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बेका समझौता: आशंकाओं को दूर करना ज़रूरी
बेका जैसे समझौते यह आशंका उत्पन्न करते हैं कि कहीं हम विदेशी मामलों में अपनी रणनीतिक स्वायत्तता से तो समझौता नहीं कर रहे हैं।
डॉ. राजू पाण्डेय
02 Nov 2020
बेका

अंततः भारत ने 27 अक्तूबर 2020 को अमेरिका के साथ बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपेरशन एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर कर दिए। हम लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट(2016) व कम्युनिकेशन्स कम्पेटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट (2018) पर पहले ही हस्ताक्षर कर चुके थे। अधिकांश मीडिया हाउसेस ने भारत और अमेरिका के इन सामरिक  समझौतों को ऐतिहासिक बताया और माना कि यह भारत के लिए विन विन सिचुएशन है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति की सामान्य समझ रखने वाले भी यह जानते और मानते हैं कि अमेरिका समेत सभी ताकतवर देश अपने वर्चस्व विस्तार के लिए इस प्रकार के समझौतों का उपयोग करते हैं और बाद में जब इन समझौतों के हानि-लाभ का आकलन किया जाता है तब हमें यह ज्ञात होता है कि ताकतवर देश बड़ी खूबी और बेरहमी से अपने रणनीतिक लाभ के लिए हमारा उपयोग कर चुके हैं।

इस समझौते पर हस्ताक्षर तब हुए हैं जब अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में एक हफ्ते से भी कम समय रह गया था। क्या यह अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होता कि हम इन चुनावों के परिणामों की प्रतीक्षा करते और इसके बाद इन समझौतों के लिए आगे बढ़ते? यह हड़बड़ी क्यों की गई? क्या हमें ऐसा लगता है कि यदि जो बाइडन चुनाव जीतते हैं तो चीन के प्रति उनका ध्यान शायद ज्यादा न हो और संभवतः चीन के लिए उनका रुख भी उतना कठोर न हो जितना ट्रम्प का है? हमें यह भी विचार करना होगा कि चीन के साथ यदि तनाव चरम पर न होता और हालात सामान्य होते तब भी क्या हम इस तरह की हड़बड़ी दिखाते?

यदि प्रधानमंत्री मोदी यह मानते हैं कि ट्रम्प उनके मित्र हैं और उनकी यह मित्रता इतनी प्रगाढ़ है कि दो राष्ट्रों के पारस्परिक संबंधों को निर्धारित करने वाले सारे सर्वस्वीकृत कारकों पर भारी पड़ सकती है तो हो सकता है कि वे ट्रम्प के रहते रहते अमेरिका का सैन्य सहयोगी बनकर चीन को दबाव में लाना चाहते हों और उनके मन में यह आशंका भी हो कि जो बाइडन यदि सत्ता में आते हैं तो ट्रम्प से यह उनकी यह नजदीकी बाइडन से दूरी का कारण बन सकती है। यद्यपि ट्रम्प ने समय समय पर अपने वक्तव्यों और निर्णयों से यह सिद्ध किया है कि वे मोदी के साथ मित्रता को लेकर उतने गंभीर और भावुक नहीं हैं जितने मोदी खुद हैं। अमेरिका फर्स्ट का नारा देने वाले ट्रम्प भारत को भला विश्व गुरु कैसे बनने दे सकते हैं? यदि इन आकर्षक नारों की टकराहट को छोड़ भी दिया जाए तब भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति दो राष्ट्र प्रमुखों की मित्रता से प्रभावित होती है यह कल्पना सरकार समर्थक टेलीविजन चैनलों को रुचिकर लग सकती है किंतु वस्तुतः ऐसा सोचना भी हास्यास्पद है।

नव उपनिवेशवाद को प्रश्रय देना अमेरिका की विदेश नीति का स्थायी भाव रहा है। ट्रम्प ने अमेरिका की नवउपनिवेशवादी नीतियों को बड़ी ही निर्लज्ज और भोंडी आक्रामकता के साथ क्रियान्वित किया है। यदि ट्रम्प चुनावों में पराजित होते हैं तब भी अमेरिका की नीतियों में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं आएगा। बस इतना संभव हो सकता है कि क्रियान्वयन का तरीका कुछ कम खटकने वाला हो। 

