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बिहार चुनाव: पॉलिटिक्स की रिवर्स स्विंग में फिर धराशायी हुए जनता के सवाल
इस चुनाव का सबसे बड़ा पॉलिटिकल मैसेज फिर से बीजेपी ने ही दिया है, कि वह चुनावी बिसात की मास्टर है और वह एक साथ विपक्ष को भी हरा सकती है और अपने सहयोगी को भी कैलकुलेटेड तरीके से नुकसान पहुंचा सकती है।
पुष्यमित्र
11 Nov 2020
bc

बिहार के नतीजे आ चुके हैं। एक बार फिर से सभी एक्जिट पोल, ज्यादातर विश्लेषक बिहार की जनता का मन समझने में विफल रहे। एनडीए ने काफी टफ मुकाबले में जीत दर्ज की है, 28 सीटें गंवा चुकने और एनडीए में बड़े भाई से काफी छोटे भाई बन जाने के बावजूद नीतीश कुमार सातवें बार सीएम बनने की तैयारी कर रहे हैं। राजद एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद विपक्ष में बैठने को मजबूर है। कांग्रेस जिसे इस चुनाव में कायदे से पूरे गठबंधन का भार उठाना था, एक बार फिर से अपनी ही असफलता के बोझ तले महागठबंधन को ले बैठी है। हां, लेफ्ट ने कई सालों बाद साबित किया है कि वह अभी जिंदा है और उसकी उम्मीदें बची हुई है। मगर इस चुनाव का सबसे बड़ा पॉलिटिकल मैसेज फिर से बीजेपी ने ही दिया है, कि वह चुनावी बिसात की मास्टर है और वह एक साथ विपक्ष को भी हरा सकती है और अपने सहयोगी को भी कैलकुलेटेड तरीके से नुकसान पहुंचा सकती है। वैसे ये सब तक राजनीतिक दलों की आपसी उठापटक है। असल मैसेज यह है कि इस बिहार चुनाव में जमीनी मुद्दे नारे तो बने, वोटिंग में जाति का जंजाल ही हावी रहा।

मुद्दे उठे, उभरे, छाये और चुपके से गायब हो गये

अमूमन बिहार में चुनाव जाति के पिच पर ही होते हैं। यहां हर बार कास्ट फैक्टर ही काम आता है। मगर इस बार जब तेजस्वी ने चुनाव जीतते ही पहली कैबिनेट में दस लाख सरकारी नौकरियां देने का वादा किया और इस वादे को एनडीए के नेता काउंटर नहीं कर पाये तो ऐसा लगा कि लंबे समय के बाद शायद पहली दफा बिहार का चुनाव आम लोगों के सवाल पर केंद्रित होगा। इसकी शुरुआत 17 सितंबर, 2020 को हुई जब पीएम नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर बेरोजगार नवयुवकों ने थाली बजाकर प्रदर्शन किया और वह स्वतः स्फूर्त प्रदर्शन इतना प्रभावी रहा कि तेजस्वी यादव और उनकी टीम को लगा कि अगर चुनाव को बेरोजगारी के सवाल पर फोकस किया जाये तो माहौल उनके पक्ष में बन सकता है।

उसी विरोध प्रदर्शन के दौरान शाहाबाद इलाके की एक लोकगायिका नेहा सिंह राठौर ने बेरोजगारी के सवालों को गीतों में पिरोना शुरू किया। इससे पहले भी उन्होंने कोरोना और लॉक डाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की व्यथा को गीतों में पिरोया था। आमलोगों के सवाल पर बने उसके गीत काफी पसंद किये जाने लगे। फिर उन्होंने बिहार की त्रासदी को लेकर एक गीत गाया बिहार में का बा। वह गीत काफी पापुलर हुआ। इतना कि एनडीए को जवाब देना पड़ा है कि बिहार में ई बा। मगर विज्ञापन की वह सीरीज कामयाब नहीं हो पाये।

इस बीच चुनाव अभियान शुरू हो गये और बेरोजगारी का सवाल जोर-शोर से उठाने की वजह से तेजस्वी की रैलियों में काफी भीड़ उमड़ने लगी। फिर उन्होंने अपने भाषण में कई सवालों को जोड़ लिया, पढ़ाई, कमाई, दवाई, सिंचाई, सुनवाई और कार्रवाई को किसी नारे की तरह कहने लगे।

