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भारत
राजनीति
भगत सिंह की फ़ोटो नहीं, उनके विचार और जीवन-मूल्यों पर ज़ोर देना ज़रूरी
शहादत दिवस पर विशेष: भगत सिंह चाहते थे कि आज़ाद भारत में सत्ता किसानों-मजदूरों के हाथ में हो, पर आज देश को कम्पनियां चला रही हैं, यह बात समाज में सबसे पिछड़े माने जाने वाले किसान भी अपने आन्दोलन के अनुभव से समझ चुके हैं। 
लाल बहादुर सिंह
23 Mar 2022
bhagat singh

हवा में रहेगी मेरे ख़याल की बिजली,
ये मुश्ते-ख़ाक है फ़ानी, रहे रहे न रहे।

23 मार्च, 1931 हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास की उन अहम तारीखों में है, जिसने बाद की पीढ़ियों को सबसे अधिक प्रेरित और अनुप्राणित किया है। यह आज भी देश में सबसे अधिक शिद्दत के साथ याद की जाने वाली तिथियों में है। ऐसा महज इसलिए नहीं है कि इस दिन 3 देशभक्त युवाओं-शहीदे आज़म भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु ने मातृभूमि की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करते हुए फांसी के फंदे को चूमा था, यह सर्वोपरि इसलिए है कि क्रांतिकारी आंदोलन के सबसे उन्नत वैचारिक प्रतिनिधि के बतौर भगत सिंह ने ऐसे आज़ाद भारत का सपना देखा था, जो इस देश के आखिरी आदमी की सम्पूर्ण मुक्ति का स्वप्न था।

यह अधूरा स्वप्न आज भी हमारे जनगण की चिर संचित आकांक्षा है। स्वाभाविक रूप से भगत सिंह इस देश की जनता के सबसे प्रिय राष्ट्र-नायकों में हैं, विशेषकर युवाओं के सार्वकालिक सबसे बड़े हीरो हैं। फांसी के तख्त पर गूंजा इंकलाब जिंदाबाद का नारा तभी से सत्ता के हर जुल्म के खिलाफ जनता के प्रतिरोध का सबसे बड़ा युद्धघोष बना हुआ है, जिसके बिना किसी आंदोलन की कल्पना नहीं की जा सकती।

उस लक्ष्य के रास्ते में बाधक सभी विचारों और उनकी वाहक शक्तियों के खिलाफ  अपने छोटे से जीवन काल में उन्होंने हर मोर्चे पर- वैचारिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक - अनथक,  समझौता विहीन संघर्ष चलाया, अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ- जैसा वे कहते थे मानसिक और शारीरिक दोनों ही तरह की। और अंततः शहादत का वरण किया।

विचारों की इस लड़ाई में वे अविचल रहे, यहां तक कि आज़ादी की लड़ाई के शीर्ष नेताओं से भी वैचारिक टकराव से वे नहीं हिचके। आज़ादी की लड़ाई के मुख्य रास्तों से, उसमें वर्गीय नेतृत्व, उसके लक्ष्यों को लेकर तो उनका संघर्ष सर्वविदित है ही, सांप्रदायिकता और जाति प्रश्न पर उनकी पैनी नजर एक उदीयमान राजनेता के बतौर उनकी गहरी दूरदॄष्टि का सुबूत है।

भगत सिंह का स्वप्न न सिर्फ अधूरा है बल्कि ऐसी ताकतें आज सत्ता में काबिज हैं जो हर दिन देश को उनके आदर्शों से एकदम उल्टी दिशा में ले जा रही हैं। वे उनके जीवन-मूल्यों व विचारों की हत्या कर रही हैं।

भगत सिंह चाहते थे कि आज़ाद भारत में सत्ता किसानों-मजदूरों के हाथ में हो, पर आज देश को कम्पनियां चला रही हैं, यह बात समाज में सबसे पिछड़े माने जाने वाले किसान भी अपने आन्दोलन के अनुभव से समझ चुके हैं। भगत सिंह चाहते थे कि सारी राष्ट्रीय सम्पदा पर मेहनतकशों का कब्जा हो, पर आज मोदी सरकार सारे राष्ट्रीय संसाधन कारपोरेट घरानों, वित्तीय पूँजी के धनकुबेरों के हवाले कर रही है।

