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भारत
राजनीति
रोज़गार के विपक्षी-एजेंडे के आगे भाजपा के विभाजनकारी मुद्दे बेअसर!
बिहार में यकायक चुनाव का माहौल कैसे बदल गया, इसका कारण जानने के लिए वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने 18 अक्टूबर से 23 अक्टूबर के बीच बिहार में विभिन्न क्षेत्र और समुदाय के अनेक लोगों से बातचीत की। इस बातचीत के आधार पर उन्होंने इस सत्ताविरोधी लहर के लिए तीन कारण प्रमुख रूप से सामने रखे हैं। आइए पढ़ते हैं उर्मिलेश का ये विशेष विश्लेषण
उर्मिलेश
24 Oct 2020
बिहार
फोटो साभार : हरिभूमि

दो सप्ताह पहले तक बिहार का चुनावी परिदृश्य बहुत उलझा हुआ सा दिख रहा था। लेकिन विपक्षी महागठबंधन के ठोस आकार लेने और नेताओं-उम्मीदवारों के जन-संपर्क अभियान शुरू करने के बाद अब चुनावी तस्वीर उतनी उलझी नहीं है। भारतीय जनता पार्टी और उसके गठबंधन-सहयोगी जनता दल(यू) की सत्ता को विपक्ष गंभीर चुनौती देता नजर आ रहा है। इस स्थिति की कल्पना सितम्बर और अक्टूबर के शुरुआती दिनों में शायद ही किसी गंभीर राजनीतिक प्रेक्षक ने की होगी। पर आज भाजपा-जद(यू) गठबंधन के हिस्सा या समर्थक रहे बिहार के कई प्रमुख नेता और कार्यकर्ता भी दबे स्वर में स्वीकार करने लगे हैं कि राष्ट्रीय जनता दल-लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन जिस तेजी से उभरा है, उसकी कल्पना भाजपा-जद(यू) नेताओं ने भी नहीं की थी। सत्ताधारी नेताओं की रैलियों और सभाओं में हेलिकाप्टरों के चक्कर लगाने के बावजूद उतनी भीड़ नहीं हो रही है, जितनी भीड़ महागठबंधन के नेताओं, खासकर तेजस्वी यादव की रैलियों में हो रही है। रोजगार के विपक्षी-एजेंडे के सामने भाजपा के सारे विभाजनकारी एजेंडे या लुभावने जुमले बेअसर साबित हो रहे हैं। बिहार की चुनावी तस्वीर का यह सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।

सत्ता-समर्थक न्यूज़ चैनल भी इस असलियत से इंकार नहीं कर पा रहे हैं कि एनडीए इस वक्त मुश्किल में दिख रहा है जबकि चुनाव की घोषणा के वक्त आर्थिक संसाधन, सियासी दिग्गजों की तादाद और स्टार-प्रचारकों के मामले में यही एनडीए विपक्षी दलों से बहुत आगे नजर आ रहा था। पर परिदृश्य यकायक बदल गया। हेलीकाप्टर से रैली स्थल जाने वाले भाजपा और जद(यू) के बड़े बिहारी नेताओं की रैली में कुछेक सौ की भीड़ दिख रही है तो महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव की रैलियों में हजारों का हुजूम उमड़ता नजर आ रहा है। शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि बिहार के चुनावी परिदृश्य के समीकरण यकायक इस तरह बदलेंगे और रैलियों की ऐसी तस्वीर दिखेगी। नीतीश कुमार जैसे दिग्गज नेता को ‘अपने भतीजे’ तेजस्वी पर ‘व्यक्तिगत आक्षेप’ करने पर मजबूर होना पड़ रहा है।