पहले चरण में तो यह नारा खूब चला मगर जैसे ही चुनाव दूसरे चरण में पहुंचा इस नारे की पकड़ ढीली पड़ने लगी और चुनाव जाति की तरफ शिफ्ट होने लगा। तीसरे चरण में मुद्दे खो गये और जाति और जंगलराज का सवाल हावी हो गया, वहीं से महागठबंधन की पकड़ इस चुनाव से छूटने लगी। आंकड़े गवाह हैं कि जहां पहले चरण में महागठबंधन को 48, दूसरे चरण में 42 सीटें मिलीं, वहीं तीसरे चरण में उसे सिर्फ 20 सीटों से संतोष करना पड़ा।

 जाति के सवाल पर क्यों कमजोर पड़ा महागठबंधन

 यह दिलचस्प है कि महागठबंधन के प्रमुख दल राजद पर हमेशा से जातिवादी राजनीति करने का आरोप लगता रहा है। मगर इस चुनाव में जाति की ताकत एनडीए के साथ थी। एनडीए का जाति का बेस काफी बड़ा है, उसके साथ सवर्ण, अति पिछड़े, दलितों में मांझी और निषाद जाति का आधार है, जो 50 फीसदी के पास पहुंच जाता है। जबकि महागठबंधन के पास सिर्फ यादव और मुस्लिम वोटर ही थे। सीमांचल के इलाकों में मुस्लिम वोटरों ने भी उसका साथ अमूमन छोड़ दिया। तीसरे चरण में महागठबंधन के पिछड़ने की एक बड़ी वजह यह रही। इस तरह देखा जाये तो जाति के गणित के हिसाब से बिहार में महागठबंधन और एनडीए के बीच 18 फीसदी का फासला था। उसे वामदलों के गरीब वोटरों की मदद से बहुत हद तक पाटने की कोशिश की गयी, इसलिए वाम के गढ़ में उन्हें अच्छी सीटें मिली। मगर जिन इलाकों में वाम का असर नहीं था, वहां वे कांटे के मुकाबले में हार गये।

फिर से लौटी वाम की ताकत

महागठबंधन की हार के बावजूद इस चुनाव में वाम मजबूत बनकर उभरा। उन्होंने यह साबित किया कि अभी वह जिंदा है। दरअसल सीधे मुकाबले में नहीं होने के कारण अक्सर चुनाव के वक्त उसके समर्थक उसका साथ छोड़ जाते थे। मगर इस बार उसके वोटरों ने उसका साथ दिया और फर्क नतीजों में नजर आया। वाम दलों ने खुद को मिली 29 सीटों में से 16 जीतीं और अपने प्रभाव के मगध और शाहाबाद के इलाके में महागठबंधन को अच्छी जीत दिलायी।

 बोझ बन गयी कांग्रेस

 जहां वामदल महागठबंधन के लिए सफलता की वजह बने, वहीं कांग्रेस उसके लिए बोझ बन गयी। उसे 70 सीटें मिली थीं, इनमें से वह सिर्फ 19 सीटों पर जीत हासिल कर सकी। हालांकि अमूमन उसे ज्यादातर कमजोर सीटें मिलीं और कई जगहों पर राजद के वोटरों ने भी उसका ठीक से सहयोग भी नहीं किया। मगर यह भी सच है कि अगर इन्हें मिली 70 में से बीस सीटें भी राजद और वाम दलों के हिस्से में आती तो आज नतीजा कुछ और होता। अगर इन सीटों पर महागठबंधन किसी दलित चेहरे को शामिल करता तो भी स्थितियां बदल सकती थीं।  

 सीमांचल को समझने में चूक

महागठबंधन की हार सीमांचल के इलाके में हुई, जहां ऐसी 24 सीटें थीं, जहां मुस्लिम आबादी अधिक होने की वजह से वे आसानी से जीत सकते थे। मगर महागठबंधन के नेताओं और पार्टियों ने यह मान लिया कि बीजेपी के विरोधी होने की वजह से मुसलमानों का वोट उन्हें खुद बखुद मिल जायेगा। इस वजह से उस इलाके में उन्होंने मेहनत नहीं की और वहां के स्थानीय मुद्दों को तरजीह नहीं दी। इस बीच ओवैसी की पार्टी को वहां जगह बनाने में कामयाबी मिल गयी। उन्होंने न सिर्फ 5 सीटें जीतीं, बल्कि कई सीटों पर महागठबंधन का खेल बिगाड़ने में भी कामयाब रही।