ट्रम्प और ओबामा के बीच तमाम वाक युद्ध के बावजूद ट्रम्प की इंडो-पैसिफिक क्षेत्र संबंधी नीति ओबामा की पिवोट टु एशिया का ही विस्तार है और दोनों का उद्देश्य चीन के प्रभाव को समाप्त कर अमेरिकी वर्चस्व को कायम रखना है। ट्रम्प की नीतियाँ अपने पूर्ववर्ती से भिन्नता अवश्य दर्शाती हैं लेकिन ट्रम्प की इंडो पैसिफिक की अवधारणा के लिए आधार भूमि तो ओबामा की पिवोट ऑर रीबैलेंस टु एशिया ने ही तैयार की थी। यदि ट्रम्प के स्थान पर जो बाइडन अमेरिका के राष्ट्रपति बनते हैं तब भी चीन के साथ अमेरिका की प्रतिद्वंद्विता और वर्चस्व की लड़ाई जारी रहेगी और अमेरिका अपने फायदे के लिए भारत का उपयोग करने का प्रयास करता रहेगा।

चीन को लेकर अमेरिका की चिंता अकारण नहीं है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सोवियत संघ के विघटन के बाद यह चीन ही है जो अमेरिका की सर्वोच्चता को चुनौती दे रहा है। विश्व बैंक के इंटरनेशनल कंपैरिजन प्रोग्राम की 28 जुलाई 2020 की एक रपट बताती है कि चीन की वास्तविक आय (मुद्रा स्फीति को समायोजित करते हुए) अमेरिका से कुछ ज्यादा है। परचेसिंग पैरिटी इंडेक्स के आधार पर परिकलित जीडीपी के आंकड़े भी दोनों देशों के लिए लगभग समान हैं। चीन 2019 में एक प्रतिशत अंक की वृद्धि के साथ ग्लोबल जीडीपी के 17.7 प्रतिशत का हिस्सेदार था। जबकि अमेरिका की वैश्विक अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी हल्की गिरावट के बाद 16.1 प्रतिशत रह गई थी। यद्यपि कम जनसंख्या वाला अमेरिका अब भी भारी भरकम आबादी वाले चीन से अनेक पैमानों पर बहुत आगे है किंतु अमेरिकी वर्चस्व को कोई चुनौती देने वाला है तो वह चीन ही है। चीन की यह चुनौती आर्थिक जगत तक सीमित नहीं है। वह नए इंटरनेट प्रोटोकॉल की बात कर रहा है क्योंकि वह वर्तमान व्यवस्था से असंतुष्ट है।

यूएस डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट  की सिविल न्यूक्लियर सेक्टर पर केंद्रित 16 सितंबर 2020 की एक रिपोर्ट बताती है कि किस प्रकार चीन इस क्षेत्र का दुरुपयोग अपने साम्राज्य को फैलाने और अमेरिका के दबदबे को कम करने हेतु कर रहा है और चीन की इस सिविल मिलिट्री फ्यूज़न की रणनीति का अमेरिका किस प्रकार मुकाबला करेगा। अमेरिका चीन से तकनीकी सर्वोच्चता के क्षेत्र में खुद को पिछड़ता महसूस कर रहा है। अमेरिकी सरकार द्वारा अक्तूबर 2020 में जारी नेशनल स्ट्रेटेजी फ़ॉर क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज चीन से मिल रही चुनौतियों को ध्यान में रखकर बनाई गई है। यही स्थिति सैन्य क्षेत्र में है, सामरिक दृष्टि से अमेरिका की सर्वोच्चता को बनाए रखने के ध्येय से ट्रम्प के कार्यकाल में सैन्य बजट में इजाफा किया गया है।

समरी ऑफ ऑफ द इररेगुलर वारफेयर एनेक्स टु द नेशनल डिफेंस स्ट्रेटेजी 2020 के अनुसार चीन राज्यपोषित इररेगुलर वारफेयर का बड़े पैमाने पर प्रयोग करता है और अमेरिका इसका मुकाबला करने के लिए स्वयं को तैयार कर रहा है।

