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भारत
राजनीति
भाजपा की जीत के वे फैक्टर, जिसने भाजपा को बनाया अपराजेय, क्यों विपक्ष के लिए जीतना हुआ मुश्किल?
यूपी में, भाजपा ने बढ़ती कीमतों और बेरोजगारी की तुलना में कानून-व्यवस्था के मुद्दे को कहीं अधिक महत्वपूर्ण होने पर जोर दिया। 
नीलांजन मुखोपाध्याय
19 Mar 2022
bjp

क्या भाजपा ने उस पुरानी कहावत को बदल दिया है कि विपक्ष के द्वारा चुनाव नहीं जीते जाते, बल्कि मौजूदा सरकार के द्वारा हारे जाते हैं? नवंबर 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की किस्मत में विपरीतता और हालिया दौर के चार राज्यों में इसकी शानदार जीत को देखते हुए यह प्रश्न अपने आप में प्रासंगिक जान पड़ता है। 

यह दर्शाता है कि जहाँ महंगाई और आम लोगों की भौतिक स्थिति अतीत और हाल के दिनों तक मतदाताओं की पसंद के प्राथमिक कारकों के तौर पर बनी हुई थी- जिनमें प्रचंड स्तर पर महंगाई और 2014 में यूपीए को मिली हार, जिसे भाजपा ने अपने प्रचार अभियान में प्रमुखता से जगह दे रखी थी– ऐसा लगता है अब ऐसा नहीं रह गया है।

1998 में, दिल्ली सरकार का नेतृत्व स्वर्गीय सुषमा स्वराज के द्वारा किया गया था, जिन्हें चुनावों से दो महीने पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल से मुख्यमंत्री के तौर पर ऊपर से लाया गया था। चुनाव से बमुश्किल से सात महीने पहले ही अटल बिहार वाजपेयी ने एक स्थिर गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ग्रहण की थी। 

इसके बावजूद भाजपा और स्वराज को हार का मुहँ देखना पड़ा था, जिसे 70 सीटों में से मात्र 15 सीटें ही हासिल हो पाई थीं, जबकि कांग्रेस ने 52 सीटों के साथ आसान जीत दर्ज की थी। आंशिक राज्य का दर्जा हासिल करने के बाद 1993 से ही सरकार का खराब प्रदर्शन जारी रहा, जिसकी वजह से इस पहले चुनाव में भाजपा चुनाव हार गई। भाजपा बिजली, पानी, सुरक्षा, अस्पतालों एवं अन्य बुनियादी सेवाओं जैसे मुद्दों पर लोगों की उम्मीदों पर खरी उतरने में विफल रही थी। 

भाजपा की हार का सबसे बड़ा कारण प्याज की आसमान छूती कीमत थीं, जिसे वाजपेयी सरकार नियंत्रण में रख पाने में विफल रही। उदारीकरण के बाद, भारतीयों ने इससे पहले कभी किसी भी पार्टी के प्रदर्शन के पीछे की वजहों के लिए इससे उच्च नकारात्मक रेटिंग नहीं दी थी– जोकि सिर्फ प्याज की कीमत के तौर पर उत्प्रेरक रहा हो। 

1998 के तर्क के मुताबिक देखें तो नवीनतम दौर के चुनावों का अंत भाजपा के लिए यदि पूर्ण सफाए में नहीं तो तो कम से कम निर्णायक हार के तौर पर होना चाहिए था। विभिन्न राज्यों की जीत में, जहाँ उत्तराखंड में भगवा दल की जीत से कहीं अधिक कांग्रेस ने इसे ‘हारा’ है, वहीँ गोवा को भाजपा अपनी ‘झोली’ में डालने में इसलिए कामयाब रही, क्योंकि भाजपा विरोधी वोटों के बीच में विभाजन था, और मणिपुर को अपने कब्जे में बरकरार रखने में कामयाब रही क्योंकि कांग्रेस का अस्तित्व यहाँ पर लगभग समाप्त हो गया था। 

