाँ इस तरह की बाध्यता का कोई तर्क नहीं है।

‘लोक सेवक’ की परिभाषा को लेकर भी इस कानून में सख्त हिदायतें बतलाई गईं हैं। इसे इंडियन पीनल कोड के संदर्भ में ग्रहण किया गया है। जिसके अनुसार किसी संस्था के बोर्ड में या किसी अन्य रूप में भी लोक सेवक को कोई आर्थिक मानदेय आदि नहीं दिया जा सकता। इस प्रावधान से उन संस्थाओं पर गंभीर असर होंगे जो अपेक्षाकृत छोटी हैं और सीमित क्षेत्र में काम करती हैं जिनमें संस्था के संस्थापक और प्रबंधक एक ही हैं। इस प्रावधान से छोटे छोटे प्रयासों की भ्रूण हत्या की जाएगी।

इस कानून के प्रावधानों से भी ऊपर इसके पीछे छिपी मंशाओं को समझना निहायत ज़रूरी है। उल्लेखनीय बात यह है कि निगरानी के लिए राज्य की शक्तियों को बढ़ाने में किसी भी दल की सरकार पीछे नहीं है। इसलिए यह अंतत: ‘लोकतन्त्र के दायरे को संकुचित’ करने की मंशा और नीयत और उद्देश्यों से प्रेरित हैं। यहाँ हमें उस वैश्विक फ्रेमवर्क को भी देखना चाहिए जो अमेरिका में 9/11 के नाम से जानी जाने वाली आतंकवादी हमले के बाद दुनिया भर के देशों पर थोपा जा रहा है।

इक्कीसवीं सदी की शुरूआत से ही पूरी दुनिया में धुर दक्षिणपंथ के उभार में वैश्विक फ्रेमवर्क का सार्वभौमिक असर हुआ है। इस मौज़ूं पर बेन हेस द्वारा लिखी एक रिपोर्ट का ज़िक्र करना ज़रूरी है जो स्टडी ऑन काउंटर टेरोरिज़्म, पॉलिसी लौण्डरिंग एंड एफ़एटीएफ़ (फायनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स): लीगालाइज़िंग सर्विलेंस, रेग्युलेटिंग सिविल सोसायटी नाम से प्रकाशित किया गया था। इस रिपोर्ट को भारत में इंसाफ (इंडियन सोशल फॉरम) ने भी पुनर्प्रकाशित किया है।

यह रिपोर्ट हमें तफसील से बतलाती है कि इस बात के कोई प्रमाण हालांकि अभी तक नहीं हैं कि एनजीओ के माध्यम से किसी भी तरह से आतंकवादी संगठनों या कार्यवाहियों को कोई फंडिंग हुई है।

इस रिपोर्ट में सिफ़ारिश VIII बड़े जतन से बनाई गयी है। जिन्हें यथासंभव बल्कि शब्दश: तमाम देशों की सरकारों को अपनाने को कहा गया है। इन सिफ़ारिशों की तुलना अगर हिंदुस्तान के एफसीआरए कानून से करें तो हम पाएंगे कि भारत सरकार ने न केवल इन्हें शब्द्श: माना है बल्कि उससे भी आगे जाकर एनजीओ के खिलाफ भ्रामक धारणाएँ फैलाने और उन्हें सार्वजनिक जीवन में संदेह में लाने के लिए बढ़ चढ़ कर काम किया है।

इस मौके पर हमें पिछले यूपीए शासन में जारी हुई आईबी की उस रिपोर्ट को याद करना चाहिए जिसमें कहा गया था कि कुछ संस्थाओं ने विदेशी अनुदान से देश के आर्थिक विकास दर में लगभग 3% का नुकसान किया है। इन संस्थाओं को सार्वजनिक रूप से इस बात के लिए दोषी बताया गया कि इन्होंने तमाम बड़ी आर्थिक परियोजनाओं को रोकने में स्थानीय नागरिकों के साथ काम किया और इससे देश की विकास दर को जबर्दस्त नुकसान पहुंचा है।

सरकार द्वारा जारी रिपोर्ट हालांकि हमेशा एकपक्षीय होती है लेकिन यह सवाल तभी से पूछा जा रहा है कि ये आर्थिक परियोजनाएं यदि देश के क़ानूनों की कसौटी पर खरी थीं तो उन्हें क्यों अपना काम रोकना पड़ा होगा? अफसोस यह अनुत्तरित है और हमेशा रहेगा क्योंकि यह आकलन ख्याली था और सार्वजनिक रूप से गैर सरकारी संगठनों को बदनाम करने के लिए रचा गया था।

2018 में डेनमार्क के विदेश मंत्रालय और इन्टरनेशनल सेंटर फॉर नोट फॉर प्रॉफ़िट लॉं ने संयुक्त रूप से ह्यूमन राइट्स सेंटर की स्थापना के 30वें साल के अवसर पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र संघ के स्पेशल रिपोर्टेयर के दायित्वों के अधीन ‘आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के दौरान मानवाधिकारों की सुरक्षा व संबर्द्धन (प्रोटेक्शन एंड प्रोमोशन ऑफ ह्यूमन राइट्स वाइल काउंटरिंग टेरोरिज़्म)। इस रिपोर्ट को इसलिए पढ़ा जाना चाहिए ताकि हम समझ सकें कि हमारे और अन्य देशों में भी संविधान के बरक्स कैसे एक अन्य ढांचा विकसित हुआ है। यह ढांचा आतंकवाद और उग्रवाद से निपटने के नाम पर धीरे धीरे कैसे नागरिक अधिकारों (ज़ाहिर है मानवाधिकारों के भी) खिलाफ खड़ा होता गया। आज देश की संसद के लिए संविधान के बरक्स इस वैश्विक फ्रेमवर्क का महत्व कैसे ज़्यादा होता गया, ये समझने में भी यह रिपोर्ट बहुत मददगार है। 

इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि 2001 से 2018 के बीच कम से कम 140 देशों की सरकारों ने आतंकवाद से लड़ने के लिए अपने यहाँ नीति संशोधन, निगरानी और नियंत्रण की प्रक्रियाओं को अपनाया है।

इस नए कानून का लब्बोलुआब यह है कि जो पेशेवर संस्थाएं हैं और सर्विस प्रोवाइडर के रूप में सरकार की मदद कर रही हैं और सरकार के किसी भी काम का न तो मूल्यांकन कर रही हैं न ही कोई सवाल खड़ा कर रही हैं उन्हें सीमित संसाधनों और नियंत्रण में कम करने की सहूलियतें दी जाएँ लेकिन जो संस्थाएं प्रत्यक्ष सर्विस नहीं दे रही हैं बल्कि समाज में जागरूकता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, नागरिक अधिकार और पर्यावरण जैसे मुद्दों पर काम कर रही हैं और जिनके काम से समाज में एक आलोचनात्मक विवेक, नागरिक बोध और नेतृत्व पैदा होता है उन्हें आतंकवाद, नक्सलवाद, देश की आंतरिक सुरक्षा आदि का हवाला देकर काम करने से रोका जाये।

अंतरराष्ट्रीय सहयोग को भी इस बहाने नियंत्रित और हतोत्साहित किया जाना एक अलग उद्देश्य तो है लेकिन इसे ग्लोबल फ्रेमवर्क समझते हुए लोकतन्त्र के दायरे को सीमित और राज्य द्वारा पूरी तरह नियंत्रित करने के फरमान के तौर पर भी देखा जाना चाहिए।

(लेखक पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इसे भी देखें  : क्या FCRA ख़त्म कर देगा NGO?   

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