अमेरिका के जांचे परखे पुराने सहयोगी और साथी देश चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका की मुहिम में उसका खुलकर साथ नहीं दे पा रहे हैं। चीन के साथ उनके अपने आर्थिक-व्यापारिक हित जुड़े हुए हैं। ब्रिटेन में चीन का पचास बिलियन डॉलर का निवेश है जो रोजगार सृजन के लिए ब्रिटेन की एक बड़ी उम्मीद है। जर्मनी, फ्रांस, इटली,स्पेन आदि सभी देशों की अर्थव्यवस्था में चीनी कंपनियों ने बड़े पैमाने पर निवेश किया है।

2019 में कोविड-19 के कारण आई भारी गिरावट के बावजूद यूरोप में चीन का निवेश आज भी अमेरिका से दुगना है। लगभग सभी यूरोपीय देशों में चीन के साथ अनुसंधान और विकास की ढेरों साझा परियोजनाएं चल रही हैं। यही कारण है कि अमेरिका के नाटो के सहयोगी अमेरिका के चीन विरोधी अभियान को वैसा समर्थन नहीं दे पा रहे हैं जैसा पहले सोवियत संघ विरोध के दौर में उन्होंने दिया था। इन यूरोपीय देशों की भौगोलिक सीमाएं भी चीन के साथ नहीं मिलतीं। अतः वे वैसा खतरा महसूस नहीं कर रहे जैसा सोवियत संघ से महसूस करते थे।

अमेरिका के ही प्रयासों से भारत,जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका क्वाड समूह के रूप में एक मंच पर आए हैं। इसे एशियाई नाटो भी कहा जा रहा है और अमेरिका की कल्पना है कि यह चीन का वैसा ही प्रतिकार करेगा जैसा नाटो देशों ने सोवियत संघ का किया था। अमेरिका के अनुसार जब क्वाड का नीतिगत ढांचा तैयार हो जाएगा तब इसमें अन्य देशों दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड आदि को भी शामिल किया जा सकता है। 

किंतु क्वाड में वर्तमान में सम्मिलित देश तथा इसके भावी सदस्य भी चीन से सैन्य टकराव मोल लेने के पक्ष में नहीं हैं। चीन, ऑस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा व्यापार सहयोगी है। अभी जब दोनों देशों के संबंधों में खटास है और चीन ने ऑस्ट्रेलिया पर अनेक प्रकार के घोषित-अघोषित प्रतिबंध लगाए हुए हैं तब ऑस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था को  हो रहे नुकसान को देखते हुए मॉरिसन सरकार पर यह दबाव बन रहा है कि वह चीन के साथ संबंध सुधारे।

क्वाड के गठन में मुख्य भूमिका निभाने वाले शिंजो आबे की विदाई के बाद जापान के नए प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा से भी इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि चीन से रिश्ते बेहतर किए जाएं। दक्षिण कोरिया रक्षा के लिए अमेरिका पर जितना ज्यादा निर्भर है शायद उससे कहीं ज्यादा वह आर्थिक क्षेत्र में चीन पर आश्रित है। जापान और दक्षिण कोरिया की स्थलीय सीमाएं भी चीन से नहीं मिलतीं। जबकि भारत चीन के साथ 3488 किलोमीटर की स्थलीय सीमा साझा करता है। भारत और चीन की साझा समुद्री सीमा अमेरिका के लिए एक अतिरिक्त लाभ है। 

इन सारे तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि चीन से मुकाबला करने के लिए भारत की धरती, समुद्र और आकाश की कितनी अधिक आवश्यकता अमेरिका को है। भारत के साथ यह समझौते कर अमेरिका ने हम पर कोई अहसान नहीं किया है और न ही हमारी सुरक्षा के प्रति उसकी कोई वचनबद्धता इन समझौतों से जाहिर होती है। अमेरिका के भारत के प्रति रुख में भी कोई बदलाव नहीं दिखता। हम डोनाल्ड ट्रम्प के “भारत की हवा खराब है” और “भारत ने कोविड-19 से मौतों के आंकड़ों को छिपाया” जैसे बयानों से आहत होते हैं। भारत के अपने पड़ोसी देशों के साथ चल रहे द्विपक्षीय विवादों में मध्यस्थता की ट्रम्प की इच्छा हमें खटकती है। किंतु बात इन विवादित बयानों तक ही सीमित नहीं है। बौद्धिक संपदा, द्विपक्षीय व्यापार और आप्रवासी भारतीयों के संबंध में अमेरिका का रवैया वैसा नहीं रहा है जैसा किसी मित्र राष्ट्र का होना चाहिए।