भगत सिंह चाहते थे कि आदमी के द्वारा आदमी के हर तरह के शोषण का अंत हो। पर आज  भारत दुनिया के सबसे अधिक आर्थिक असामनता वाले समाजों में से एक है। मोदी राज में एक ओर अरबपतिओं की तादाद और ताकत बढ़ती जा रही है, दूसरी ओर दरिद्रीकरण और भुखमरी का शिकार होती 80 करोड़ जनता जिंदा रहने के लिए सरकार से मुफ्त अनाज की मोहताज है।

भगत सिंह नास्तिक थे, वे धर्म और राजनीति के मुकम्मल अलगाव पर आधारित धर्मनिरपेक्ष राज्य चाहते थे, लेकिन आज मोदी के नेतृत्व में संघ-भाजपा खुले आम साम्प्रदायिक उन्माद को हवा देते हुए हिंदू राष्ट्र निर्माण के मिशन में लगी हुई हैं।

देश के भविष्य के लिए सांप्रदायिकता को भगत सिंह कितना बड़ा खतरा मानते थे, इसको इसी बात से समझा जा सकता है कि जिस लाला लाजपत राय के लिए उनके मन में गहरा सम्मान था और जिनके ऊपर पड़ी लाठी का बदला लेने के लिए हुई सॉन्डर्स की हत्या में उन्हें फांसी की सजा हुई, उस लाला लाजपत राय के अंदर जब  उन्होंने  साम्प्रदायिक विचलन देखा तो उसकी आलोचना करने और उनके खिलाफ खड़े होने में उन्हें एक क्षण भी नहीं लगा। उन्होंने नौजवान भारत सभा में किसी भी साम्प्रदायिक संगठन से जुड़े व्यक्ति के प्रवेश को निषिद्ध घोषित किया था।

भगत सिंह मनुष्य की समानता के पैरोकार तथा असमानता पर आधारित जाति-व्यवस्था के घोर विरोधी थे। मोदी जी मैला ढोने में सफाईकर्मी को मिलने वाले आध्यात्मिक सुख का बखान करते हुए जाति-व्यवस्था को वैधता प्रदान करते हैं, तो भगत सिंह उस पर हमला बोलते हुए तंज करते हैं, " हमारा देश बहुत आध्यात्मवादी है, लेकिन हम मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देते हुए भी झिझकते हैं। जबकि पूर्णतया भौतिकवादी कहलाने वाला यूरोप कई सदियों से इंकलाब की आवाज़ बुलंद कर रहा है। उन्होंने अमेरिका और फ्रांस की क्रांतियों के दौरान ही मनुष्य की समानता की घोषणा कर दी थी।...हम इस बहस में उलझे हुए हैं कि क्या अछूत को जनेऊ दे दिया जाएगा ? वे वेद शास्त्र पढ़ने के अधिकारी हैं अथवा नहीं ? हम उलाहना देते हैं कि अंग्रेज़ी शासन हमें अंग्रेजों के समान नहीं समझता। लेकिन क्या हमें यह शिकायत करने का अधिकार है ? "

मुक्ति के लिए दलितों का आह्वान करते हुए भगत सिंह ने कहा था, " संगठनबद्ध हो, अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो।...तुम असली सर्वहारा हो, उठो और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दी। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो। सोए हुए शेरों ! उठो और बगावत खड़ी कर दो। "

इसके ठीक उलट, संघ-भाजपा का हिंदुत्व सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में सवर्ण वर्चस्व और ब्राह्मणवाद की पुनर्स्थापना का अभियान है जो  संघर्षों के बल पर अर्जित दलितों के संवैधानिक अधिकारों से उन्हें वंचित कर देना तथा दलित चेतना को भ्रष्ट कर उनके प्रतिरोध की धार को कुंद कर देना चाहता है।

अनायास नहीं है कि आज एक दलित नौजवान की इसलिये  हत्या कर दी जा रही है कि वे सोशल मीडिया पर अपनी मूछों वाली फोटो डालते थे ! मध्यप्रदेश में होलिका दहन के समय बराबरी में खड़े होने के  "अपराध " में दबंग द्वारा एक दलित को आग में धकेल दिया जाता है !