हालाँकि, उत्तर प्रदेश (यूपी) में मिला फैसला सबसे महत्वपूर्ण है। भले ही हालात भाजपा की हार के लिए तैयार बने हुए थे, इसके बावजूद यह अपने दम पर 255 सीटों को जीतने में कामयाब रही, इसलिए नहीं कि समाजवादी पार्टी (सपा) चुनाव ‘हार’ गई थी।

निश्चित तौर पर अखिलेश यादव ने चुनावी दंगल में देर से प्रवेश किया और यदि उन्होंने पहले ही मैदान में प्रवेश कर लिया होता तो फैसला शायद इससे भिन्न हो सकता था। लेकिन यहां हमें रणनीतियों के संयोजन का उपयोग करके भाजपा के खिलाफ नकारात्मक भावनाओं को उलट देने की क्षमता के प्रति अँधा नहीं हो जाना चाहिए।

इनमें से, नरेंद्र मोदी और पार्टी की सबसे शानदार सफलता की वजह, लोगों की दृष्टि को उनके व्यक्तिगत एवं सामूहिक तकलीफों से हटाकर, उन्हें उनके द्वारा बुनी गई ‘सभ्यता’ के आख्यान के जादू में गिरफ्त रखने में है।

मुद्रास्फीति का विषय नकारात्मक रूप से एक चिंता, उपहास और शर्म की वस्तु या यहाँ तक कि लोकप्रिय संस्कृति में भी सरकारों के लिए एक चिंता का विषय बना रहता है। अक्टूबर 1974 में, जब मुदास्फीति आसमान छू रही थी और छात्र और नौजवान नवनिर्माण आंदोलन एवं संपूर्ण क्रांति के झंडे तले आंदोलित थे, उसी दौरान अभिनेता-निर्देशक मनोज कुमार की फिल्म रोटी, कपड़ा और मकान को भारी सफलता मिली थी। इसने आर्थिक तकलीफों के बीच एक परिवार के अस्तित्व के संघर्ष की कहानी को निरुपित किया था।  

“बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई...” फिल्म के गीतों में से एक पंक्ति जो जिंदगी की तकलीफों को सूचीबद्ध करती है, आज भी एक लोकप्रिय परहेज बनी हुई है, एक संकेतक है कि महंगाई संभवतः आज भी आम लोगों के लिए सबसे बड़ी चिंताओं के तौर पर सूचीबद्ध है।

वर्तमान में, सभी तर्कों के हिसाब से मूल्य वृद्धि और महामारी से उपजी आर्थिक दुर्दशा से बड़ा कोई कारक नहीं होना चाहिए, जो लोगों को अपनी चुनावी पसंद को तय करने के लिए एक बेखबर शासन के द्वारा मदद ही पहुंचाता है। 

ताजा आंकड़ों के मुताबिक, शहरी बेरोजगारी की दर 2021 की अप्रैल-जून तिमाही में जनवरी-मार्च के मुकाबले 9.3% से बढ़कर 12.6% हो गई थी। पूरे चुनाव अभियान के दौरान ईंधन से लेकर चारे तक के उत्पादों की बढ़ती कीमतों के साथ-साथ पूरे अभियान के दौरान बेरोजगारी की स्थिति अपने उच्चतम स्तर पर बनी हुई थी।  

यहाँ तक कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) ने भी अपनी हालिया अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में पारित एक प्रस्ताव में कई वर्षों में पहली बार इस बात को माना था कि देश में अधिक रोजगार के अवसरों की जरूरत है।  

चुनावों से पहले, आम समझ यह बनी हुई थी कि आम लोगों को जिस प्रकार की आर्थिक दुर्दशा का सामना करना पड़ रहा है वह पांच राज्यों में भाजपा के चुनावी प्रभुत्व को कठिन चुनौती देने जा रहा है। कई ओपिनियन पोल ने भी इसे साबित किया। लेकिन जो चीज सामान्य समझ में आया वह आम लोगों को समझ में नहीं आया और इसे फैसले के सबसे बड़े विरोधाभासों में से एक बना हुआ है- कि कैसे भाजपा दशकों में वह पहली पार्टी बन गई, जिसने लोगों की भौतिक परिस्थितियों के चलते होने वाली भारी निराशा के बावजूद भी यूपी को अपने कब्जे में बनाये रखने में समर्थ बनाया। 

गौरतलब है कि विभिन्न आर्थिक मापदंडों पर यादव सरकार (2012-17) का प्रदर्शन योगी आदित्यनाथ सरकार की तुलना में बेहतर था। इस सबके बावजूद, कई मोर्चों पर (यहाँ तक कि उत्तराखंड में भी) स्पष्ट दिखने वाली हताशा की भावना सपा के पहले से बढ़े हुए मत प्रतिशत की तुलना में विरोधी वोट में तब्दील क्यों नहीं हो सकी?