उनके कुछ आरोप तो बहुत ओछे भी हैं। उनके कई पुराने राजनीतिक मित्र भी मुख्यमंत्री की इस बौखलाहट पर चकित हैं। हिंदी के जाने-माने लेखक और एक समय जनता दल(यू) के विधायक रहे प्रेम कुमार मणि कहते हैं: ‘मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की यह बौखलाहट उनकी राजनीतिक निराशा की उपज लगती है। उन्होंने हाल में तेजस्वी पर जिस तरह के नितांत व्यक्तिगत और ओछे कमेंट किये, उसकी कोई जरूरत नहीं थी। इससे उनकी कमजोरी ही उजागर हुई। इससे तो साफ जाहिर होता है कि मुख्यमंत्री सचमुच तेजस्वी की बढ़त से बौखलाये हुए हैं।’ मणि ने कहा, ‘नीतीश और तेजस्वी के बीच पीढ़ी का भी फर्क है। दोनों के सोच और दृष्टि में बुनियादी फर्क है! नीतीश जी मंडलवादी पीढ़ी के नेता हैं, जबकि तेजस्वी उस दायरे से बाहर और युवा सोच के ऐसे नेता हैं, जिसका मिजाज और विचार ज्यादा व्यापक और उदार है। इस चुनाव में दोनो पीढ़ी के नेताओं का यह फर्क बहुत साफ दिख रहा है।’

नीतीश कुमार बीते पंद्रह साल से राज्य के मुख्यमंत्री हैं। पर सरकारी मशीनरी साथ होते हुए भी उनकी रैलियों में भीड़ नहीं आ रही है। कई बार नीचे कम भीड़ देखकर हेलीकाप्टर को आसमान में कुछ चक्कर भी बढ़ाने पड़ते हैं। यही हाल बिहार भाजपा के दिग्गज नेता और केंद्रीय गृहराज्य मंत्री नित्यानंद राय की सभाओं का है। राय को भाजपा की तरफ से ‘भावी मुख्यमंत्री’ पद के प्रत्य़ाशियों में प्रमुख माना जाता है। वह गृहमंत्री अमित शाह के करीबी समझे जाते हैं और बिहार भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। उनके अलावा सुशील मोदी और केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के नाम भी मुख्यमंत्री पद के संभावित उम्मीदवारों में शुमार किये जा रहे हैं। कोरोना-संक्रमित होने के चलते सुशील मोदी फिलहाल सक्रिय प्रचार अभियान से बाहर हैं।

बिहार के मौजूदा चुनावी परिदृश्य को लेकर एक स्वाभाविक सा सवाल उठता है कि सत्ताधारी एनडीए के पास तमाम बड़े-बड़े दिग्गज और अकूत संसाधन होने के बावजूद महागठबंधन यकायक इतना प्रभावी होकर कैसे उभरा है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए मैंने 18 अक्टूबर से 23 अक्तूबर के बीच बिहार के विभिन्न क्षेत्र और समुदाय के अनेक लोगों से बातचीत की। उस बातचीत की रोशनी में हमारा आकलन है कि तीन कारणों से विपक्षी महागठबंधन को ताकत मिली है। पहला कारण हैः नीतीश कुमार की अगुवाई वाले जद(यू)-भाजपा गठबंधन की सरकार के विरूद्ध जबर्दस्त जनभावना(एंटी-इनकम्बेंसी)! यह विपक्षी महागठबंधन के प्रति लोगों के समर्थन में तब्दील होती नजर आई है। दूसरा कारण है-महागठबंधन की तरफ से मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी तेजस्वी यादव का रोजगार के सवाल को अपने प्रचार अभियान का सबसे अहम् मुद्दा बनाना।

उन्होंने कोरोना दौर से पहले बिहार में रोजगार के लिए जन-जागरण यात्रा भी निकाली थी, इसलिए लोगों को आज उनके इस चुनावी-नारे में विश्वसनीयता नजर आ रही है। वह सिर्फ चुनावी जुमला नहीं लग रहा है। चुनाव में रोजगार का सवाल केंद्रीय मुद्दा बनकर उभरा है। महागठबंधन के प्रति लोगों के सकारात्मक रूझान का तीसरा कारण हैः राजद-कांग्रेस के साथ महागठबंधन में तीन वामपंथी पार्टियों-भाकपा(माले), भाकपा और माकपा का सम्बद्ध होना। इससे तेजस्वी की अगुवाई वाले गठबंधन को वैचारिक और नैतिक बल मिला है। यही नहीं उसे समझदार और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का भरपूर समर्थन भी हासिल हुआ है। ये तीन वो कारण हैं, जिसके चलते तेजस्वी यादव की अगुवाई वाला महागठबंधन बिहार में यकायक बड़ी ताकत बनकर उभरा है।   