 15 साल की एंटी इनकंबेंसी का क्या हुआ

नीतीश कुमार अमूमन पिछले 15 साल से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। इस बीच विकास का काम ठीक से नहीं होने की वजह से लोगों में उनके खिलाफ नाराजगी थी। पिछले एक-डेढ साल में चमकी बुखार, पटना का जलजमाव, बाढ़ और लॉक डाउन में प्रवासी मजदूरों के सवाल को ठीक से हैंडल न करने से उनकी सरकार को विफल माना जाने लगा था। ऐसा लग रहा था कि सरकार के खिलाफ एंटीइनकंबेंसी है। उसका क्या हुआ। क्या वह खत्म हो गयी।

 नतीजे बताते हैं कि एंटी इनकंबेंसी खत्म नहीं हुई। हां, वह आधी राजद के पाले में गयी तो आधी बीजेपी के पाले में। वोटरों के एक वर्ग ने जहां तेजस्वी यादव में भरोसा जताया, वहीं दूसरा वर्ग जिसे लगता था कि अब बिहार में बीजेपी को फ्रंट रोल में आना चाहिए और जिन्हें ऐसा लगा कि तेजस्वी के आने से बिहार में फिर से जंगलराज आ सकता है, उन्होंने अपना भरोसा बीजेपी पर जताया। इसलिए नीतीश के खिलाफ तो नाराजगी दिखी, मगर जीत बीजेपी और एनडीए की हुई।

 क्या हुआ चिराग फैक्टर का

चिराग पासवान को अकेले लड़ाने के पीछे की राजनीति ही यही थी कि जदयू को नियंत्रित तरीके से नुकसान पहुंचाया जा सके। यह योजना काफी हद तक सफल भी रही। हालांकि जदयू की सीटें कम होने की यही अकेली वजह नहीं रही। उनकी सीटों पर कई जगह बीजेपी के कोर वोटरों ने उन्हें अकेला छोड़ दिया। हालांकि इस राजनीति में चिराग पासवान का भी बड़ा नुकसान हुआ। उसे एक ही सीट हासिल हुई। यह बीजेपी का रिवर्स स्विंग था, जिसे भारतीय चुनावी राजनीति में लंबे समय तक याद रखा जायेगा।

 इस भीतरघात को भुला देंगे नीतीश

यह साफ है कि नीतीश का हारना बीजेपी का भीतरघात ही है। मगर ऐसा लगता नहीं है कि नीतीश कुमार ने इस बात का कोई बुरा माना है। वे संभवतः इतने कमजोर हो गये हैं, या कुर्सी के प्रति इतने आसक्त हो गये हैं कि सीटें घट जाने पर भी सीएम बनने के लिए तैयार हैं। इस अपमान और भीतरघात का बदला लेने के उनके पास कई रास्ते थे। वे सीएम बनने से इनकार कर सकते थे, बाहर से समर्थन दे सकते थे, महागठबंधन के साथ जा सकते थे। मगर उन्होंने फिर से सीएम बनने का रास्ता चुना। संभवतः इसकी एक वजह यह हो सकती है कि वे सबसे लंबे समय तक बिहार के सीएम बनने का रिकार्ड बनाना चाहते हैं। बिहार के पहले सीएम श्रीकृष्ण सिंह का शासन 15 साल का रहा है। नीतीश अभी इस रिकार्ड से 9 महीने दूर हैं, क्योंकि बीच में 9 महीने के लिए जीतनराम मांझी सीएम बने थे।

 मगर जब बीजेपी बड़े भाई की भूमिका में रहेगी तो नीतीश कुमार को शासन चलाने में वैसी आजादी नहीं होगी, जैसे अब तक रही थी। अब तक उन्होंने बीजेपी को बिहार में खुलकर अपना एजेंडा चलाने नहीं दिया और लोहियावादी होने की अपनी छवि को किसी हद तक बचाया। मगर अब यह मुश्किल होगा। 

 (बिहार निवासी पुष्यमित्र स्वतंत्र लेखक और पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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