इन समझौतों को लेकर अनेक आशंकाएं हैं जिनका समाधान सरकार को करना चाहिए।

प्रजातांत्रिक मूल्यों में विश्वास की साझा विरासत के बावजूद भारत अमेरिका संबंधों का इतिहास यह दर्शाता है कि भारत ने अमेरिका की आक्रामक कार्रवाइयों से हमेशा दूरी बनाई है और हम हमेशा नव साम्राज्यवाद के विरोध में खड़े नजर आए हैं। क्या अब सिद्धांतों और जरूरतों के मुताबिक स्टैंड लेने की यह स्वतंत्रता बरकरार रहेगी? 

हम एशिया में इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका की सैन्य गतिविधियों में कभी सम्मिलित नहीं हुए और हमने सदैव तटस्थता की नीति अपनाई। समय ने हमें सही भी सिद्ध किया है। अब जब हम अमेरिका के साथ भूराजनीतिक गठबन्धन में हैं और उसके रणनीतिक साझेदार का दर्जा हासिल कर रहे हैं तब क्या अमेरिका की युद्धक कार्रवाइयों से खुद को अलग रख पाना हमारे लिए संभव हो पाएगा? कहीं हम अमेरिका के युद्धों में भागीदार बनने को विवश तो नहीं कर दिए जाएंगे?

अभी तक हमारी सैन्य क्षमताओं के विकास में  रूस की अहम भूमिका रही है और हमारे हथियार तथा रक्षा प्रणालियों के संचालन के लिए आवश्यक तकनीकी कौशल भी  रूस ही ज्यादातर मुहैया कराता रहा है। अमेरिका के साथ इन समझौतों के बाद  रूस क्या हम पर विश्वास कर पाएगा? क्या हम हथियारों की खरीद में पहले की तरह अपनी जरूरत, आर्थिक स्थिति और उपलब्ध विकल्पों का ध्यान रखते हुए स्वतंत्रतापूर्वक चयन कर पाएंगे?

क्या हम चीन के साथ वर्षों पुराने सीमा विवाद को जरूरत से ज्यादा महत्व देकर उसका सैन्य समाधान निकालना चाहते हैं? क्या हम “चीन के साथ निर्णायक युद्ध” जैसी मानसिकता से संचालित हो रहे हैं जबकि यह एक सर्वस्वीकृत तथ्य है कि आधुनिक युद्ध निर्णायक तो नहीं विनाशक जरूर हो सकते हैं? कहीं हम कोई नया मोर्चा तो नहीं खोल रहे हैं जिसमें चीन और पाकिस्तान के गठजोड़ का हमें मुकाबला करना पड़ेगा? क्या इस गठजोड़ में रूस और हमारे असंतुष्ट चल रहे कुछ छोटे पड़ोसी मुल्क भी सम्मिलित होकर स्थिति को और जटिल एवं गंभीर बना देंगे?

क्या पड़ोसी देशों से हमारे बिगड़ते संबंधों का कारण यह है कि हम चीन के विस्तारवाद का अनुकरण करने की कोशिश कर रहे हैं जो पड़ोसी देशों को स्वीकार नहीं है? यदि ऐसा है तो क्या यह हमारी विदेश नीति में एक निर्णायक बदलाव का संकेत नहीं है? अहिंसक संघर्ष से स्वतंत्रता हासिल करने वाले शान्तिकामी भारत के मूल स्वभाव को बदल कर क्या हिंसक और आक्रामक बनाया जा सकता है?

पाकिस्तान और अमेरिका की मैत्री का एक पुराना इतिहास रहा है। अमेरिका के लिए पाकिस्तान का रणनीतिक महत्व अभी भी बरकरार है। यदि भारत का पाकिस्तान के साथ युद्ध होता है तो क्या अमेरिका भारत का साथ देगा और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई में क्या हमें इन समझौतों का लाभ मिलेगा? सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या बेका जैसे समझौतों के केंद्र में केवल चीन के खतरे को रखा गया है और पाकिस्तान इस समझौते की परिधि से बाहर है? सरकार को यह भी बताना होगा कि चीनी खतरे का आकलन भारतीय परिप्रेक्ष्य में किया गया है या अमेरिकी परिप्रेक्ष्य में? यदि भविष्य में अमेरिका और चीन के संबंध बेहतर हो जाते हैं तो क्वाड जैसे संगठनों और बेका जैसे समझौतों का क्या होगा जो अमेरिका के चीन विरोध की बुनियाद पर टिके हैं? 