प्रथम चरण के मतदान से महज चार दिनों पहले बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में विपक्षी महागठबंधन के सवालों के आगे सत्ताधारी गठबंधन बुरी तरह बचाव की मुद्रा में है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बौखलाहट, एनडीए के अंदर मचे घमासान (एलजेपी बनाम जेडी-यू) और प्रधानमंत्री की 23 अक्तूबर की रैली के फीके रंग से सत्ताधारी दल की डावांडोल स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। लेकिन फिलहाल, इससे कोई अंतिम नतीजा निकालना जल्दबाजी होगा!  सत्ताधारी गठबंधन की तरफ से ये भी दलील दी जा रही है कि रैलियों को चुनावी जीत का संकेत नहीं कहा जा सकता। सन् 2015 के विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की रैलियों में सर्वाधिक भीड़ जाती थी पर वो भीड़ वोटों में नहीं तब्दील हो सकी। 2015 के चुनाव में भाजपा हार गई और राष्ट्रीय जनता दल-जनता दल(यू) आसानी से चुनाव जीत गया। इस दलील को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता।

पर 2015 में मोदी-शाह की रैलियों और 2020 में तेजस्वी की रैलियों के बीच बड़ा फर्क है। 2015 की रैलियां एक ऐसे प्रधानमंत्री की रैलियां थीं, जिसने कुछ ही समय पहले लोकसभा चुनाव में कामयाबी का परचम लहराया था और जिस पर उन दिनों शहरी मध्यवर्ग से लेकर ग्रामीण समाज का बड़ा हिस्सा भी लट्टू था। जिस तरह मीडिया आज प्रधानमंत्री जी के साथ कदमताल करता रहता है,  सन् 2015 में भी वह उनके प्रति भक्ति-भाव में डूबा हुआ था। बिहार में उस वक्त की भीड़ के आकर्षण के पीछे ऐसे कई कारण थे। तेजस्वी की रैलियों की भीड़ के पीछे ऐसे कारण या कारक नहीं गिनाये जा सकते। वह न तो राष्ट्रीय राजनीति के कोई बड़े ओहदेदार हैं और न ही उनके पीछे मीडिया का वैसा समर्थन है। उनके पास भाजपा की तरह न तो संसाधन हैं और न ही जबर्दस्त प्रचार (दुष्प्रचार भी) की क्षमता वाला आईटी सेल है। बिहार के चुनाव का आज सबसे बड़ा यक्षप्रश्न हैः क्या बिहार में सरकार-विरोधी जनभावना (एंटी-इनकम्बेंसी) सिर्फ महागठबंधन की शानदार रैलियों तक सीमित रहेगी या वह सरकार विरोधी चुनावी-लहर भी बनेगी? इसी सवाल के जवाब में ही छुपा है-बिहार के भावी जनादेश का सच! अभी जो संकेत मिल रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि जन-भावना सिर्फ महागठबंधन की रैलियों की भीड़ तक सीमित नहीं रहने वाली है।