 इस बीमार सोच की जड़ें प्रत्यक्षतः किसी भौतिक हितों के ( सामंती उत्पादन सम्बन्ध से जुड़े ) संघर्ष में भी नहीं हैं, बल्कि शुद्ध रूप से विचारधारा में हैं जिसे राष्ट्रीय स्तर पर छाए मौजूदा हिंदुत्ववादी विमर्श से खाद पानी मिल रहा है।

भाजपा जहां सावरकर के हिंदुत्व को थोपकर भगत सिंह के विचारों का निषेध कर रही, वहीं आप ( AAP ) जैसी पार्टियां खोखली प्रतीकात्मकता से उन्हें कमतर कर रही है।

हाल ही में AAP पार्टी के पंजाब के नए मुख्यमन्त्री भगवंत मान ने शहीदे-आज़म भगत सिंह के पुरखों के गांव खटकड़कलां में शपथ लिया। उन्होंने इस अवसर पर भगत सिंह के नाम से एक शेर उध्दृत किया, " इश्क करना सबका पैदाइशी हक है, क्यों न इस बार वतन की सरजमीं को महबूब बना लिया जाय "। उन्होंने दावा किया कि भगत सिंह के विचारों के अनुरूप वे आज़ादी को हर घर तक ले जाएंगे। भगत सिंह और अम्बेडकर की फोटो कार्यालय में लगवाते हुए उनके सपनों को पूरा करने की शपथ ली गयी।

आप पार्टी जो मूलतः एक कारपोरेटपरस्त पार्टी है, अयोध्या के राममन्दिर से अपना चुनाव अभियान शुरू करती है, 2 वर्ष पूर्व हुए दिल्ली दंगों में बहुसंख्यकवाद में रंगी जिसकी भूमिका ने उसके अनेक प्रशंसकों को भी निराश किया, जो सरकारी खजाने से लोगों को राम मंदिर दर्शन से लेकर तीर्थयात्राएं करवा रही, उसका नास्तिक, घोर सांप्रदायिकता विरोधी, धर्म राजनीति के अलगाव के प्रबल समर्थक, मजदूरों-किसानों के समाजवादी राज का सपना देखने वाले भगत सिंह के विचारों से क्या लेना-देना ?

जाहिर है, यह भगत सिंह और अम्बेडकर के विचारों को आगे बढाने का नहीं बल्कि वोट बैंक और पहचान के प्रतीक के बतौर उनका इस्तेमाल करने का खेल है ?

भगत सिंह के जीवन और विचार के गम्भीर अध्येता चमन लाल जी कहते हैं कि राजनीतिक दलों को भगत सिंह की विचारधारा के बारे में बात करनी चाहिए, न कि अपने फायदे के लिए उनके नाम का इस्तेमाल करना चाहिए। भगत सिंह के भांजे प्रो0 जगमोहन सिंह कहते हैं कि अगर भगत सिंह के विचारों पर अमल नहीं किया जाता है तो फिर उनकी फोटो लगाने से क्या होगा।

आज एक भयानक पोस्ट टूथ के दौर में हम रह रहे हैं जहाँ सच कुछ नहीं है, प्रोपेगंडा सब कुछ है ! हाल ही में मोदी ने  एक नफरती प्रोपेगंडा फ़िल्म द कश्मीर फाइल्स की सराहना करते हुए कहा कि हैरानी हो रही है कि कश्मीर के सच को इतने सालों तक दबा कर रखा गया था, जो अब तथ्यों के आधार पर बाहर लाया जा रहा है। मोदी जी को देश को यह बताना चाहिए कि कश्मीर के जिस सच को इतने सालों तक " दबा कर रखा गया था " उसे स्वयं  वे अपने 8 साल के शासन में उद्घाटित  क्यों नही कर पाए थे ?

यह शुद्ध तौर पर सत्ता के शीर्ष पर बैठे, एक राष्ट्राध्यक्ष द्वारा चरम नफरती प्रोपेगंडा को हवा देने का मामला है, जो आगामी दिनों में उनके खतरनाक एजेंडा का संकेत है।इसी संदर्भ में उन्होंने यह हास्यास्पद टिप्पणी भी की कि दुनिया को गांधी नामक  शख्सियत के बारे में तभी पता चला जब एक अंग्रेजी फ़िल्म निर्माता ने  उनके ऊपर फ़िल्म बनाई !

देश आज जिस नाजुक दौर में है, समय की मांग है कि  भगत सिंह के विचारों और आदर्शों को समाज विशेषकर युवाओं के बीच जोर-शोर से स्थापित किया जाय। सावरकर की हिंदुत्व की राजनीति का मुकम्मल जवाब भगत सिंह की रैडिकल  वैचारिकी पर आधारित राजनीति और उनका बलिदानी व्यक्तित्व व जीवन-मूल्य है।। भगत सिंह का देशप्रेम और मजदूर-किसान राज का स्वप्न सावरकर के साम्राज्यवादपरस्त, कारपोरेट-साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की मुकम्मल एन्टी-थेसिस है।  

(लेखक इलाहबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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