अमेरिका कितने ही देशों में अवांछित और दुस्साहसिक सैन्य हस्तक्षेप कर चुका है। अनेक बार वह अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल भी हुआ है और उसे भारी हानि भी हुई है। अमेरिकी जनता के असंतोष के बाद उसे अपनी सैन्य कार्रवाइयाँ रोकनी भी पड़ी हैं और अपने सैनिकों को वापस भी बुलाना पड़ा है। अमेरिका एक महाशक्ति है, वह इन असफलताओं का बोझ उठा सकता है किंतु क्या भारत अमेरिका के साझा सैन्य अभियानों में हिस्सा लेकर अपने सैनिकों को खोने और आर्थिक क्षति उठाने लायक स्थिति में है? 

यूपीए सरकार सुरक्षा संबंधी चिंताओं और आशंकाओं के कारण बेका पर हस्ताक्षर करने का साहस नहीं जुटा पाई थी। क्या मोदी सरकार ने इन आशंकाओं को दूर कर लिया है? हम अमेरिका के स्ट्रेटेजिक पार्टनर हैं किंतु हमने अपने डिजिटाइज्ड स्पेस को अमेरिका के साथ उस प्रकार साझा किया है जिस प्रकार केवल अमेरिका के सैन्य सहयोगी देश ही अब तक करते रहे थे। यह देश साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में अग्रणी समझे जाते हैं और इन्होंने अपनी स्वदेशी साइबर सुरक्षा तकनीक विकसित कर ली है।  क्या अमेरिका हमें अपना मिलिट्री अलाइ मानने वाला है? क्या अमेरिकी सेना पाकिस्तान और चीन के साथ हमारे संभावित युद्धों में भारत की ओर से लड़ेगी? यदि ऐसा नहीं है तो क्या हम अपनी साइबर सुरक्षा को खतरे में नहीं डाल रहे हैं?

साइबर सुरक्षा के अनेक जानकार यह आशंका व्यक्त करते रहे हैं कि अमेरिकी साइबर विशेषज्ञ कम्युनिकेशन्स कम्पेटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट के तहत मिलने वाले सिस्टम्स के अधिकृत यूजर होंगे और उनके पास हमेशा यह अवसर रहेगा कि वे अपनी इच्छित अवधि के लिए हमारे डेटासेट्स को करप्ट कर सकें। वे हमारी शार्ट रेंज पॉइंट टू पॉइंट रेडियो फ्रीक्वेंसीज को लांग रेंज हाई पॉवर सिग्नल्स के माध्यम से ओवर राइट कर सकते हैं।

यदि अमेरिका के साथ हमारे संबंध खराब होते हैं तो अमेरिका नैनो वेपन्स का प्रयोग कर सकता है जो साइबर स्पेस का प्रयोग करते हुए किसी फिजिकल इंफ्रास्ट्रक्चर को नष्ट कर सकते हैं। खतरनाक और दुर्भावनापूर्ण साइबर गतिविधियाँ केवल साइबर स्पेस के जरिए ही संचालित नहीं होतीं बल्कि ऐसा सिस्टम्स के जरिए भी होता है।

विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया की बेहतरीन मिसाइलें चाहे वे बैलिस्टिक, क्रूज अथवा हाइपरसोनिक मिसाइलें हों अपनी मारकता, अचूकता और विश्वसनीयता के लिए उस किल चेन पर आश्रित होती हैं जो उन्हें सहयोग देती है। अमेरिका, रूस और चीन जैसे देश साइबर और इलेक्ट्रॉनिक रूप से अभेद्य किल चेन तैयार करने को सर्वोपरि प्राथमिकता देते हैं। इन विशेषज्ञों का मानना है कि यदि अमेरिका चाहे तो कॉमकासा उपकरणों के माध्यम से साइबर लॉजिक बॉम्ब्स का प्रयोग कर सकता है जो हमारे मिसाइल सिस्टम को नष्ट कर सकते हैं।