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भाजपा ने वास्तविक मुद्दों को झूठे मुद्दों से उलझाकर रख दिया था– कि ‘मौजूदा’ वास्तविकताओं पर आधारित करने के बजाय, लोगों को भविष्य के लिए एक सपने में बहका दिया गया। लेकिन भविष्य के लिए यह अंतर्दृष्टि वायदों के आधार पर नहीं थी, जैसा कि अखिलेश ने बिजली, पुरानी पेंशन योजना आदि पर वादों के साथ कर रखा था।  

निश्चित रूप से भाजपा लोगों को यह विश्वास दिलाकर समर्थन प्राप्त करने में कामयाब रही कि उनके उद्देश्य मानक विकास पिछले मानदंडों की तुलना में ‘अधिक’ महत्वपूर्ण थे। 

एक रहस्योद्घाटन करने वाले लेख में, आरएसएस नेता राम माधव ने भाजपा के निरंतर चुनावी प्रभुत्व के पीछे के तीन “स्थिरांक” की ओर इंगित किया है जो लोगों की व्यक्तिगत मुश्किलों के बावजूद भाजपा को सफलता दिलाने में सहायक सिद्ध रहे हैं।

उनके मुताबिक, पहला स्थिरांक मोदी का व्यक्तित्व एवं उनकी निरंतर लोकप्रियता में निहित है। हालाँकि यह काफी हद तक सच है, विशेषकर भारत की व्यवस्था के राष्ट्रपतिकरण के युग में राष्ट्रीय स्तर पर इसको देखा जा सकता है, कि यह आंतरिक तौर पर उस राजनीति से संबद्ध है जिसकी यह वकालत करता है। इसे माधव ने स्वीकार किया है, जिन्होंने लिखा कि मोदी की लोकप्रियता “न सिर्फ” उनके व्यक्तिगत करिश्मे के कारण है, बल्कि उनकी “राजनीति” की वजह से भी है। 

दूसरा स्थिरांक, माधव के मुताबिक, भाजपा-आरएसएस का संगठनात्मक नेटवर्क है। 

तीसरा स्थिरांक इस बात का सबसे बड़ा संकेतक है कि कैसे भाजपा ने लोगों की सोच को बदल कर रख दिया है और उनके अस्तित्व को अतीत के एक विकृत पठन के आधार पर एक यूटोपियन कल्पना के लिए उनके अस्तित्व को गैर-जरुरी बना दिया है।

“तीसरे स्थिरांक” के बारे में भाजपा के पूर्व महासचिव लिखते हैं कि पार्टी का “सांस्कृतिक राष्ट्रवादी राजनीतिक दर्शन” रहा है। वे विवादास्पद रूप से तर्क देते हैं कि “हिंदुत्व या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद न तो बहुसंख्यकवादी है और न ही नफरत फैलाने वाला है। यह भारत की सर्वोत्कृष्ट सभ्यतागत आत्मा है। यह हमारे देश के लोगों की मान्यताओं के साथ पूरी तरह से प्रतिध्वनित होता है- इसलिए, वे इसके साथ अपनी पहचान को जोड़कर देखते हैं।”

जहाँ इस प्रस्ताव से पूरी तरह से असहमत होते हुए भी हमें इस बात को स्वीकार करना होगा कि लोगों ने भाजपा की डॉग विस्सल वाली राजनीति का समर्थन किया है, जिसमें कीमतों को नियंत्रित करने और रोजगार पैदा करने की तुलना से कहीं अधिक महत्वपूर्ण रूप में कानून-व्यवस्था पर जोर दिया गया था।