यह भीड़ तमाशबीन नहीं है। यह सक्रिय-समर्थक की भूमिका में नजर आ रही है। इस बार बिहार में लोगों के मानस और मिजाज में एक और बदलाव दिखाई दे रहा है। बीते तीन दशकों में यह पहला चुनाव है, जिसमें जाति-आधारित ध्रुवीकरण की राजनीति का फिलहाल उतना असर नहीं नजर आ रहा है। इस वक्त प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ करने वालों की संख्या में भी कमी दिखाई दे रही है। उनके प्रति सवर्ण समुदाय के युवाओं में पहले से जैसा जोशीला समर्थन नहीं दिख रहा है। ‘फ्री कोराना वैक्सीन’ के भाजपाई-वादे पर पटना में सवर्ण समुदाय के अनेक लोगों को खुलेआम टीवी रिपोर्टरों से कहते सुना गया कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को ऐसे छलावे से बचने की जरूरत थी। किस तरह वो देंगे बिहारियों को फ्री-कोरोना वैक्सीन? फिर यूपी, बंगाल, तमिलनाडु और महाराष्ट्र वालों को क्यों नहीं देंगे? क्या मतलब है, इस झूठे वादे का? इसका तो एक ही मतलब है कि जहां-जहां चुनाव होगा, मोदी जी की पार्टी ‘फ्री कोरोना वैक्सीन’ का वादा करके लोगों को बेवकूफ बनायेगी। पर लोग अब इतने बेवकूफ नहीं हैं।

‘फ्री कोरोना वैक्सीन’ के भाजपा-वादे बिहार में लोग क्या सोच रहे हैं, इस बारे में पूछे जाने पर टाइम्स आफ इंडिया, बिहार संस्करण के पूर्व स्थानीय संपादक राजकुमार ने कहाः ‘इस महामारी में लोग अस्पतालों में दवाई, डाक्टर और बेड पाने के लिए तरस गये और अनेक चिकित्सा के अभाव में मर गये। जो अमीर या वीआईपी थे, उनमें कइयों को एयर एम्बुलेंस या हवाई जहाज से दिल्ली जाना पड़ा। बिहार में कोई कारगर व्यवस्था नहीं है। सबको मालूम है कि कोरोना वैक्सीन अभी तक दुनिया में किसी देश के पास नहीं है। कब आएगा वैक्सीन, कौन जाने? जब आएगा तो सबसे पहले बिहार के लोगों को फ्री में बंटेगा, इस तरह की बचकानी बातों पर कौन भरोसा करेगा? लोग इसे  भाजपा का ‘महाझूठ’ मान रहे हैं! इससे भाजपा की स्थिति और हास्यास्पद हुई है। अचरज कि इस हास्यास्पद झांसे की घोषणा केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से कराई गई।’

बिहार में भाजपा और जद(यू) के लोगों को भरोसा था कि प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों के बाद माहौल बदलेगा और लोग विपक्षी महागठबंधन को छोड़कर सत्ताधारी गठबंधन की तरफ आकर्षित होंगे। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के 23 अक्तूबर के कार्यक्रमों के बावजूद अभी तक माहौल में कोई बदलाव नहीं दिख रहा है। प्रधानमंत्री ने अपनी रैलियों में कई वही पुरानी बातें कहीं, जो उन्होंने सन् 2015 के विधानसभा चुनावों में कही थीं। लोगों को लालू प्रसाद यादव के ‘जंगल राज’ की याद दिलाई और कहा कि लालटेन का युग नहीं लौटने वाला है! प्रधानमंत्री की ऐसी टिप्पणियों का कोई असर नहीं पड़ता दिख रहा है। बिहार के लोग आज बीस-पच्चीस साल पहले की बातों को याद करेंगे या हाल के बीते इन पंद्रह सालों की बातों को और उसमें भी विगत पांच सालों को? बीते 15 सालों के हर चुनाव में नीतीश कुमार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की बात करते रहे हैं पर विशेष दर्जे की बात दूर रही, प्रधानमंत्री मोदी ने डेढ़ लाख करोड़ के जिस पैकेज का वादा किया था, वह भी नहीं मिला। पुरजोर मांग के बावजूद राज्य के सबसे पुराने पटना विश्वविद्यालय को आज तक केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा तक नहीं मिला। रोजगार के बदले बिहारियों को बेरोजगारी और बेहाली मिली। ऐसे में सत्ता-विरोधी जनभावना का विस्तार फिलहाल रूकता नजर नहीं आ रहा है। अगर चुनावों में सब-कुछ ठीक रहा तो बिहार की लड़ाई इस बार सत्ताधारी एनडीए के लिए बहुत कठिन साबित होगी!

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