कुल मिलाकर साइबर एक्सपर्ट्स का एक समूह आशंकित है कि कहीं अब हमारी रक्षा प्रणालियों की साइबर सुरक्षा अमेरिकी साइबर विशेषज्ञों और अमेरिकी सरकार की नेकनीयती, भलमनसाहत तथा उदारता पर ही तो आश्रित नहीं हो जाएगी? कुछ रक्षा विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि इन आधुनिक वॉर कॉन्सेप्ट्स में दक्षता प्राप्त करना निश्चित ही भारतीय सेना के लिए अच्छा है किंतु क्या हमारे पास इतने उच्च स्तरीय संसाधन हैं कि कई पीढ़ी आगे की इन युद्ध तकनीकों का प्रयोग कर सकें, विशेषकर तब जब हम इस तरह के उच्चस्तरीय उपकरणों के स्वदेशी निर्माण के क्षेत्र में बहुत पीछे हैं। जब हम अमेरिका के लिए लड़ेंगे तो अमेरिकी अधोसंरचना और उच्च स्तरीय संसाधनों का उपयोग करने की हमें स्वतंत्रता होगी किंतु जब हम पाकिस्तान या चीन से अपने युद्ध लड़ेंगे तो हमें पुराने और पारंपरिक वॉर कॉन्सेप्ट्स पर लौटना होगा। हम इन उच्च स्तरीय उपकरणों की खरीद के लिए अमेरिका के मिलिट्री इंडस्ट्रियल काम्प्लेक्स पर पूर्णतः आश्रित होंगे।

यही स्थिति हमारी नौसेना की है। हम अमेरिका द्वारा अपने एक बेड़े के इंडो पैसिफिक कमांड नामकरण और इस क्षेत्र के विवरण में हमें सम्मिलित किए जाने को अपनी उपलब्धि मान रहे हैं। किंतु विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिकी नौसेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने और इसके द्वारा प्रयुक्त उच्च स्तरीय टेक्नोलॉजी का लाभ लेने के लिए हमें नौसेना पर बहुत व्यय करना होगा।

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने हाल ही में अपनी पुस्तक "द इंडिया वे: स्ट्रेटेजीज फ़ॉर एन अनसर्टेन वर्ल्ड" के विमोचन के अवसर पर कहा कि अमेरिका का अपनी वैश्विक भूमिका के बारे में बदलता नजरिया और चीन का उभार अंतरराष्ट्रीय वातावरण को निर्धारित करने वाले दो सर्वप्रमुख कारक हैं। उन्होंने कहा कि आज का विश्व अब वर्ल्ड ऑफ एग्रीमेंट्स नहीं रहा, भावी विश्व व्यवस्था अब विभिन्न देशों के बीच इशू बेस्ड कन्वर्जेन्स के इर्द गिर्द घूमेगी। इस नई संकल्पना के कारण जब हम एक ओर रूस से अपने रिश्ते मजबूत करते हैं वहीं दूसरी ओर अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया से भी अपने संबंधों को नया आयाम देते हैं तो इसमें विरोधाभासी कुछ भी नहीं है। एस जयशंकर ने यह भी कहा कि हमें पश्चिम के साथ रिश्ते बढ़ाने होंगे किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि हम केवल अमेरिका पर ही ध्यान केंद्रित कर रहे हैं अपितु हमारी सरकार यूरोपीय देशों के साथ संबंधों को प्रगाढ़ करने हेतु भी प्रयासरत है। उन्होंने कहा कि भारत अब भी विभिन्न देशों के साथ स्वतंत्र रिश्ते बनाने का पक्षधर है। उनके अनुसार चीन के साथ विवाद का समाधान डिप्लोमेसी के जरिए ही संभव है।

किंतु बेका जैसे समझौते यह आशंका उत्पन्न करते हैं कि कहीं हम विदेशी मामलों में अपनी रणनीतिक स्वायत्तता से तो समझौता नहीं कर रहे हैं। अभी तक अंतरराष्ट्रीय मंचों और संगठनों में हमारा एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष नजरिया हुआ करता है तथा शांति एवं सहयोग के प्रति हमारी असंदिग्ध प्रतिबद्धता का सम्मान सभी देश करते रहे हैं - दुनिया को हमारी इसी रूप में जरूरत भी है।

(डॉ. राजू पाण्डेय स्वतंत्र लेखक-विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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