इस बात से कोई इंकार नहीं किया जा सकता है कि जब कभी भी भाजपा नेताओं ने इस बात का दावा किया कि पिछले पांच वर्षों के दौरान अपराधियों का हिसाब किया गया है, तो इसके पीछे अचेतन संदेश यह था कि मुसलमानों को ‘उनकी जगह दिखा दी गई है।” यह बात सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज के द्वारा किये गये मतदान के बाद के चुनावी सर्वेक्षण के नतीजों में प्रदर्शित होता है।

निम्नलिखित आंकड़े मतदाताओं को ध्रुवीकृत करने और मुस्लिमों के प्रति पूर्वाग्रह को पैदा करने में भाजपा की सफलता का संकेत देते हैं, जो मतदाताओं के समर्थन की मुख्य वजह रही: हिंदुओं के 54% वोट भाजपा के पक्ष में गये, जो कि 2017 में 47% से उपर था- जबकि इसके विपरीत सर्वेक्षण में भाग लेने वाले हिंदु मतदाताओं में सिर्फ 26% ने ही ईवीएम पर ‘साइकिल’ बटन को दबाया, हालाँकि यूपी में पिछले चुनावों में उनकी संख्या 19% की तुलना में यह अधिक था। यह लोगों को आर्थिक कारकों पर वोट दिलाने में कुछ सफलता को दर्शाता है लेकिन भाजपा को हराने के लिए यह बदलाव पर्याप्त नहीं है। 

इसके अलावा, भाजपा की विपरीत ध्रुवीकरण की मुहिम, पुरानी ‘घंटी’ जिसे पार्टी ने 1991 के बाद से जब-तब बजाया है, उसने एक बार फिर से पार्टी के लिए काम किया: जिन सीटों पर मुसलमानों की तादाद 40% या उससे अधिक थी, वहां पर 69% हिन्दू भाजपा के पीछे खड़े हो गए थे।

हिन्दुओं के बीच में सपा का वोट उन निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्लिम उपस्थिति के विपरीत अनुपात में बढ़ा – कम संख्या में मुसलमानों का सपा के पक्ष में वोट करने का अर्थ है कि अधिक संख्या में हिन्दुओं ने सपा को वोट दिया, और जहाँ पर ऐसा नहीं वहां इसका उलट हुआ। इससे पता चलता है कि भाजपा के द्वारा ‘मुस्लिमों की उपस्थिति’ को सफलतापूर्वक भुनाया जा रहा है, और अन्य दलों को अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले उम्मीदवारों के लिए पार्टी के द्वारा नामांकित किये जाने को और भी कम किये जाने के लिए ‘बाध्य’ किया जा रहा है।

भाजपा की सफलता कई दशकों के प्रचार का नतीजा है जिसके मूल में राम जन्मभूमि आंदोलन निहित है। इसका मुकाबला चुनावों से कुछ महीने पहले के प्रचार अभियान से नहीं किया जा सकता है, बल्कि इसके लगातार ‘मैदान’ में बने रहने और लगातार वैचारिक मुद्दों को उठाते रहने से होगा, न कि उन पर चुप बैठे रहने से किया जा सकता है। 

यदि ऐसा नहीं किया गया तो लोग इसी प्रकार से आर्थिक मुद्दों पर आंदोलन करते रहेंगे- जैसा कि किसानों के आंदोलन के दौरान देखने को मिला था- लेकिन वोट वे अपने धर्म के आधार पर ही देंगे, न कि वर्ग एवं अपनी व्यासायिक पहचान के आधार पर करने जा रहे हैं। 

(लेखक एनसीआर स्थित लेखक एवं पत्रकार हैं। आपकी हालिया पुस्तक ‘द डेमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रीकॉन्फिगर इंडिया’ है। आपकी अन्य पुस्तकों में ‘द आरएसएस: आइकन्स ऑफ़ द इंडियन राईट’ और ‘नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स’ शामिल हैं। आप @NilanjanUdwin हैंडल से ट्वीट करते हैं।)

अंग्रेजी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें:

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